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मंडल-पूर्व दौर में जी रहे कांग्रेस के आनंद शर्मा

आनंद शर्मा चाहते हैं कि राहुल गांधी भाजपा की जातिगत पहचान पर आधारित राजनीति को पराजित करें, मगर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सोच को त्यागे बगैर। यह भला कैसे संभव है? पढ़ें, प्रो. कांचा आइलैय्या शेपर्ड की यह विश्लेषणात्मक टिप्पणी

आनंद शर्मा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं। उन्होंने कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को एक पत्र लिखकर लोकसभा आम चुनाव के लिए कांग्रेस के घोषणापत्र में जाति जनगणना करवाने का वायदा शामिल करने का विरोध किया है। खड़गे सन् 1960 के दशक में दामोदरन संजीवैया के बाद कांग्रेस के पहले ऐसे दलित अध्यक्ष हैं, जो जनता के बीच दिखलाई पड़ते हैं। आनंद शर्मा ने अपने ख़त में लिखा है कि कांग्रेस को पहचान की राजनीति की खिलाफत की अपनी पुरानी नीति पर कायम रहना चाहिए। 

अपने पत्र, जिसे 21 मार्च को मीडिया को जारी किया गया, में शर्मा लिखते हैं, “कांग्रेस ने न तो कभी पहचान की राजनीति की है और ना ही उसका अनुमोदन किया है। इस महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दे पर हमारी पुरानी नीति से हटना चिंता का विषय है।” उन्होंने यह भी लिखा कि, “यह (जाति जनगणना) विचार, पूर्व प्रधानमंत्रियों, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की विरासत का असम्मान है।” 

जाति जनगणना के संबंध में यह राय रखने वाले शर्मा अकेले नहीं हैं। सभी पार्टियों के द्विजों (ब्राह्मण, बनिया, कायस्थ, खत्री और क्षत्रिय) नेताओं और बुद्धिजीवियों की यही राय है। वे सभी ऐसे किसी भी कदम – वह चाहे कानूनी हो या गणना से संबंधित – के विरोधी हैं जो भारत की राजनैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक प्रणालियों पर द्विजों की पकड़ को कमज़ोर करेगा। 

यह सर्वज्ञात है कि भारतीय जनता पार्टी, जाति जनगणना और आरक्षण पर 50 प्रतिशत की ऊपरी सीमा को हटाने की कट्टर विरोधी है। ज्ञातव्य है कि अगर राज्य के ढांचे में सभी जातियों को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण दिया जाना है तो उसके लिए इस ऊपरी सीमा को हटाना ही होगा। मगर आनंद शर्मा के विपरीत, अन्य पार्टियों के द्विज नेता अपना मत सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने के लिए तैयार नहीं है। 

द्विजों की दृष्टि में जातिगत पहचान पर आधारित राजनीति, विशेषकर आरक्षण और सत्ता में साझेदारी से जुड़े सभी मुद्दों पर जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सोच ही संदर्भ बिंदु है। आनंद शर्मा और उनके जैसे नेताओं को लगता है कि उसी परिवार के राहुल गांधी अपने पुरखों की नीति से भटक रहे हैं और पहचान-आधारित राजनीति को प्रोत्साहन दे रहे हैं। मगर इसके साथ ही वे यह भी चाहते हैं कि राहुल गांधी कांग्रेस को शूद्र/ओबीसी/दलित/आदिवासी वोट दिलवाएं ताकि पार्टी सत्ता में आ सके।

आरएसएस-भाजपा ने सोच-समझकर नरेंद्र मोदी को बढ़ावा दिया, क्योंकि वे एक ऐसी जाति से हैं जो ओबीसी के रूप में सूचीबद्ध है। हम सब जानते हैं कि चुनावों में मोदी की सफलता उनकी स्वयं की ओबीसी पहचान पर आधारित राजनीति और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में अत्यंत-पिछड़ा वर्गों (एमबीसी) को भाजपा के पक्ष में गोलबंद करने के उनके प्रयासों का परिणाम है। आनंद शर्मा चाहते हैं कि राहुल गांधी भाजपा की जातिगत पहचान पर आधारित राजनीति को पराजित करें, मगर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सोच को त्यागे बगैर। यह भला कैसे संभव है? 

