सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आधिकारिक वेबसाइट पर एक रिपोर्ट बीते 5 मई, 2025 को सार्वजनिक किया। इस रिपोर्ट में पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और संजीव खन्ना के कार्यकाल में देश भर के 24 उच्च न्यायालयों में एससी, एसटी, पिछड़े (ओबीसी), अत्यंत पिछड़े, और सामान्य वर्ग के नियुक्त जजों की सूची दी गई है। यह सूची बताती है कि दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु, तेलंगाना, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के उच्च न्यायालयों में इस दौरान सर्वोच्च न्यायालय की कॉलेजियम द्वारा नियुक्त अधिकांश जज पिछड़े वर्ग, अत्यंत पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों से आते हैं। जबकि हिंदी पट्टी, पूर्वी भारत और पश्चिमोत्तर भारत के राज्यों के उच्च न्यायालयों में नियुक्त अधिकांश जज सामान्य वर्ग (मुख्यत: द्विज-सवर्ण) के हैं।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ और पूर्व मुख्य न्यायाधीश खन्ना के कार्यकाल में कुल 221 जजों की नियुक्ति को कॉलेजियम ने मंजूरी दी। इनमें करीब 167 जज सामान्य वर्ग से चुने गए। जबकि सिर्फ 54 जज ही वंचित तबकों से चुने गए।
इस मामले में सबसे बेहतर सामाजिक न्याय का मॉडल प्रदेश तमिलनाडु है। जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस खन्ना के कार्यकाल में मद्रास उच्च न्यायालय में कुल 17 जजों की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय की कॉलेजियम ने की। इन 17 जज में 88.2 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग (अति पिछड़ा वर्ग व इसी वर्ग की महिलाएं शामिल), अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से नियुक्त हुए।
तमिलनाडु के बाद जिस प्रदेश के उच्च न्यायालय में सबसे अधिक गैर-द्विज व गैर-सवर्ण जज इस दौरान नियुक्त हुए, वह प्रदेश तेलंगाना है। यहां भी 85.7 प्रतिशत पिछड़े, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के नियुक्त हुए। तेलंगाना के बाद तीसरा स्थान कर्नाटक का है, जहां 66.7 प्रतिशत जज पिछ़डे वर्ग, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से नियुक्त हुए। इन तीन राज्यों के अलावा मणिपुर एक ऐसा चौथा राज्य है, जहां 50 प्रतिशत से अधिक जज सामान्य कहे जाने वाले समूह से अलग समूहों से नियुक्त हुए। हालांकि वहां केवल दो जजों की नियुक्ति हुई है, जिनमें एक अनुसूचित जनजाति और एक सामान्य श्रेणी के हैं।

आश्चर्यजनक रूप से प्रगतिशील कहे जाने वाले राज्य केरल की स्थिति दक्षिण के अन्य राज्यों से इस मामले में बिलकुल उलट है। यहां सिर्फ पिछड़ा वर्ग, अनसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से 20 प्रतिशत से भी कम जज नियुक्त हुए। हालांकि आंध्र प्रदेश की स्थिति भी कुछ ज्यादा बेहतर नहीं है। यहां सिर्फ 27.3 प्रतिशत जज वंचित समूहों से बने।
इनके बरक्स 9 प्रदेशों के उच्च न्यायालय ऐसे हैं, जहां इस दौरान नियुक्त सभी जज सामान्य श्रेणी के हैं। जैसे कि बिहार के पटना उच्च न्यायालय में 9 नियुक्तियां, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में 19 नियुक्तियां (सभी द्विज-सवर्ण), पश्चिम बंगाल के कोलकत्ता उच्च न्यायालय में 6 नियुक्तियां (एक मुस्लिम शामिल), दिल्ली उच्च न्यायालय में 11 नियुक्तियां (एक जैन व एक सिक्ख), उड़ीसा उच्च न्यायालय में 2 नियुक्तियां, त्रिपुरा उच्च न्यायालय में 2 नियुक्तियां, झारखंड उच्च न्यायालय में एक नियुक्ति, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में 7 नियुक्तियां (इनमें 3 अल्पसंख्यक जो कि सिक्ख हैं) और मेघालय में एक नियुक्ति हुई। सवाल यह उठता है कि क्या इन राज्यों में एक भी उम्मीदवार पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों में इस योग्य नहीं पाया गया, जिसे इनकी जगह उच्च न्यायालयों में बतौर जज नियुक्त किया जा सके?
