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क्यों और कौन डरता है बाबासाहब डॉ. आंबेडकर के नाम से?

कहा जा रहा है कि डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा पर हथौड़ा चलाने वाला व्यक्ति मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं था। इस पर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या उसकी मानसिकता तभी भंग हुई जब देश गणतंत्र मनाने में व्यस्त था और यह आकाशदीप सिंह नामक व्यक्ति आंबेडकर की प्रतिमा पर प्रहार करने के साथ-साथ संविधान की होली भी जला रहा था। बता रहे हैं द्वारका भारती

पंजाब में गुरु की नगरी कहे जाने वाले शहर अमृतसर में पिछले दिनों लोगों ने देखा कि एक सिरफिरा आदमी भारत के महान व्यक्तित्व बाबासाहब डॉ. आंबेडकर के बुत पर भारी-भरकम हथौड़े से दनादन प्रहार करता जा रहा है और इस धातु की मूर्ति पर प्रहार की आवाजें दूर-दूर तक सुनी जा रही हैं। इस घटना का सीधा प्रसारण संपूर्ण भारत के साथ-साथ दुनिया भर के लोगों ने भी देखा। यह एक अचंभित कर देने वाली घटना थी। वह आदमी, जिसके कारण इस देश के कई निरीह समझे जाने वाले लोगों के जीवन एकदम बदल गए थे, उसकी मूर्ति पर होते प्रहार सबको सन्न कर रहे थे। लोग नहीं समझ रहे थे कि यह आदमी ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है?

सबके मन में सबसे बड़ा सवाल यह पैदा हो रहा था कि जिस व्यक्तित्व की मूर्ति को तोड़ा जा रहा था, उसने ऐसा क्या किया था, जो कि उसकी मूर्ति को इस भारी-भरकम हथौड़ों का सामना करने पर विवश होना पड़ा था? क्या इस व्यक्तित्व ने इस देश को कोई हानि पहुंचाई थी कि उसे इस प्रकार का व्यवहार झेलना पड़ा?

कहा जा रहा है कि डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा पर हथौड़ा चलाने वाला व्यक्ति मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं था। इस पर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या उसकी मानसिकता तभी भंग हुई जब देश गणतंत्र मनाने में व्यस्त था और यह आकाशदीप सिंह नामक व्यक्ति आंबेडकर की प्रतिमा पर प्रहार करने के साथ-साथ संविधान की होली भी जला रहा था। जिन लोगों ने सोशल मीडिया पर यह दृश्य देखा है, वे जानते हैं कि यह दृश्य उन्हें अचंभित कर रहा था। आकाशदीप सिंह के घर वालों का कहना है उनका लडक़ा बहुत सालों से घर पर नहीं रह रहा था। कुछ दिनाें तक वह अरब देश में रहा और वहां से आकर वह घर नहीं आया। सबसे हैरानी की बात यह है कि अमृतसर में यहां यह घटना हुई उसके 150 मीटर दूर कोतवाली का थाना भी था।

कहा जा सकता है कि इस थाने की नाक के नीचे ही लगभग आधा घंटा तक हथौड़े की आवाजें गूंजती रही। समाचार पत्रों के मुताबिक 2 फुट का हथौड़ा लेकर यह आकाशदीप सिंह हेरिटेज में घूमता रहा, लेकिन वहां 24 घंटे ड्यूटी पर रहने वाले पुलिस कर्मियों को कुछ भी दिखाई नहीं दिया। डॉ. आंबेडकर की ऊंची मूर्ति पर सीढ़ी लगा कर इस व्यक्ति ने प्रहार किए। इससे इस मूर्ति की ऊंचाई का अनुमान लगाया जा सकता है।

इस घटना के बारे में जालंधर लोकसभा से कांग्रेसी सांसद एवं पूर्व मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी का यह बयान यद्यपि राजनीति से ही प्रेरित है, लेकिन हमारा ध्यान खींचता है कि पुलिस की मौजूदगी में ही मूर्ति पर प्रहार किए जाना दर्शाता है कि हम अपने महापुरुषों का कितना सम्मान करते हैं। उन्होंने आम आदमी पार्टी की नीयत पर शंका भी व्यक्त की है।

