बात बहुत पुरानी नहीं है या कहिए कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि न्यायपालिका पर सवाल उठे। यह सवाल भी उठा कि वे कौन हैं, जिनके हाथ में न्याय की बागडोर है। तारीख थी 1 मार्च, 2013। पटना उच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीशद्वय जस्टिस वी.एन. सिन्हा और जस्टिस अमरेश कुमार लाल की बेंच ने अपने एक फैसले में बिहार के भोजपुर जिले के चरपोखरी प्रखंड के नगरी गांव में रणवीर सेना द्वारा अंजाम दिए गए नरसंहार के संबंध में निचली अदालत द्वारा दिए गए आदेश को खारिज करते हुए सभी आरोपियों को बरी कर दिया था। जबकि निचली अदालत ने 8 आरोपियों को आजीवन कारावास तथा 3 आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई थी। इसके पहले 2012 में बाथे नरसंहार के मामले में भी पटना उच्च न्यायालय ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया था। पटना उच्च न्यायालय के इन फैसलों पर बिहार के दलित-बहुजनों के बीच यह सवाल तेजी से उठा कि क्या उच्चतर न्यायालयों में इंसाफ को जाति के तराजु पर तौला जाता है? और यह भी कि उच्च न्यायालयों में वे कौन हैं, जिनके हाथ में इंसाफ करने का अधिकार है?
यह सवाल एक बार फिर सामने आया है। गत 5 मई, 2025 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आधिकारिक वेबसाइट पर पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और संजीव खन्ना के कार्यकाल में देश भर के उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति के संबंध में एक दो सूचियों को सार्वजनिक किया। इन दोनों सूचियों का सार यह कि कुल 221 जजों की नियुक्ति को कॉलेजियम ने मंजूरी दी। इनमें करीब 167 जज सामान्य वर्ग से चुने गए। जबकि सिर्फ 54 जज ही वंचित तबकों से चुने गए। इस संबंध में फारवर्ड प्रेस द्वारा पूर्व में प्रकाशित आलेख – “क्यों दक्षिण भारत के उच्च न्यायालयों के अधिकांश जज ओबीसी, दलित और आदिवासी होते हैं तथा हिंदी पट्टी में द्विज-सवर्ण?” – का अवलोकन किया जा सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी सूचियों और विभिन्न उच्च न्यायालयों के आधिकारिक वेबसाइटों पर जजों के बारे में जानकारी और स्थानीय अधिवक्ताओं से मिली जाति संबंधी जानकारी हमें बताती है कि वे किन जातियों के लोग हैं, जिनके हाथ में उच्च न्यायालयों की बागडोर सौंपी गई है।
उदाहरण के लिए पटना उच्च न्यायालय में वर्तमान में कुल 36 जज हैं। इनमें 6 जज राजपूत जाति से आते हैं। प्रतिशत के हिसाब से देखें तो पटना उच्च न्यायालय में राजपूत बिरादरी के जजों की भागीदारी 16.66 प्रतिशत है। जबकि पूरे बिहार में राजपूतों की आबादी (वर्ष 2023 में हुए जातिगत सर्वेक्षण रिपोर्ट के हिसाब से) केवल 45 लाख 10 हजार 733 है, जो कि पूरी आबादी का केवल 3.4 प्रतिशत है।
ऐसे ही सवर्ण जातियों में सबसे श्रेष्ठ मानी जानेवाली ब्राह्मण जाति के जजों की पटना उच्च न्यायालय में हिस्सेदारी 30.55 प्रतिशत है। जबकि राज्य की आबादी में उनकी हिस्सेदारी 3.65 प्रतिशत है। स्थानीय वकीलों द्वारा दी गई जानकारी के हिसाब से पटना उच्च न्यायालय में ब्राह्मण जाति के जजों की संख्या 11 है। इसी तरह पटना उच्च न्यायालय में भूमिहार जाति के जजों की संख्या भी उनकी आबादी के अनुपात से बहुत ज्यादा है। इस जाति के जजों की संख्या 4 है। यदि प्रतिशत के हिसाब से देखें तो उनकी हिस्सेदारी 11.11 प्रतिशत है। जबकि आबादी में उनकी हिस्सेदारी 3 फीसदी से भी कम यानी 2.86 फीसदी है।
राज्य में आबादी कम और पटना उच्च न्यायालय में अधिकाधिक हिस्सेदारी के मामले में कायस्थ जाति सबसे आगे है। पूरे बिहार में कायस्थों की आबादी एक प्रतिशत से भी कम (0.61 प्रतिशत) है। लेकिन पटना उच्च न्यायालय में इस जाति के कुल 5 जज हैं। यानी उच्च न्यायालय में इनकी हिस्सेदारी करीब 13.89 प्रतिशत है।

