लोकसभा के नतीजों को लेकर बहुत सारे लोग हैरान हैं। हैरान इसलिए हैं कि अब से तीन महीने पहले तक कोई इस तरह के नतीजों की उम्मीद नहीं कर रहा था। सबको लग रहा था कि राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम आयोजित करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी अमृत हासिल कर लिया है। लेकिन ज़मीन पर बहुत कुछ ऐसा चल रहा था जो या तो प्रधानमंत्री के सतरंगी चश्मे से नज़र नहीं आ रहा था या भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जानबूझकर उसे अनदेखा करने की कोशिश कर रही थी। लेकिन नतीजे आए तो भाजपा 80 सीटों वाले यूपी में महज़ 33 सीटों पर सिमट गई, जबकि समाजवादी पार्टी 37 सीट के साथ अब देश का तीसरा सबसे बड़ा दल है।
लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजों में भाजपा को सबसे बड़ा झटका उत्तर प्रदेश से लगा है। ख़ुद भाजपा नेता अभी तक यक़ीन नहीं कर पा रहे हैं कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में इंडिया गठबंधन ने एनडीए से ज़्यादा सीट जीत ली है। लेकिन जो लोग टीवी न्यूज़रुम की पेड चर्चाओं से दूर, उत्तर प्रदेश की सड़कों पर धूल फांक रहे थे, उनके लिए इन नतीजों में इतनी हैरानी नहीं है। लोग भले ही खुलकर नहीं बोल रहे थे, लेकिन ग़रीब, वंचित तबक़ों में भाजपा के लिए नाराज़गी साफ नज़र आती थी। लेकिन दिल्ली के वातानुकूलित दफ्तरों में बैठे सवर्ण पत्रकार, उनके मालिकान, और ख़ुद सरकार इस नाराज़गी को पढ़ नहीं पाए।
हालांकि समाजवादी पार्टी इन नतीजों से सातवें आसमान पर है। कांग्रेस के लिए भी उत्तर प्रदेश में यह नतीजे पुनर्जीवन लेकर आए हैं। इसके बावजूद इन दोनों ही पार्टियों के नेताओं के दिल में थोड़ी बहुत कसक तो ज़रूर होगी। दबी ज़बान में इन दोनों ही पार्टियों के नेता अब मान रहे हैं कि थोड़ा पहले से गंभीर तैयारी कर ली होती तो उत्तर प्रदेश में अभी दस से पंद्रह सीट और जीती जा सकती थी। इंडिया गठबंधन के कम-से-कम एक दर्जन ऐसे उम्मीदवारों की हार हुई है जो आख़िरी दौर की गिनती तक मुक़ाबले में बने हुए थे। फर्रुख़ाबाद (2678 वोट), बांसगांव (3150 वोट), फूलपुर (4332 वोट), मेरठ (10585 वोट), अलीगढ़ (15647 वोट) और कानपुर (20968 वोट) जैसी सीटों पर मिली हार को याद करके इन दोनों ही दलों के नेता अगले कई साल ग़म मनाएंगे। अगर ये सीट इंडिया गठबंधन जीत जाता तो शायद सत्ता के थोड़ा ज़्यादा क़रीब होता। फिर भी अखिलेश यादव जिस तरह बहुजनों के साथ-साथ दलितों के नेता बनकर उभरे हैं, वह वाक़ई उल्लेखनीय है।
ज़ाहिर है कि ये नतीजे और बेहतर हो सकते थे। अगर यह नहीं हुआ है तो इसकी कई वजहें हैं। एक तो पहले दो दौर के मतदान तक इंडिया गठबंधन, ख़ासकर समाजवादी पार्टी के नेताओं को भरोसा ही नहीं था कि यूपी में भाजपा के सामने गंभीर चुनौती पेश की जा सकती है। दूसरे, इन पार्टियों के पास भाजपा जैसे संसाधन भी नहीं थे। उल्टा समाजवादी पार्टी और कांग्रेस में भाजपा ने जिस तरह जमकर तोड़-फोड़ की, उससे दोनों ही दलों का हौसला तक़रीबन जवाब दे गया था। लेकिन इसी तोड़-फोड़ का आख़िर में इंडिया गठबंधन को फायदा मिला। जब चुनाव में भाजपा के मुक़ाबले दल और उम्मीदवार नज़र नहीं आए तो जनता ने इस चुनाव की कमान अपने हाथ में ले ली।
लेकिन विपक्ष को चुनाव में जीत की सुगंध पहले दौर के मतदान से ही मिल गई थी। 19 अप्रैल को पहले दौर की वोटिंग के दौरान मुज़फ्फरनगर से जिस तरह की ख़बरें आईं, वह विपक्ष के लिए हौसला बढ़ाने वाली थीं। मुज़फ्फरनगर का चुनावी रिकॉर्ड रहा है कि जिसकी हवा यहां बह गई वो उत्तर प्रदेश के बाक़ी इलाक़ों में भी बेहतर करता है। जाट ही नहीं, दलित, मुसलमान और किसानों की राजनीति की हवा का रुख़ मापने के लिए मुज़फ्फरनगर से बेहतर शायद ही कोई जगह हो।
