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दलित, पिछड़े, आदिवासियों सहित पूरे देश ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ जनादेश दिया : दीपंकर भट्टाचार्य

आम चुनाव से पहले जो मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में चुनाव हुए, उसमें भाजपा बनाम कांग्रेस के तौर पर मुकाबला हुआ, जबकि यह चुनाव इंडिया गठबंधन के तहत लड़ा जाना चाहिए था, जिसे मैं एक कमी के तौर पर देखता हूं। यदि यह चुनाव इंडिया गठबंधन लड़ा होता तो नतीजे कुछ और होते और उसका प्रभाव आम चुनाव पर भी सकारात्मक होता। पढ़ें, दीपंकर भट्टाचार्य से यह साक्षात्कार

लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन को 233 सीटों पर जीत मिली है और उसने भाजपा को अकेले बहुमत पाने से बहुत पीछे धकेल दिया है। हालांकि इसके बावजूद नीतीश कुमार की पार्टी जदयू और चंद्रबाबू नायडू की पार्टी टीडीपी के कारण एनडीए सरकार बनाने जा रही है। इस पूरे संदर्भ में फारवर्ड प्रेस ने भाकपा माले के राष्ट्रीय महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य से बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित अंश

हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव को दलित-बहुजन और वामपंथी दृष्टिकोण से देखा जाय तो इस संबंध में आपकी प्राथमिक प्रतिक्रिया क्या है?

निश्चित रूप से यह लोकसभा चुनाव जिन मुद्दों के आधार पर लड़ा गया, उसके केंद्र में गरीब, किसान, मजदूर, दलित-बहुजनों के सवाल थे। इंडिया गठबंधन का घटक दल होने के नाते हम कह सकते हैं कि हम सबने मिलकर यह चुनाव लड़ा और जो चार सौ पार का नारा दिया जा रहा था, देश की जनता ने उसे नकार दिया है। देखा जाय तो इस चुनाव में जनता ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ अपना जनमत दिया है। आप देखिए कि उत्तर प्रदेश जहां मोदी, शाह और योगी सभी लगे थे, वहां उन्हें हार मिली है। यहां तक कि सामान्य क्षेत्र फैजाबाद (अयोध्या) में भी भाजपा के उम्मीदवार को सपा के दलित समुदाय के उम्मीदवार से हार मिली। हालांकि हम यह स्वीकार करते हैं कि हमारी ओर से भी कुछ कमियां रही हैं, जिनके बारे में कल भी जब गठबंधन की बैठक हुई तब विचार-विमर्श किया गया। हमें उम्मीद थी कि हम बिहार में 20 से अधिक सीटें जीतेंगे। लेकिन हम ऐसा नहीं कर सके। आगे हम मिलकर इस बारे में आत्ममंथन करेंगे।

कल जो बैठक हुई, कृपया उसके बारे में बताएं?

कल हमलोगों ने चुनाव परिणामों पर विचार किया और यह तो सत्य ही है कि एनडीए को एलायंस के तौर पर बहुमत मिला है, जिसमें दो सबसे बड़े घटक दल हैं। इनमें से एक तो नीतीश कुमार की पार्टी जदयू है और दूसरी चंद्राबाबू नायडूडु की पार्टी टीडीपी है। भाजपा को अकेले बहुमत प्राप्त नहीं हुआ है और यदि सरकार का गठन होता है तो यह इन दोनों पार्टियों के सहयोग से ही बनेगी। कल हमलाेगों ने सामूहिक रूप यह निर्णय लिया है कि हम उचित समय पर उचित कदम उठाएंगे तथा जनता से जो हमने वायदे किए हैं, उन्हें पूरा करेंगे।

यदि हम इंडिया गठबंधन के गठन के प्रारंभ से बात करें तो प्रारंभ के दिन से लेकर कल हुई बैठक तक के सफर के बारे में बताएं। कैसा अनुभव रहा?

