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साहित्य का आकलन लिखे के आधार पर हो, इसमें गतिरोध कहां है : कर्मेंदु शिशिर

‘लेखक के लिखे से आप उसकी जाति, धर्म या रंग-रूप तक जरूर जा सकते हैं। अगर धूर्ततापूर्ण लेखन होगा तो पकड़ में आ जायेगा। तुलसीदास का ब्राह्मणत्व आपने लेखन के आकलन से तो जाना। साहित्य का आकलन लिखे के आधार पर हो।’ पढ़ें, कर्मेंदु शिशिर से यह साक्षात्कार

बिहार के बक्सर जिले के एक गांव उनवांस में 26 अगस्त, 1953 को जन्मे कर्मेंदु शिशिर प्रसिद्ध साहित्यकार व समालोचक हैं। छात्र जीवन से वामपंथी राजनीति में सक्रिय रहे शिशिर मगध विश्वविद्यालय, बिहार में हिंदी के अध्यापक रहे हैं। उनके द्वारा संग्रहित पत्र-पत्रिकाएं व पुस्तकों का संग्रह जर्मनी के एबरहार्ड कार्ल्स यूनिवर्सिटी ऑफ़ ट्यूबिंगन में ‘कर्मेंदु शिशिर शोधागार’ में शोधार्थ रखा गया है। उनकी प्रकाशित कृतियाें में ‘बहुत लम्बी राह’ (उपन्यास), ‘कितने दिन अपने’, ‘बची रहेगी जिन्दगी’, ‘लौटेगा नहीं जीवन’ (कहानी-संग्रह), ‘नवजागरण और संस्कृति’, ‘राधामोहन गोकुल और हिन्दी नवजागरण’, ‘हिंदी नवजागरण और जातीय गद्य परंपरा’, ‘1857 की राजक्रांति : विचार और विश्लेषण’, ‘भारतीय नवजागरण और समकालीन सन्दर्भ’, ‘निराला और राम की शक्ति-पूजा’ (शोध-समीक्षात्मक लेख, आलोचना) आदि शामिल हैं। वहीं इनके द्वारा संपादित कृतियों में ‘भोजपुरी होरी गीत’ (दो भाग), ‘सोमदत्त की गद्य रचनाएं’, ‘ज्ञानरंजन और पहल’, ‘राधामोहन गोकुल समग्र’ (दो भाग), ‘राधाचरण गोस्वामी की रचनाएं’, ‘सत्यभक्त और साम्यवादी पार्टी’, ‘नवजागरण पत्रकारिता और सारसुधानिधि’ (दो खंड), ‘नवजागरण पत्रकारिता और मतवाला’ (तीन खंड), ‘नवजागरण पत्रकारिता और मर्यादा’ (छह खंड), ‘पहल की मुख्य कविताएं और वैचारिक लेखों का संकलन’ (दो भाग) आदि शामिल हैं। बहुजन साहित्य की अवधारणा के संबंध में फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार के प्रश्नों का कर्मेंदु शिशिर ने लिखित उत्तर दिया है। 

साहित्य का विस्तार हुआ है और एक हद तक इसका लोकतांत्रिकरण भी हुआ है। लेकिन अब भी हिंदी साहित्य में एक खास तरह का वर्चस्व देखने को मिलता है और महसूस होता है कि इस समाज के वंचितों और शोषितों का साहित्य हिंदी के बाजार के लिए बहुत अधिक मायने नहीं रखता। क्या आपको नहीं लगता है कि साहित्य में यह लोकतांत्रिकरण महज दिखावे का लोकतंत्र है?

साहित्य मूलतः अपनी प्रकृति से लोकतांत्रिक होता ही है। आपके सवाल का संकेत संभवतः यह हो सकता है कि जो एक नया वर्ग, नया समुदाय साहित्य में आया है, वह पूर्व के लोगों के वर्चस्ववाद से उपेक्षित किया जा रहा है। इसमें जातिगत प्रभाव की भावना भी अप्रत्यक्ष रूप से हो सकती है, जिसे आसानी से कोई स्वीकार नहीं करेगा। दरअसल, ऐसा कुछ पहले से होता रहा है, लेकिन तब तो समुदाय या वर्ग की बात भी नहीं थी और न यह आधार होता था। निराला जैसे लोग भी बहुत बाद तक किसी ज्ञात-अज्ञात के वर्चस्ववाद के शिकार रहे। इसलिए साहित्य में लंबे समय तक उपेक्षित, एकदम दबे रहने या दबाए जाने के उदाहरण तो खूब मिलेंगे। गालिब जैसे महान शायर को तो कवि और मुसलमान भी उस समय नहीं मानते थे। मेरा कहना यह है कि इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि इसके बावजूद वे साहित्य के सर्वोच्च शिखर तक कैसे आए? अपनी रचना के ही तो भरोसे या उनकी जाति या समुदाय का वर्चस्व बन गया? तब सारे समुदाय के बीच वे कैसे महान बन गये; सोचिए। जिसे यह महसूस होता है कि मेरी या किसी की महत्वपूर्ण रचना सायास उपेक्षित की जा रही है तो वह क्या करे? स्वतंत्र तंत्र विकसित करे अथवा उसको मनवाने के उद्यम में लगे? उसके पास संसाधन हो, न हो। मेरे कहने का मतलब है कि साहित्य में यह तरीका नहीं होता है। किसी भी समुदाय का लेखक क्यों न हो।

आप खुद सोचिए कि हर लिखने वाला दलित यह मांग करे कि हमको भी ओमप्रकाश वाल्मीकि और नैमिशराय की तरह साहित्य में सम्मान दीजिए। यह कैसे संभव है? कोई यादव लिखने वाला खुद को राजेंद्र यादव या वीरेंद्र यादव की जगह की मांग करे तो यह संभव है? यह राजनीति नहीं है न, इसलिए मांग भी उसकी तरह नहीं होनी चाहिए। फिर आप इतना अधीर किस बात के लिए हैं और आपकी साहित्य के संदर्भ में उपलब्धि और देन क्या है? आप उस हैसियत के लिए कितनी साधना करते हैं? इसलिए एक ही रास्ता है, अहर्निश इस फिराक में रहना कि कैसे हम बेहतर, और बेहतर लिखें। हमारा नजरिया व्यापक हो, विश्व दृष्टिकोण बने। लेखक एक जाति, धर्म और वर्ग या समुदाय का नहीं होता। वह विशाल और व्यापक मानवता का होता है। मैंने तो दुनिया का जो थोड़ा-बहुत साहित्य पढ़ा है, उससे यही समझा है।

अब भी जब हम दलित साहित्य, ओबीसी साहित्य, आदिवासी साहित्य की बात करते हैं तो अमूमन यह कह दिया जाता है कि साहित्य का इस तरह से वर्गीकरण किया जाना गलत है। आपकी राय क्या है?

