लोकतंत्र और जाति–वर्ण आधारित व्यवस्था, दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते हैं। दोनों एक-दूसरे के घोर विरोधी हैं। लोकतंत्र की बुनियाद स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे पर आधारित है। अभी देश में जो लोकतंत्र दिखाई पड़ रहा है, वह किसी प्रकार से घिसट-घिसट कर चल रहा है। जो कुछ भी बचा हुआ लोकतंत्र है, उसको भी धर्म के नाम पर समाप्त करने की साजिश की जा रही है। उसके ऊपर हिंदू धर्म और राष्ट्रवाद की चासनी लगाकर सांप्रदायिक रूप दिया जा रहा है। यह चासनी भी जाति और वर्ग विशेष के वर्चस्व के लिए ही लगाई जा रही है।
दरअसल, हिंदू समाज ब्राह्मणवादी समाज है, जो विषमता पर आधारित है। इसमें जाति की ऊंच-नीच वाली सीढ़ियां हैं। ब्राह्मणवादी समाज में सामाजिक सत्ता राजनीतिक सत्ता से ज़्यादा प्रभावी होती है। यह राजनीतिक सत्ता को संक्रमित करती है, जिससे न सिर्फ़ असमानता बल्कि अमानवीय परिस्थितियां भी पैदा होती हैं। विशेषाधिकार प्राप्त परिवारों में जन्मे कुछ चुनिंदा लोग न सिर्फ़ दूसरों को कमतर समझते हैं, बल्कि उन्हें अपने दुख सहने के लिए मजबूर भी करते हैं।
हिंदू धर्म में कहा जाता है कि सभी को भगवान ने बनाया है, लेकिन सभी मनुष्य समान नहीं होते। हिंदू समाज में कथित भगवान ने जन्म से ही मनुष्य को ऊंचा-नीचा और छोटा–बड़ा बनाया है। कोई भी दो जाति-वर्ण समान नहीं होते। वे जाति और वर्ण के हिसाब से ऊंचे और नीचे होते हैं। उनके बीच रोटी–बेटी का रिश्ता नहीं होता।
आजकल मनुस्मृति का झूठा यशोगान किया जा रहा है। असमानतावाद हिंदुत्व के अभ्यंतर में छिपा हुआ है। हिंदू धर्म दलितों–पिछड़ों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाता है। मनुस्मृति हिंदू धर्म के जाति और वर्ण भेदभाव की दंडसंहिता है। यह एक ही अपराध के लिए विभिन्न जातियों-वर्णों को भिन्न-भिन्न तरह की सजा का प्रावधान करता है। एक जाति और वर्ण पर दूसरे वर्चस्वशाली जाति और वर्ण द्वारा शोषण और अत्याचार करने के धार्मिक हथियार का नाम ही मनुस्मृति है। जबकि भारतीय संविधान ने एक तरह के अपराध के लिए सभी व्यक्ति को एक तरह की सजा का प्रावधान किया है।
आजकल विशेष जाति के पार्टी कार्यकर्ता चंदन, टीका और गेरुआ पहनकर स्वामी बन जाते हैं। धर्म का आवरण लगाकर धर्म-संसद सम्मेलन करते हैं और अपनी पार्टी का प्रचार करते हैं।वे मंच से भारतीय संविधान की खुलेआम निंदा करते हैं। उसे हटाने और मनुस्मृति लाने की मांग करते हैं। धार्मिक और जातीय घृणा फैलाते हैं। सनातनी हिंदुओं द्वारा आजकल दलितों और पिछड़ों को जाति पूछ-पूछ कर मारा-पीटा जाता है। उनकी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है। उन्हें मुसलमानों के खिलाफ हिंसा करने के लिए उत्प्रेरित और कभी-कभी तो मजबूर तक कर दिया जाता है।
असल में हिंदू-मुस्लिम धर्म की लड़ाई लड़ी ही इसलिए जाती है ताकि सवर्ण जातियों का वर्चस्व बना रहे। इसी कारण वे मुस्लिमों से घृणा को बढ़ाते हैं। तथाकथित हिंदू एकता के नारे के पीछे भी सवर्ण जातियों का वर्चस्व बनाए रखने की नीयत छुपी होती है। इसके बहाने अन्य सभी जातियों के हिस्से को हथियाना है। आंबेडकर ने लिखा है– “अपने आप में हिंदू समाज का अस्तित्व नहीं है। यह जातियों का समुच्चय मात्र है। प्रत्येक जाति को अपने अस्तित्व का एहसास है। उसके अस्तित्व का एकमात्र उद्देश्य यह है कि वह बनी रहे। जातियों के संघ का अभी गठन भी नहीं हुआ है। जब तक हिंदू-मुस्लिम दंगा न हो, एक जाति में यह एहसास पैदा नहीं होता कि वह दूसरी जातियों से संबद्ध है। दंगे को छोड़ कर अन्य सभी अवसरों पर प्रत्येक जाति अपने को दूसरी जातियों से अलग दिखाने और रहने का प्रयास करती है।” (जाति का विनाश, फारवर्ड प्रेस, पृष्ठ 64) आंबेडकर ने यह तब लिखा था जब पाकिस्तान अस्तित्व में नहीं आया था। आज, न केवल हिंदू-मुस्लिम दंगा, बल्कि भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध और झड़पों का माहौल भी है, जिससे ब्राह्मणवादी राष्ट्रवादी पार्टी व संगठन चुनावी लाभ पाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं और सफल भी होते हैं। लेकिन समाज का जातिगत ढांचा अक्षुण्ण बना रहता है।