पटना उच्च न्यायालय में अनुसूचित जाति के कोई जज नहीं हैं। जबकि एक जज पूर्वोत्तर से संबंध रखते हैं और आदिवासी बताए जाते हैं। वहीं पिछड़े वर्ग के 8 जजों के होने की पुष्टि स्थानीय अधिवक्ता करते हैं। इनमें दो यादव जाति के हैं। एक संभवत: कहार जाति (अति पिछड़ा वर्ग) से आते हैं। इनके अलावा दो बनिया जाति के बताए जाते हैं। बिहार में बनिया समुदाय भी पिछड़ा वर्ग में शामिल है। जबकि पिछड़ा वर्ग के तीन अन्य जज किस जाति से संबंध रखते हैं, यह पता नहीं चल सका। यदि हम पिछड़ा और अति पिछड़ा को मिला दें तो बिहार सरकार की रिपोर्ट ही कहती है कि इनकी आबादी संयुक्त रूप से 63.13 प्रतिशत है। जबकि पटना उच्च न्यायालय में इन दोनों की संयुक्त हिस्सेदारी संख्या के हिसाब से केवल 8 है और प्रतिशत के हिसाब से 22.22 प्रतिशत। अब इसमें हम आदिवासी समुदाय से आनेवाले एक जज को भी शामिल करें तो 36 जजों वाले पटना उच्च न्यायालय में केवल 9 आरक्षित समुदायों के हैं। एक जज अशराफ मुसलमान हैं। शेष 27 जज सामान्य श्रेणी के हैं, जिनकी राज्य की आबादी में कुल हिस्सेदारी करीब 15 प्रतिशत है और पटना उच्च न्यायालय में जज के रूप में इनकी हिस्सेदारी 75 प्रतिशत है।
पटना उच्च न्यायालय में किसकी कितनी भागीदारी?
जाति | उच्च न्यायालय में हिस्सेदारी | राज्य की आबादी में हिस्सेदारी |
---|---|---|
दलित (सभी जातियां) | शून्य | 19.61 प्रतिशत |
पिछड़ी जातियां (अत्यंत पिछड़ा भी शामिल) | 22.22 प्रतिशत | 63.13 प्रतिशत |
ब्राह्मण | 30.55 प्रतिशत | 3.65 प्रतिशत |
भूमिहार | 11.11 प्रतिशत | 2.86 फीसदी |
राजपूत | 16.66 प्रतिशत | 3.4 प्रतिशत |
कायस्थ | 13.89 प्रतिशत | 0.61 प्रतिशत |
अशराफ (मुसलमान) | 2.7 प्रतिशत | 4.77 प्रतिशत |
ऐसी ही स्थितियां झारखंड उच्च न्यायालय में भी देखने को मिलती हैं। वहां तो आलम यह है कि आदिवासियों की आबादी पूरे राज्य की आबादी का 26.2 प्रतिशत है और दलितों की आबादी 12.1 प्रतिशत है, लेकिन उच्च न्यायालय में एक भी जज आदिवासी या दलित समुदाय से नहीं हैं। वहां 4 जज ब्राह्मण जाति से संबंध रखते हैं। यानी कुल 15 जजों वाले झारखंड उच्च न्यायालय में 4 ब्राह्मण हैं। प्रतिशत के हिसाब से देखें तो आदिवासी बहुल राज्य के उच्च न्यायालय में ब्राह्मण जाति की हिस्सेदारी 26.66 प्रतिशत है। ऐसे ही वहां भूमिहार जाति के 3 जज हैं। वहां सबसे अधिक हिस्सेदारी कायस्थ जाति के जजों की है। उनकी संख्या कुल 15 में से 7 है। यानी हिस्सेदारी के लिहाज से देखें तो 46.66 प्रतिशत है। वहीं पिछड़े वर्ग से एक जज हैं। चूंकि झारखंड में जातिगत आधार पर आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए हम आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी का आकलन नहीं कर सकते। लेकिन एक बात तो साफ है कि झारखंड उच्च न्यायालय में भी वंचित तबकों की हिस्सेदारी न्यूनतम है। जबकि राज्य में उनकी संयुक्त आबादी 80 फीसदी से अधिक होने का अनुमान लगाया जाता है।
झारखंड उच्च न्यायालय का हाल
क्रम | जाति/समुदाय | उच्च न्यायालय में हिस्सेदारी |
---|---|---|
1 | आदिवासी | शून्य |
2 | ब्राह्मण | 26.66 प्रतिशत |
3 | भूमिहार | 20 प्रतिशत |
4 | कायस्थ | 46.66 प्रतिशत |
बहरहाल, पटना उच्च न्यायालय व झारखंड उच्च न्यायालय से संबंधित उपरोक्त आंकड़े यह बताते हैं कि उच्च न्यायालयों की बागडोर किन जातियों के हाथों में है और यह भी कि देश आजादी की 75वीं वर्षगांठ के बाद भी बहुसंख्यक आबादी का उसमें प्रतिनिधित्व न्यूनतम है। सवाल है कि ऐसा क्यों है?