आपको शायद याद होगा कि इंडिया गठबंधन के गठन के पहले पटना में हमलोगों ने पार्टी अधिवेशन में एक सत्र रखा था– एकता के सवाल पर। उसमें नीतीश कुमार जी भी आए थे। हालांकि पहले तो उन्होंने यह कहा कि इसमें आकर मैं क्या करूंगा, लेकिन बाद में उन्हें कुछ समझ में आया तो वे अधिवेशन में आए। फिर उसी अधिवेशन में तेजस्वी यादव भी थे और कांग्रेस की ओर से सलमान खुर्शीद भी आए थे। तो एक तरह से प्रारंभ तो तभी हो गया था। फिर कर्नाटक के परिणाम ने माहौल को बदला और पटना में इंडिया गठबंधन के गठन को लेकर पहली बैठक हुई। इसमें नीतीश कुमार भी थे। हालांकि बाद में जब तीन राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव के परिणाम आए तब नीतीश कुमार अलग होने लगे थे, जो जनवरी तक आते-आते अलग हो ही गए। आम चुनाव से पहले जो मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में चुनाव हुए, उसमें भाजपा बनाम कांग्रेस के तौर पर मुकाबला हुआ, जबकि यह चुनाव इंडिया गठबंधन के तहत लड़ा जाना चाहिए था, जिसे मैं एक कमी के तौर पर देखता हूं। यदि यह चुनाव इंडिया गठबंधन लड़ा होता तो नतीजे कुछ और होते और उसका प्रभाव आम चुनाव पर भी सकारात्मक होता।

दीपंकर भट्टाचार्य, राष्ट्रीय महासचिव, भाकपा माले

इसका कितना असर पड़ा था उन दिनों? और यह कि उसके बाद आपलोगों ने नॅरेटिव कैसे सेट किया?

निश्चित तौर पर चुनौतियों की कोई कमी नहीं थी। नीतीश कुमार जी के अलग होने के बाद यह धारणा तेजी से फैलाई गई कि इंडिया गठबंधन का कोई अस्तित्व नहीं है। तमाम तरह की बातें कही गईं। फिर इसके बाद अयोध्या में राम मंदिर के नाम पर जो कुछ नरेंद्र मोदी द्वारा किया गया, वह एक तरह से लहर बनाने की कोशिश थी। तो ये तमाम बातें थीं। लेकिन उसके बाद आप कहिए कि तीन महीनों मार्च, अप्रैल और मई में माहौल बदला। जहां तक नॅरेटिव सेट करने की बात है तो यह तो भाजपा ने खुद अपने खिलाफ अपने दस साल के शासन के दौरान किया। आप याद करिए कि 2019 के चुनाव के पहले ही संविधान पर हमले के तमाम संकेत मिलने लगे थे। चाहे वह धारा 370 को हटाने का मामला हो, या फिर जम्मू-कश्मीर से राज्य का दर्जा छीन लेना, किसानों को एमएसपी नहीं देने के सवाल पर और बाद में समान नागरिक संहिता और एनआरसी के सवाल पर लोगों में यह बात फैलने लगी थी कि भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार डॉ. आंबेडकर द्वारा बनाएया गएया संविधान हटाकर ब्राह्मणवादी मनु द्वारा बनाया गया विधान देश पर लादना चाहती है। महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार का सवाल तो था ही। फिर अग्निवीर योजना ने आग में घी डालने का काम किया। तो इस प्रकार आप देखिए कि नरेंद्र मोदी की भाजपा सरकार के खिलाफ नॅरेटिव हमने सेट नहीं किया, बल्कि यह तो सरकार ने स्वयं सेट किया जनता के बीच। वह जनता जो संविधान को आज भी अपने हितों की रक्षा के लिए आवश्यक मानती है।

भाकपा माले के लिए भी यह एक नया अनुभव रहा कि कांग्रेस जैसी पार्टियां के साथ गठबंधन हुआ, जिसमें सामंतवादी तत्व हैं, और एक हद तक आपको जीत भी मिली।

देखिए, हम लोगों ने 2019 के पहले जब रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या की गई तब भगत सिंह और डॉ. आंबेडकर के विचारों को एक साथ लेकर सड़क पर उतरे। तब लोगों ने कहा कि यह कैसे हो सकता है। लेकिन हमने यह कर दिखाया। राजद और कांग्रेस के साथ बिहार में हमारा गठबंधन तो पहले भी था। 2020 में हमलोगों ने विधानसभा चुनाव में सफलता भी हासिल की। आप यह देखिए कि कांग्रेस में सामंतवादी तत्व हो सकते हैं, लेकिन मौजूदा दौर में आप पाएंगे कि वे प्रासंगिक नहीं रह गए हैं। आप यह देखिए कि जातिगत जनगणना का सवाल कांग्रेस के नेताओं ने भी उठाया। हम सबने मिलकर यह सवाल देश के सामने रखा। हमने दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के लोगों के हितों का सवाल उठाया और मुझे खुशी है कि देश की जनता ने हमारे सवालों को सुना और नरेंद्र मोदी के खिलाफ जनादेश दिया। 

आदिवासियों की बात करें तो यह देखा गया कि झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में जहां आदिवासी हैं, वहां आपकी पार्टी नहीं दिखती है या फिर यह कहें कि आपका प्रभाव नहीं दिखा। आप क्या कहेंगे? 

