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‘ज्योति कलश’ रचने में चूक गए संजीव

जोतीराव फुले के जीवन पर उपन्यास लिखना एक जटिल काम है, लेकिन इसे अपनी कल्पनाशीलता से संजीव ने आसान बना दिया है। हालांकि कई जगहों पर वे अतिरेक भी कह जाते हैं। पढ़ें, यह समीक्षा

जोतीराव फुले और उनके विचार भारत के हिंदी प्रदेशों में विस्तार पा रहे हैं। हालांकि यह कहना सत्य के करीब रहना होगा कि फुले और उनके विचारों से हिंदी साहित्य ने दूरी बनाकर रखा और इस कारण हिंदी प्रदेशों में इसके विस्तार की गति धीमी है। यह तो 1990 के बाद भारत की बदली हुई राजनीति है, जिसने दलित-बहुजन विमर्श को संज्ञान में लिया और फुले व पेरियार आदि नायक हिंदी प्रदेशों में चर्चा में आए। बीते वक्त का हिसाब लगाएं तब भी कहा जा सकता है कि करीब तीन-चार दशक बाद हिंदी साहित्य ने फुले व उनके विचारों को जगह दिया है। इसका उदाहरण है प्रसिद्ध कथाकार संजीव का नवीनतम उपन्यास– ‘ज्योति कलश’। इसे राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है।

संजीव को हिंदी साहित्य – खासकर गद्य के क्षेत्र में – प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त है। उन्हें प्रयोगधर्मी कथाकार के रूप में भी जाना जाता है। विशेषकर उन उपन्यासों के लिए, जिन्हें उन्होंने ऐतिहासिक नायकों को केंद्र में रखकर रचा है। बतौर उदाहरण भिखारी ठाकुर पर आधारित उनका उपन्यास ‘सूत्रधार’। इसकी लोकप्रियता का आलम यह है कि इसे उपन्यास से अधिक भिखारी ठाकुर की जीवनी की उपाधि प्राप्त है। इसी क्रम में संजीव ने जोतीराव फुले को केंद्र में रखकर ‘ज्योति कलश’ की रचना की है, जिसमें उन्होंने इतिहास और साहित्य को एक सूत्र में पिरोने की कोशिश की है।

इस उपन्यास में संजीव ने जोतीराव फुले के जीवन की घटनाओं को औपन्यासिक स्वरूप में अभिव्यक्त किया है और जाति-वर्ण विरोधी व्यवस्था का मुखालफत करनेवाले फुले के ऐतिहासिक तेवर को अपनी लेखनी से कुछ इस तरह लिपिबद्ध किया है– “बीतते बसंत की एक शाम। कटी-फटी पहाड़ियों पर चांद फिसलता जा रहा है। आधा उजला, आधा कजला, धूसर चांदनी। पहाड़ी के नीचे एक खाट पड़ी है। उस पर लेटा है गांव का कुलकर्णी। सिरहाने रखी है गुड़ की डली और ‘मनुस्मृति’। सामने हाथ जोड़े खड़ा है गोन्हे, परिवार का मुखिया।” (संजीव, ज्योति कलश, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ 9)

कहने की आवश्यकता नहीं कि संजीव प्रकृति, इतिहास, समाज और अपनी कल्पनाओं को खूबसूरत आकार में ढालनेवाले कथाकार हैं। उपरोक्त प्रसंग में वह जोतीराव फुले के एक पुरखे के बारे में बता रहे हैं, जिन्होंने गांव के ब्राह्मण कुलकर्णी के जुल्मों का विरोध करते हुए हत्या कर दी थी और भागकर पुणे आ गए थे। संजीव फुले की जीवनी बताते समय इतिहास और काल का ख्याल रखते हैं– “11 अप्रैल, 1827 को उस परिवार में एक शिशु का जन्म होता है। कोल्हापुर की पहाड़ी पर स्थित ज्योति के नाम पर शिशु का नाम रखा जाता है जोती। नौ वर्ष पूर्व ही पेशवाशाही खत्म हो चुकी है और जोतिबा नौ माह के थे कि माता चिमनाबाई का भी देहांत हो चुका है।” (वही, पृष्ठ 10)

