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आकाश आनंद को भाजपा के खिलाफ बोलने की सजा मिली या मायावती की ‘सरप्राइज सियासत’?

गत 28 अप्रैल को सीतापुर की एक चुनावी सभा में उन्होंने भाजपा पर ज़रा टेढ़ी-सी टिप्पणी कर दी। हालांकि मौजूदा दौर में राजनीति जिस ग़र्त में जा चुकी है और ख़ुद प्रधानमंत्री समेत देश के बड़े नेता जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, उसके मद्देनज़र आकाश आनंद इतना टेढ़ा भी नहीं बोले थे। पढ़ें, सैयद जै़ग़म मुर्तज़ा का यह विश्लेषण

बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की राष्ट्रीय अध्यक्ष कुमारी मायावती अपने भतीजे आकाश आनंद को पार्टी की तमाम ज़िम्मेदारियों से मुक्त कर दिया है। लोकसभा चुनाव के बीच उनके द्वारा लिए गए इस फैसले से सभी हैरत में हैं। किसी को समझ नहीं आ रहा है कि आख़िर आकाश आनंद ने ऐसा क्या कर दिया, जिसका दंड उन्हें भुगतना पड़ा है। लोग यह भी जानना चाहते हैं कि बसपा प्रमुख के इस फैसले का उत्तर प्रदेश और देश की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा?

 

दरहकीकत यह कि मायावती कब किससे नाराज़ हो जाएं, कोई नहीं जानता। पार्टी में किसी को भी अचानक बड़ा बना देना, और फिर किसी रोज़ आकाश से ज़मीन पर गिरा देना, उनकी कार्यशैली का सामान्य हिस्सा रहा है। हालांकि राजनीतिक गलियारे में सब इसे उनकी ‘सरप्राइज सियासत’ के रूप में भी जानते हैं। इस बार उनकी ‘सरप्राइज़ सियासत’ का शिकार उनके अपने भतीजे आकाश आनंद हुए हैं। उनको न सिर्फ पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक पद से हाथ धोना पड़ा है, बल्कि वे अब मायावती के घोषित उत्तराधिकारी भी नहीं हैं।  

अभी कुछ ही दिन पहले की बात है जब आकाश आनंद की पहली चुनावी सभा को लेकर तमाम तरह की चर्चाएं हो रही थीं। अप्रैल के पहले हफ्ते में वह नगीना लोकसभा क्षेत्र से बसपा उम्मीदवार सुरेंद्र पाल के समर्थन में चुनावी सभा करने गए थे। नगीना में आकाश आनंद ने आज़ाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर के राजनीति करने के तरीक़े की ख़ूब आलोचना की। आकाश आनंद ने आरोप लगाया कि चंद्रशेखर जैसे नेता लोगों को उकसा कर ग़लत रास्ते पर ले जा रहे हैं। उन्होंने लोगों से कहा कि “अपना वोट सोच-समझ कर दीजिए, क्योंकि भावना में बह जाने से अक्सर गलतियां हो जाती हैं।”

उत्तर प्रदेश के सीतापुर लोकसभा क्षेत्र में चुनावी जनसभा को संबोधित करते आकाश आनंद

इसके बाद आकाश आनंद ने यूपी के अलग-अलग हिस्सों में ताबड़तोड़ नौ चुनावी रैलियां और कीं। इस दौरान उन्होंने दलित-बहुजनों के मुद्दों को ज़ोर-शोर से उठाया। अल्पसंख्यकों के हितों की बात की। छात्रों और युवाओं से जुड़े सवाल उठाए। शिक्षा, बेरोज़गारी और पेपर लीक जैसे मुद्दों पर भाजपा को घेरने की कोशिश की। आंबेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ में दलित छात्रों पर हुए लाठीचार्ज को उन्होंने बड़ा चुनावी मुद्दा बना दिया। और सबसे बड़ी बात उन्होंने “संविधान ख़तरे में है” को न सिर्फ चुनाव का नॅरेटिव बनाया, बल्कि इसको सफलतापूर्वक अपने आख़िरी कार्यकर्ता और वोटर तक पहुंचाने में कामयाब रहे।

