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आंबेडकरवाद के अतीत और वर्तमान को समझाती एक किताब

यह किताब आंबेडकरवादी आंदोलन की दो तस्वीरें प्रस्तुत करती है। एक तस्वीर वह जो डॉ. आंबेडकर के जीवनकाल में थी और दूसरी तस्वीर में उनके परिनिर्वाण के बाद की। आज की तारीख में यह किताब दलित राजनीति के वर्तमान और भविष्य को समझने के लिए जमीनी तथ्य मुहैया कराती है। पढ़ें, यह समीक्षा

पुस्तक समीक्षा

डॉ. आंबेडकर आधुनिक भारतीय इतिहास में ऐसे व्यक्तित्व का नाम है, जिन्होंने करोड़ों लोगों के जीवन को नई दिशा दी। उनका पूरा जीवन एक ऐसा दस्तावेज है, जिसे पढ़कर और जानकर, वंचित समुदायों के लोग अपने हक-हुकूक के लिए प्रेरित हुए हैं। डॉ. आंबेडकर और उनकी विचारधारा को उनलोगों की जुबानी समझना जो कि या तो डॉ. आंबेडकर के संपर्क में आए थे या फिर जिन्होंने आंबेडकरवाद को अपने जीवन का एकमात्र मिशन बना लिया, एक अलहदा रोमांच देता है। ऐसे ही लोगों के साथ साक्षात्कार करने का संकल्प यायावर लेखक विद्या भूषण रावत ने लिया और इसे ‘अंबेडकरवाद : विचारधारा और संघर्ष’ पुस्तक के रूप में प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक के परिवर्द्धित संस्करण काे अगोरा प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। इस पुस्तक में जिन शख्सियतों के साक्षात्कार शामिल हैं, उनमें भगवान दास, एल.आर. बाली, एन.जी. ऊके, वी.टी. राजशेखर, सदानंद फुलझेले, डॉ. के. जमनादास, भदंत नागार्जुन ससाई, डॉ. धर्मकीर्ति, कुमद पावड़े, राजा ढाले, विजय सुरवाड़े, मनोहर मौली विश्वास और आनंद तेलतुंबड़े शामिल हैं।

साक्षात्कार भी साहित्य की एक विधा ही है। कविता, कहानी और उपन्यास आदि अन्य विधाओं से अलग इस विधा की खासियत यह है कि इसके दो रचनाकार होते हैं। एक वह जो साक्षात्कार करता है और दूसरा वह जिनसे साक्षात्कार के दौरान प्रश्न पूछे जाते हैं। विद्या भूषण रावत इस विधा को बखूबी अंजाम देते हैं। मसलन, इस पुस्तक में उन्होंने कुमुद पावड़े को भी शामिल किया है।

कुमुद पावड़े उन पांच लाख लोगों में अपने परिजनों के साथ शामिल थीं, जिन्होंने दीक्षा भूमि में 14 अक्टूबर, 1956 को डॉ. आंबेडकर के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। वह पहली आंबेडकरवादी महिला थीं, जिन्होंने संस्कृत को अपना विषय बनाया और बाद में नागपुर के एक विश्वविद्यालय में संस्कृत की विभागाध्यक्ष बनीं। लेकिन उन्होंने संस्कृत को अपना विषय क्यों बनाया, इसके पीछे एक प्रेरक प्रसंग है। उनके ही शब्दों में, “हमारे घर के पास एक मंदिर था और उसी के पास एक लाइब्रेरी थी, जिसमें बहुत-सी किताबें थीं। वहीं, मैंने बाबासाहब के बारे में बहुत-सी किताबें पढ़ीं। एक पुस्तक में जिक्र था कि वह संस्कृत से प्यार करते हैं लेकिन नहीं पढ़ पाए। बस मैंने संस्कृत पढ़ने का निर्णय ले लिया।”[1] हालांकि ‘प्यार’ जैसे शब्द अतिरेकपूर्ण प्रतीत होते हैं। यह सत्य है कि डॉ. आंबेडकर ने हिंदूधर्म ग्रंथों का अध्ययन अंग्रेजी अनुवादों से किया।

साक्षात्कारकर्ता विद्या भूषण रावत के साथ बातचीत में कुमुद पावड़े कहती हैं कि “आज दलित महिलाओं को हिंदू धर्म के खिलाफ लड़ने की आवश्यकता है। हमें पश्चिम के फेमिनिज्म से कुछ नहीं मिलेगा। जो लोग स्त्रीमुक्ति की बात करते हैं, वे हमारे परिप्रेक्ष्य को नहीं समझते। आंबेडकरवादी होने के नाते हमें मानवमुक्ति की बात करनी होगी जो मात्र स्त्रीमुक्ति से कहीं ज्यादा बड़ा है।”[2]

