जगदेव प्रसाद (2 फरवरी, 1932 – 5 सितंबर, 1974) के समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के राजनीतिक प्लेटफॉर्म के बतौर जनसंघ था, जिसका नया अवतार भाजपा है। हालांकि, उस समय कांग्रेस के मुकाबले विपक्षी दायरे में जनसंघ छोटी ताकत थी। आरएसएस का विस्तार भी सीमित था। कांग्रेस का राजनीतिक एकाधिकार था। कांग्रेस के राजनीतिक एकाधिकार को तोड़ने का सवाल विपक्षी राजनीति के केंद्र में था। वर्ष 1967 में कांग्रेस के राजनीतिक एकाधिकार को चोट पड़ी थी। बिहार में संविद सरकार बनी थी। सरकार में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के साथ प्रजातांत्रिक सोशलिस्ट पार्टी (प्रसोपा), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) और जनक्रांति दल के अलावा जनसंघ भी शामिल था।
जगदेव प्रसाद संसोपा से नाता तोड़ने और संविद सरकार को हटाने के साथ कांग्रेस, जनसंघ, कम्युनिस्टों सहित संसोपा को भी द्विज नियंत्रित दल बताते हुए सामाजिक क्रांति को मूल मानते हुए नई राजनीतिक धारा गढ़ने की दिशा में बढ़े थे। इस दिशा में आगे बढ़ते हुए उनकी अगुआई में बना शोषित दल 1970 के 20 नवंबर को हिंदुस्तानी शोषित दल में परिणत हो गया था।
उस दौर में संसोपा सहित सेकुलर मानी जानी वाली अन्य पार्टियां भी गैर-कांग्रेसवाद के आधार पर जनसंघ के साथ चुनाव से सत्ता तक साझीदारी कर रही थी। वहीं जगदेव प्रसाद की अगुआई में आगे बढ़ रही नई राजनीतिक धारा का जनसंघ के प्रति अलग ही राजनीतिक स्टैंड था। हिंदुस्तानी शोषित दल ने 1971 के मध्यावधि लोकसभा चुनाव के घोषणापत्र में शोषित इंकलाब की कामयाबी के लिए प्रस्तुत कार्यक्रम में जनसंघ जैसे सांप्रदायिक दलों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे सामाजिक संगठनों को गैर-कानूनी घोषित करने को एजेंडा बनाया था। हिंदुस्तानी शोषित दल का स्पष्ट कहना था कि ऐसे संगठनों को खत्म किए बगैर शोषित जनता की इज्जत और रोटी की लड़ाई कामयाब नहीं हो सकती।
इस चुनाव में हिंदुस्तानी शोषित दल, झारखंड पार्टी और अंजुमन तरक्की उर्दू का इंकलाबी लोक मोर्चा बना था। संसोपा जनसंघ के साथ ही मोर्चे में शामिल थी। संसोपा और जनसंघ के राजनीतिक रिश्ते पर हिंदुस्तानी शोषित दल के चुनाव घोषणा पत्र में जमीन और दौलत के बंटबारे का नारा लगाने वाली संसोपा की जमीन और दौलत के बंटवारे का विरोध करने वाले जनसंघ के साथ दोस्ती पर सवाल उठाते हुए कहा गया था कि “हिंदू राज्य के हिमायती जनसंघ के साथ संसोपा की दोस्ती बेशर्म सिद्धांतहीनता की दोस्ती है। ईसाई और मुस्लिम विरोधी जनसंघ के साथ संसोपा की सांठ-गांठ ईसाइयों और मुसलमानों का सफाया करने में जनसंघ का हाथ मजबूत करेगी।”