साहित्य का वर्गीकरण लिखे साहित्य के विषय और अंतर्वस्तु के आधार पर होता है। आप जब दलित, ओबीसी या आदिवासी कहते हैं तो इससे लेखकों का बोध होता है। इस वर्गीकरण में सबसे बड़ी समस्या तो यह है। अब आप साहित्य में अनुभववाद की चर्चा कीजिएगा कि दलित, ओबीसी या आदिवासी जीवन को वह जिस प्रामाणिकता से करेगा, वह सवर्ण न कर सकेगा। फिर यह सवाल भी तो उठेगा कि दलित, ओबीसी और आदिवासी जो सवर्ण के जीवन पर लिखेगा, वह कैसे प्रामाणिक हो जाएगा? किसी स्त्री चरित्र को, किसी बूढ़े चरित्र को आप कैसे प्रामाणिक रूप से रचिएगा? जैक लंदन या ऑरवेल ने जानवर को चरित्र बनाकर उपन्यास रचा। फिर कोई चरित्र चोर, हत्यारा, जेबकतरा या पुलिस अधिकारी है, उनको वह कैसे रचेगा? यहीं पर लेखक का अंदाज होता है।

लेखक को आप जाति, धर्म, रंग, रूप, लिंग या नस्ल के आधार पर आकलन नहीं कर सकते। वे दलित पर लिखें, ओबीसी पर लिखें, आदिवासी पर लिखें, हिंदू-मुस्लिम, ईसाई, सिख, पारसी, अफ्रीकी, स्त्री-पुरुष, बच्चा-बूढ़े, जिस पर चाहे लिखें। वह लिख सकता है। वह समय, समाज और जीवन पर ही तो लिखेगा, लेकिन उसे खुद मानवता का प्रवक्ता होना है। उसका आकलन उसके लिखे पर ही होगा। अब सवाल यह है कि वह अधिकतम यथार्थ और सच को प्रस्तुत करने के लिए कैसे क्या करें? यह आप बंदिश नहीं लगा सकते कि दलित ही दलित पर लिखे। लेखक के लिए सबसे जरूरी है परकीयन। परकाया प्रवेश! यह प्रतिभा जिस लेखक में जितनी ज्यादा होगी, वह लेखक उतना ही बड़ा लेखक होगा। यह एक बात हुई। उसके पास विश्व दृष्टि होनी चाहिए। वह विश्व नागरिक होता है। अगर फिलिस्तीन या लेबनान में या अफ्रीका में या पाकिस्तान में या भारत में मानवता के विरुद्ध कुछ हो रहा है, तो वह बोलेगा – जरूर बोलेगा। अब प्रश्न यह है कि इसमें लेखक अपनी जाति, धर्म, देश, नस्ल, लिंग या रंग-रूप देखकर पक्षधरता से लिखता है तो वह निश्चित रूप से आलोच्य होगा। अब इसमें एक बात और है। कुछ लेखकों में कुछ पक्ष तो आपको सही मिल सकता है और कुछ आपको लग सकता है कि यह समय से मेल नहीं खाता और कुछ लोगों के विरुद्ध चला जाता है, लेकिन कुछ पक्ष बेहतर और सार्थक भी है। इसलिए आलोचना ऐसी होनी चाहिए, जिसमें हम अपने समय की मांग के अनुरूप संग्रह और त्याग खुद तय करें। कबीर के सामाजिक पक्ष को हम स्वीकार करते हैं, लेकिन स्त्रियों को लेकर उनके पक्ष को छोड़ देते हैं। तुलसी की सामाजिक पक्षधरता को हमने त्याग दिया, लेकिन जीवन के पक्ष को स्वीकार कर लिया। इसलिए कि उनकी सोच अपने समय और समाज के साथ उनके विचार और संस्कार से बने हुए थे। लेकिन साहित्य में किसी को पूरा स्वीकार या पूरा नकार कीजिएगा तो आगे का विकास प्रभावित होगा। मूल बात आपकी ईमानदारी, आपकी सोच, संस्कार, जरूरत और समझ से ही तय होगी। आप दलित, ओबीसी, आदिवासी, सवर्ण, ब्राह्मण, हिंदू-मुस्लिम या ऐसा ही कुछ और खुद बने रहकर दूसरे का आकलन कीजिएगा तो संभव है आपसे कहीं चूक हो जाए। इसलिए रैशनल तो होना ही होगा। हमारे यहां इसको अनासक्त कहते हैं।

आपने कहा कि लेखक को आप जाति, धर्म, रंग, रूप, लिंग या नस्ल के आधार पर आकलन नहीं कर सकते। लेकिन सहानुभूति, समानुभूति और स्वानुभूति में फर्क दिख जाता है। जैसे प्रेमचंद ‘नमक का दारोगा’ में फर्क करते दिख जाते हैं, रेणु ‘मैला आंचल’ में और कृष्णा सोबती ‘मित्रो मरजानी’ में करती दिख जाती हैं।

लेखक के लिखे से आप उसकी जाति, धर्म या रंग-रूप तक जरूर जा सकते हैं। अगर धूर्ततापूर्ण लेखन होगा तो पकड़ में आ जायेगा। तुलसीदास का ब्राह्मणत्व आपने लेखन के आकलन से तो जाना। साहित्य का आकलन लिखे के आधार पर हो। शायद आप भी यही कहना चाहते हैं। इसमें गतिरोध कहां है?

कर्मेंदु शिशिर

दलित, ओबीसी, आदिवासी, स्त्री रैशनल तब हो सकेंगे, जब उनके विमर्श को सही ढंग से विचारित किया जाएगा। यदि ऐसा नहीं होता है तो जैसे ओमप्रकाश वाल्मीकि ने ‘जूठन’ लिखा, वैसे ही अपने जीवनानुभवों को लिखने के लिए बाध्य होते रहेंगे। हम मधुकर सिंह को ही देखें तो हम पाते हैं कि उनके अंदर एक छटपटाहट है। या फिर रेणु के अंदर भी एक बेचैनी दिखती है। मेरा आशय यह है कि रैशनल होने की परिस्थितियां तो बनें।

आपका सवाल सामाजिक है। सामाजिक सवालों की ज्वलंतता अलग होगी। रेणु जी दुनिया की दूसरी भाषाओं में गए। उनको पाठक तो साहित्य की निगाह से ही न देखेंगे। जब आप इतिहास में इन समुदायों की उपेक्षा और अन्याय को लेकर बात करेंगे, जो बिलकुल अलग होगी। आप दोनों को घालमेल मत कीजिए। आज जब दलित, ओबीसी, आदिवासी और स्त्रियां खुद लेखन में आईं तो नए यथार्थ भी आए। मलखान सिंह की एक कविता में है कि ‘हम बीच टट्टी से उठकर आये’ – सामंतवाद पर इससे ज्यादा कठोर और तीखा विरोध और क्या होगा! यही तो साहित्य की खूबी है। हिंदी में यह यथार्थ नया था। इसने हिंदी को समृद्ध किया। साहित्य में जो है, उसी के यथार्थ को कौन उकेर रहा है। आपका अनुभव और आपका संघर्ष जब उपयुक्त भाषा में गद्य-शैली में आएगा, तब ही वह विशिष्ट होगा न! जीवन के यथार्थ को हू-ब-हू साहित्य में रखने से वह बेकार का हो जाता है। लेखक उस अनुभव के साथ अपना ‘कुछ’ मिलाकर प्रस्तुत करता है और रेणु बन जाता है। उस ‘कुछ’ को तो हासिल करना होगा या नहीं?