कांग्रेस के नेता आनंद शर्मा व राहुल गांधी

आनंद शर्मा और उनके साथी चाहते हैं कि राहुल गांधी मंडल-पूर्व की राजनीति करते रहें, जो अंततः कांग्रेस का सत्यानाश कर देगी। शर्मा जैसे नेताओं को यह नहीं दिखलाई दे रहा है कि भाजपा और मोदी ने जातिगत और धार्मिक पहचानों को चुनावी राजनीति के मंच के केंद्र में स्थापित कर दिया है।

अगर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी आज होते तो न तो वे प्रधानमंत्री होते और न ही राहुल गांधी की तरह लड़ाका राजनीतिज्ञ होते। वे वहीं होते, जहां आनंद शर्मा आज हैं – राजनीति के हाशिए पर। इसके विपरीत, राहुल आज की परिस्थितियों से सामंजस्य बैठाने की कोशिश कर रहे हैं और यही कारण है कि उनकी यात्राएं – भारत जोड़ो और भारत न्याय – इतनी प्रभावी रही हैं। 

आनंद शर्मा ने धार्मिक पहचान का मसला उठाया है। मगर मुस्लिम अल्पसंख्यक पहचान, कांग्रेस की राजनीति का हिस्सा रही है। बल्कि संघ-भाजपा हमेशा से गांधी-नेहरू परिवार की राजनीति पर ‘मुस्लिम-परस्त’ का लेबल चस्पा करते रहे हैं। संघ हमेशा से कांग्रेस को ‘तुष्टिकरण’ करने का आरोपी बताता रहा है और अब मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने इसी आरोप के सहारे पूरे देश में ओबीसी को गोलबंद करने में सफलता हासिल कर ली है।

कांग्रेस के द्विज नेता, जो राहुल गांधी का विरोध कर रहे हैं, यह नहीं समझ पा रहे हैं कि राहुल ने बड़ी कुशलता से सामाजिक न्याय का जो एजेंडा सामने रखा है, वह मंडल के बाद के घटनाक्रम और संघ/भाजपा की जाति के बारे में सोच के संदर्भों में कांग्रेस को नए सिरे से गढ़ने का प्रयास है। 

जातिगत पहचान, विशेषकर ओबीसी पहचान, मंडल आंदोलन और उसके बाद वी.पी. सिंह द्वारा मंडल आयोग की रपट को लागू करने (भले ही उन्होंने मंडल आयोग की केवल एक सिफारिश को लागू किया था) के नतीजे में जातिगत पहचान, विशेषकर ओबीसी पहचान, देश में एक नई ताकत बन कर उभरी है। 

चूंकि राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने मंडल रिपोर्ट के कार्यान्वयन का विरोध किया था, इसलिए शूद्र/ओबीसी ने उस पार्टी से दूरियां बना लीं। शूद्र/ओबीसी के बड़े तबके को लगने लगा कि कांग्रेस द्विजों और मुसलमानों की पार्टी है। उन्हें लगा कि इस पार्टी की यही पहचान है। अगर कांग्रेस को यह आम चुनाव, जिसमें शूद्र/ओबीसी के मत सबसे महत्वपूर्ण हैं, को पाना है तो उसे अपनी इस पहचान को बदलनी होगी। 