स्पष्ट है कि हिंदुस्तानी शोषित दल जनसंघ को द्विज नियंत्रित दलों के बीच भिन्न किस्म का दल मानता था। यह दल जनसंघ और आएसएस के खतरनाक मंसूबे को देख पा रहा था और उसे शोषितों की लड़ाई के लिए चुनौती मानता था। इसलिए जनसंघ और आरएसएस को लेकर संसोपा से अलग राजनीतिक स्टैंड ले रहा था। हालांकि शोषितों की राजनीति की यह नई धारा आगे नहीं बढ़ पाई। लेकिन यह धारा जिस खतरे और चुनौती को देख पा रही थी, वह आज सामने खड़ा है। आज भाजपा-आरएसएस सत्ता पर काबिज है और खतरनाक मंसूबे को पूरा करने के अंतिम मंजिल की ओर बढ़ रहा है। संविधान व लोकतंत्र को ठिकाने लगा रहा है। शोषितों द्वारा हासिल उपलब्धियां खत्म कर रहा है और मुसलमान व अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक चौतरफा हमला झेलने के लिए अभिशप्त हैं।
बिहार की राजधानी पटना में जनसंघ के सम्मेलन के आयोजन के बाद 19 जनवरी, 1970 को जगदेव प्रसाद ने एक लेख लिखा था, जो जनसंघ की विचारधारा व राजनीति के बारे में उनकी सोच-समझ को बताता है। उनके शब्दों में—“जनसंघ की तजबीज में हिंदुस्तान की सबसे बड़ी समस्या या सबसे बड़ी मुसीबत मुसलमान हैं। जनसंघ इसी को इस देश का वर्ग संघर्ष मानता है।” जगदेव प्रसाद जनसंघ द्वारा ईसाइयों के खिलाफ भी कभी-कभी ऐसा ही जहर उगलने का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि “यह विष वमन जनसंघ की असली पूंजी है।” वे विष वमन की राजनीति के पीछे का सच और एजेंडा स्पष्ट करते हुए आगे कहते हैं– “आज तक का भारत दस प्रतिशत द्विजों का देश रहा है। जनसंघ द्विजवाद का पोषक है। भारत के द्विज साम्राज्यवादियों की असली समस्या अपने साम्राज्य को कायम रखने की है।”
जगदेव प्रसाद द्विज नियंत्रित दलों के लिए मुसलमान और ईसाई विरोधी अभियान चलाने को बिल्कुल स्वाभाविक बताते हैं। लेकिन वे जनसंघ की राजनीति को केवल सांप्रदायिक हिंसा-घृणा तक ही सीमित नहीं देखते हैं। वे कहते हैं– “शोषित आज भी द्विज के गुलाम हैं। ईश्वर, देवता, पूजा-पाठ, भाग्य, नक्षत्र, धर्म ये सभी शोषितों को गुलाम बनाए रखने के द्विजों के हथियार हैं। आज तक ब्राह्मणों ने काहिल और जाहिल बनाकर रखा है। आगे भी रखने की साजिशें रच रहे हैं। इन साजिशों की रहनुमाई जनसंघ कर रहा है।”
जनसंघ द्वारा पटना में आयोजित सम्मेलन स्थल का नाम चाणक्य नगर रखने पर जगदेव प्रसाद टिप्पणी करते हैं कि चाणक्य स्वयं ब्राह्मण था और उसने शूद्र सम्राट नंद और उनके वंश को जाल-फरेब करके नाश किया था। द्विज सभ्यता, संस्कृति और समाज के ठेकेदार जनसंघ का प्रेरणास्रोत शूद्रों के दुश्मन चाणक्य के नाम पर होना स्वाभाविक है। वे उल्लेखित करते हैं कि शोषितों को गुलामी की जंजीर में जकड़कर रखने वाले मनुस्मृति और चाणक्य नीति के रचयिता मनु और चाणक्य द्विज कुल में ही उत्पन्न हुए थे। वे जनसंघ द्वारा पटना सम्मेलन में मुस्लिम विरोधी भावना का इजहार करते हुए मुसलमानों के भारतीयकरण या हिंदीयाना करने के नारे के जवाब में कहते हैं कि “हिंदुस्तान में एक भी उदाहरण नहीं है जब किसी मुसलमान या ईसाई ने हिंदुस्तान का सौदा विदेशियों के साथ किया हो। इसके विपरीत मुसलमान की वफादारी के सबूतों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। पाकिस्तान के साथ भारत की लड़ाई में कश्मीर मोर्चे पर कर्नल उसमान और हमीद की बहादुरी और वफादारी को इस मुल्क का कोई गद्दार ही भूल सकता है।”