‘ज्योति कलश’ उपन्यास का आवरण पृष्ठ व उपन्यासकार संजीव

कुछ जगहों पर संजीव अपनी कल्पनाशीलता का भी सुंदर इस्तेमाल करते हैं। एक जगह वे लिखते हैं– “कहते हैं, जिस दिन बालक का जन्म हुआ, उसी दिन ब्राह्मण पेशवाशाही के गढ़ माने जानेवाले ‘शनिवार वाड़े’ में आग लगी, वह जलकर राख हो गया। इस संकेत को क्या मानेंगे … क्रूर ब्राह्मणी व्यवस्था के भस्मसात होने का सूत्रपात …” (वही)

जोतीराव फुले के साथ सावित्रीबाई फुले के जीवन को अलग से नहीं देखा जा सकता है। इसकी वजह यह कि दोनों एक-दूसरे के पूरक रहे। लेकिन दोनों का अपना-अपना अस्तित्व भी है, जिसका ख्याल संजीव ने रखा है, बानगी देखिए– “मैंने तो एक लीक पकड़ा दी थी। चलकर तो तुमने दिखलाया। आज दबे-छिपे ही सही, लोग तुम्हारी प्रशंसा करते हैं। रानाडे, चिपलूणकर और पंडिता रमाबाई जैसी प्रसिद्ध हस्तियां भी। याद हैं वे दिन, जब पढ़ाने के लिए जाते समय लोग तुम पर गोबर, कीचड़ और मैला फेंकते …। क्या-क्या मुसीबतें नहीं झेलीं तुमने …” (वही, पृष्ठ 35)

यद्यपि अब तक प्राप्त तथ्यों के अनुसार फातिमा शेख का उल्लेख सावित्रीबाई फुले द्वारा 10 अक्टूबर, 1856 को जोतीराव फुले को लिखे पत्र में मिलता है, संजीव ने इस पत्र के एक वाक्य को सूत्र बनाकर सावित्रीबाई फुले की सहयोगी फातिमा शेख को पर्याप्त स्थान दिया है। वह इस उपन्यास में कई जगहों पर सामने आती हैं। कभी सहयोगी के रूप में तो कभी सहेली के रूप में। यथा–

“बाहर के आले पर गौरेया का जोड़ा केलि में मग्न था। दोनों सखियों ने देखा और मुस्कुरा उठीं। फातिमा को चुहल सूझा, “आज तू बहुत सुंदर दिख रही है।”

“तू न…!”

“घबरा मत! मैं नहीं पूछने जा रही कि रात को क्या हुआ…।”

“तो…?”

“मुझे सिर्फ यह बता दे कि कुर्ती पहन रखी है तुने या…?”

“हां क्यों?” आंखों में हल्की शरारत है।

“आज से पचास साल पहले पैदा हुई होती तो शायद न पहनती।”

“धत्त! लाज नहीं लगती!”

“यह पहनती तो जुर्माना देना पड़ता।”

(वही, पृष्ठ 45)

फुले के जीवन पर उपन्यास लिखना एक जटिल काम है, लेकिन इसे अपनी कल्पनाशीलता से संजीव ने आसान बना दिया है। हालांकि कई जगहों पर वे अतिरेक भी कह जाते हैं। मसलन, जोतीराव फुले की पालक माता सगुणाबाई के निधन का प्रसंग बताते हुए वह गुरु नानक को घसीट लाते हैं और फुले के शब्दों में उन्हें हिंसक बता देते हैं– “ध्यानगिरी बुआ ने इस पर कहा कि कबीर और नानकदेव भी कुछ ऐसा ही कहते रहे। [सावित्रीबाई फुले को] विश्वास नहीं हुआ कि क्रिश्चैनिटी के अलावा भी कोई धर्म है, जिसमें ऐसी बातें कही गई हैं। तब बुआ ने नानकदेव की एक कविता सुनाई– सूरा सो पहचानिए, जो लड़े दीन के हेत/पुरजा-पुरजा कट मरै, कबहूं न छाड़े खेत। सावित्री की समझ में नहीं आया। धर्म मात्र करुणा, प्रेम की चीज है, फिर लड़ाई वाली बात क्यों…? अरे! वे सिख धर्म के संस्थापक थे, मिलिटैंसी उनके खून में थी। जोती ने समझाया।” (वही, पृष्ठ 43)

