बीच चुनाव में यह चर्चा आम हो गई है कि क्या नरेंद्र मोदी का जादू कमजोर पड़ रहा है? 2014 और फिर 2019 में भाजपा के परंपरागत मतदाता समूहों के साथ जो मोदी फैक्टर जुड़ा था, क्या वह कायम नहीं रह गया है? मतलब यह कि जिस नए विशाल मतदाता समूह ने भाजपा को वोट किया था, क्या वह मोदी नामक ब्रांड को लेकर निराश है या उतना उत्साहित नहीं है? 2024 लोकसभा चुनाव के ठीक बीच के दौर में यह बहस चल पड़ी है।
मोदी लहर के खत्म होने या कमजोर पड़ते जाने के कई सारे लक्षणों और संकेतों को राजनीति विज्ञानी और उनसे भी पहले आमजन का एक हिस्सा, देखने और चिह्नित करने लगा है।
बदलता वोटिंग का पैटर्न क्या कह रहा है
2019 के मुकाबले इस वर्ष 2024 लोकसभा के चुनाव में वोटिंग प्रतिशत में आम तौर पर कमी देखी जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह को मतदाताओं से बढ़-चढ़कर वोट डालने की बार-बार अपील करनी पड़ रही है। बावजूद इसके बहुत कोई फर्क पड़ता हुआ आम तौर पर नज़र नहीं आ रहा है। देश के ज्यादातर इलाकों, खासकर उत्तर भारत में वोट डालने को लेकर उत्साह नदारद है। मतदाताओं का यह व्यवहार सामान्य आम चुनाव के लक्षणों के अनुरूप ज्यादा दिखता है। धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति इस चुनाव में स्थायित्व ग्रहण करती जा रही है। इसका मतलब यह है कि कम वोटिंग से इस चुनाव में स्थायी पैटर्न बनता हुआ साफ-साफ दिखने लगा है।
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि जब 2014 के लोकसभा चुनाव के दौर से मोदी नामक ब्रांड का उदय हो रहा था, ठीक उसी समय भाजपा के मत प्रतिशत में भी भारी इजाफा हो रहा था और आम मतदान में भी भारी वृद्धि हो रही थी। यह सिलसिला ज्यादातर विधानसभा चुनावों में भी चलता रहा और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी ठीक यही पैटर्न ज़ारी रहा। यानी पिछले दस सालों से यह साफ-साफ दिख रहा है कि मोदी की अपार लोकप्रियता, भाजपा के मत प्रतिशत में भारी वृद्धि और आम मतदान में भी बड़ा इजाफा, साथ-साथ चलने वाली परिघटना के बतौर बार-बार सामने आती रही हैं।
लेकिन आज जब 2024 के लोकसभा चुनाव के बीच में, या ठीक-ठीक कहिए तो, आधे से ज्यादा लोकसभा सीटों पर मतदान संपन्न हो जाने के बाद जब हम देखते हैं कि 5 से 6 फीसदी वह मतदाता इस बार लगातार मतदान केंद्रों तक नहीं जा रहा है, जो 2019 में भारी उत्साह के साथ जा रहा था, तब इस परिवर्तन को कैसे समझें? क्या 10 वर्षों से चली आ रही परिघटना अपने विपरीत दिशा में बदलने जा रही है? क्या मोदी की लोकप्रियता, भाजपा के वोट प्रतिशत में इजाफा और आम मतदान में वृद्धि पर, एक साथ ही ब्रेक लगने जा रहा है?