अमृतसर में डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा पर हथौड़ा चलाता आरोपित आकाशदीप सिंह व उसकी तस्वीर

इस अवसर पर सबसे हास्यास्पद भूमिका पंजाब के भाजपा वालों की रही। उन्होंने मलेरकोटला में इस घटना के विरोध में वहां लगी प्रतिमा को दूध से नहलाया। यह एक ऐसा प्रपंच था, जो डॉ. आंबेडकर की विचारधारा के विपरीत था। जिन सांस्कृतिक प्रतीकों के विरुद्ध डॉ. आंबेडकर सदा संघर्ष करते रहे, उन्हीं प्रतीकों से उनका मजाक उड़ाया जा रहा था।

इस अवसर पर शिरोमणि अकाली दल की हलचल भी देखी गई। इसके कार्यकारी अध्यक्ष सरदार बलजिंदर सिंह भूंदड़ की अध्यक्षता में बैठक में कहा गया कि इस प्रकार की घटना पंजाब के विभिन्न समुदायों को बांटने की एक साजिश है। उल्लेखनीय है कि इस घटना को हिंदू-सिक्ख के तौर पर भी देखा जा रहा है।

इस घटना के विरोध में पंजाब में यद्यपि तीव्र प्रतिक्रिया हुई है। पंजाब के लगभग सभी बाजार, संस्थान उस दिन बंद रहे। लेकिन हमारे सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह छोड़ जाते हैं कि आंबेडकर की विचारधारा से इस देश में कौन भयभीत है? किसको उनके विचार आज भी नहीं सुहाते हैं?

इन सभी प्रश्नों के उत्तर लिए हमें ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ेगा। हमने देखा है कि पिछले एक दशक से इस देश के सामाजिक-मूल्यों को पुन: परिभाषित करने के प्रयास सफलता की ओर बढ़ते जा रहे हैं। इसके लिए इस देश के हिंदुत्व की जो कार्यशैली हमारे सामने आ रही है, वह यही है कि इस देश में उन्हीं सांस्कृतिक मूल्यों को स्थापित किया जाए, जिनका विरोध डॉ. आंबेडकर करते रहे हैं। इसके लिए भाजपा की केंद्रीय सरकार ने इस देश के कथित सांस्कृतिक मूल्यों को पुन: उभारने के लिए आरएसएस जैसे कटखने संगठन को खुला हाथ दे रखा है। देश की लगभग सभी सरकारी तथा गैर-सरकारी शैक्षणिक संस्थानों को इस संगठन ने पूर्ण रूप में अपने प्रभाव में ले रखा है। ये लोग इन शैक्षणिक संस्थानों में इस प्रकार घुल-मिल गए हैं, जैसे चाय में दूध।

राजनीति के तौर पर सबसे पहले भाजपा ने जो काम किया, वह यह था कि देश की धर्मनिरपेक्षता पर लगातार आक्रमण करते रहना ताकि उसके मातृ संगठन आरएसएस का एजेंडा उसकी जगह ले सके।

स्पष्ट है कि इसके लिए देश की धड़कन अर्थात् धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को पर्दे के पीछे धकेल देना, अत्यावश्यक था। इस काम को आगे बढ़ाने के लिए स्कूलों में उन कथित संतों की जीवन चरित्र पढ़ाना शुरू किया गया, जो हिंदुत्व रूपी तलवार को और पैना कर सके। ऐसा नहीं है कि इससे पहले पाठ्यक्रमों में संतों को पढ़ाया नहीं जाता था। पाठ्यक्रमों में उन कथित संतों को भी शामिल किया गया था जो हिंदुत्व को आगे बढ़ाने में भाजपा के काम आ रहे थे। इसमें हम आसाराम नामक कहे जाने वाले कथित संत का उदाहरण देख सकते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि इस कथावाचक कहे जाने वाले दुष्कर्म के दोषी को रोधपुर जिले (राजस्थान) में तीसरी कक्षा की पाठ्य पुस्तक के एक अध्याय में एक संत के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस कथावाचक को विवेकानंद, मदर टेरेसा और रामकृष्ण परमहंस जैसी विभूतियों के साथ जगह दी गई थी। यह बात अलग है कि बाद में इसको पाठ्यक्रम से हटा दिया गया था।