यदि हम नवजागरण काल की बात करें तो हीरा डोम की कविता ‘अछूत’ की शिकायत सामने आती है। दलित साहित्यकार/समालोचक इसे दलित साहित्य का उद्गम मानते हैं। लेकिन भिखारी ठाकुर के साहित्य को एक तरह से खारिज ही कर देते हैं, जबकि उनके साहित्य में भी बहुसंख्यक समाज का विमर्श शामिल है। क्या आपको नहीं लगता है कि भिखारी ठाकुर द्वारा रचित साहित्य को ओबीसी साहित्य यदि न भी कहें, तो बहुजन साहित्य का प्रस्थान बिंदु माना जाना चाहिए?

नवजागरणकाल में भिखारी ठाकुर की चर्चा नहीं होती, यह कहना सही नहीं है। भिखारी ठाकुर के नाटकों की जबर्दस्त चर्चा हुई है। उनके नाटक ‘गबरघिचोर’ को तो कुछ ने विश्व स्तर का माना है। उन पर बहुत लेख लिखे गए हैं। प्रसिद्ध कथाकार संजीव जी का उपन्यास भी है। राष्ट्रभाषा परिषद् बिहार से उनकी रचनावली निकली है। उनकी रचनाएं हिंदी पाठकों के लिए देर से उपलब्ध भी हुई। उनके महत्त्व पर पहला लेख महान् नाट्यकार और नाट्य-मर्मज्ञ जगदीश चंद्र माथुर का लेख है। हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत’ 1914 में ‘सरस्वती’ में छपी। तब किसी ने उनके बारे में शोध नहीं किया कि वे कौन थे, उनकी अन्य रचनाएं हैं या नहीं। रामविलास शर्मा ने उसे उद्धरित किया और लिखा। देखिए, हिंदी नवजागरण पर लिखते हुए आप सिर्फ हिंदी में लिखे साहित्य को ही लेते हैं। भोजपुरी का नहीं। अभी तक हिंदी क्षेत्र के नवजागरण पर किसी ने काम ही नहीं किया। इसमें भिखारी ठाकुर के अलावे ईसुरी जैसे बड़े व्यक्तित्व आते हैं। बिसराम के विरहे आयेंगे। उर्दू साहित्य आएगा। इसलिए हिंदी नवजागरण और हिंदी क्षेत्र के नवजागरण को एक साथ मिलाकर देखने से उलझन होती है, इसे हिगराना चाहिए। यहां नफ़रत की बात होती तो सवर्ण रैदास, मलूकदास, जगजीवन दास वगैरह दलित कवियों पर क्यों इतना श्रमसाध्य और महत्त्वपूर्ण काम करते? अब मैं आपको अपने अनुभव की बात कहता हूं। हिंदी नवजागरण पर काम करते हुए मुझे दलित साहित्य पर जिन सामग्रियों की जानकारी मिली, उनकी मैंने सूची तैयार की। मैं अनेक युवा शोधार्थियों को, जो मेरे पास आते थे या जुड़े थे, कहा कि आप हमसे यात्रा व्यय लेकर कोलकाता जाएं और इसे खोज कर अपने संपादन में प्रकाशित करें। मैं संपादन से प्रकाशन तक मदद करूंगा। आपकी भाषा में कहूं तो उसमें दलित और ओबीसी भी थे। मैं तो नाम और काम के अलावा और कुछ भी किसी का याद ही नहीं रखता। दिमाग में जरूरी चीजों के लिए ही जगह कम पड़ती है। अब तो नाम भी भूलने लगा हूं। यह बात मैं इस आसंग में कह रहा हूं कि हीरा डोम से पहले – बहुत-बहुत पहले से दलित समुदाय संबंधी लेखन हुआ है। आप खोज नहीं कीजिएगा तो कैसे होगा? सिर्फ ब्राह्मणों को गलियाने से तो नहीं काम होगा। सदानंद मिश्र, अमृतलाल चक्रवर्ती अपना सारा धन लुटाकर, भूख और इलाज के अभाव में मरे, लेकिन नवजागरण में नींव के दुर्लभ पत्थर बने। कोई उनको ब्राह्मण कहे, मैं उनको हिंदी का शहीद कहूंगा। आपसे आज के संसाधन में शोध नहीं होता, पुस्तकालय-पुस्तकालय भटकते नहीं और चाहते हैं कि हमको वह जगह क्यों नहीं मिलती, जो मैं चाहता हूं? अरे भाई, यह साहित्य है, इसमें अपनी जगह खुद अर्जित करनी होती है – अपने काम से। उर्मिलेश जी ने जो लिखा-पढ़ा और हासिल किया, वह इस कारण कि वे यादव हैं? अब कोई यादव पत्रकार बने और कहे कि उर्मिलेश जी की जगह हमको भी दीजिए। उर्मिलेश जी आईएएस भी हो सकते थे, त्याग किये। मगर हम त्याग नहीं, सिर्फ पाना चाहते हैं। ऐसा कभी होता है? दिल्ली विश्वविद्यालय में मेरे मित्र प्रो. रतनलाल जी हैं। काशीप्रसाद जायसवाल पर काम के दौरान मैंने उनको देखा है। कितना श्रमसाध्य काम था, मगर उन्होंने किया। एक बड़ा काम किया। उनकी सराहना सब करते हैं। आप देखिए कि साहित्य, ज्ञान की विविध विधाएं, कला, संगीत, फिल्म, खेल और अनेक क्षेत्रों में कितने दलित, ओबीसी और आदिवासी जा रहे हैं। सब खादी पहनकर राजनीति में कोई पद चाहते हैं। ऊंची नौकरियों का वरण करते हैं। कठिन साधना किसी को पसंद नहीं। सबको सिर्फ चाहिए। गलत कह रहा हूं तो कहिए। आपकी ही तरह कितने समर्पित लोग हैं? बहुत मेरे संपर्क में आए। मैंने उन पर समय दिया। नौकरी लगी और फ्लैट-कार में लग गए। अब फोन तक नहीं करते। मुझे रिटायर हुए पांच साल हुए। न फ्लैट, न जमीन और न कार है। हम तो शेयर ऑटो से भी चल लेते हैं। सब बाद में बेटे ने किया। तो आप घनघोर साधना नहीं कीजिएगा, खूब-खूब अध्ययन नहीं कीजिएगा, समर्पण से काम कर कुछ ऐसा, जो पहले न हुआ हो, यह सब नहीं कीजिएगा, लेकिन सिर्फ जाति-समुदाय के आधार पर जगह चाहिएगा तो यह राजनीति में ही संभव है। साहित्य में कैसे होगा? आत्मनिरीक्षण करना बहुत जरूरी है।

प्रेमचंद को डॉ. धर्मवीर ने सामंतों का मुंशी कहा। अक्सर उनके द्वारा रचित गद्यों में जाति को लेकर सवाल उठाए जाते हैं। फिर चाहे वह ‘कफन’ हो या ‘गोदान’। इन दोनों रचनाओं में प्रेमचंद ने दलित-बहुजन समाज को केंद्र में रखा है। इसके पीछे की पृष्ठभूमि हमें स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ के आदि हिंदू आंदोलन तक ले जाती है। क्या आपको लगता है कि प्रेमचंद ने बहुजन साहित्य की पहली परिकल्पना प्रस्तुत की थी?

