इस बार के लोकसभा चुनाव में दो बातें स्पष्ट रूप से सामने आईं। एक बात यह कि जो शोषित-पीड़ित-वंचित थे, उन्होंने आगे बढ़कर न केवल चुनाव में हिस्सा लिया बल्कि वह कर दिखाया जो चुनाव के पहले नामुमकिन लग रहा था। जब चुनाव परिणाम आए तो चार सौ पार का नारा लगानेवाली भाजपा 240 और पूरा एनडीए गठबंधन 293 सीटों पर सिमट गया। दूसरी बात यह कि इस बार दलित राजनीति ने नया रूख अख्तियार किया। एक तरफ बहुजन समाज पार्टी (बसपा) उत्तर प्रदेश में 9.39 प्रतिशत वोट पाकर भी एक अदद सीट के लिए तरस गई तो दूसरी ओर सहारनपुर दंगे के दौरान सुर्खियों में आए चंद्रशेखर आजाद ने अपने लिए नगीना सुरक्षित सीट पर अच्छे मार्जिन से जीत हासिल कर दलित राजनीति को एक नया विकल्प दिया है।
इसके पहले कि हम दलित राजनीति की दशा और दिशा पर विचार करें, पहले इसके अतीत पर नजर डाल लेते हैं। विशुद्ध रूप से दलित राजनीति डॉ. आंबेडकर ने प्रारंभ की और वह भी तब जब इस देश में ब्रिटिश हुक्मरान थे। इतिहास के पन्नों में 1930-32 के दौरान लंदन में हुए पहले व दूसरे गोलमेज सम्मेलन दर्ज हैं, जिसमें डॉ. आंबेडकर ने तब अछूत कहे जानेवाले समुदायों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग की। इसे दलित राजनीति का आगाज माना जाना चाहिए। हालांकि उनकी इस मांग पर महात्मा गांधी ने यरवदा जेल में आमरण अनशन के जरिए पानी फेर दिया, लेकिन वे दलित राजनीति के विस्तार को नहीं रोक पाए। शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के जरिए डॉ. आंबेडकर ने इस राजनीति का विस्तार किया। आजादी के उपरांत संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के बतौर भी डॉ. आंबेडकर ने दलित जातियों के लिए संसद-विधानसभा के अलावा सरकारी नौकरियों व उच्च शिक्षा में आरक्षण का अधिकार सुनिश्चित कर दलित राजनीति की बुनियाद को पुख्ता किया। वे चुनावी राजनीति में इसे साकार होते देखना चाहते थे, लिहाजा उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) का गठन भी किया। लेकिन इससे पहले कि वह आरपीआई को साकार रूप दे पाते, 6 दिसंबर 1956 को उनका परिनिर्वाण हो गया। हालंकि इसके बाद आरपीआई अस्तित्व में आई तो जरूर लेकिन उसमें धार समय के साथ कम होती गई और फिर आया 1970 के दशक में दलित पैंथर का समय, जिससे दलित राजनीति को बेशक कोई धार नहीं मिली, लेकिन इसने हौसला जरूर दिया। परंतु, इसकी सक्रियता महाराष्ट्र तक ही सीमित रही।
दलित राजनीति को नई पहचान देने का श्रेय कांशीराम को जाता है, जिनका उत्तराधिकार वर्तमान में बहुजन समाज पार्टी के रूप में मायावती को प्राप्त है। कांशीराम की खासियत यह रही कि उन्होंने दलित राजनीति को केवल दलित जातियों तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसमें तमाम वंचित समुदायों को शामिल किया। उनकी साइकिल यात्रा को लंबे समय तक भारतीय राजनीति में याद किया जाता रहेगा और यह भी कि बामेसफ का गठन कर उन्होंने नौकरीपेशा दलित समुदाय के लोगों को राजनीतिक चेतना से लैस कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि बसपा पहले समाजवादी पार्टी और फिर बाद में भाजपा के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने में सफल हुई तथा 2007 में यह पार्टी सफलता के शिखर तक पहुंची और अपने बूते सूबे में सरकार बनाने का मार्ग प्रशस्त किया।
लेकिन यह बात 2007 की थी और अब इसे गुजरे हुए 16-17 साल बीत चुके हैं। इस दरमियान बसपा रोज-ब-रोज अपनी साख खोती जा रही है। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि एक समय बहुजन राजनीति करनेवाली बसपा अब सियासी गलियारे में केवल जाटवों की राजनीति करनेवाली पार्टी बनकर रह गई है। और अब इसकी इस पहचान को भी धक्का लगा है। चंद्रशेखर ने नगीना सीट अपने बूते जीतकर यह साबित कर दिया है कि जाटव समुदाय के लोग भी बसपा के गुलाम नहीं हैं।
आंकड़ों के हिसाब से बात करें तो 2019 में जब लोकसभा चुनाव हुए तब बसपा और सपा के बीच गठबंधन था। इस चुनाव में बसपा को कुल 19.34 प्रतिशत वोट मिले थे और सीटों की संख्या 10 थी। वहीं समाजवादी पार्टी को कुल 18.11 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे, लेकिन सीटों की संख्या केवल पांच थी। इस बार बसपा इंडिया गठबंधन में शामिल नहीं हुई और उसे भाजपा की ‘बी’ पार्टी का कलंक अपने माथे पर लगाना पड़ा। नतीजा यह हुआ कि उसके मत प्रतिशत में दस प्रतिशत से अधिक की कमी आई और सफलता शून्य।
लेकिन यह सनद रहे कि यह एक पार्टी के बतौर बसपा की असफलता है, दलित राजनीति की नहीं। दलित राजनीति का आज आलम यह है कि देश में वंचित समुदायों के जितने भी आंदोलन होते हैं, उसके केंद्र में आंबेडकरवाद है। डॉ. आंबेडकर का संविधान इस बार के चुनाव में केंद्रीय नॅरेटिव बना, जिसने प्रचंड बहुमत के उन्माद में मदांध भाजपा को 240 पर लाकर पटक दिया। अंतर यह है कि नदी के समान बहती हुई दलित राजनीति ने अपने रास्ते स्वयं निकाल लिये हैं और अब वह प्रवाहमान है। अब इस राजनीति पर कोई अपना लेबुल चस्पा कर ले, फिलहाल इसकी दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं दिखती है। यहां तक स्वयं मायावती भी इसकी गति को नहीं रोक सकती हैं। चंद्रशेखर का उद्भव इसका उदाहरण है। लेकिन अभी चंद्रशेखर को दलित राजनीति की कसौटी पर खरा उतरना होगा। इसके लिए उन्हें अपनी पार्टी की साख बनानी होगी।
बहरहाल, दलित राजनीति जड़ता का शिकार नहीं है। लेकिन उसका मुकाबला वर्चस्ववादी राजनीति से है, यह दलित राजनीति करनेवाले राजनेताओं को भी समझना होगा। अब वे दिन लद गए कि कोई डॉ. आंबेडकर की फोटो हाथ में लेकर स्वयं को दलित राजनेता कहने लगता था। रामविलास पासवान इसके श्रेष्ठ उदाहरण रहे, जिन्हें दलित राजनेता के रूप में जरूर जाना गया लेकिन वे दलित राजनीति के वाहक कभी नहीं बन पाए। यही हाल अब मायावती का हो गया है। पुनश्च यह कि दलित राजनीति जड़ नहीं है।
(संपादन : राजन/अनिल)
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