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‘मैं धंधेवाली की बेटी हूं, धंधेवाली नहीं’

‘कोई महिला नहीं चाहती कि उसकी आने वाली पीढ़ी इस पेशे में रहे। सेक्स वर्कर्स भी नहीं चाहतीं। लेकिन जो समाज में बैठे ट्रैफिकर हैं, वे ऐसा चाहते हैं, क्योंकि इससे उनके घर में पैसा आता है। उनके गिरेबान पर हाथ डालना सरकार और प्रशासन के वश की बात नहीं है।’ पढ़ें, नसीमा खातून की कामयाबी की कहानी, उनकी ही जुबानी का दूसरा भाग

नसीमा ख़ातून पिछले दो दशकों से यौनकर्मियों की संतानों की पहचान और अस्मिता को लेकर संघर्ष और जन-जागृति का काम कर रही हैं। वह यौनकर्मियों के बच्चों के शिक्षा व अधिकारों के लिए काम करती रही हैं और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सलाहकार समिति की सदस्य हैं। इसके साथ ही वो यौनकर्मियो का सामुदायिक संगठन ‘परचम’ का संचालन करती हैं। इतना ही नहीं, वह यौनकर्मी समुदाय की आवाज़ और पहचान को अभिव्यक्ति देने के लिए हस्तलिखित त्रैमासिक पत्रिका ‘जुगनू’ निकालती हैं। इन सबके अलावा वह राजस्थान नागरिक मंच महिला प्रकोष्ठ की महासचिव भी हैं। यह उनकी ही कहानी है और उनकी ही जुबानी है। पढ़ें, इसका दूसरा भाग

पहले भाग से आगे

हमारा पंगा कुछ पत्रकार बंधुओं से भी हुआ। एक पत्रकार ने अपनी पत्रिका में लिखा कि नसीमा धंधे के लिए जन्मी और पली-बनी है। मैंने उनसे पूछा– “भैय्या, यह नसीमा कौन है, जिनके बारे में आपने लिखा है?” तो उन्होंने हंसते हुए कहा कि आप ही तो हो। तब मैंने उनसे कहा कि वह तो ठीक है कि मैंने आपसे खुलकर सारी बातें बताई थी कि मैं धंधेवाली की बेटी हूं, लेकिन धंधेवाली नहीं, फिर आपने ऐसा क्यों लिखा कि मैं धंधे के लिए ही जन्मी, पली और बनी? इस पर उऩ्होंने शायराना अंदाज में कहा– अरे छोड़िए, आप तो जानती ही हैं कि क्या होता है। तब मैंने भी उनसे पूछा कि क्या होता है? आप पत्रकार हो तो आपका बेटा भी पत्रकार बनेगा क्या? तो वो कहने लगे कि नहीं नहीं, वह तो आईएएस की तैयारी कर रहा है। इस पर मैंने उनसे कहा कि मेरी मां सेक्स वर्कर है तो मैं भी सेक्स वर्कर बनूंगी, यह आपने कैसे तय कर लिया? हो सकता है कि वह भी आईएएस बनना चाहती हो। फिर आप यह क्यों नहीं लिख सकते कि धंधेवाली के बेटी आईएएस बनना चाहती है। 

मेरी ये बातें उनके अहंकार को लग गई और वे कहने लगे कि तो क्या कर लीजिएगा आप मेरा? मैंने कहा कि जैसे आप मेरे बारे में लिखने का अधिकार रखते हैं, वैसे ही मुझे भी बोलने का अधिकार है। 

इस पूरे प्रकरण पर मैंने जिला न्यायालय में काम करने वाले साथियों से बात की कि मेरे साथ ऐसा ऐसा हुआ है, आप लोग बताइए कि आप क्या मदद कर सकते हैं? क्योंकि मैं उनके साथ जुड़ी थी, तो उऩ्होंने कहा कि यह तो ग़लत है। हम सब जानते हैं कि ‘परचम’ बच्चों का ग्रुप है और समाज में निकलकर काम कर रहा है। इसके बाद उन्होंने पत्रकार और पत्रिका को एक सम्मन भेजा कि आप अगले अंक में इसका खंडन कीजिए और 15 दिनों के अंदर जवाब दीजिए, नहीं तो हम आगे की कार्रवाई करेंगे। नोटिस मिलने के बाद पत्रिका के संपादक लोगों ने बहुत अच्छे से बात की और खंडन छापा। इसके बाद फिर 5-6 पन्नों की स्टोरी प्रकाशित की। उन लोगों यह माना कि उनकी सोच और समझ में गड़बड़ी थी। माफ कर दीजिए। तब हमलोगों ने मामले को वहीं रफ़ा-दफ़ा कर दिया।  

