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आंखन-देखी : पूर्वांचल में बसपा के वोटर साफ तौर पर दो हिस्सों में बंटे दिखे

पहले हिस्से का प्रतिनिधित्व बसपा की रैली में कौड़ीराम से आईं करीना देवी और उनकी मां लक्ष्मीना देवी करती हैं, जो नेता या पार्टी के बस या पैसे से रैली में शामिल होने नहीं आई थीं। वे अपने पैसे से मई की भीषण गर्मी में बस-टेम्पो करके आई थीं। पढ़ें, डॉ. सिद्धार्थ की यह रपट

गत 25 मई से लेकर 28 मई तक गोरखपुर और आस-पास के जिलों की यात्रा पर रहा। इसके पहले मैं बनारस और लखनऊ की यात्रा कर चुका था। गत 25 मई को सबसे पहले मैं गोरखपुर के चंपा देवी पार्क में आयोजित बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की रैली का गवाह बना, जिसे संबोधित करने बसपा प्रमुख मायावती जी आई थीं। कुल मिलाकर देखा जाय तो यह गोरखपुर, बांसगाव और देवरिया संसदीय क्षेत्र की एक साथ मिली-जुली सभा थी। मायावती जी के साथ मंच पर गोरखपुर, बांसगांव और देवरिया संसदीय क्षेत्र के बसपा प्रत्याशी भी मौजूद थे। रैली में उपस्थित लोगों से बातचीत और रैली से पहले तथा उसके बाद बसपा के परंपरागत वोटरों से बातचीत में दो तस्वीरें साफ तौर पर सामने आईं।

इन दो तस्वीरों को प्रस्तुत करने से पहले इस तथ्य को रेखांकित कर लेना जरूरी है कि 2022 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों से यह करीब-करीब तय-सा हो गया है कि अब बसपा का राजनीतिक आधार जाटव जाति के वोटरों तक सिमट गया है। 2022 के चुनावों में बसपा को कुल 12.08 प्रतिशत वोट मिल थे, लेकिन उसके हिस्से केवल एक जीत मिली थी। इस बार बसपा समर्थक जाटव दो हिस्सों में बंटे दिख रहे हैं। पहले हिस्से का प्रतिनिधित्व बसपा की रैली में कौड़ीराम से आईं करीना देवी और उनकी मां लक्ष्मीना देवी करती हैं, जो नेता या पार्टी के बस या पैसे से रैली में शामिल होने नहीं आई थीं। वे अपने पैसे से मई की भीषण गर्मी में बस-टेम्पो करके आई थीं। लक्ष्मीना देवी की उम्र कम-से-कम 70 वर्ष के आस-पास थी। यह पूछने पर आप क्यों आईं हैं, उन्होंने कहा कि वह बहन जी को देखने आई हैं।

यह सवाल करने पर कि आप को बहन जी से क्यों इतना प्यार है, वह इसका जवाब देते हुए कहती हैं कि बाबा साहेब और बहन जी हमारे दिल में रहते हैं। सवाल को और थोड़ा ठोस करके और दो टूक पूछने पर कि आप किसे वोट देंगी, तब वह कहती हैं कि हाथी को और किसे। हाथी वाली पार्टी ही तो हमारी पार्टी है। लक्ष्मीना देवी और करीना देवी कोई अपवाद या अकेली नहीं हैं। जिस गांव में जाने का मौका मिला, जाटव मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा बसपा और मायावती के प्रति यही भाव रखता है। यह हिस्सा बसपा को अपनी पार्टी, हाथी को अपना चिह्न और मायावती को अपना नेता मानता है। वह अभी भी इन तीनों के प्रति प्रतिबद्ध है। यह स्थिति केवल महिला मतदाताओं की ही नहीं है, बल्कि बहुत सारे पुरुष मतदाता भी ऐसे ही सोचते हैं। खासकर थोड़ी अधिक उम्र वाले। गावों में यह ज्यादा मुखर रूप में दिखी।