बहरहाल, कुछ ही दिन पहले आरएलडी नेता जयंत सिंह ने पाला बदला था। लेकिन मुज़फ्फरनगर, सहारनपुर, मेरठ, या कैराना में इसका ख़ास असर नहीं दिखा। जिन किसानों के दिल में किसान आंदोलन की वजह से खटास थी, वे आरएलडी के साथ नहीं गए। उन्होंने इंडिया गठबंधन के उम्मीदवारों को वोट दिया। मुसलमान जयंत चौधरी की पलटी से ठगा हुआ महसूस कर रहे थे। सो मुसलमानों ने ग़ुस्से में बेहतर मतदान किया। लेकिन इस बीच एक और बड़ा तथ्य है, जिससे इंकार नहीं किया जा सकता। बसपा नेता आकाश आनंद ने पश्चिमी इलाक़ों में कई बड़ी चुनावी सभाएं कीं। उन्होंने दलितों को समझाया कि पांच हज़ार का राशन का झोला उनका शोषण है। अगर वो रोज़गार पाएंगे तो कम से कम साल का सवा लाख कमाएंगे, लेकिन भाजपा उनको ख़ैरात पर निर्भर बना रही है। इसके अलावा दूसरे दौर तक “संविधान ख़तरे में है” चुनावी मुद्दा बन चुका था। इसको हवा देने में भाजपा के बड़बोले नेताओं का हाथ तो है ही, लोगों के बीच इसको चर्चा का विषय बनाने में आकाश आनंद का भी योगदान रहा। शायद उन्होंने आगे चलकर इसी की क़ीमत चुकाई।
भाजपा की ही तरह मायावती और जयंत सिंह ज़मीन पर किसान, बहुजन और दलितों के दिल में पल रहे आक्रोश को पढ़ पाने में नाकाम रहे। जयंत सिंह की आरएलडी भाजपा के वोटों के सहारे दो सीट (बाग़पत और बिजनौर) पाने में भले ही कामयाब हो गई है, लेकिन अब वे बड़े नेता कभी नहीं बन सकते। उनको लेकर किसानों और मुसलमानों के मन में जो शंकाएं बन गई हैं, वे अब हमेशा रहेंगी। इसी तरह मायावती ने भी इस चुनाव में अपना बड़ा सियासी नुक़सान किया है। एक तो शुरू में जिस तरह उन्होंने टिकट बदले और अमरोहा, सहारनपुर, संभल समेत कई सीटों पर मुसलमान उम्मीदवार उतारे उससे मुसलमानों को संदेह हुआ कि बहनजी भाजपा की मदद कर रही हैं। दूसरे, जब आकाश आनंद को तमाम ज़िम्मेदारियों से मुक्त किया तो दलितों ने भी यही माना कि वह भाजपा की परोक्ष मदद कर रही हैं।
इसका फायदा समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को हुआ। भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र और यूपी सरकार के ख़िलाफ वंचित तबक़ों में तो ग़ुस्सा था ही, मुसलमान भी मौक़े की तलाश में थे। समाजवादी पार्टी ने शुरुआत में भले ही थोड़ी सियासी अपरिपक्वता दिखाई, लेकिन दूसरे दौर के बाद उसका टिकट वितरण बहुत शानदार रहा। अखिलेश यादव ने यादव और मुसलमान उम्मीदवारों के टिकट काटकर तमाम पिछड़ी जातियों का गठबंधन बनाने की पहल की। सामान्य सीटों पर दलितों को टिकट दिए। इससे दलित और पिछड़ों में यह भावना बनी कि समाजवादी पार्टी मज़बूती से चुनाव लड़ रही है और दलित-बहुजनों के प्रतिनिधित्व को लेकर गंभीर है।
बहरहाल, बेहतरी की गुंजाइश हमेशा रहती ही है, लेकिन इसके बावजूद इंडिया गठबंधन के लिए ये नतीजे हौसला बढ़ाने वाले हैं। यूपी में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस मौजूदा हालात में इतने सीमित संसाधनों के साथ इससे अच्छा चुनाव लड़ भी नहीं सकते थे। लेकिन इन नतीजों ने दोनों ही दलों के लिए संभावनाओं के नए रास्ते खोले हैं। अगर दलित, बहुजन, मुसलमान इसी तरह लामबंद रहें तो 2027 के विधानसभा चुनाव में गठबंधन के लिए उम्मीद की रोशनी नज़र आती है।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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