इस तरह की चीजें झेलते हुए और कई सफ़र तय करते-करते हम यहां तक पहुचे हैं। ‘परचम’ संस्था के ज़रिए हम अपनी पहचान का जो संकट है, उसे लेकर काम कर रहे हैं। यहां तक पहुंचकर अब हमने जाना कि सिर्फ़ हमलोग ही नहीं डरे हुए हैं। पहले हमें तो लगता था कि केवल हमलोग ही डरे हुए हैं, हमलोग ही भाग रहे हैं, लेकिन जब हम बाहर निकले और लोगों से बात करना शुरू किया तब समझ में आया कि जितना हम डरे हुए हैं, उससे ज़्यादा सामने वाला डरा हुआ है क्योंकि वह चाहता तो है कि इस इलाके के लोगों के लिए कुछ किया जाय, मगर वह इस डर से नहीं करते कि लोग क्या कहेंगे। उन्हें डर लगता है कि कोई उनसे पूछ न बैठे कि तुम वहां क्यों जा रहे हो? 

इस तरह ऐसे बहुत सारे लोग हमें मिलते गए, जिनकी चाहत थी कि हम भी इस [रेड लाइट] इलाके के लिए कुछ करें। वे हमारे साथ जुड़ते चले गए और इस तरह हम लोगों को एक सपोर्ट सिस्टम भी मिलने लगा। लेकिन यह ऐसा नहीं था कि वे लोग कहें कि हम तुम्हारे लिए कर रहे हैं, तुम लोग बैठ जाओ। वे लोग हमारे साथ हमेशा खड़े रहे और हम आगे बढ़ते गए। इसके बाद परचम को लेकर हमलोगों की एक नुक्कड़ नाटक टीम बनी। और ‘परचम’ शुरू करने के साथ ही हमने एक पत्रिका तैयार की– ‘जुगनू’। प्रारंभ में वह छह पन्ने की थी। 

दरअसल तब मीडिया से हमारा बड़ा पंगा होता था, क्योंकि जब हम कहते थे कि हम देह व्यापार करने वालों की बेटी हैं तो वे ‘बेटी’ खा जाते थे और देह व्यापार करनेवाली लिख देते थे। हम सब बहुत डरे हुए थे कि सबसे बात करना तो आसान है, क्योंकि वह कहीं रिकॉर्ड नहीं होता, दर्ज़ नहीं होता। लेकिन मीडिया से बात करना मुश्किल है क्योंकि इनसे हम बात करें तो वे हमारे बारे में ग़लत लिखते हैं। इन कारणों से हम लोग मीडिया से खुल नहीं पा रहे थे। फिर हमें लगा कि क्यों ना हम अपनी बात खुद कहें। लेकिन समस्या थी कि हम कहें कैसे? 

फिर जैसा कि मैंने शुरू में बताया कि सीतामढ़ी में ‘अदिति’ संगठन के साथ जुड़कर गांव में मैंने काम किया था। मेरे दिमाग में एक आईडिया था कि क्यों ना हाथ से अख़बार बनाएं और अपनी बात खुद लिखें और लोगों को पढ़ाएं। अगर वे हमारे बारे में नहीं लिखेंगे, तो हम खुद लिखेंगे। इस तरह ‘जुगनू’ नाम से छह पन्ने के अख़बार का डिजायन सभी लोगों ने मिल-बैठकर तैयार किया। पहला अंक साल 2004 में निकाला था। मुंबई में वर्ल्ड सोशल फोरम का आयोजन हुआ था। हमलोगों ने वहां पर जाकर एक तरह से लोगों के बीच सार्वजनिक किया और लोगों से पांच रुपए की सहयोग राशि लेकर उन्हें फोटोकॉपी करवाकर देते थे। हमारे पास बजट नहीं था, इसलिए तीन महीने पर ‘जुगनू’ का अंक निकालते थे। बहुत से लोगों ने ‘जुगनू’ को देखा तो सराहा और कहा कि यह तो बहुत अच्छा आइडिया है। फिर बहुत से लोगों की सलाह आती गई और हम सलाह के साथ बदलाव करते गए। क्योंकि यह हमारी अभिव्यक्ति का मजबूत स्तंभ है तो हमने इसे और दूर तक ले जाने के बार में सोचा। बहुत सारे पत्रकारों ने बैठकर हमें फीडबैक दिया कि नसीमा, इसे ऐसे करेंगे, वैसे करेंगे। शर्त यही थी कि ‘जुगनू’ हस्तलिखित ही होगा, क्योंकि हमारे लोगों को कंप्यूटर नहीं आता था और न ही हम उस तरह से पढ़ना-लिखना जानते थे। इसलिए हमने तय किया कि हाथ से ही लिखेंगे। अब यह अख़बार 36 पेज का हो गया है। आज हम देश के स्तर पर इसका प्रसार और वितरण करते हैं। 