बुरा नहीं मानिएगा, आप मुझसे बात इसलिए करने आए हैं, क्योंकि हमारी पार्टी ने दो लोकसभा क्षेत्रों में जीत दर्ज की है। लेकिन चुनावी राजनीति अपनी जगह है और हमारी उपस्थिति व हमारा संघर्ष अपनी जगह है। हम झारखंड के आदिवासियों के सवाल पर उनके साथ खड़े हैं। आप देखिए कि झारखंड में इंडिया गठबंधन को जो पांच सीटें मिली हैं, फिर चाहे वह दुमका हो, लोहरदग्गा हो, वे सभी आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटें हैं। वहां हमारा संघर्ष पहले से रहा है। आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन के सवाल पर हम उनके साथ रहे हैं। ऐसे ही हम मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के साथ रहे हैं। आप यह देखिए अब इस पूरे संघर्ष में केवल राजनीतिक पार्टियां ही नहीं, सिविल सोसायटी भी उनके साथ है। तो मूल बात यह है कि चुनावी राजनीति या कहिए कि हार-जीत के आधार पर आप यह तय नहीं कर सकते। आप देखिए कि पंजाब में हमारी पार्टी किसानों के साथ मिलकर काम कर रही है। फिर उत्तर प्रदेश हो, हरियाणा हो या फिर राजस्थान हो।

इस बार देखा गया कि उत्तर प्रदेश में मतदान स्थल से लेकर मतगणना केंद्र तक सपा के कार्यकर्ता जुटे रहे। ऐसा दृश्य बिहार में नहीं देखा गया। कहीं न कहीं यह भी कम सीटें मिलने की वजह रही?

बिहार में जहां हमारी पार्टी के उम्मीदवार थे, हमारे कार्यकर्ता मुस्तैदी से तैनात थे। लेकिन कुछ कमियां हमारी ओर से रही होंगी। दूसरी बात यह भी देखने की है कि चुनाव आयोग स्वयं कटघरे में रहा। ऐसे में ईवीएम पर सवाल तो उठता ही है। मैं तो यह भी मानता हूं कि बैलेट से चुनाव हो। लेकिन यदि चुनाव कराने वाली संस्था ही कटघरे में हो तो क्या कहा जा सकता है।

वापस मौजूदा राजनीति पर आते हैं। सरकार के गठन की प्रक्रिया शुरू हो गई है। इंडिया गठबंधन की कार्ययोजना क्या होगी, क्या इस पर भी विचार किया गया है‍?

हां, यह खबर तो आई है कि उनलोगों ने नरेंद्र मोदी को अपना नेता चुन लिया है। नैतिकता तो यही कहती है उन्हें नेता नहीं चुना जाना चाहिए था और अमित शाह को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन अब सवाल उनकी नैतिकता का रह नहीं गया है, क्योंकि जनता ने अपना जनादेश नरेंद्र मोदी की हुकूमत के खिलाफ दिया है। रही बात इंडिया गठबंधन की तो हमलोगों ने कल भी कहा है कि हम उचित समय पर उचित कदम उठाएंगे और जनता से किए अपने वायदों को पूरा करेंगे।

आगे अगले साल बिहार में विधानसभा चुनाव भी होने हैं। इसे लेकर कोई कार्ययोजना …

अगले साल या फिर इस साल भी मुमकिन है। नीतीश कुमार जी को देख ही रहे हैं। हो सकता है कि हरियाणा में होनेवाले विधानसभा चुनाव के साथ ही हो जाय। हम इंडिया गठबंधन के घटक दल एकजुट हैं और फासीवादी ताकतों का मुकाबला करेंगे और उन्हें परास्त करेंगे।

(संपादन : अनिल)

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार/राजन कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं। राजन कुमार फारवर्ड प्रेस के उप-संपादक (हिंदी) हैं।

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