कोई नॅरेटिव नहीं खड़ा कर पा रही है भाजपा
भाजपा के लिए यह संकट बढ़ता जा रहा है कि लगभग आधा से भी ज्यादा चुनाव बीत जाने के बाद भी, तमाम कोशिशों के बावजूद अखिल भारतीय स्तर पर कोई केंद्रीय मुद्दा या कोई केंद्रीय नॅरेटिव भाजपा निर्मित नहीं कर पा रही है। उसे रोज़ अपने मुद्दे बदलने पड़ रहे हैं। विपक्ष द्वारा उठाए गए मुद्दों पर बोलना पड़ रहा है। उसके नेताओं को बार-बार सफाई देनी पड़ रही है। ‘मोदी’ नामक ब्रांड के लिए उनके शानदार अतीत को देखते हुए, यह बेहद हैरत में डालने वाली परिघटना है।
जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में यह देखा गया कि उस समय भ्रष्टाचार बहुत बड़ा मुद्दा बन गया था। तत्कालीन यूपीए सरकार के खिलाफ और मोदी नई आशा व उम्मीद को जगाने वाले व भ्रष्टाचार को मिटाने वाले चैंपियन के बतौर उभरे थे। उस पूरे चुनाव में भ्रष्टाचार से मुक्ति व भ्रष्टाचारी सरकार से मुक्ति, अंत तक केंद्रीय मुद्दा बना रहा। उसी तरह 2019 के लोकसभा चुनाव में भी पुलवामा और बालाकोट के चलते राष्ट्रवाद का उन्माद खड़ा हुआ था और इस उन्माद के केंद्र में भी नरेंद्र मोदी और भाजपा थी। इसके कारण सारे बड़े सवाल बहुत पीछे चले गए थे और राष्ट्रवाद का सवाल 2019 लोकसभा चुनाव के केंद्र में आ गया था। दोनों ही बार, परिणाम यह आया कि भाजपा बहुमत के साथ सत्ता में आई।
लेकिन इस बार दो-तिहाई चुनाव बीत जाने के बाद भी ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। चुनाव से पहले राम मंदिर के उद्घाटन को जिस तरह की भव्यता दी गई, उससे लग रहा था कि यह मुद्दा इस चुनाव में नरेंद्र मोदी का मास्टर स्ट्रोक साबित होगा। लेकिन यह भी नहीं हुआ, और अब तो लगने लगा है कि यह चुनाव नरेंद्र मोदी के हाथों से लगभग छूटता जा रहा है।
नफ़रती भाषणों व हिंदुत्व के कोर मुद्दों की कम होती अपील
इस बार नरेंद्र मोदी और उनके नेता राम मंदिर को चुनाव के केंद्र में स्थापित करना चाह रहे थे। और उन्हें यह उम्मीद भी थी कि यह मुद्दा ताकतवर केंद्रीय नॅरेटिव बनने की क्षमता भी रखता है। इसीलिए यह देखा गया कि राम मंदिर का उद्घाटन कितना भव्य अंदाज में किया गया और इसके लिए कितना आक्रामक अभियान संचालित किया गया। पूरे देश को भगवा झंडे से पाट दिया गया। ‘घर-घर प्रसाद’ अभियान को राजनीतिक हथियार के बतौर इस्तेमाल करने की जबरदस्त कोशिश की गई। बावजूद इसके राम मंदिर का सवाल अपनी केंद्रीयता बरकरार नहीं रख सका और बहुत छोटे दायरे में सिमटता गया तथा बहुत जल्दी ही, “जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएंगे” जैसे नारे प्रासंगिक नहीं रह गए।
यदि भाजपा यह चुनाव हारती है तो यह कहा जा सकता है कि निस्संदेह यह पहला बड़ा झटका था ब्रांड नरेंद्र मोदी और उनके चुनाव मैनेजरों के लिए। दरअसल, समाज विज्ञान की गतिकी को समझने वाले यह जानते हैं कि जब एक बार विभाजनकारी राजनीति का कोर एजेंडा अपनी मारक क्षमता खोने लगता है तो फिर उसके आस-पास मौजूद ढेर सारे सहयोगी सांप्रदायिक व अंध-राष्ट्रवादी मुद्दों की प्रक्षेपण क्षमता भी तेजी से कमजोर पड़ने लगती है। अब तक जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं, उनसे प्रतीत होता है कि यही हुआ भी है। चीन व पाकिस्तान जैसे मुद्दे राष्ट्रवादी उन्माद पैदा करने की ताक़त खोने लगे हैं। काशी-मथुरा के सवाल चुनावी चर्चा से लगभग बाहर हो गए। नागरिकता संशोधन कानून को घनघोर सांप्रदायिक रंग देने व 370 को खत्म कर