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राम के नाम पर नहीं, सामाजिक न्याय के मुद्दों पर होगा चुनाव : प्रकाश आंबेडकर

यह समझा जाना चाहिए कि जातिगत जनगणना समाज की मांग है, जिसे भाजपा ने खारिज करके रखा है। तो एक तरह से जो जनगणना की मांग करने वाला जो समाज हैं, उससे भाजपा कट गई है। पढ़ें, वंचित बहुजन आघाड़ी के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रकाश आंबेडकर का यह साक्षात्कार

राम मंदिर उद्घाटन के बाद बिहार में नीतीश कुमार के पाला बदलने के बाद ‘इंडिया’ गठबंधन और जातिगत जनगणना के मुद्दे की प्रासंगिकता पर सत्ता समर्थक विश्लेषक सवाल उठ रहे हैं। वे इसे नरेंद्र मोदी की जीत बता रहे हैं तो वंचित बहुजन आघाड़ी के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रकाश आंबेडकर इसे नरेंद्र मोदी की विफलता करार दे रहे हैं। पढ़ें, दूरभाष पर उनसे किया गया यह साक्षात्कार

बिहार में नीतीश कुमार के पाला बदलने के बाद देश की राजनीति को आप किस रूप में देख रहे हैं? 

एक तो मैं यह समझता हूं कि राम मंदिर उद्घाटन के बाद धर्म की राजनीति का वजूद खत्म हो गया। चूंकि जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा 22 जनवरी का जो जूनून है, वह भी उतरते चला जाएगा। इसके बाद होली के जूनून की शुरुआत होगी। अब इसमें जो खेल है, वह यह कि मोदीजी अपने ही खेल में फंस गए। मतलब जब धर्म के आधार पर सीधे लड़ाई होती थी तो उनको हमेशा फायदा होता था। पहले वे यह नॅरेटिव सेट करते थे कि मुसलमानों की हिमायत करनेवालों को वोट दोगे या हिंदुओं की बात करने वालों को। इसमें मुझे लगता है कि मोदीजी फंस गए हैं, क्योंकि जिस तरह से वे संगठन तोड़ रहे हैं और गठबंधन को बिखरा रहे हैं, उससे धर्म की राजनीति का कोई वजूद नहीं होगा और फिर जो उम्मीदवार होंगे उन उम्मीदवारों के समाज की राजनीति की भी बात चलेगी। यही से समाज की राजनीति की बात की शुरुआत होती है। यहां मैं मानता हूं कि मोदीजी और भाजपा विफल रहे हैं, क्योंकि उन्होंने धर्म को तवज्जो दिया और जातिगत जनगणना को नहीं होने दिया।

यह समझा जाना चाहिए कि जातिगत जनगणना समाज की मांग है, जिसे भाजपा ने खारिज करके रखा है। तो एक तरह से जो जनगणना की मांग करने वाला जो समाज हैं, उससे भाजपा कट गई है। 

दूसरी बात यह है कि जो मुसलमान हैं, वे जानते हैं कि भाजपा गठबंधन इस बार भी उन्हें अपना उम्मीदवार नहीं बनाएगा। कम-से-कम भाजपा तो नहीं ही बनाएगी। उसके अन्य घटक दल चाहें तो अपवाद के रूप में कुछ को अपना उम्मीदवार बना भी लें। तो एक बात यह होगी कि मुस्लिम उम्मीदवार कम होंगे और मुस्लिम भी उन्हें ही वोट करेंगे, जिनमें भाजपा गठबंधन को हराने की क्षमता सबसे अधिक होगी। तो हिंदू-हिंदू होने की वजह से वापिस धर्म की राजनीति का मुद्दा नहीं बचता। इस बार मुसलमान कह रहा है कि मोदी को अगर हराना है, आरएसएस और भाजपा को हराना है तो मुसलमान की तरह वोटिंग करें ना कि कांग्रेसी मुसलमान, ना लाल सलाम, ना नीतीश कुमार, ना सपा के मुसलमान की तरह। और मैं यह समझता हूं कि इससे भाजपा को बहुत भारी झटका लग सकता है, क्योंकि कहीं भी लाख के नीचे मुसलमान नहीं हैं। मतलब उत्तर भारत की जो राजनीति है, खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार, इन दोनों राज्यों में तो मुसलमान काफी बड़ी संख्या में हैं। उनमें जो सोच आ रही है वह यह है कि जो हमसे हमारी बात करते हैं, हम वोट उसी को देंगे। भाजपा के उम्मीदवार को छोड़कर जिसके पास अधिकांश समाज के वोट हैं, उसको वोट देंगे। इसलिए जो बिहार में एकतरफा लड़ाई होने वाली थी, नीतीश कुमार को गठबंधन से निकालकर भाजपा ने उसे बहुदलीय बना दिया है। इससे नुकसान उसी का होगा। 

बहुदलीय कैसे हो गई? 