हिंदू धर्म के कथित धर्माचार्यों द्वारा जाति और वर्णभेद का जोर-शोर से यशोगान किया जा रहा है। इन छद्म धर्माचार्यों द्वारा खुले मंच से मुसलमानों के खिलाफ खुलेआम घृणा फैलाई जा रही है, उनपर अत्याचार करने का आह्वान किया जाता है। इसी तरह दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों पर सरेआम अमानवीय अत्याचार किया जा रहा है। ऐसे कृत्यों को देशद्रोह की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
भारतीय संविधान ने अनुसूचित जातियों-जनजातियों, पिछड़े वर्गों और महिलाओं के साथ किए गए भेदभाव और अत्याचार का निवारण तथा उनके सर्वांगीण विकास के लिए विशेष अवसर के सिद्धांत को स्थान दिया। संविधान ने ‘एक व्यक्ति – एक वोट’ और एक मूल्य के साथ ही समता, स्वतंत्रता और भाईचारे की बुनियाद रखी है। आज संविधान की नींव पर हमला किया जा रहा है। जब राहुल गांधी सावरकर की आलोचना करते हैं तो उन पर देश के विभिन्न शहरों में अपराधिक मुकदमे चलाए जाते हैं लेकिन जब आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत भारतीय संविधान और 1947 में देश को हासिल स्वतंत्रता की अवहेलना करते हैं, उसे नकली स्वतंत्रता कहते हैं तो उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की जाती है। यही भेदभाव वाला सिद्धांत मनुस्मृति का विधान है। इसे ही मनुस्मृति कहते हैं। यह भारतीय संविधान के समक्ष एक बड़ी चुनौती है।
बाबासाहेब ने संविधान सभा में कहा था कि राजनीतिक लोकतंत्र तो आएगा पर जब तक सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र नहीं आता है तब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं आएगा। संविधान सभी को सामाजिक और आर्थिक न्याय दिलाने का वायदा करता है। लेकिन हिंदुत्वादी ताकतें इसे इसके उद्देश्यों में सफल नहीं होने दे रही हैं।
डॉ. आंबेडकर जातियों के उच्च और निम्न दृष्टिकोण की श्रेणीबद्धता की भावना को हिंदुत्व कहते थे। जाति और वर्ण हिंदुत्व का महत्वपूर्ण सार है। डॉ. आंबेडकर ‘फूट डालो और राज करो’ के सिद्धांत की बहुत रोचक व्याख्या करते थे। वे कहते थे कि जाति और वर्ण व्यवस्था फूट डालो और राज करो का सबसे अच्छा उदाहरण है, जिसके निर्माता खुद को सनातनी कहनेवाले हिंदू हैं, अंग्रेज नहीं। इससे ऊंची जातियों को बिना किसी रोक-टोक के राज करने का मौका मिलता है। इससे उनका वर्चस्व बरकरार रहता है।
डॉ. आंबेडकर ने ‘पाकिस्तान या भारत के विभाजन’ में लिखा है कि “यदि हिंदू राज एक सत्य बन जाता है, तो यह निस्संदेह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी। हिंदू चाहे कुछ भी कहें, यह हिंदुत्व स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए एक बड़ा खतरा है। इस कारण यह लोकतंत्र के साथ असंगत है। हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।” (डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर: राइटिंग्स एंड स्पीचेज, खंड 8, पृष्ठ संख्या 358)
डॉ. आंबेडकर ने फिर लिखा है कि “कांग्रेस यह भूल जाती है कि हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है, जिसका चरित्र फासीवादी या नाजी विचारधारा के समान है, जो अपने स्वभाव में पूर्णतः लोकतंत्र–विरोधी है। यदि हिंदुत्व को ढीला छोड़ दिया जाता है तो यह हिंदू बहुमत दूसरे के लिए महाविपत्ति साबित होगा, जो हिंदू धर्म के बाहर हैं अथवा हिंदू धर्म का विरोध करते हैं।” (बाबासाहेब राइटिंग्स एंड स्पीचेज, खंड 17, भाग 2, पृष्ठ संख्या 321)
जाति एक सामाजिक बुराई है। जातिविहीन समाज हमारा संवैधानिक लक्ष्य है। संविधान लागू होने के 75 साल बाद भी समाज के जातिरूपी इस अवांछित बोझ को हम नहीं हटा पाए हैं। यह इसलिए कि हिंदू समाज लोकतांत्रिक नहीं है। इसमें स्तरीकृत असमानताएं हैं। यह असमानता ही इसकी आत्मा है। वर्ण और जाति में समाज का विभाजन धार्मिक आदेश जैसा है।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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