जगदेव प्रसाद स्पष्ट शब्दों में कहते हैं– “दरअसल भारतीयकरण होना चाहिए हिंदुस्तान के द्विजों का और द्विज मनोवृत्ति वालों का। ब्राह्मणों, भूमिहारों और राजपूतों का। सेठों, महासेठों और पूंजीपतियों का, जो अपने स्वार्थ के अलावा कुछ नहीं देखते। वास्तव में भारतीयकरण होना चाहिए जनसंघ का, जो हिंदुस्तानी साम्राज्यवादियों और देशद्रोहियों का नेतृत्व करता है।”
जगदेव प्रसाद जनसंघ के वैचारिक नाभि और उसकी राजनीति का केंद्रीय एजेंडा स्पष्ट करते हैं। यहां पर अन्य सेकुलर पार्टियों से जगदेव प्रसाद का दृष्टिगत फर्क सामने आता है। कहा जा सकता है कि जगदेव प्रसाद सेकुलर द्विज दृष्टि से निर्णायक तौर पर संबंध विच्छेद करते हैं। इसलिए जनसंघ के खिलाफ उनके राजनीतिक स्टैंड में द्विज साम्राज्यवादी निशाने पर होते हैं। जबकि आज भी सेकुलर कही जाने वाली पार्टियां सांप्रदायिकता के मूल में ब्राह्मणवाद को नहीं देखती हैं। वे सांप्रदायिक राजनीति के केंद्रीय एजेंडा के बतौर द्विज विशेषाधिकार को बनाए रखने को नहीं स्वीकारती हैं।
जगदेव प्रसाद मुसलमानों पर हमले को केवल सांप्रदायिक हिंसा-घृणा तक सीमित नहीं देखते हैं। वे कहते हैं कि आजाद भारत में मुसलमान भी द्विज साम्राज्यवाद से शोषित हैं। वे कहते हैं– “मुसलमान शोषित हैं, अमीर हों या गरीब। मुसलमान कभी शासक थे, तब वे शोषक थे, मगर आज वे शोषित हैं।” वे आगे कहते हैं– “मुसलमानों को द्विजों ने अव्वल दर्जे का शहरी नहीं रहने दिया।”
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वे कहते हैं कि अन्य शोषितों की तरह मुसलमान भी इस मुल्क में दूसरे-तीसरे दर्जे के शहरी हो गए हैं। अव्वल दर्जे के शहरी इस मुल्क में सिर्फ द्विज हैं। वे आजादी के बाद भारत की ठोस परिस्थिति में मुसलमानों के हालत के आधार पर ऐसा कह रह हैं। जगदेव प्रसाद कहते हैं– “मुसलमानों की जमीन और दौलत छिनती जा रही है। उनके रोजगार का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। इनको पाकिस्तानी करार देना और इनका कत्लेआम करा देना इस मुल्क में एक आम बात हो गई है।”
मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक हिंसा पर जगदेव प्रसाद कहते हैं– “मुसलमानों के कत्लेआम की साजिश द्विज करते हैं। धर्म के नाम पर शोषितों को ही मुसलमानों के सामने खड़ा कर देते हैं।” वे मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक मुहिम के दूसरे आयाम को भी स्पष्ट करते हैं। यह सच है कि भले ही मुसलमानों का धर्म अलग हो, वे वर्ण-जाति व्यवस्था से बाहर हों, लेकिन द्विज साम्राज्यवादी मुसलमानों को भी शिकंजे से बाहर नहीं छोड़ते हैं। वे मुसलमानों को भी दलितों, आदिवासियों व पिछड़ों के साथ दोयम दर्जे की हैसियत में ले आते हैं। वहीं, मुसलमानों के साथ हिंसा-घृणा मुहिम द्विज साम्राज्यवादियों की खास रणनीति के बतौर सामने आता है। वह इस रणनीति में मुसलमानों को सीधे निशाने पर लेता है, लेकिन शोषितों को गोलबंद कर सामने करता है। हिंदू पहचान उभारते हुए उसे द्विज बाड़े में कैद रखता है। ब्राह्मणवाद विरोधी चेतना को नष्ट करने के साथ ही उसके विद्रोह व प्रतिरोध की आंतरिक चुनौती से भी निपटता है।