बात यहीं पर खत्म नहीं होती है। योग गुरु कहे जाने वाले रामदेव को भी राजस्थान के कई जिले के स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली नैतिक शिक्षा और सामान्य ज्ञान को पाठ्य पुस्तक ‘नया उजाला’ में संतों की सूची में शामिल किया गया है।

ध्यातव्य है कि इस अध्याय में गुरु नानक, कबीर, मीराबाई और शंकराचार्य की तस्वीरें छपी हुई हैं। बच्चों को इन चित्रों की पहचान करने को कहा जाता है। इनमें डॉ. आंबेडकर जैसे युगपुरुष की फोटो नदारद है, भगत सिंह नदारद है। स्पष्ट है कि डॉ. आंबेडकर जैसे क्रांतिकारी महापुरुषों से सरकार के अंदर किस कदर की घबराहट की स्थिति देखी जाती है।

यदि हम गौर करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार के आते ही यह काम शुरू कर दिया गया था। उन आवाजों को वरीयता दी जाने लगी, जो कथित राष्ट्रवाद की आड़ में हिंदुत्व को जल्दी से जल्दी लाने की हांक लगा रही थी। एक हिंदी दैनिक समाचार पत्र ‘दैनिक जागरण’ में बलबीर पुंज का लिखा संपादकीय मेरे सामने है। वर्ष 2014 में लिखे एक लेख, जिसका शीर्षक ‘हिंदुत्व बनाम सेक्युलरिज्म’ है, में वे लिखते हैं कि “हिंदुत्व के अनुसार पंथनिरपेक्षता का अर्थ सर्वधर्म समादर का है। यह अल्पसंख्यकों के कट्टरपंथी तत्वों के तुष्टिकरण का मानक नहीं है। वास्तव में जब तक यहां हिंदुत्व का दर्शन रहेगा, तभी तक इस देश की सार्वभौमिकता, अखंडता और उसमें बहुलतावाद जैसे मूल्य अक्षुण्ण रहेंगे। देश के जिस भाग में भी हिंदुत्व कमजोर हुए, वह भाग या तो भारत से पृथक हो गया या वहां अलगाववादी आंदोलनों ने पैर जमा लिए।”

भाजपा के राज्यसभा के सदस्य रहे इस लेखक के उद्गार सन् 2014 में छपते हैं, जो हमें यह बताते हैं कि सत्ता के आते ही मोदी सरकार ने अपने वैचारिक इरादे स्पष्ट कर दिए थे। हम जानते हैं कि भाजपा की सरकार 26 मई, 2014 को केंद्र में सत्तासीन होती है। इस लेख में हम देखते हैं कि लेखक ने जो भी लिखा है, वह इतना हठधर्मिता से लिखा है कि एक सच्चे राष्ट्रवादी भारतीय को कोफ्त (परेशानी) पैदा हो सकती है। डॉ. आंबेडकर के साथ-साथ अन्य सभी बुद्धिवादी विद्वानों ने हिंदुत्व की सिरे से भर्त्सना की है। इस हिंदुत्व को ही कठमुल्लापन की संज्ञा दी है। संसार का कोई भी देश कठमुल्लापन से सदा चलता हुआ नहीं रह सकता। इतिहास के पास ऐसी कई उदाहरणें हैं, जिसमें कट्टरता को अंतत: भागना ही पड़ा है। अफगानिस्तान जैसे देश में तालिबान भी अपनी कट्टरता को छोड़ संसार से जुड़ रहे हैं। अरब देशों के शासक आज परिवर्तन की नई बयार के साथ आगे बढ़ रहे हैं। औरतों की स्वतंत्रता को और खुलापन दिया जा रहा है। दूसरी तरफ यह कितना हास्यास्पद है कि देश का हिंदुत्व पुरातनता की ओर भागने की चाह दर्शा रहा है। कौन नहीं जानता कि भारत की अखंडता को इसके धर्मनिरपेक्षता ने नहीं, बल्कि हिंदुत्व कट्टरता ने आघात पहुंचाया है। हिंदुत्व के दर्शन ने ही इस देश को टुकड़ों में बांटा है। इस विभाजनवादी दर्शन ने ही इस देश की चूलें हिलाने का काम किया है। इतिहास हमें बताता है कि इस हिंदू दर्शन ने ही एक आदमी को कई भागों में बांटा है। नर और नारी में गहरा विभेद और असमानता पैदा की है। देश के नागरिक को कई हिस्सों में इस तरह बांटा है कि आज तक भी वह एक होने से ही बुरी तरह जूझ रहा है। जाति-पाति का विभेद इस देश की सीमाएं लांघ कर विदेश जा पहुंचा है। बड़ी-बड़ी अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों से यह खबरें मिल रही हैं कि उन्हें भी हिंदू दर्शन द्वारा पैदा किए गए जातिभेद से जूझना पड़ रहा है। क्या यह शर्मनाक नहीं है? वह देश जिसमें कई धर्मों, विचारों के लोग रहते हों, उसमें यदि धर्मनिरपेक्षता नहीं रहेगा, तो उस देश का भीतरी सामाजिक ढांचा कभी भी सुखद स्थितियों में नहीं बना रह सकता। इसी कारण भारतीय संविधान को धर्मनिरपेक्षता के गुणों से युक्त रखा गया है। इसी धर्मनिरपेक्षता से डरने वाले लोग डॉ. आंबेडकर से भी डरने लगे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि जब तक यह संविधान रहेगा, डॉ. आंबेडकर की विचारधारा भी बनी रहेगी। इसी कारण हिंदुत्ववादी डॉ. आंबेडकर और उनके द्वारा तैयार किए गए संविधान को अपनी मनमानियों के मार्ग में सबमें बड़ा रोड़ा समझते हैं।