देने के बावजूद भाजपा को कोई राजनीतिक माइलेज मिलता बिल्कुल ही नहीं दिख रहा। और तो और नरेंद्र मोदी और उनके सहयोगी नेताओं द्वारा मुसलमानों को, घुसपैठिया, ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले, हिंदुओं का धन लूटने वाले और विपक्ष को मुस्लिमपरस्त बार-बार बताए जाने बावजूद नफरत और घृणा कहीं फैलती नहीं दिख रही है। मोदी और सहयोगियों के ज़हर भरे भाषण बेअसर होते जा रहे हैं। इन भाषणों पर चुनाव आयोग तो ध्यान नहीं ही दे रहा है, जनता ने भी सुनना लगभग बंद कर दिया है।
400 पार का नारा, बनता जा रहा है मजाक
नरेंद्र मोदी ने जब “अबकी बार 400 पार” का नारा दिया था तब भारतीय समाज के हर हिस्से में इस नारे को शुरुआती स्वीकृति मिलती चली गई। भाजपा कार्यकर्ता और समर्थक उत्साहित हुए और उनकी तात्कालिक सक्रियता कई गुना बढ़ गई। और ठीक इसके उलट जो लोग इस राज-काज से मुक्ति चाहते थे, उन्हें भी लगा कि 400 पार संभव है। उनके अंदर अपने पुराने अनुभवों के चलते भय मिश्रित निराशा का भाव बढ़ता गया। कई सारे राजनीतिक विश्लेषकों को भी यह लगने लगा कि यह संभव है। लेकिन पहले ही चरण में कई भाजपा नेताओं, सांसद प्रत्याशियों के भाषणों-बयानों के चलते 400 पार का नारा संविधान बदलने और आरक्षण खत्म करने के लिए दिया जा रहा है, यह बात तेज़ी से फैलने लगी, जिसके चलते वह नया मतदाता समूह भी भयभीत होने लगा, जो 2014 से ही नरेंद्र मोदी को वोट कर रहा था। यह वही मतदाता समूह है, जिसका ज्यादातर हिस्सा ओबीसी और दलित समुदायों से आता है। इन समूहों और नरेंद्र मोदी के बीच दस एक सालों से जो भरोसे का पुल बना था, उसमें दरार पड़ने लगा, और अब तो उससे भी आगे बढ़कर जो उपरी नागरिक दायरे में मोदी सरकार की तानाशाही चर्चा में थी, लोकतंत्र, संविधान व आरक्षण पर बढ़ता ख़तरा विमर्श के केंद्र में था, वह अब बहुत तेजी से इन नए मतदाता समूहों के विमर्श के भी केंद्र में आ गया है। यहां तक कि जिसे हम लाभार्थी समूह कहते हैं, जिनका सीधा रिश्ता नरेंद्र मोदी के साथ होना माना जाता था, वह समूह भी, जिसका बड़ा हिस्सा बहुजन समाज से ही आता है, अचानक अपने आरक्षण की चिंता करने लगा है। उसे अपने बच्चे की रोजी-रोटी की चिंता उसे सताने लगी है और 5 किलो अनाज उसे नाकाफ़ी लगने लगा है। नतीजतन नरेंद्र मोदी नामक ब्रांड की आभा मद्धिम पड़ने लगी है और 400 पार का नारा पहले भय और अब लोगों को जुमला लगने लगा है।
बहुमत हासिल करने के लिए संघर्ष करती भाजपा
धीरे-धीरे “अबकी बार 400 पार” जैसे नारे भाजपा की ओर से उछालें जाने कम होते जा रहे हैं। बल्कि यह कहिए कि इस बिंदु पर बात ही लगभग बंद हो गई है और मुद्दे बार-बार बदले जा रहे हैं। भारतीय समाज और राजनीति के गंभीर अध्येताओं ने अब यह कयास लगाना आरंभ कर दिया है कि भाजपा 2019 के अपने प्रदर्शन को फिर से दुहरा पाएगी या क्या भाजपा 272 के जादुई आंकड़े से भी दूर रह जाएगी? इसी तरह के दर्जनों सवाल चुनावी हवा में तैरने लगे हैं। हालाकि चुनाव के एक महीने पहले तक ऐसा बिल्कुल नहीं था। भाजपा समर्थकों, विश्लेषकों और यहां तक कि विरोधी भारतीय मतदाताओं के बीच में भी “मोदी है तो मुमकिन है” जैसे स्थापित नारे हर बात का जबाब हुआ करते थे। लेकिन आज़ ठीक चुनाव के बीच में यह बात फैलती जा रही है कि मोदी की गारंटी अब विश्वसनीय नहीं रह गई है।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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