यहां 1970 के चाईबासा दंगा को उल्लेखित करते हुए जगदेव प्रसाद की टिप्पणी गौरतलब है– “चाईबासा का दंगा, दंगा नहीं, कत्लेआम है। मौजूदा मजिस्ट्रेसी पर ऊंची जाति का कब्जा है। यही कारण है कि ऊंची जात के हिंदू जिनका पुलिस और मजिस्ट्रेसी पर कब्जा है, दंगे करवाते हैं।” इस प्रकार जगदेव प्रसाद सरकारी तंत्र पर ऊंची जात के कब्जे का इसके सांप्रदायिक चरित्र के साथ रिश्ते को चिह्नित करते हैं। आजाद भारत में पुलिस-नौकरशाही का सांप्रदायिक चरित्र और दंगों में मुसलमान विरोधी भूमिका भी सर्वविदित है। इस सच पर आज कोई सवाल खड़ा नहीं हो सकता है कि आजादी के बाद इस मुल्क के सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक समूह-मुसलमानों के हिस्से सांप्रदायिक हिंसा-नफरत के साथ जीवन के हरेक क्षेत्र में हाशियाकरण आया है।
अंतिम तौर पर यह सवाल राज्य सत्ता को और आधुनिक सेकुलर लोकतांत्रिक राष्ट्र निर्माण का सवाल है। अपने समय में जगदेव प्रसाद इस सवाल का जवाब देते हैं। वे समाज और राष्ट्र निर्माण में द्विजों को निर्णायक हैसियत से हटाने के लिए ही सामाजिक क्रांति को मूल बताते हुए उसे पूरा करने का कार्यभार प्रस्तुत करते हैं। जगदेव प्रसाद जब मुसलमानों को दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों के साथ शोषित वर्ग में रखते हैं तो उसके शोषित वर्ग में होने के ठोस आधार को स्पष्ट करते हैं। वे भारत की ठोस परिस्थिति में शोषितों के वर्ग दुश्मन के बतौर द्विज साम्राज्यवाद को चिह्नित करते हैं और एक वर्ग के बतौर लक्ष्य भी स्पष्ट करते हैं।
यह स्पष्ट है कि जनसंघ के बाद अब भाजपा के बतौर बढ़ती धारा की राजनीति हिंदू पहचान उभारते हुए हिंदू-मुस्लिम बायनरी में ही आगे बढ़ रही है। वहीं सेकुलर राजनीति भी हिंदू-मुस्लिम बायनरी में ही मुकाबले के लिए खड़ी होती है और नरम हिंदुत्व के आगोश में सिमटती है। सेकुलर राजनीतिक धाराएं सांप्रदायिक मुहिम को द्विजों की साम्राज्यवादी रणनीति के बतौर नहीं देखती हैं और न ही हिंदू पहचान के राजनीतिक चरित्र व शोषित विरोधी अंतर्वस्तु को पकड़ पाती हैं।
लेकिन जगदेव प्रसाद हिंदू-मुसलमान के बायनरी में नहीं फंसते हैं। वह ऊंची जात बनाम शोषित वर्ग के बायनरी में एक वर्गीय राजनीति गढ़ने की पहल लेते हैं। शोषितों की निछक्का पार्टी और सामाजिक क्रांति को मूल मानने वाली राजनीति गढ़ने का प्रयोग भाजपा का निर्णायक मुकाबले के लिए शोषितों के आंदोलन और राजनीति के लिए रास्ता दिखाता है। ऐसी राजनीति, जो ब्राह्यणवाद को संपूर्णता में निशाने पर ले और सेकुलरिज्म का परचम भी बुलंद करे। ऐसी राजनीति द्विज नियंत्रण या जाल से बाहर ही खड़ा हो सकती है। वह मुसलमानों पर हमले और उसके सवालों पर चुप्पी साध कर उसे महज वोट बैंक बना कर नहीं रख सकती है।
संदर्भ
- डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह, शशिकला, जगदेव प्रसाद वाङ्मय, सम्यक प्रकाशन, द्वितीय संस्करण-2018
- प्रसन्न कुमार चौधरी व श्रीकांत, बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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