गोरखपुर के चंपा देवी पार्क में आयोजित बसपा की रैली में भाग लेने पहुंचे लोग (तस्वीर : डॉ. सिद्धार्थ)

इसके ठीक उलट एक दूसरी तस्वीर है। जाटव मतदाताओं का बौद्धिक वर्ग या पढ़े-लिखे लोगों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा को हराने के लिए ‘इंडिया’ गठबंधन के साथ दिखता है। इसमें भी दो तरह के लोग हैं। एक वे लोग, जो फिलहाल बसपा को छोड़कर भाजपा को हराने के लिए ‘इंडिया’ गठबंधन के प्रत्याशी को वोट देने का मन बना रहे हैं। लेकिन वे आज भी बसपा को अपनी पार्टी मानते हैं, और थोड़ी-बहुत नाराजगी के बावजूद भी मायावती जी के साथ हैं। वे भविष्य में बसपा को मजबूत भी बनाना चाहते हैं, क्योंकि वे सपा या कांग्रेस को अपनी पार्टी नहीं मान पा रहे हैं। लेकिन इस बार के चुनाव में सपा या कांग्रेस के प्रत्याशी को वोट देने का मन बना लिए हैं और अपने तरीके से लोगों को ‘इंडिया’ गठबंधन को वोट देने के लिए प्रेरित भी कर रहे हैं।

इस बौद्धिक वर्ग या पढ़े-लिखे समुदाय एक हिस्सा ऐसा भी है, जिसका मानना है कि मायावती जी ने मिशन को खत्म कर दिया है, और वे खुद को बचाने में लगी हैं। उनका बाबा साहेब या मान्यवर कांशीराम साहेब के मिशन से कोई लेना-देना नहीं रहा गया है। उनका मानना है कि मायावती के नेतृत्व में अब दलित या बहुजन राजनीति का कोई भविष्य नहीं है। वे सपा या कांग्रेस को फिलहाल विकल्प के रूप में देख रहे हैं, लेकिन उन्हें भी भीतर से दलितों का सच्चा हितैषी नहीं मान पा रहे हैं। इसके बावजूद वे फिलहाल ‘इंडिया’ गंठबंधन को वोट देने का मन बना लिए हैं और उसके पक्ष में माहौल भी बना रहे हैं।

मंच के बगल में बहुजन नायकों के साथ नजर आया मायावती का कटआउट भी (तस्वीर : डॉ. सिद्धार्थ)

बौद्धिक वर्ग या पढ़े-लिखे लोगों के बीच एक बहुत छोटा-सा हिस्सा ऐसा भी है, जो दलितों का भविष्य राहुल गांधी में देख रहा है। उसे राहुल की गांधी की संविधान और आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी आदि बातें आकर्षित कर रही हैं। उसे लग रहा है कि राहुल गांधी एक ऐसे नेता के रूप में उभर रहे हैं, जो सच्चे अर्थों में दलित-बहुजन एजेंडे को उठा रहे हैं।

तो क्या इसका मतलब यह है कि जाटव समुदाय के बौद्धिक वर्ग या पढ़े-लिखे लोगों का कोई हिस्सा मायावती के साथ नहीं है? ऐसा नहीं है। पढ़े-लिखे नौजवान नए मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा आज बसपा से उम्मीद करता है। पढ़े-लिखे में एक हिस्सा बसपा का कैडर है। वे जो किसी-न-किसी तरह से पार्टी से जुड़े हुए हैं या संगठन में है या फिर बसपा से जुड़े बामसेफ आदि संगठनों से जुड़े हैं।

इसके साथ ही एक स्थिति यह भी है कि ग्रामीण समाज के आम जाटव मतदाताओं का एक हिस्सा अपने समाज के बौद्धिक-पढ़े-लिखे लोगों के असर में इस बार बसपा को छोड़कर इंडिया गठबंधन को वोट देने का मन बना रहा है।