देखिए, ऐसा है कि एक पार्टी लालू की हो गई। कांग्रेस के साथ गठबंधन होगा या नहीं होगा, अभी मालूम नहीं। लेकिन जहां तक मेरी जानकारी है, कांग्रेस अपना वोट बटोरने की राजनीति करेगी। तो इसका परिणाम यह होगा कि एक और हिंदू उम्मीदवार सामने आएगा। ये (भाजपाई) अब धर्म की राजनीति तो खेल नहीं सकते और विकास की राजनीति इनकी है नहीं। जैसे मैंने पहले कहा कि समाज की राजनीति जातिगत जनगणना की मांग कर रही है, जिसे भाजपा खारिज कर चुकी है। वह ओबीसी मुसलमान के साथ भी नहीं है। वह मूल रूप से सवर्णों के वोटों पर निर्भर है और सवर्ण वोट उनको बहुमत नहीं दे सकते। तो एक तरह से मैं यह कहूं और विशेषकर बिहार के संदर्भ में कहूं, तो लालू यादव की स्थिाति अब मजबूत हो गई है। अगर लालूजी दलित संगठनों के साथ बैठकर तालमेल करेंगे तो उनकी ताकत और बढ़ेगी, क्योंकि दलित भी भाजपा के साथ जाना नहीं चाहेंगे। लालूजी में एक बात यह है कि वे अपनी विचाराधारा बदलने के लिए तैयार नहीं हैं। मैं यह समझ रहा हूं कि लालू प्रसाद के कारण भी कांग्रेस इसी पैटर्न पर राजनीति करने की कोशिश करेगी। दलित वर्ग नीतीश कुमार और भाजपा के साथ जा नहीं सकता तो इनको कहीं-न-कहीं प्लेटफॉर्म तो चाहिए। कांग्रेस के रूप में उन्हें एक प्लेटफॉर्म मिल गया है। इसलिए कांग्रेस मुझे नहीं लगता कि एडजस्टमेंट की राजनीति बिहार में करेगी। वही बात मैं देख रहा हूं यूपी में। पिछले विधानसभा के चुनाव में चंद्रशेखर आजाद के साथ सपा की बातचीत हुई। बैठक से बाहर आकर जिस तरह से उसने बयान दिया कि अखिलेश जी को दलितों का वोट चाहिए, दलितों का नेता नहीं चाहिए, तो इसने अखिलेश को काफी डैमेज किया। अच्छा लेकिन इस बार उनका (सपा का) कोई प्रयास भी नहीं है कि किसको सामने लाना है या किसको नहीं लाना है। तो ये जो गैप बन रहा है, इस गैप को कांग्रेस भरना चाह रही है, ऐसी हमारी जानकारी है। और स्थिति बन रही है कि किसी भी हालत में अगली बार मोदी प्रधानमंत्री नही बनने जा रहे हैं। 

प्रकाश आंबेडकर, राष्ट्रीय अध्यक्ष, बहुजन वंचित आघाड़ी

एक बड़ा सवाल तो यह है कि इंडिया गठबंधन साकार नहीं हो पा रहा। इसमें कांग्रेस की भूमिका को आप कैसे देखते हैं?

देखिए, बड़े भाई की जो भूमिका रही है कि एक तो थोप देना, और नहीं तो ठोंक देना, यह इसी का नतीजा है। दूसरा यह है कि कांग्रेस जो है, वो खड़गे के माध्यम से समझौते की राजनीति करना चाह रही है और राहुल गांधी के माध्यम से पार्टी को बढ़ाने की राजनीति कर रही है। इसका मतलब यह है कि इनका 2024 का लक्ष्य नहीं है। बाकी जो क्षेत्रीय पार्टियां हैं, उनका अपना लक्ष्य है। मतलब चार राज्यों, जो मैं समझता हूं अहम हैं। उनमें एक पश्चिम बंगाल, दूसरा यूपी, तीसरा बिहार और चौथा महाराष्ट्र है। इन चार राज्यों में अभी 160 सीटें भाजपा के पास हैं। अब लड़ाई जो चल रही है, वो इन्हीं राज्यों में चल रही हैं। कांग्रेस अगर मोदी को हराना चाहती है तो वह कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगी के बजाय इस पर विचार करेगी कि किस ढंग से मोदी को हराया जा सकता है। इन राज्यों में उसे पांच-सात सीटें मिलती रहेंगीं। चार-पांच जीतकर आएं तो भी कांग्रेस का वजूद बनता रहेगा। और भाजपा अगर सत्ता में नहीं आती है तो एक स्थान बनेगा, जिसको कांग्रेस भर सकती है। बाकी पार्टियां नहीं भर सकतीं। तो मैं समझता हूं कि कांग्रेस के पास अपनेआप को पुन: स्थापित करने का मौका है, वह उसे गंवा रही है। 

यह भी पढ़ें – देश में सामाजिक न्याय का थर्मामीटर है जातिगत जनगणना : नाना पटोले

लेकिन आप यह भी कह रहे हैं कि इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए राह बहुत मुश्किल है और यह भी कह रहे हैं कि वो प्रधानमंत्री नहीं बन सकेंगे, तो इसके पीछे आपका आधार क्या है?