हर आदमी हर चीज नहीं पढ़ सकता। डॉक्टर धर्मवीर जी को मैंने नहीं पढ़ा। प्रेमचंद के ‘गोदान’ के बारे में रामविलास शर्मा से लेकर वीरेंद्र यादव तक को पढ़ा है। वीरेंद्र जी के लेख को पढ़कर एक बार नामवर जी ने कहा था कि जो सबसे छूट गया था, उसे तुमने पूरा कर दिया। इसलिए साहित्य में ‘गोदान’ को या किसी कृति को सिर्फ एक नजरिए से ही नहीं देखा जाता। साहित्य होता ही है बहुजन, बहुसंख्यक के लिए। आप बहुजन से जो अर्थ समझ रहे हैं, उसी समझ से प्रेमचंद को साहित्य में देखा-समझा जाए, यह तो संभव नहीं। आप अपनी समझ या अपने नजरिए से देखें, इस पर कोई रोक नहीं। आप जिस अर्थ में बहुजन शब्दावली या अवधारणा का प्रयोग कर रहे हैं, वह साहित्येत्तर है। साहित्येत्तर अवधारणा से आकलन करने पर संभव है कि साहित्य में दो कौड़ी की रचना भी बहुत उपयोगी हो जाए। आजकल यूरोप में सामाजिक शोध के लिए साहित्य का खूब उपयोग हो रहा है। जैसे ‘नौकर’ को ले लीजिए। अब नौकर पर कहानी महान है या दो कौड़ी की, इससे मतलब नहीं। कहानी नौकर की होनी चाहिए। अब दो कौड़ी की कहानी लिखने वाला यह कहते चलता है कि उसकी कहानी पर यूरोप में शोध हो रहा है। जर्मनी से अक्सर मेरे पास आता है कि ऐसी कहानी बताइए, जिसमें स्टेशन का उल्लेख हो और वह कब छपी। जब मुझे पता चलता तो मैं सीधे मना कर देता था या यूरोप में प्रसिद्ध आतुर लोगों के नाम बता देता था। एक बात जो मेरी नजर और समझ से बुनियादी है कि पहले किसी कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक को कविता, कहानी, उपन्यास या नाटक होना होगा। फिर कोई बात होगी। साहित्य राजनीति, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन या इतिहास नहीं है। यह सब उसके उपजीव्य हो सकते हैं। आप इन सबमें साहित्य का उपयोग करें। मगर साहित्य इससे आगे और ऊपर की चीज है। स्टालिन साहित्यकारों को मानव आत्मा का इंजीनियर कहते थे। अब आइए ‘कफन’ कहानी पर। इस कहानी के चरित्र बहुजन हैं या दलित, इस पर कहानी का उत्कर्ष नहीं टिका है। यह कहानी सामंती समाज में निर्धनता के आदी हो चुके घीसू-माधव के भूख की कहानी है। यह भूख उसे काहिल, अमानवीय बनाती है, यह पाठक देख रहा है, लेकिन घीसू-माधव के लिए भूख मुख्य है। वे मानवीय-अमानवीय और रिश्ते के अपनापन से परे जा चुके हैं। इन सबका उनको कोई अहसास ही नहीं है। यह भूख की आत्यंतिक अवस्था में पहुंच चुके मनुष्य की अकल्पनीय पीड़ा की कहानी है। धर्मवीर जी को, किसी दलित, ओबीसी या सवर्ण को आजादी है कि वह अपने तरीके से कहानी को समझे। यह तो जबर्दस्ती होगी न कि हम जो समझ रहे हैं, वही सही है और सब उसे ही माने। अपनी समझ से छूट है हमको। आप जो मन करे मानिए।

इसका मतलब आप बहुजन साहित्य जैसी परिकल्पना से इंकार करते हैं, जिसमें दलित, ओबीसी और आदिवासी समुदायों का विमर्श स्पष्ट रूप से रेखांकित हो? फिर तो आप दलित साहित्य को भी खारिज करेंगे।

आप गलत समझ रहे हैं। मैं बहुजन साहित्य या दलित साहित्य को क्यों नकारूंगा? मेरी बात पर गौर कीजिए। मैं बहुजन लेखक और लेखन, और दलित लेखक और लेखन, को एक नहीं मानता। दूसरी बात यह कि गैर-दलित भी दलित पर बेहतर लेखन कर सकता है। बहुजन पर गैर-बहुजन भी बेहतर लेखन कर सकता है। बहुजन और दलित होने मात्र से किसी का लेखन बेहतर नहीं होगा। उसमें जरूरी तत्व होना चाहिए। बस। तब आप सवाल कीजिए।

इस तरह का कोई भी संदेह हो या असहमति, आपको वह मेरे लिखे किन पंक्तियों से हुई? उसको उद्धरित कीजिए। इस तरह का रिमार्क कि आपको ऐसा लगा, काफी नहीं। किस आधार पर लगा, यह बताना जरूरी है। एक बात और आप बहुजन लेखक और दलित लेखक के पक्षधर हैं कि बहुजन लेखन और दलित लेखन के? बहुजन शब्द भी आप बाहर से लाकर साहित्य में घुसा रहे हैं। साहित्य व्यापक रूप से होता ही है बहुजन के लिए। उसे आप मानवता के हित में मान सकते हैं।

स्वतंत्रता के बाद नई कहानी का दौर आया। इस दौर में भले जाति केंद्रीय तत्व नहीं रहा, और यह लगा कि अब साहित्य एक नए वर्ग के लिए लिखा जाने लगा है। इस वर्ग में दलित-बहुजन भी शामिल रहे। क्या हम यह मान लें कि नई कहानी का दौर समाज की सच्चाई से मुंह चुरा रहा था?