देश के चार राज्यों के ऐसे बच्चे, जो इसी समाज से संबंध रखते हैं, जिनको बाहरी समाज स्वीकार नहीं करता है, वे इससे जुड़े हुए हैं। इनमें मध्य प्रदेश की बांछड़ा, बेड़िया समुदाय, राजस्थान में कालबेलिया, कंजड़, सांसी, नट, बिहार में नट समुदाय के लोग ज़्यादातर हैं और मुंबई (महाराष्ट्र) में, जहां सब लोग माइग्रेट करके जाते हैं। इन चार राज्यों के बच्चे जुड़े हुए हैं और इस कोशिश में हैं कि पत्रिका के विस्तार के लिए और काम करें।   

आज ‘परचम’ एक कम्युनिटी आधारित संगठन है। लेकिन ‘जुगनू’ से हम अलग अलग लोगों को ज़ोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। नवंबर, 2022 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मुझे सलाहकार सदस्य नियुक्त किया है। जिस इलाके के लोगों के बारे में मीडिया, पुलिस, समाज ग़लत सोच रखता हो, वहां की बेटी को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपना सलाहकार सदस्य बनाया है, यह बड़ी बात है। 

नसीमा खातून, सदस्य, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग

मुझे व्यवस्था, समाज, प्रशासन और मीडिया से कहना है कि अगर आप चाहते तो सेक्स वर्कर्स के बच्चों को स्वीकार करते। अगर आप चाहते तो इनको समाज में जगह देते। अगर आप चाहते तो एक महिला जो एक उम्र के बाद इस पेशे से रिटायर हो जाती है, उनके लिए बात करते। इस इलाके [रेड लाइट एरिया] के दो लोग किसी को नहीं दिखाई देते। एक, जो यहां के लड़के होते हैं और दूसरे जो बुजुर्ग महिलाएं हैं, जो 35-40 साल की उम्र के बाद रिटायर हो जाती हैं। वे लोगों को दिखाई देना बंद क्यों हो जाते हैं? 

इस तरह के इलाके के लिए एचआईवी के बारे में जन-जागरूकता को लेकर नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन (एनएसीओ) का ‘लक्षित हस्तेक्षप’ (टार्गेटेड इंटर्वेंशन) नामक एक प्रोजेक्ट चलता है। उसमें एक पंगा है। वे कहते हैं कि 40 साल से कम उम्र की जो महिलाएं हैं, वही उनकी सूची में हैं और वे उनके लिए ही काम करेंगे और प्रोजेक्ट के तहत मिलने वाले सभी लाभ भी देंगे। लेकिन 40 वर्ष की उम्र पार होते ही वे महिलाएं कुछ नहीं होतीं। गोया वे इस दुनिया में ही नहीं हैं। इसलिए उनको राशन भी नहीं देंगे। उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं भी नहीं देंगे। इस बात को मैंने अभी राष्ट्रीय मानावधिकार आयोग में भी उठाया है कि आप क्या चाहते हैं कि 40 बरस के बाद वे लोग जिंदा नहीं रहें। यह मानवाधिकार का सरासर हनन है। जैसे आम समाज में बुजुर्ग होने के बाद लोग मां-बाप को छोड़ देते हैं, वही हाल रेड लाइट एरिया की महिलाओं का है, जिनकी उम्र 40 वर्ष से अधिक हो जाती है। उनकी कोई वैल्यू नहीं होती।   

सामान्य तौर पर सरकार के घर से लेकर एनजीओ और मीडिया तक सिर्फ़ दो की ही बात होती है– सेक्स वर्कर्स और बच्चियां। अब महिलाएं हैं, तो लड़का और लड़की दोनों पैदा करती हैं। तो जो बहुत बड़ा तबका है इन इलाकों में लड़कों का, उनको नजरअंदाज किया गया है। एक तरफ तो लड़कों को कहा जाता है कि आप दलाली छोड़कर कोई और काम करो, और दूसरी तरफ उन्हें परिदृश्य से ही अदृश्य ही कर दिया जाता है। उनके पास क्या विकल्प है? जाहिर तौर पर वे या तो दलाली का काम करेंगे या नशा करेंगे। 