ऐसा है कि नरेंद्र मोदी ने विपक्ष में किसी को अपना मित्र नहीं रहने दिया है। न ही किसी राजनीतिक पार्टी के साथ इनके संबंध अच्छे हैं। ये एक हिटलर की तरह डरा-धमकाकर अपने साथ में रखा हुआ है। जिस दिन इनके पास पूर्ण बहुमत जो आज इनके पास है, वो खत्म हुआ और निर्भरता की लड़ाई शुरू हुई उस समय जितने भी दल इनको सहयोग देना चाहेंगे उनकी पहली शर्त होगी– “नो मोदी”। यही कारण है कि मोदी नहीं आ सकते।

एक सवाल दलित राजनीतिक दलों का है। वो चाहे बसपा हो, चाहे आप की पार्टी हो, आपको नहीं लगता है कि अब समय आ गया है जब सारे दलित दलों के बीच में एक समन्वय की स्थिति हो?

एकता बनाने में कोई हर्ज नहीं है। लेकिन जहां तक आप दलित राजनीति की बात करते हैं, ये सब चंगुल में फंसे हुए हैं। मायावती अपने मामलों में फंसी हुई हैं। चंद्रशेखर आजाद अपनी राजनीति करता है, जिसकी कोई वजह नहीं। बाकी रहा कौन? हमलोग भी महाराष्ट्र में अपना वजूद बनाकर बैठे हैं। यह जरूर है कि यदि अभी भी हम एक हो जाएं तो स्थिति बेहतर हो सकती है। 

फिर भी एक जरूरत तो बनती है कि देश के स्तर पर एक नया दलित संगठन बने?

देखिए, सवाल ऐसा है कि इंडिया गठबंधन आज टूट गया। यह तथ्य है कि इंडिया गठबंधन ने मायावती को बुलाया तो वहां मायावती की शर्त थी कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाया जाय। आपको याद होगा कि 2009 के चुनाव में पूरे गठबंधन ने मायावती को प्रधानमंत्री घोषित किया। प्रचार भी हुआ, लेकिन मायावती ही बाहर निकल गईं। 2009 में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और जब वे न्यूक्लियर बिल लेकर आए तब चंद्रबाबू नायडू ने उसका विरोध किया और उस वक्त एक गठबंधन बना। उस गठबंधन में मायावती को भी शामिल किया गया। बसपा उस समय शामिल हो गई और तब नायडू ने कहा कि प्रधानमंत्री के लिए मायावती को प्रस्तावित करते हैं। लेकिन मायावती खुद ही वहां से हट गईं। तो ये जो है मायावती का रवैया कि प्रधानमंत्री बनूं तो मैं आपके साथ आने को तैयार हूं। यह कोई मोदी को हटाने का प्रोग्राम नहीं है ना? यह तो व्यक्तिगत प्रोग्राम है। उसके लिए दूसरी पार्टियां क्यों मदद करेंगी? इसका सीधा-सीधा मतलब है कि पीछे से कोई डोर खींच रहा है। अब ऐसा है कि यूपी में लोग विकल्प ढूंढ़ रहे हैं और दुर्भाग्य यह है कि वहां जितने भी नेता हैं, उनमें हिम्मत नहीं है कि वे राज्य का नेतृत्व करें। 

एक आखिरी सवाल मराठा आरक्षण के बारे में। अब यह साफ हो गया जिसे एकनाथ शिंदे ने कह दिया कि अभी जब तक फैसला नहीं होता है तब तक मराठों को ओबीसी के तहत आरक्षण मिलता रहेगा। आपकी प्रतिक्रिया क्या है?.

ना-ना। ऐसा नहीं है। यहां (महाराष्ट्र में) मराठा भी हैं और कुनबी भी। कुनबी जो हैं, पहले से ही आरक्षित हैं। अब जो मराठा हैं, गरीब हो चुके हैं, इसलिए वे आरक्षण मांग रहे हैं। तो उनका आरक्षण जो है वह वैसे का वैसे ही बरकरार है। ओबीसी का जो आरक्षण है, वो तो मिलता रहा है। पहले कोई लेता था और कोई नहीं लेता था। तो अब स्थिति बदली है और इस निर्णय के खिलाफ ओबीसी पूरी ताकत से लड़ रहे हैं, और हम उन्हें अपना समर्थन दे रहे हैं। ओबीसी के हितों की हकमारी नहीं होनी चाहिए।

तो क्या इसका प्रभाव लोकसभा चुनाव पर भी पड़ेगा?

हां, काफी प्रभाव पड़ेगा, आप लोगों को साफ-साफ यह दिखाई देगा। 

(संपादन : समीक्षा/राजन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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