अनुमान के आधार पर आंकड़ों में बांटकर यदि कहना हो तो साफ दिख रहा है कि जाटव समाज का कम-से-कम 35 से 40 प्रतिशत वोटर इस लोकसभा चुनाव में बसपा का साथ छोड़ रहा है और इस हिस्से का अधिकांश वोट ‘इंडिया’ गठबंधन को जा रहा है। ये वे लोग हैं, जो भाजपा को संविधान, आरक्षण और बाबा साहेब के विचारों के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं। वे आरएसएस-भाजपा के हिंदू राष्ट्र को मनुवादी-ब्राह्मणवादी राष्ट्र मानते हैं, जिसे वे दलितों के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में देखते हैं। वे हर हाल में इस बार भाजपा को हराना चाहते हैं। उनको लगता है कि यदि भाजपा को इस बार हराया नहीं गया, तो कुछ नहीं बचेगा। न संविधान, न लोकतंत्र और न ही आरक्षण। इसके अलावा उनको साफ लग रहा है कि मायावती भाजपा को हराने के प्रति गंभीर नहीं है। उनमें से कुछ को लग रहा है कि मायावती भाजपा को जिताने के लिए काम कर रही हैं। जबकि भाजपा से संविधान, लोकतंत्र, आरक्षण और बाबा साहेब के मिशन को खतरा है और हिंदू राष्ट्र मनुवादी-ब्राह्मणवादी राष्ट्र है। और बहन जी इसके खिलाफ संघर्ष नहीं कर रही है, बल्कि भाजपा को मदद पहुंचा रही है। 

यह समझ बसपा के परंपरागत मतदाताओं के बौद्धिक या कहिए कि पढ़े-लिखे वोटरों तक ही पुरजोर तरीके से पहुंची है। ये लोग यह बात नीचे तक आमजनों के बीच पहुंचाने में भी बहुत सफल नहीं हुए हैं, क्योंकि इनके अपने मन में बसपा के साथ ही ‘इंडिया’ गंठबंधन के प्रति भी द्वंद्व और दुविधा बनी हुई है। एक छोटा-सा हिस्सा ही मुखर होकर ‘इंडिया’ गठबंधन के पक्ष में काम कर रहा है।

इसके विपरीत गांवों के बसपा के परंपरागत वोटरों का बड़ा हिस्सा अब भी दलितों की पार्टी और अपने हितैषी के रूप में मायावती, हाथी और बसपा को ही जानता है। बहुत लंबे समय उस तक यह बात पहुंचायी गई थी या पहुंची थी कि हाथी और बसपा ही सिर्फ आपकी हितैषी हैं, जिसकी अगुवा बहन मायावाती हैं। मायावती जी के शासनकाल के काम भी उसको याद हैं। मायावती सहज-स्वाभाविक रूप में उसे अपनी नेता लगती हैं। उसके बड़े हिस्से तक संविधान, लोकतंत्र, आरक्षण और बाबा साहेब के मिशन के खतरे में होने की बात उस तरह नहीं पहुंची है, जैसे उसके बौद्धिक वर्ग तक पहुंची है। पहुंची भी है तो वह यह मानता है कि बहन मायावती ही इस खतरे से उबार सकती हैं।

अब जबकि अंतिम चरण के चुनाव में मात्र एक दिन शेष है और बनारस, गोरखपुर सहित पूर्वांचल के बड़े इलाके में मतदान होना है तो निष्कर्ष रूप में सिर्फ इतना ही कि बसपा के परंपरागत (जाटव) वोटरों का 35-40 प्रतिशत इस बार ‘इंडिया’ गंठबंधन को वोट देने की सोच रहा है, जिसका बड़ा हिस्सा 2022 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में बसपा के साथ था। लेकिन यह भी सनद रहे कि बसपा के परंपरागत वोटरों का बड़ा हिस्सा करीब 50-60 प्रतिशत आज भी बसपा के साथ है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सिद्धार्थ

डॉ. सिद्धार्थ लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

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