आनंद शर्मा गलत कह रहे हैं कि इंदिरा गांधी और राजीव को पहचान की राजनीति स्वीकार्य नहीं थी। और ना ही आनंद शर्मा स्वयं पहचान की राजनीति से मुक्त हैं। उन्हें लगता है कि शर्माओं को यह परिभाषित करने का हक है कि क्या चीज़ पहचान है और क्या नहीं है। उनका सरनेम उनकी ब्राह्मण पहचान की उद्घोषणा कर रहा है। इसी पहचान के कारण उन्हें राज्यसभा में नामांकन के ज़रिये राजनैतिक पद हासिल करने का मौका मिला, भले ही वे कोई प्रत्यक्ष चुनाव न जीत सके हों। वे शूद्र/ओबीसी पहचान को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे द्विज अपनी सत्ता का एक हिस्सा खो देंगे। उनकी अपेक्षा यह है कि शूद्र/ओबीसी बिना सत्ता में हिस्सा मांगे उन्हें वोट देते रहें। 

इंदिरा-राजीव के ओबीसी आरक्षण के विरोध के कारण ही देश में संघ और भाजपा की राजनीति परवान चढ़ सकी। इसके नतीजे में अनेक शूद्र/ओबीसी क्षेत्रीय दल उभरे, जिन्होनें कांग्रेस को कमज़ोर किया। कांग्रेस ने अपनी राजनीति में मुस्लिम अल्पसंख्यक पहचान को स्वीकृति दी, मगर जातिगत पहचान को स्वीकार नहीं किया। 

आनंद शर्मा की तथाकथित समावेशी राजनीति का अर्थ है– शूद्र/ओबीसी/एससी/एसटी के मत हासिल करते हुए भी द्विजों का वर्चस्व बनाए रखना। मुसलमान कांग्रेस को वोट देते आए हैं और उनके श्रेष्ठि वर्ग को भी सत्ता में (अपेक्षाकृत कम) हिस्सेदारी दी गई है। अब संघ-भाजपा पसमांदा मुसलमानों की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे हैं, क्योंकि उन्हें अहसास है कि मुसलमानों में भी जातिगत विभाजन हैं। 

शर्मा शायद अब भी मंडल-पूर्व की दिनों में जी रहे हैं। पूर्व में शूद्र, आदिवासी और दलित सत्ता में वाजिब हिस्सा पाए बगैर कांग्रेस को वोट देते रहे हैं। अब यह नहीं चलेगा। हालात बदल गए हैं। ओबीसी इस बात को समझते हैं कि एक ऐसे चुनाव जिसमें जाति जनगणना वोट हासिल करने का एक अहम मुद्दा बन चुका है, के ठीक पहले कांग्रेस को संकट में डालने के पीछे आनंद शर्मा के क्या वैचारिक लक्ष्य हैं। वे कांग्रेस को और कमज़ोर करना चाहते हैं। 

कांग्रेस को राहुल गांधी के सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष, जिसका ऐलान उन्होंने अपनी दो यात्राओं के दौरान किया है, का समर्थन करना चाहिए। मुंबई में आंबेडकर की चैत्य भूमि में 16 मार्च को न्याय यात्रा के समापन के अवसर पर राहुल ने संविधान की उद्देशिका का वाचन किया, जो न्याय (जिसमें सामाजिक न्याय शामिल है) की बात करती है। इस कार्यक्रम में सैकड़ों लोग शामिल थे, जिनमें एक मैं भी था। 

आनंद शर्मा न तो भारत जोड़ो यात्रा में नज़र आए और न ही न्याय यात्रा में। अब उनकी पोल खुल चुकी है। 

(यह आलेख पूर्व में वेब पत्रिका ‘द वायर’ द्वारा अंग्रेजी में 29 मार्च, 2024 को व यहां लेखक की सहमति से हिंदी में प्रकाशित, अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कांचा आइलैय्या शेपर्ड

राजनैतिक सिद्धांतकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता कांचा आइलैया शेपर्ड, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद के सामाजिक बहिष्कार एवं स्वीकार्य नीतियां अध्ययन केंद्र के निदेशक रहे हैं। वे ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू’, ‘बफैलो नेशनलिज्म’ और ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ शीर्षक पुस्तकों के लेखक हैं।

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