आकाश की रैलियों में भारी भीड़ जुट रही थी। वोट का तो पता नहीं कि वो कितना जुटा पाए, लेकिन पार्टी के तक़रीबन मरणासन्न पड़े कैडर में उनके सक्रिय होने से सांसें आने लगी थीं। बसपा की तरफ एक बार फिर से वोटरों का झुकाव बढ़ रहा था। पहले और दूसरे चरण के मतदान में बूथों पर न सिर्फ बसपा कार्यकर्ता फिर से नज़र आए, बल्कि दूसरी पार्टियों की तरफ चले गए बहुत सारे वोटर भी चुनाव चिह्न ‘हाथी’ का समर्थन करते दिखे। यक़ीनन बहुजन राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों के लिए यह अच्छी ख़बर थी।

शायद बढ़ती उम्र की वजह से या अन्य सियासी कारणों से मायावती ज़मीन की सियासत में बहुत ज़्यादा सक्रिय नहीं हैं। गाहे-बगाहे ही वह किसी कार्यक्रम में नज़र आती हैं। अलबत्ता सोशल साइट ‘एक्स’ (पूर्व में ट्ववीटर) पर अक्सर उनकी तरफ से बयान जारी हो जाता है। कभी-कभी उनकी तरफ से कोई प्रेस विज्ञप्ति आ जाती है। ज़ाहिर है इतने भर से उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में पार्टी की राजनीति को ज़िंदा रख पाना आसान नहीं है। वह भी तब जबकि चंद्रशेखर आज़ाद जैसे युवा ज़मीन पर दलित राजनीति में लगातार सक्रिय हैं।

कहने की आवश्यकता नहीं कि वर्ष 2012 के बाद के तमाम चुनावों में बसपा का प्रदर्शन लगातार गिरता ही गया है। लेकिन इस बार लग रहा था कि बसपा चुनावों को लेकर गंभीर है। पार्टी के शुरुआती टिकट वितरण को लेकर भी राजनीतिक विश्लेषक हैरान थे। लग रहा था बसपा किसी को हराने के लिए नहीं, बल्कि जीतने के लिए चुनाव लड़ रही है। पहले दो चरण तक सबकुछ बढ़िया रहा। लोगों को लगा कि आकाश आनंद न सिर्फ मायावती और कांशीराम की विरासत को आगे लेकर जाएंगे बल्कि भविष्य में एक बड़े नेता भी बनेंगे। लेकिन अप्रैल ख़त्म होते-होते आकाश आनंद के पैरों के नीचे से कालीन खींच ली गई। 

इसके पीछे कहा यह जा रहा है कि गत 28 अप्रैल को सीतापुर की एक चुनावी सभा में उन्होंने भाजपा पर ज़रा टेढ़ी-सी टिप्पणी कर दी। हालांकि मौजूदा दौर में राजनीति जिस ग़र्त में जा चुकी है और ख़ुद प्रधानमंत्री समेत देश के बड़े नेता जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, उसके मद्देनज़र आकाश आनंद इतना टेढ़ा भी नहीं बोले थे। उन्होंने कथित तौर पर कहा कि “भाजपा आतंक फैला रही है”। इसी बात को भाजपा ने मुद्दा बना लिया और ज़िला प्रशासन ने आनन-फानन में आकाश समेत चार लोगों पर चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन का मामला दर्ज करा दिया। 