गौरतलब है कि 2014 में भाजपा सरकार के सत्ता संभालते ही ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने अपनी यह आशंका व्यक्त की थी कि मोदी सरकार द्वारा किए जा रहा शैक्षिक सुधार कहीं हिंदुत्व को बढ़ावा तो नहीं है? यह आशंका अब लगभग सत्य का रूप लेकर देश के सामने आ चुकी है। हम देख रहे हैं कि देश की प्रिंट मीडिया तथा इलेक्ट्रानिक मीडिया आज मोदी सरकार द्वारा रचे गए हिंदुत्व के चंगुल में फंस चुके हैं। कहना चाहिए कि भाजपा सरकार की अंगुलियों पर नाच रहे हैं। सरकार की तमाम असफलताओं को यूं छुपाया जा रहा है मानो उनका छुपाना देश के प्रति सबसे बड़ी देशभक्ति हो। जो सरकार की इच्छा के मुताबिक चलने से इंकार कर रहा है, उसका दमन कर दिया जा रहा है। यह बिसात इसलिए बिछाई जा रही है ताकि इस देश को ऐसा देश बना दिया जाए कि जब आपको छींक भी आए तो वह भी हिंदुत्व के साथ ही। हिंदुत्व इस संसार का सबसे आवश्यक नारा बन चुका है। यह काम इतने सलीके से किया जा रहा है कि हिंदुत्व के राग का अलाप अब चुभता नहीं है। देश के तमाम छोटे-बड़े साधुनुमा लोग, सत्ता की रोटियां तोड़ने वाले कथित संन्यासी तथा बहुत-से चर्चित व्यक्तित्व, जिनमें फिल्मी दुनिया के घिसे-पिटे लोग भी हैं, इस देश को हिंदू राष्ट्र के कीचड़ में उतारने में अपना पूर्ण योगदान दे रहे हैं।

बात यहीं समाप्त नहीं होती। इस देश की न्यायिक-व्यवस्था में भी इस हिंदुत्व की पूर्ण रूप से घुसपैठ हो चुकी है। सत्ता अपनी इच्छा के अनुसार अदालती निर्णय प्राप्त करना अपने राजकीय कामों का मानो एक हिस्सा समझने लगी है। शहरों के नाम बदल देना इसी प्रक्रिया का एक हिस्सा समझा जाना चाहिए। इसी प्रक्रिया में बीते वर्षों में अनेक छोटे-बड़े शहरों के नाम बदले गए हैं। इलाहाबाद अब प्रयागराज, होशंगाबाद अब नर्मदापुरम, खिजराबाद अब प्रताप नगर, मियां का बाड़ा अब महेशनगर हॉल्ट। मुगलसराय और हबीबगंज रेलवे स्टेशनों तथा राष्ट्रपति भवन परिसर में अवस्थित मुगल गार्डन के नाम भी बदले गए हैं। कौन नहीं जानता है कि नाम बदल देने भर से किसी देश का इतिहास नहीं बदल सकता है। सिंधु घाटी का नाम कुछ भी रहा हो, हम उसे नाम से नहीं, उसको हम बलूचिस्तान से गंगा-यमुना के दोआब और मध्य एशिया से नर्मदा नदी तक फैली हुई एक संस्कृति, मोहनजोदड़ो व हड़प्पा जैसे विशाल नगर, उसके भीतर बने सार्वजनिक स्नानागार और धान्य-कोठार, नगर की सीधी और साफ-सुथरी सड़क़ों के द्वारा जानते हैं।