कुछेक राज्यों में आंकड़ों में बस मामूली अंतर है। मसलन, गुजरात उच्च न्यायालय में 21 नियुक्तियां हुईं। इनमें कोई अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का नहीं है। केवल दो नियुक्त जज ओबीसी से आते हैं। उत्तराखंड उच्च न्यायालय में 7 जजों की नियुक्ति हुई। इनमें केवल एक ही आरक्षित श्रेणी (अनुसूचित जनजाति) से आते हैं। ऐसे ही राजस्थान उच्च न्यायालय में 18 नियुक्तियां हुईं, जिनमें केवल 3 ही ओबीसी से आते हैं। उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद उच्च न्यायालय में 21 नियुक्तियां हुईं, जिनमें 5 ओबीसी (इनमें एक पसमांदा शामिल) और एक अनुसूचित जाति से आते हैं।
अब बिहार और पश्चिम बंगाल की बात करते हैं। बिहार ऐतिहासिक तौर सामाजिक न्याय का गढ़ रहा है। यहां सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष सामाजिक न्याय के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। पटना उच्च न्यायालय में इस दौरान सभी 9 जज सामान्य वर्ग (द्विज-सवर्णों, और कोई अल्पसंख्यक नहीं) के बीच से ही चुने गए। एक भी जज पिछड़ा वर्ग, अनसुचित जाति और अनुसूचित जनजाति से नहीं चुना गया। ऐसे ही पश्चिम बंगाल प्रगतिशील राजनीति का केंद्र रहा है, लेकिन यहां भी कोई जज पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से नहीं चुना गया। आदिवासी बहुल राज्य या आदिवासियों को केंद्र में रख कर बने राज्य झारखंड के उच्च न्यायालय में केवल एक ही नियुक्ति जस्टिस चंद्रचूड़ व जस्टिस खन्ना के कार्यकाल के दौरान हुई और वह भी सामान्य श्रेणी के।
राष्ट्रीय स्तर पर पिछड़ा वर्ग, अत्यंत पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के जजों का यदि प्रतिशत इस दौरान का देखें तो इनका औसत प्रतिशत 24.4 प्रतिशत है। इससे साफ है कि जिन वंचित तबकों की आबादी 85 से 90 प्रतिशत है, उनकी इस दौरान उच्च न्यायालय के जजों की कुल संख्या में हिस्सेदारी 25 प्रतिशत से भी कम है और जिनकी आबादी 10-15 प्रतिशत है, उनकी हिस्सेदारी 75 प्रतिशत है।
यहां यह रेखांकित कर लेना जरूरी है कि सर्वोच्च न्यायालय के लिए जज इन्हीं उच्च न्यायालयों से चुने जाते हैं। अपवाद स्वरूप ही कोई सर्वोच्च न्यायालय के बार काउंसिल से चुना जाता है। अघोषित और परंपरा के तौर पर सर्वोच्च न्यायालय के जजों के संबंध में उच्च न्यायालयों का एक कोटा तय होता है। करीब-करीब सभी उच्च न्यायालयों से जज एक आनुपातिक प्रतिनिधित्व के रूप में सर्वोच्च न्यायालय के लिए चुने जाते हैं। ऐसा नहीं होता है कि सर्वोच्च न्यायालय में दो-चार या दस उच्च न्यायालयों से सभी जज चुने जाएं। इसके चलते तय है कि उच्च न्यायालयों में जितने अनुपात में वंचित तबकों के जज होंगे, उसी में से सर्वोच्च न्यायालय के लिए जज चुने जाएंगे। यदि बिहार या झारखंड या किसी अन्य उच्च न्यायालय में उनकी हिस्सेदारी शून्य है, तो वहां से वे चुने ही नहीं जाएंगे।
सवाल यह है कि दक्षिण भारत को छोड़कर आखिर हिंदी पट्टी, पूर्वी भारत या पश्चिमोत्तर भारत के उच्च न्यायालयों में शून्य या इतने कम जज पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से क्यों चुने गए या 9 राज्यों में सारे के सारे जज इस दौरान सामान्य से ही क्यों चुने गए?
इन प्रश्नों का जवाब जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया, उम्मीदवारों में से छांटने और चुनने का आधार, सर्वोच्च न्यायालय व संबंधित उच्च न्यायालय के कॉलेजियम की भूमिका और उन प्रदेशों के तत्कालीन राज्य सरकारों और उनकी एजेंसियों की भूमिका के संबंध में ज्यादा तथ्यों की मांग करता है। फिर भी दो तथ्यों को यहां रेखांकित किया जा सकता है। पहला यह कि जिस प्रदेश विशेष का उच्च न्यायालय है, उस प्रदेश की सरकार एक हद तक तय करती हैं कि कौन चुना जाएगा और कौन नहीं चुना जाएगा। खासकर कौन नहीं चुना जाएगा, इसमें उनका दखल होता है। इस दखल के कई आधार होते हैं। उसमें एक बड़ा आधार उस प्रदेश विशेष की खुफिया एजेंसी की रिपोर्ट होती है।
दूसरा यह भी है कि किसी प्रदेश विशेष में वंचित समूहों के वकील या जिला जजों में वंचित समुदायों की हिस्सेदारी कितनी है। यदि प्रदेश विशेष में वंचित समुदायों के वकील संबंधित उच्च न्यायालय में जज होने की अहर्ता को नहीं पूरा करते हैं, तो भी वे उच्च न्यायालय के जज के रूप में नहीं चुने जाएंगे। इसके कई सारे मानक बनाए गए हैं। इसमें कई मानक द्विज-सवर्ण वकीलों के लिए ज्यादा अनुकूल हैं या उन्हें वरीयता प्रदान करते हैं।
उपर्युक्त दोनों तथ्य अपर्याप्त हैं। इस संदर्भ में सही तथ्य और विश्लेषण उच्च न्यायालयों में जजों के चुनाव के संदर्भ में कई सारे तथ्यों की मांग करता है, जो आमतौर पब्लिक डोमेन में उपलब्ध नहीं होते हैं या नहीं कराए जाते हैं। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के तथ्य कुछ कह रहे हैं और विशद अध्ययन और विश्लेषण की मांग कर रहे हैं।
(रिपोर्ट में कुछ आंकड़े ‘द हिंदू’ द्वारा प्रकाशित एक आलेख से उद्धृत हैं)
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)