जबकि यह सर्वविदित है कि गुरु नानक ने हिंसा, चाहे वह किसी भी उद्देश्य के लिए हो, को तरजीह नहीं दी। यहां संजीव एक साथ दो ऐतिहासिक गलतियां करते हैं। एक तो वह गुरु नानक को हिंसक करार देते हैं और दूसरी यह कि यह उन्होंने जोतीराव फुले के हवाले से कही है। इसी तरह संजीव इस उपन्यास में तत्कालीन कालखंड के समाज सुधारकों के बीच एक सामंजस्य स्थापत करने की कोशिश करते दिखते हैं, जिसकी कोई आवश्यकता महसूस नहीं होती। इनमें राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर का नाम शामिल है। दयानंद सरस्वती का संबंध फुले से जरूर रहा, जब फुले ने उनके पुणे आगमन पर उनका समर्थन किया था। ध्यातव्य है कि आर्य समाज का गठन बंबई में 1875 में किया गया और दयानंद सरस्वती की किताब ‘सत्यार्थ प्रकाश’ का प्रकाशन भी इसी वर्ष किया गया। यानी फुले की किताब ‘गुलामगिरी’ के प्रकाशन व सत्यशोधक समाज के गठन के तीन वर्षों के बाद। 

ऐतिहासिक रूप से यह कहीं नहीं उल्लेखित है कि फुले इन सभी से प्रेरित थे, या फिर इन्हें अपना आदर्श मानते थे, लेकिन संजीव ने अकारण ही इन सभी को सामने लाकर अपने ही उपन्यास को कटघरे में खड़ा कर दिया है। हालांकि वे भूल-सुधार भी करते दिखते हैं। एक उदाहरण देखिए– “राजा राममोहन राय के वर्ण-वर्ग के नवजागरण की सीमा स्पष्ट थी। शिक्षा हो या विधवा-विवाह या सती-प्रथा – ऐसे क्रांतिकारी सुधारों का प्रसार ऊपरी वर्ग तक सीमित रहा। लेकिन शिक्षा-संबंधी जोती के कार्यों का सुदूरगामी प्रभाव पड़ा। आगे चलकर डॉ. भीमराव आंबेडकर ने इसका भेद खोला।” (वही, पृष्ठ 57)

बहरहाल, ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण नायकों को केंद्र बनाकर उपन्यास लिखने के दौरान रचनाकार को संबंधित कालखंड को ध्यान में रखना ही पड़ता है। संभवत: इसी कारण संजीव ने बंगाल में चले समाज-सुधार आंदोलनों को महाराष्ट्र में हुए आंदोलनों के बीच संबंध बनाने की कोशिश की होगी। लेकिन इतिहास के तथ्यों के साथ छेड़छाड़ न हो, इसका ध्यान तो रचनाकार को रखना ही चाहिए। 

आलोचना के कुछ बिंदुओं को अगर नजरअंदाज करें, जो कि किया नहीं जाना चाहिए, संजीव ने फुले दंपत्ति के जीवन को सरल शब्दों में बताया है। हालांकि इसमें रोचकता की कमी है, जो कि उपन्यास का मुख्य गुण माना जाता है। संजीव ने विभिन्न घटनाओं से जुड़े संदर्भों को पाद-टिप्पणियों के जरिए बताने की कोशिश की है। इसे भी सकारात्मक ही माना जाएगा। साथ ही, उपन्यास के अंत में जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं को कालक्रम के जरिए बताया गया है, जिससे अध्येताओं को उनके जीवन और उनके कृतित्व को समझने में आसानी होगी। इसके अलावा उपन्यास के अंत में अनेक तस्वीरें हैं, जिनमें जोतीराव फुले, सावित्रीबाई फुले, उनके पुत्र यशवंत, जोतिबा का घर, सावित्रीबाई के मायके का घर, फातिमा शेख, जोतीराव फुले की पालक माता सगुणाबाई, पंडिता रमाबाई, कृष्णराव पांडुरंग भालेकर, लहूजी मांग, विष्णुशास्त्री चिपलूणकर और थॉमस पेन आदि की तस्वीरें शामिल हैं। इससे नई पीढ़ी इन व्यक्तित्वों से साकार परिचित हो सकेगी।

समीक्षित पुस्तक : ज्योति कलश (उपन्यास)

लेखक : संजीव

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

मूल्य : 250 रुपए

(संपादन : राजन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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