भारत के बारे में कहा जाता है कि यह कभी विश्व में कौतूहल का कारण रहा। इसकी उपजाऊ मिट्टी, नदियों का जाल और इसमें उगनेवाली फसलों ने विदेशियों को सदा आकर्षित किया है। लेकिन क्या यह स्थिति आज भी कायम है? बिल्कुल नहीं। आज का भारत सबसे अधिक पिछड़ा हुआ भारत है, जिसके नवयुवकों को अपना भविष्य तलाशने विदेशों की खाक छानने पर विवश होना पड़ता है। एक जानकारी के मुताबिक चार वर्ष पहले 1.3 करोड़ से अधिक भारतीय विदेशों में रह रहे थे। 2017 से लेकर अब तक लगभग 6.08 लाख लोगों ने भारत की नागरिकता छोड़ी है। यह एक स्याह पक्ष है। रूस की सेना में कई भारतीय नवयुवक अपनी जानें गंवा चुके हैं। अपने देश के लिए मरना गर्व का विषय हो सकता है, लेकिन विदेशों में पेट की खातिर अपनी जान दांव पर लगा देना, देश के लिए कलंक का विषय है।

आज की भारत की सरकार पोंगापंथियों की सरकार के तौर पर ज्यादा जानी जा रही है। इस माहौल में प्रगतिवादी विचारों को न सिर्फ दबाया जा रहा है, बल्कि नेस्तनाबूद करने की मुहिम हिंदुत्ववादी लोगों द्वारा और सरकार द्वारा चलाई जा रही है।

इस समय यदि अतिकथन से काम न भी लिया जाए तो भी यह कहना होगा कि भारत का संविधान भारी दबाव में देखा जा रहा है। सबसे ज्यादा दबाव यह है कि इस समय देश की अधिकतर प्रगतिशील संस्थाएं सर्दी में ठिठुर जाने की स्थिति में पड़ी हुई हैं। अर्थात् विरोध के स्वर एकदम मंद हैं। भाजपा जैसी राजनीतिक पार्टी आज उस स्थिति में है कि वह किसी भी प्रगतिशील विचारधारा को लील सकती है। ऐसे में सिर्फ संविधान की शक्तियां और उस पर पहरा देने वाले लोग ही देश में परिवर्तन की आवाज बन सकते हैं।

एकमात्र यही कारण है कि वर्तमान सरकार की आंखों में भारतीय संविधान और भारतीय संविधान के निर्माता डॉ. आंबेडकर के अनुयायी बुरी तरह चुभ रहे हैं। इन्हीं से ही यह पोंगापंथी सरकार बुरी तरह भयभीत है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

द्वारका भारती

24 मार्च, 1949 को पंजाब के होशियारपुर जिले के दलित परिवार में जन्मे तथा मैट्रिक तक पढ़े द्वारका भारती ने कुछ दिनों के लिए सरकारी नौकरी करने के बाद इराक और जार्डन में श्रमिक के रूप में काम किया। स्वदेश वापसी के बाद होशियारपुर में उन्होंने जूते बनाने के घरेलू पेशे को अपनाया है। इन्होंने पंजाबी से हिंदी में अनुवाद का सराहनीय कार्य किया है तथा हिंदी में दलितों के हक-हुकूक और संस्कृति आदि विषयों पर लेखन किया है। इनके आलेख हिंदी और पंजाबी के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इनकी प्रकाशित कृतियों में इनकी आत्मकथा “मोची : एक मोची का अदबी जिंदगीनामा” चर्चा में रही है

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