नई कहानी का दौर आधुनिक हिंदी साहित्य का अत्यंत महत्वपूर्ण और समृद्ध दौर है। अपने समय से मुंह चुराने की बात वही कर सकता है, जिसने उस दौर की महान रचनाओं को नहीं पढ़ा होगा। रेणु जी उसी दौर के हैं, राही मासूम रजा उसी दौर के हैं, शानी हैं, अमरकांत, रांगेय राघव, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, शैलेश मटियानी, शिवप्रसाद, मार्कण्डेय वगैरह सब एक साथ एक समय में लिख रहे थे। उनके समय के समाज, मनुष्य और जीवन का ऐसा विशाल क्षितिज तो फिर कभी आया ही नहीं।

आप क्या समझ रहे हैं कि इन सबने जो साहित्य लिखा है, वह अल्पजन के लिए है? आप बहुजन से जो मतलब समझ रहे हैं, जिस रूप में समझ रहे हैं, आप चाहते हैं कि साहित्य में भी वही, उसी रूप में समझा जाय? साहित्य में ऐसी चाह बड़े-बड़े विचारक भी रखने की हिमाकत नहीं करते। साहित्य में मार्क्स, आंबेडकर, गांधी और लोहिया तो ऐसा सोच ही नहीं पाए। उनकी रोशनी में जीवन-जगत को साहित्य ने लिया और जितना लेना था, उतना ही लिया। इसमें किसी के विचार को यथावत किसी ने लिया तो वह साहित्य में ओझल हो गया। बहुजन का लेबल लगाकर लिखा साहित्य, चल ही नहीं सकता।

फणीश्वरनाथ रेणु की रचनाओं को क्या हम ओबीसी साहित्य या फिर इससे बढ़कर बहुजन साहित्य मान सकते हैं, क्योंकि कहीं न कहीं उनकी रचनाओं में बदलते हुए भारतीय समाज – जिसमें दलित, ओबीसी और आदिवासियों – की बढ़ती चेतना व महत्वाकांक्षा की झलक दिखती है?

आपने जिन कारणों का उल्लेख किया है, वह होने पर ओबीसी का साहित्य माना जाएगा तो जरूर मान सकते हैं। आप अपने अवधारणात्मक आधार पर खरे उतरने वाले किसी साहित्य को ओबीसी साहित्य मान सकते हैं। मानने में कोई फर्क नहीं है। न इसकी मनाही है, लेकिन यही बात सबको मानने के लिए आप बाध्य नहीं कर सकते। ठीक इसी अवधारणा पर आपकी ही शब्दावली में ओबीसी माना जाय तो आलोचक वीरेंद्र यादव ने रेणु जी के ‘मैला आंचल’ पर इन बातों के अलावा अनेक पक्षों पर बहुत ही बढ़िया आलोचनात्मक लेख लिखा है। सारी जागरूकता और सामाजिक परिवर्तन को उसमें दिखाया है, लेकिन उन्होंने ‘मैला आंचल’ को कहीं ओबीसी साहित्य नहीं कहा है। मेरे लिए रेणु जी, रेणु जी हैं और वीरेंद्र यादव मित्र वीरेंद्र यादव जी। अब आपको बताना है कि ओबीसी पर ओबीसी आलोचक उसको ओबीसी साहित्य क्यों नहीं मानता? क्यों नहीं कहता? देखिए, रेणु जी संक्रमण के दौर के लेखक थे। सामाजिक परिवर्तन घटित हो रहे थे। समाज में बदलाव आ रहा था। रेणु जी ने इस सामाजिक परिवर्तन के यथार्थ की पहचान की। वीरेंद्र यादव जी ने प्रेमचंद और राही मासूम रजा के कथा साहित्य में भी इस सामाजिक विभेद और बदलाव को रेखांकित किया है। हिंदी के ही मशहूर कथाकार हैं महेश कटारे और हृषीकेश सुलभ। दोनों की क्रमशः कहानी और उपन्यास में ओबीसी के बीच बढ़ते आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक ताकत से उनके व्यवहार में आये बदलावों को बड़ी खूबसूरती से अंकित किया है। उनकी बढ़ती सामाजिक दबंगई और रुतबे को लिखा है। तो क्या इसे ओबीसी विरोधी साहित्य कहिएगा? साहित्य में अधिक से अधिक इसे सामाजिक परिवर्तन का यथार्थ कहा जाएगा, क्योंकि समाज गतिशील है। उसमें लगातार परिवर्तन हो रहा है। लेखक का धर्म है कि वह अपने समय के हर परिवर्तन को अंकित करे। इससे सामाजिक स्तर पर आए आचरण और व्यवहार को भी दर्ज करे। बहुजन या कोई अन्य उसे अपनी जरूरत के अनुसार उपयोग करे। यह तो बहुत अच्छी बात है, लेकिन उस सोच को वह साहित्य पर थोपे नहीं बस।

प्रेमचंद की रचनाओं – वह चाहे उनकी अंतिम कृतियों में शामिल ‘गोदान’ ही क्यों न हो – में जब दलित-बहुजन पात्र आते हैं तो ऐसा लगता है कि उनका प्रतिरोध अपने वास्तविक रूप में नजर नहीं आता है, जबकि रेणु की रचनाओं में वे अपेक्षाकृत अधिक सकारात्मक नजर आते हैं, उनका प्रतिरोध सामने आता है। क्या आप इससे सहमत हैं?

अजीब सवाल है यह! आप प्रेमचंद और रेणु को एक ही समय में रखकर एक ही आधार पर निर्णय कर रहे हैं। प्रेमचंद जिस समय में लिख रहे थे, उस समय का सामाजिक यथार्थ वही था, जो रेणु के समय का सामाजिक यथार्थ था? क्या समाज पत्थर की तरह अपरिवर्तनशील रहा? समाज में कोई गतिशीलता नहीं? न आर्थिक परिवर्तन हुआ और न राजनीतिक परिवर्तन? इसलिए उस समाज के हर व्यक्ति का स्वभाव, व्यवहार, आचरण, सोच-संस्कार भी यथावत रह गए? तब तो आप विश्व कृति ‘गोदान’ से ‘मैला आंचल’ को बहुत श्रेष्ठ कृति भी मानते होंगे? कोई साहित्य भले हिंदी में लिखा गया हो, लेकिन वह साहित्य भाषा और देश की सीमाओं में नहीं अंटता। यह विश्व की संपत्ति हो जाती है। सामाजिक परिवर्तन के यथार्थ को उद्घाटित करने मात्र से ही ‘मैला आंचल’ महान कृति नहीं बन जाती है! उसमें श्रेष्ठ होने के और भी तत्व हैं। अगर आप बांग्ला साहित्य के सतीनाथ भादुड़ी को, ताराशंकर बंद्योपाध्याय को, विभूति बाबू और माणिक बाबू को, मलयालम के पोट्टेकाट को, तकषी शिवशंकर पिल्लै को पढ़िए और फिर ‘मैला आंचल’ से तुलना कीजिए। तब आप जाकर प्रेमचंद से तुलना कीजिएगा। आप उनके समकालीन राही मासूम रजा के ‘आधा गांव’, शानी के ‘काला जल’ या रांगेय राघव के ‘कब तक पुकारूं’ को क्या कमतर कृति मानते हैं? अगर इन सारे सवालों पर किसी की ऐसी राय है तो उसे लिखना चाहिए। पब्लिक डोमेन में सप्रमाण बात जानी चाहिए। ‘गोदान’ 1935-1936 में लिखा गया। उस समय आप देखिए कि उनका यथार्थ अपने समय से कितना आगे हैं। सिलिया प्रसंग में पंडित के मुंह में हड्डी डालने को आप क्या सामान्य यथार्थ मानते हैं? ‘गोदान’ की हैसियत का उपन्यास भारतीय साहित्य में मैंने तो नहीं पढ़ा है। आपको शायद पता हो या न हो, मराठी के दलित लेखक-संगठन और दलित लेखकों ने हिंदी में प्रेमचंद विरोध की कड़ी आलोचना की है। साफ बात कहूं तो ऐसे सवाल निहायत संकीर्ण सोच से उपजते हैं। इससे मुक्त होकर ही साहित्य या विचार की दुनिया में आना चाहिए। हिंदी में मैं देख रहा हूं कि घनघोर और भोड़े जातिवादी सोच प्रकट करने वाले कहते हैं कि हम तो समतामूलक समाज चाहते हैं? यहां कट्टर और छद्म सवर्ण और गैर-सवर्ण में एक ही बीमारी है। यह अज्ञानतावश है या अवसरवाद के लिए है, यह वही जानें।