कॉलेजियम सिस्टम के बजाय ज्यूडिशियरी सेवा का गठन हो : जस्टिस वी. ईश्वरैय्या
इस बारे में पूछने पर आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के पूर्व कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश व केंद्रीय पिछड़ा वर्ग के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस वी. ईश्वरैय्या कहते हैं कि “इसके मूल में कॉलेजियम सिस्टम है। आप इसे ऐसे समझें कि प्रारंभ में दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के लोग न्याय के पेशे में नहीं थे। कुछ रहे भी तो उनकी संख्या बहुत कम थी। लेकिन समय के साथ उनकी संख्या बढ़ी। साथ ही दावेदारी भी। इसके लिए उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति के लिए न्यायिक सेवा का गठन भी किया गया। लेकिन इसे सवर्ण समाज के जजों ने खारिज कर दिया और फिर से नियुक्तियां कॉलेजियम के माध्यम से की जाने लगीं। अभी होता यह है कि राज्यों [उच्च न्यायालय] के स्तर पर कॉलेजियम में तीन सदस्य होते हैं। इनमें एक मुख्य न्यायाधीश और दो उनके बाद के वरिष्ठ जज शामिल होते हैं। वे जजों की नियुक्ति के लिए अनुशंसा करते हैं और पांच प्रतियों में आगे भेजते हैं। एक प्रति राज्य के मुख्यमंत्री को, दूसरी प्रति राज्य के राज्यपाल को, तीसरी प्रति केंद्रीय विधि मंत्रालय को, चौथी प्रति सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम को और पांचवीं प्रति राष्ट्रपति को भेजी जाती है। इसमें राज्य सरकार और केंद्र सरकार प्रस्तावित जजों के बारे में गोपनीय सूचनाओं कि उनके खिलाफ कितने मामले हैं या फिर उनका चरित्र कैसा है, आदि के आधार पर अपनी राय दे सकते हैं। लेकिन न तो मुख्यमंत्री, न केंद्रीय विधि मंत्रालय और न ही सुप्रीम कोर्ट अपनी ओर से कोई नाम जोड़ सकता है अथवा हटा सकता है। यह काम केवल उच्च न्यायालय का कॉलेजियम ही कर सकता है। यह तो हुई तकनीकी बात। लेकिन इसका समाधान यह है कि कॉलेजियम सिस्टम के बजाय ज्यूडिशियरी सेवा का गठन हो, तभी उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय में दलित, आदिवासी और ओबीसी की भागीदारी सुनिश्चित हो सकती है। ऐसा जब तक नहीं होता है, तब तक हमें अन्याय सहना ही होगा।”
मुकदमा हमारा, न्याय तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा : अधिवक्ता अरुण कुशवाहा
वहीं, पटना उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता व बहुजन सामाजिक कार्यकर्ता अरुण कुशवाहा कहते हैं कि “पूरे देश में दलित, आदिवासी, पिछड़ा, अतिपिछड़ा और अकलियतों की कुल आबादी 125 करोड़ है। देश भर की अदालतों में हमारे इन्हीं तबके के लोगों के मुकदमे होते हैं, जिनकी वकालत कर मुट्ठी भर सवर्ण पहले वकील बनते हैं और फिर उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय में जज। जैसे एक नारा होता था – वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा – के तर्ज पर हमलोगों ने पूरे देश में अभियान चला रखा है, जिसका नारा है– ‘मुकदमा हमारा, न्याय तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा’। जिस दिन हम सभी बहुसंख्यक यह ठान लेंगे कि हम अपना मुकदमा किसी सवर्ण वकील को नहीं देंगे, समाधान हो जाएगा। जब वे वकील ही नहीं बनेंगे तो जज कहां से बनेंगे। एक समाधान तो यह है, जिसके लिए हमलोग अभियान चला रहे हैं। दूसरा समाधान यह है कि संसद उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति के लिए आरक्षण का प्रावधान करने के लिए कानून बनाए। हमलोगों ने एक विधेयक ड्राफ्ट कर राज्य व केंद्र सरकार को भेजा है तथा इसके लिए अभियान चला रहे हैं। अभी यह देखिए कि बिहार की निचली अदालतों में आरक्षण लागू होने से बड़ी संख्या में हमारे लोग जज बन रहे हैं। ऐसे ही जब उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय को लेकर कानून बन जाएगा तो हमारे लोग भी आगे आएंगे।”
(संपादन : राजन/अनिल, इनपुट : विशद कुमार)
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