देखा जाय तो लड़कों के एक बड़े ग्रुप को नजरअंदाज किया गया, वह कहां गया? वे अपराध की दुनिया में ही गए न? मई, 2022 में सुप्रीम कोर्ट का दिशा-निर्देश आने के बाद हमारे इलाके में कलक्टर और जज साहेब सब बात करने आए। उन्होंने मुझसे पूछा कि नसीमा क्या किया जाय, तो मैंने अपने यहां यानि मुज़फ्फ़रपुर के 15 बच्चों की सीवी (जिसमें बाकायदा मेंशन था कि ये बच्चे कितना पढ़ें हैं और क्या कर रहे हैं) पकड़ाया कि आप इन बच्चों को जॉब दे दीजिए। मैंने उनसे कहा कि अभी आप 15 बच्चों को जॉब देंगे तो बाक़ी लोग भी आएंगे। तो उन्होंने हमसे कहा कि अभी हमारे पास ऐसा कोई भी प्रोजेक्ट नहीं है नसीमा। अभी उनको यह प्रोजेक्ट सोचने में ही बहुत टाइम लगेगा। अभी तक तो जजमेंट में कही गई बात ही नहीं समझ आ रही है इन लोगों को।

सच तो यह है कि हमारी व्यवस्था ने सिर्फ़ और सिर्फ़ महिलाओं की बात की, लड़कियों को धंधे से बाहर निकालने के लिए बात की, लेकिन जो पैदा होकर आ रहा है, उसके बारे में कोई बात नहीं की। सबसे बड़ी बात यह है कि उनको लोग बच्चा समझते ही नहीं। आमतौर पर लोग मानते हैं कि इस इलाके में बच्चे नहीं होते। सेक्स वर्कर हैं तो क्या? अब चूंकि वे महिलाएं हैं तो वे बच्चा पैदा करती ही हैं ना? तो उनके बच्चे कैसे नहीं हो सकते हैं? तो आप कैसे डिफाइन करेंगे कि वे बच्चे उनके हैं कि नहीं। ऐसा तो कोई मेकैनिज्म है नहीं उनके पास, क्योंकि इस इलाके में आधार कार्ड, वोटर कार्ड आदि जैसे ज़रूरी काग़ज़ात कोई प्रॉपर ढंग से उनके लिए बनाता ही नहीं है। उनके बच्चे के नाम का जन्म प्रमाणपत्र कहां से बनेगा? यह बहुत बड़ी चुनौती है। समाज के सामने भी और हमारे सामने भी। 

ज़्यादातर लोग यही मानते हैं कि सेक्स वर्कर्स बच्चों को अगवा करते हैं, ख़रीदकर लाते हैं या छीनकर लाते हैं, या चुराकर लाते हैं। तो बच्चे वहीं जन्में हैं यह साबित करना सबसे मुश्किल है। मैं वहां की बेटी हूं। मैं जानती हूं कि मेरे सामने यह साबित करना कितना मुश्किल है। ह्यूमन ट्रैफिकिंग अलग मुद्दा है। यह एक गंभीर विषय है और इस पर काम होना चाहिए। और मैं सरकार तथा प्रशासन, दोनों से कहती हूं कि जब तक आप इस इलाके के लोगों के साथ मिलकर काम नहीं करेंगे तब तक ट्रैफिकिंग को नहीं रोक सकते। ट्रैफिकिंग को रोकने के लिए ये लोग क्या करते हैं कि सेक्स वर्कर्स को ही ट्रैफ़िकर घोषित कर देते हैं, जोकि ग़लत है। वह महिला तो पीड़िता है। वह तो आपके उस सताये हुए खेमे से निकलकर वहां गई है। वह ट्रैफिकर कैसे हो सकती है। ट्रैफिकर कौन है, जो बाहर रह रहा है? वह हर समाज में रहता है और बड़ी आसानी से लड़कियों का कारोबार कर रहा है। 

आज जब हम बात कर रहे हैं तब भी कितनी लड़कियों की ट्रैफिकिंग हो रही होगी और वह समाज के अच्छे हिस्से में हो रहा होगा। लेकिन उनकी पहुंच इतनी है कि सेक्स-वर्कर्स महिलाएं उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती हैं। इस समाज की महिलाएं खुद ट्रैफिकिंग से चिंतित हैं। वर्ना कोई बताए कि मेरी दादियां मुझे उस पेशे से बाहर रखने के लिए क्यों संघर्ष करतीं और मुझे इस पोजीशन में लेकर आतीं। लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों किया? जवाब यह है कि कोई महिला नहीं चाहती कि उसकी आने वाली पीढ़ी इस पेशे में रहे। सेक्स वर्कर्स भी नहीं चाहतीं। लेकिन जो समाज में बैठे ट्रैफिकर हैं, वे ऐसा चाहते हैं, क्योंकि इससे उनके घर में पैसा आता है। उनके गिरेबान पर हाथ डालना सरकार और प्रशासन के वश की बात नहीं है। इसीलिए अगर प्रशासन और सरकार पकड़ना चाहें तो किसे पकड़ेंगे? सेक्स वर्कर्स को ही न? 