दलित साहित्य के विस्तार की परिघटना को आप किन परिस्थितियों का फल मानते हैं?

दलित साहित्य का जिस तेजी से विस्तार हुआ है, आगे इसकी गति और तेज होगी। जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार हो रहा है, ज्ञान के नए-नए क्षितिज से इनका परिचय हो रहा है। ये समाज की मानवकृत व्यवस्था की तमाम संरचनाओं, तिकड़मों और विडंबनाओं को समझ रहे हैं, तो इनके भीतर कथ्य का विपुल भंडार भर रहा है। कथ्य और अनुभव को कैसे साहित्यिक विधाओं में दुनिया के महान रचनाकारों की तरह ढाला जाए, बस यही सीखना है और अभ्यास करते रहना है। इससे इनका रिश्ता जैसे-जैसे प्रगाढ़ होता जाएगा और इनकी रचनाएं भी निखर कर सामने आती जाएंगीं। मुझे लगता है भविष्य में हिंदी में श्रेष्ठतम रचना दलित साहित्य से ही आएगा। मराठी में तो ऐसा ही हुआ है। इसलिए कोई कारण नहीं कि हिंदी में भी ऐसा न हो। यह मैं कोई उदारतावश नहीं कह रहा। इसके प्रमाण हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि, तुलसीराम, नैमिशराय, कंवल भारती, रामनरेश राम को तो मैंने पढ़ा है। लेखन का ऐसा उर्वर इलाका और कोई दिखता नहीं है। अब वक्त नहीं मिलता कि नए लोगों का लिखा पढ़ सकूं। लेकिन नावरिया जैसे लोगों के बारे सुनता हूं। जो युवा मुझसे जुड़े हैं, उनमें दलित, पिछड़े और मुस्लिम समाज से आने वाले कुछ बहुत ही तेजस्वी और प्रखर युवक-युवतियां हैं। इसमें कुछ युवतियों की प्रतिभा ने बहुत चकित किया है। लेकिन बिना साधना और समर्पण के वे अपना उत्कर्ष हासिल नहीं कर सकते। देखिए जुनून चाहिए, बावलापन! जैसा अनेक युवा क्रिकेट खिलाड़ियों में देखने को मिला। खूब पढ़े-लिखे, मुक्त मन जीवन जिये, सामयिक लिप्साओं से दूर रहें। अपने समाज और अपनी जमीन से जुड़े रहें। लिखते रहें। जिनको नौकरी नहीं है, उनकी नौकरी हो। मैं तो इनके लेखकीय भविष्य को लेकर बहुत आशावान हूं।

प्रगतिशील साहित्यकारों या कहिए कि वामपंथी साहित्यकारों के यहां दलित-बहुजन नजर तो आते हैं, लेकिन लगता है कि वहां इस बात पर जोर अधिक दिया गया है कि ऊंची जातियों के लोग ही उद्धारक हो सकते हैं। उदाहरण के लिए मधुकर सिंह की कहानी ‘लहू पुकारे आदमी’ में है कि “तिरपाठी जी का लड़का भैरवनाथ इस दुनिया में भी कॉलेज पैदल जाता है।” क्या आपको नहीं लगता कि वामपंथ साहित्य असल में द्विज साहित्य का ही एक रूप है, जिसे ओबीसी साहित्यकारों ने भी स्वीकार किया? यदि हां तो इसके पीछे क्या वजहें रहीं? ओबीसी साहित्य दलित साहित्य के माफिक अपने लिए कोई मुकाम क्यों नहीं बना पाया?