इसके बाद बसपा ने आकाश आनंद के सभी चुनावी कार्यक्रम रद्द कर दिए। और फिर मायावती ने उनको सियासत से लगभग बेदखल कर देने का फैसला सुना दिया। हालांकि इस फैसले के बाद आकाश ने राजनीतिक परिपक्वता दिखाते हुए कोई बयानबाज़ी नहीं की। उनकी पहली प्रतिक्रिया सोशल साइट ‘एक्स’ पर ही आई। उन्होंने लिखा– “आदरणीय बहन मायावती जी, आप पूरे बहुजन समाज के लिए एक आदर्श हैं, करोड़ों देशवासी आपको पूजते हैं। आपके संघर्षों की वजह से ही आज हमारे समाज को एक ऐसी राजनीतिक ताकत मिली है, जिसके बूते बहुजन समाज आज सम्मान से जीना सीख पाया है। आप हमारी सर्वमान्य नेता हैं। आपका आदेश सिर माथे पे। भीम मिशन और अपने समाज के लिए मैं अंतिम सांस तक लड़ता रहूंगा। जय भीम जय भारत।”

अब सवाल यह है कि आकाश का राजनीतिक भविष्य क्या है और उनको सियासी दंड देने के मायावती के फैसले का दलित राजनीति पर क्या असर पड़ेगा? तो जवाब है कि आकाश के बसपा में सक्रिय होने से पार्टी को फायदा हुआ था। आकाश मायावती के छोटे भाई आनंद कुमार के बेटे है। दिसंबर, 2017 में मायावती ने सहारनपुर की एक रैली में उनका परिचय अपने उत्तराधिकारी के तौर पर कराया था।

आकाश युवा हैं, पढ़े लिखे हैं। उनकी उम्र अभी तीस साल से कम है। शुरुआती पढ़ाई दिल्ली से करने के बाद वह लंदन गए। वहां से उन्होंने एमबीए की डिग्री हासिल की और साल 2017 में वे भारत लौट आए। कुल मिलाकर उनके पास अभी उम्र भी है और राजनीति में आगे बढ़ने का समय भी। जिस तरह से उन्होंने कम समय में पार्टी कैडर को चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित किया, वह उनकी सांगठनिक क्षमता भी दिखाता है। ज़ाहिर है उनकी राजनीति से बसपा को जितना फायदा पहुंच रहा था, भाजपा को उतना ही नुक़सान। 

ऐसे में मायावती ने आकाश को क्यों हटाया? राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि मायावती अभी भाजपा से बिगाड़ करने की मानसिक अवस्था में नहीं हैं। बहुजन आंदोलन से जुड़े रहे मुरादाबाद निवासी महेंद्र सिंह कहते हैं कि “पहले दो चरण में बहनजी ने चुनावी हवा को भांपने की कोशिश की। उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं को चुनाव लड़ने की खुली छूट दी। लेकिन जब उन्हें लगा कि बहुमत न मिलने के बावजूद भाजपा वापस आ सकती है तो उन्होंने अपने क़दम वापस खींच लिए।”

इसी तरह सहारनपुर निवासी अशोक जाटव का मानना है कि “आकाश आनंद जिस तरह लगातार भाजपा पर हमले कर रहे थे, उससे 2027 के विधान सभा चुनाव में बसपा के भाजपा के साथ गठबंधन, या किसी अन्य प्रकार के समझौते के रास्ते बंद हो रहे थे। जबकि बहनजी की नज़र लोकसभा चुनाव नहीं, बल्कि 2027 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों पर है।”

तो अब आकाश आनंद क्या कर सकते हैं? हालांकि वह अगर कांग्रेस या समाजवादी पार्टी में जाने का मन बनाएं तो दोनों ही दल उनको हाथों-हाथ ले लेंगे, लेकिन वह अभी ऐसा नहीं करेंगे। अगर वह अकेले चलने का भी फैसला करें तो कम-से-कम पश्चिम उत्तर प्रदेश के दलित युवाओं के बीच उनकी अच्छी पहचान बन चुकी है। लेकिन उनकी प्रतिक्रिया से लग रहा है कि मायावती के फैसले को चुपचाप मान लेने के अलावा उनके पास कम ही विकल्प हैं। वह अभी बसपा में ही रहेंगे और अपना समय दोबारा वापस आने का इंतज़ार करेंगे।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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