पहले तो यौनकर्म ब्रोथल बेस था, जो कि एक परंपरा का हिस्सा था। पर अभी रेलवे स्टेशनों पर, बस अड्ड़ों पर, होटल, पार्लर आदि अनेक जगहों पर यह काम होने लगा है। लॉकडाउन के बाद से चीजें बहुत जटिल हो गई हैं। लोगों ने जटिल कर दिया है इसको। अब आप यह नहीं कह सकते हैं कि कौन सेक्स वर्कर है कौन नहीं है। कहां चल रहा है और कहां नहीं चल रहा है। अभी यह मोबाइल जैसा हो गया है। सवाल यह है कि यह स्थिति किसने बनाई? यह उन्हीं लोगों का बनाया है जो कहते हैं कि हम नहीं चाहते कि समाज में ऐसा हो। समाज में जो बहुत सारे लोग हैं, जो यह चाहते हैं कि कुछ बेहतर करें, उनको इसमें मदद करनी चाहिए। लेकिन मदद करने का मतलब यह नहीं कि उनको रोकना है। मदद करने का मतलब यह कि एक जो स्पेस उनका खत्म हो रहा है उस स्पेस को नहीं खत्म होने देना चाहिए। नहीं तो यह बहुत बड़ी बात हो जाएगी कि आप नहीं समझ पाओगे कि कहां आप खड़े हैं और कहां नहीं। पहले स्पेस था, अब नहीं है। स्पेस ही नहीं देंगे तो फिर कैसे आप तय करेंगे कि कौन कहां है। फिर कैसे उन चीजों को लेकर जाया जा सकता है। ये यहां पर क्यों आये? क्योंकि उनका स्पेस छीना गया है। कोई भी काम करने के लिए यदि एक जगह नहीं होगा तो क्या होगा। वे वेंडर ही बनेंगे ना? घूम-घूमकर बेचेंगे। आप देखे होंगे कि नगरपालिका ने नगर के बाहर वेंडर लगाने वालों को उजाड़ दिया। तो उन्होंने मूव करना शुरू कर दिया। सेक्स वर्कर्स की पूरी पद्धति और परंपरा की बात करेंगे तो पहले उनके लिए एक स्पेस दिया गया था। चाहे वह मौर्य काल हो या मुग़ल काल। या कोई औऱ दौर। एक जगह इनके लिए दिया गया था जिससे लोगों को पता चलता था कि यहां पर ये लोग हैं। अभी सब ‘रिहैबिलिटेशन ’ बोलकर जगह छीन रहे हैं। 

मैनें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी कहा कि वह दूसरी दुनिया कौन-सी है, आप बता दीजिए। मैं सबको लेकर चली जाऊं। लेकिन आपके पास वह दूसरी दुनिया नहीं है उन्हें देने के लिए। लेकिन फिर भी आप क्या कह रहे हैं कि हम बदलाव कर रहे हैं। अब आपको वे चलते-फिरते नज़र आ रहे हैं। आपके घर तक नज़र आ रहे हैं। तो अब आपकी बेचैनी है कि यह तो ग़लत हो गया। तो ग़लत उन्होंने नहीं किया। आपने उनको कुछ नहीं दिया सिवाय छीनने के। उनके पास जो भी है, वह छीना गया है और अभी भी छीनने की ही बात होती है। आपने देने की कहां कोशिश की है? आप बता दीजिए। आपको अभी तक कहीं ऐसी पहल दिखी कि प्रशासन या सरकार खुद से जाकर उस इलाके में उनके कल्याणार्थ काम किए हों? लोगों को राज़ी किया हो? जो भी दिया इस शर्त पर दिया कि पहले धंधा छोड़ दो। पहले आप बिना शर्त के दो तभी आपको खुद पता चल जाएगा कि कितने लोग धंधे से बाहर निकल रहे हैं।

क्रमश: जारी

(प्रस्तुति सहयोग : सुशील मानव, संपादन : राजन/नवल/अनिल)

 

लेखक के बारे में

नसीमा खातून

लेखिका राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सलाहकार समिति की सदस्य व प्राख्यात सामाजिक कार्यकर्ता हैं

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