देखिए, भारत की सामाजिक स्थितियों को समझने के लिए दो बातों को जरूर ध्यान में रखना चाहिए। एक तो समय! समय के साथ जो परिवर्तन हुए, यथार्थ बदला तो यह देखना जरूरी है कि रचना किस समय के यथार्थ की अभिव्यक्ति है? दूसरी बात में कुछ परतें हैं, इसलिए थोड़ा-सा धैर्य जरूरी है। भारत का सामाजिक स्वरूप सब जगह एक समान नहीं है। भारतीय समाज बहुत उबड़-खाबड़ रहा है। दक्षिण में यह पागलपन तक पहुंचा हुआ था, उत्तर में स्वामी अछूतानंद जी महराज के दलित आंदोलन की गुंजाइश थी। बिहार में मधेपुरा, सुपौल की जगह जो ओबीसी रहे, वही हाल भोजपुर इलाके का नहीं था। इसलिए ओबीसी का जो सामाजिक यथार्थ मधेपुरा का होगा, वही भोजपुर का नहीं हो सकता। फिर आपको हर जगह, हर मामले में वर्ण और वर्ग की स्थिति को सूक्ष्मता से देखना होगा। आप सिर्फ वर्ग को ध्यान में रखकर विचार कीजिएगा तो आप वही गलती कीजिएगा जो वामपंथियों ने की। आपका कहना सही है। भारतीय वामपंथी वर्ण और वर्ग की समस्या को न सुलझा सके। उसी तरह अगर आप हर जगह हर मामले में वर्ण को लेकर ही विचार और निर्णय कीजिएगा तो समानता के, समाज के विचार से विचलित हो जाइएगा। आप एक तरह के जातिवाद के वर्चस्ववाद को हटाकर दूसरी तरह की जातियों के वर्चस्ववाद को स्थापित करने में लग जाइएगा, जो अमूमन आज देखने को मिल रहा है। यह आज जाति से भी संकीर्ण होकर परिवार तक सिमट गई है। मधुकर जी की कहानी के समय को देखिए। हमलोग जब छात्र थे, तब बहुत कम ओबीसी छात्र हमारे सहपाठी थे। जो थे, उनकी रुचि साहित्य में काफी कम थी। अब हालात बदले हैं। अनेक प्रतिभाशाली युवक-युवतियां ओबीसी समाज से आई हैं और उनका सृजन और सोच-विचार में रुचि ही नहीं, गहरी पैठ भी है। उनको स्वीकृति भी मिल रही है। अन्य क्षेत्रों की तुलना में साहित्य और सोच-विचार की दुनिया थोड़ी उदार और मानवीय होती है। अपवाद हटा दीजिए तो साहित्यकार संबंधों और आचरण में ओबीसी, दलित वगैरह का अंतर नहीं देखता। इसके विपरीत भी उदाहरण मिलते हैं और बहुत अधिक मिलते हैं। परिवर्तन की गति धीमी जरूर है, लेकिन आप एकदम यह नहीं कह सकते कि सब एक तरह के हैं। इसका कारण यह है कि साहित्य समाज से स्वायत्त नहीं होता। सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन तेज होगा तो सबसे पहले इसी इलाके से लोग अगली कतार में दिखेंगे। हमारे संपर्क में जो भी युवक-युवतियां हैं, उनसे हम पारिवारिक रिश्ता जैसा संबंध रखते हैं। वे बेहिचक अपनी बात करें। मैं बार-बार इस बात पर जोर देता हूं कि वे खूब पढ़ें-लिखें। विश्व साहित्य पढ़ें, सब तरह का साहित्य पढ़ें। बस आलोचनात्मक निगाह बनाए रखें। खूब लिखें। लिखने का अभ्यास बहुत जरूरी है। वे खुद को सारे लेखकों में जो अच्छे लगे, अच्छा आचरण करें, उनसे वे जुड़ें, सीखें। लेखक को भेदभाव एकदम नहीं रखना चाहिए। मैं तो हिंदू-मुस्लिम, सवर्ण, गैर-सवर्ण किसी की कोई बात बुरी या गलत लगती है तो जरूर आलोचना करता हूं। मेरे मन में किसी के प्रति कुछ दुर्भाव नहीं रहता। जो संकीर्ण होते हैं, वे कट जाते हैं। छंटइया होते रहना चाहिए। सब तरह के लोगों में मेरे आत्मीय स्वजन हैं। अगर आप भीतर-बाहर एक नहीं रहिएगा तो आप सवर्ण, ओबीसी, दलित या मुसलमान बनकर रहिएगा तो क्या और कैसे फर्क पड़ेगा? गलत हैं तो, ऐसों से दूरी बनी रहे, यही अच्छा है। इसलिए धीरज से प्रतीक्षा करनी चाहिए। उतावलापन साहित्य और सोच-विचार की दुनिया में नहीं चलता।

हिंदी साहित्य पर मंडल आरक्षण के प्रभाव को आप कैसे देखते हैं?

मंडल कमीशन और आरक्षण का साहित्य पर प्रभाव का आकलन उचित और संगत बात नहीं है। साहित्य में मंडल कमीशन और आरक्षण के बाद समाज में जो परिवर्तन हुए, उससे साहित्य अवश्य प्रभावित हुआ, जो कि विचारणीय बात है। लेकिन आप जिस मंडल कमीशन और आरक्षण से आए परिवर्तन तक ही बात कीजिएगा तो वह अधूरी बात होगी। समाज को प्रभावित करने वाली बहुत सारी ताकतें होती हैं। समाज और जीवन पर सबका प्रभाव पड़ता है। मनुष्य का जीवन, सोच और स्वभाव सब बदल जाता है। साहित्य समवेत रूप में इसको लेता है। आप अलग से मंडल कमीशन के प्रभाव की तलाश कीजिएगा तो वह गैर-साहित्यिक उपक्रम होगा। यह कोई गलत बात नहीं है। आजकल यूरोप में सामाजिक अध्ययन के लिए साहित्यिक रचनाओं का खूब उपयोग हो रहा है। इतिहास में भी उपयोग होता है। अन्य मानविकी विषयों में भी। वैसे परिवर्तन की पृष्ठभूमि में मंडल कमीशन और आरक्षण को आप कैसे झुठला सकते हैं? कविता और कहानी में यही खूबी है कि वह संपूर्णता में उसे उठाता है। इसका सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्ष साहित्य में आता है। अब वर्ण और वर्ग की बात यहां भी आती है। इस व्यवस्था में जो सबल पिछड़ी जातियां हैं। उनका वर्ग बदल जाता है। उनमें लोहिया जी के शब्दों में सवर्ण-सामंती अवगुण आ जाते हैं। लोहिया जी इस खतरे को समझते थे। इसलिए वे सचेत करते थे। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जब सामाजिक परिवर्तन होगा तो ऐसी अनचाही बातों का होना स्वाभाविक है। यह सब भी साहित्य में आता है। मसलन जो सामाजिक उथल-पुथल हुआ, वह सब साहित्य में तो आएगा ही। साहित्य वर्तमान को कैसे छोड़ सकता है!

कविताओं के मामले में क्या यह कहा जा सकता है कि दलित कवियों ने इसे एक यथार्थपरक सौंदर्य प्रदान किया है? यदि नहीं तो किस तरह की खामियां आप पाते हैं?

हमने बहुत विस्तार से कविताएं पढ़ी नहीं है। थोड़ा-बहुत पढ़ा है। देखिए, साहित्य के कुछ मानक होते हैं। अगर आप इसमें मनचाही घुसपैठ की अनुमति दीजिएगा तो अराजकता फैल जायेगी। जैसे बहुत लोगों ने कहा कि हम मौजूदा मानक को नहीं मानते। हम अपना मानक बनाएंगे। बनाए भी गये। वह यह कि जो और जैसी रचना वे लिखते हैं, वही श्रेष्ठ मान ली जाय, इसलिए उनके मानक भी उसी संगति में बनाए गए। हम खुद परीक्षार्थी और खुद परीक्षक। साहित्य कोई आपकी सीमा तक ही महदूद तो है नहीं। यह विश्व की चीज है। इसलिए इसका मानक देशीय नहीं होता, सर्वदेशीय होता है। आप प्रेम पर कविता लिखें या क्रांति पर। उसे पहले कविता होना चाहिए। अब कोई कविता कैसे कविता बनती है या कहलाती है, इस पर दुनिया के साहित्य में विपुल विचार हुआ है। यह बहुत विशाल और सूक्ष्म विचारों वाला हिस्सा है। इसमें सवर्ण-गैरसवर्ण वाली बात नहीं है। इसमें कविता के अत्यधिक असरकारी और दीर्घकाल तक ऐसा रहने को लेकर विचार किया गया है। यह हर कविता लिखने वाले के लिए जरूरी है। आप पाएंगे, इस बारे में हर समय में सोचा गया है और इसमें बदलाव भी दिखते हैं। लेकिन वे बदलाव युग के अनुसार रूपगत ज्यादा होते है। तात्त्विक रूप से कुछ खास नहीं।

इसका यह कतई मतलब नहीं कि कवि पहले इन सबको गहराई से जाने, तब ही वह श्रेष्ठ रचना लिख पाएगा। इन सब ज्ञान से एकदम अपरिचित कवियों ने भी शानदार रचनाएं लिखी हैं। यह तो नैसर्गिक प्रतिभा का कमाल है। भिखारी ठाकुर नाट्यशास्त्र के ज्ञाता तो नहीं थे, बिसराम ने जो बिरहे रचे तो वे भी अनपढ़ थे। ईसुरी के फाग असाधारण हैं, वे भी ज्ञानी नहीं थे। लेकिन आज कविता के लिए बहुत सारी चुनौतियां हैं। हमको समय-समाज की विडंबनाओं से गहरे परिचित ही नहीं, अंदर से उद्वेलित भी होना होगा। यह कैसे संभव होगा? इसका कोई फार्मूला नहीं है। प्रतिभा, समर्पण और अभ्यास से रचनाकार इसे हासिल कर लेता है।

अब आइए दलित या आदिवासी लेखन पर। जगदीश त्रिगुणायत ने मुंडा लोकगीतों का एक संकलन तैयार किया था, जिसे बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से शिवपूजन सहाय ने प्रकाशित किया था। आप उसे पढ़कर चकित रह जाइएगा कि वे गीत रबींद्रनाथ टैगोर के गीतों की तरह धवल और उदात्त हैं। सादगी का ऐसा दुर्लभ सौंदर्य, जो अद्वितीय है। वे सब अनपढ़ आदिवासी लोक रचनाकारों ने ही तो रचे होंगे। इस तरह इस समुदाय ने तो अपना शिखर बहुत पहले रच दिया है। आज आधुनिक समय में जो वे लिख रहे हैं, उसमें जो मैंने पढ़ा है, वह अच्छा-कम-बुरा, मतलब मिला-जुला है। मैं तो साहित्य में इस तरह रचनाकारों में विभेद कर नहीं सोचता, लेकिन उनका मिला-जुला काव्य लेखन उसी तरह का है जैसे सवर्ण रचनाकारों का है। सब तो श्रेष्ठ हो नहीं सकता। अभ्यास और अध्ययन की निरंतरता से, गहरे समर्पण से वे लगे रहे तो उनके पास जो दुर्लभ अनुभव है, वे आगे बहुत बड़ी रचना जरूर लिखेंगे। नकारने वाला, उपेक्षित करने वाला या महत्वहीन तो वे कतई नहीं हैं। हिंदी में उनमें से बहुत सराहे जा रहे हैं। कुछ ऐसे हर समुदाय में होते हैं। कुछ इसमें भी हैं जो रद्दी या फालतू लिखते हैं और सच कहिए तो गाली-गलौज तक पर उतर आते हैं। इससे उनकी रचना श्रेष्ठ तो नहीं हो जाती! मैं पढ़कर बिलकुल निराश नहीं होता हूं। हिंदी के अनेक प्रतिष्ठित कवियों और आलोचकों ने इनकी सराहना की है और कुछ ने तो उनके ऊपर लिखा भी है।

वर्तमान को ही देखें तो दलित-ओबीसी-आदिवासी के बीच सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक एकता के सूत्र मिलते हैं और इसे तोड़ने के लिए हिंदुत्ववादी प्रयास भी किए जा रहे हैं। क्या आपको लगता है कि हिंदुत्व के विषैले दांत को बहुजन साहित्य ही तोड़ सकता है?

जिस हिंदुत्व की आप बात कर रहे हैं, वह अवधारणा ही मुझे कृत्रिम लगती है। बहुत पहले लोग भारत आते समय सिंधु को पार करते थे। सिंधु का हिंदू हो गया। सिंधु के पार की जगह हिंदुस्थान और फिर हिन्दुस्तान। ‘हिंदुस्थान’ नाम से एक पत्र भी निकलता था। उस पर रहने वाले हिंदू कहे जाने लगे। सर सैय्यद अहमद खान साहब ने भी पंजाब के एक भाषण में इसी आधार पर खुद को हिंदू कहा था। बाद में कुछ संकीर्ण ताकतों द्वारा इसे धार्मिक पहचान बना दी गई और बाकी को अलग कर दिया गया। फिर यही धार्मिक पहचान भी बन गई। अब कहते है कि हिंदुत्व ‘वे ऑफ लाइफ’ है। अगर ऐसा है तो तुमने बाकियों को इससे बाहर क्यों किया? जब आपकी नीयत गलत होगी तो आपकी सोच भी गलत होगी। गांधी से बड़ा हिंदू कौन होगा? उनसे तो किसी गैर-हिंदू को कोई समस्या न हुई? इसलिए कि उनकी नीयत सहअस्तित्व सहजीवन वाली थी। भाजपा का हिंदुत्व न गांधी से मेल खाता है और न विवेकानंद से और न ही उसके पीछे राधाकृष्णन जैसा कोई दर्शन है। उसका हिंदुत्व ऐसा है जैसा न तो कभी था और न कोई बड़ा विचारक ने जैसा बताया, वैसा है। इसलिए यह एकदम कृत्रिम है। वह इसके खांचे में काट-छांट कर देश और समाज को अटाना चाहता है। यह संभव ही नहीं है। अब रही बात इसको नष्ट करने की। आप कहते हैं दलित, पिछड़े और आदिवासी ही इसे नष्ट करेंगे। कैसे करेंगे, क्यों वही करेंगे? उसमें दूसरे की कोई भूमिका क्यों नहीं हो सकती? इस पर भी आपको विचार करना होगा। क्या दलित, पिछड़े और आदिवासियों में हिंदुत्व का कोई असर है ही नहीं? क्या अब बाकी बचे सवर्ण ही हिंदुत्व के पक्षधर हैं? क्या इसका कोई पैरलल नॅरेटिव आपने तैयार कर लिया है? इसलिए इन सब पर गंभीरता से विचार करते हुए एक सोच तो आपको बनानी ही होगी। यह एक सोच है और यह सोच से ही नष्ट होगी। इसमें सब समाज और समुदाय के लोग शामिल हो सकते हैं। आप संख्या बल पर जोर दे रहे हैं कि दलित, पिछड़े और आदिवासी मिलकर ज्यादा होंगे और इसे नष्ट कर देंगे। इससे आप सवर्ण को तो नष्ट कर सकते हैं, अगर उनको नष्ट करना आपका उद्देश्य हो तो! मगर जहां तक मुझे समझ में आ रहा है कि सोच को तो सोच से ही नष्ट करना होगा। हमें एक बेहतर पैरलल नॅरेटिव पर सबसे पहले काम करना चाहिए। फिर हम आगे बढ़े तो लोग उस नॅरेटिव से जुड़ते जायेंगे। तब यह जरूर नष्ट हो जाएगा।

(संपादन : राजन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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