यह पुस्तक क्यों पढ़ी जानी चाहिए? इसके कई जवाब हो सकते हैं। एक तो यह कि इससे हम डॉ. आंबेडकर के संघर्ष को बिलकुल वैसे ही महसूस कर सकते हैं, जैसे कि उनके संपर्क में आए लोगों ने अनुभव किया। मसलन, भगवान दास, जो डॉ. आंबेडकर के सहयोगी रहे, अपने साक्षात्कार में यह बताते हैं कि “शिवदयाल चौरसिया ने पिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्य के तौर पर एक डिस्सेंटिंग नोट लिखा, जिसकी ज्यादातर ड्राफ्टिंग मैंने ही की थी क्योंकि वे लेखन में बहुत अच्छे नहीं थे। वे एक वकील थे और वे मुझे आंबेडकर के पास ले गए। वे आंबेडकर को वह नोट दिखाना चाहते थे, लेकिन उन्होंने उस नोट के बारे में बहुत ज्यादा राय नहीं रखी। उन्होंने कहा– इसे यहीं छोड़ दो, मैं इसे बाद में देखूंगा। फिर उन्होंने मेरे बारे में पूछा। वह भूल गए थे कि हम पहले भी मिले थे।”[3]

भगवान दास यहां जिस पिछड़ा वर्ग आयोग की बात कहते हैं तो उनका तात्पर्य 1953 में तत्कालीन केंद्र सरकार द्वारा काका कालेलकर की अध्यक्षता में गठित पहला राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग से है।

समीक्षित पुस्तक ‘अम्बेडकरवाद : विचारधारा और संघर्ष’ क मुख पृष्ठ

इसी साक्षात्कार में विद्या भूषण रावत भगवान दास से प्रश्न करते हैं कि “सबसे अधिक हाशिए पर रहने वाले समुदायों में से एक दलितों के बीच मेहतर समुदाय रहा है। क्या आपको लगता है कि आंबेडकरवादी आंदोलन में इस समुदाय को सशक्त बनाने के लिए एक अदृश्य प्रतिरोध है?” और जवाब में भगवान दास कहते हैं– “नहीं, मेहतर समुदाय वास्तविक अर्थों में एक समुदाय नहीं है। क्योंकि वह भारत के विभिन्न हिस्सों में लगभग बारह से चौदह जातियों में विभाजित है, लेकिन दक्षिण भारत में इनका विभाजन उतना बुरा नहीं है। उदाहरण के लिए आप दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश में जाते हैं तो पाते हैं माला और माडिगा दो प्रमुख समुदाय हैं।… माडिगाओं में 70 प्रतिशत स्वीपर के रूप में काम करते हैं और वे मूल रूप से चमार हैं।”[4]

ऐसे ही एल.आर. बाली, जिन्होंने 6 दिसंबर, 1956 को डॉ. आंबेडकर के परिनिर्वाण के बाद अपनी सरकारी नौकरी को त्याग दिया और मिशन में जुट गए और 1958 में ‘भीम प्रतिज्ञा’ नामक पत्रिका की स्थापना की, अपने साक्षात्कार में वह बताते हैं कि “1965 में एक मोर्चा बना था और मैं एक्शन कमेटी का उपाध्यक्ष था। मैं दिसंबर, 1964 को दिल्ली में अपनी पत्नी, बेटी और बेटे के साथ गिरफ्तार होनेवाला पहला व्यक्ति था। मजिस्ट्रेट ने मेरे बच्चों से पूछा, लेेकिन मेरी पत्नी ने कहा कि हम भी साथ जाएंगे। मैं 70 दिनों तक जेल में था।”[5]

संतराम बीए से एल.आर. बाली की मुलाकात का प्रसंग आने पर विद्या भूषण रावत पूछते हैं– “आंबेडकर ने जात-पात तोड़क मंडल के लिए जो भाषण लिखा था, वह कभी नहीं दिया गया था, क्योंकि संतराम ‘बीए’ उसके कुछ हिस्से को बदलना चाहते थे। क्या आपने कभी आंबेडकर से जुड़े मुद्दों पर चर्चा की? क्या उन्हें कभी इस बात का अफसोस था कि आंबेडकर उनके कार्यक्रम में नहीं बोल पाए?”[6]

एल.आर. बाली भी विद्या भूषण रावत के उपरोक्त प्रश्न से इत्तेफाक नहीं रखते हैं और कहते हैं– “यह संतराम बीए नहीं, बल्कि हर भगवान थे जो बाबासाहब के भाषण में संशोधन करना चाहते थे। यह संतराम थे, जिन्होंने बाबासाहब को पत्र [क्रांति नामक पत्रिका] के माध्यम से विशेष रूप से उर्दू भाषी लोगों से परिचित कराया था। 1948 में जब बाबासाहब ने फिर से शादी की तो संतराम बाबासाहब से मिलने गए। उनके रिश्ते कभी तनावपूर्ण नहीं थे।”[7]

ऐसे ही तथ्य ‘जाति का विनाश’ में संकलित डॉ. आंबेडकर और संतराम बीए के बीच पत्राचार और संतराम बीए द्वारा महात्मा गांधी को लिखे एक पत्र में भी सामने आते हैं, जिसमें उन्होंने डॉ. आंबेडकर के विचारों का समर्थन किया था।

आंबेडकरवादी आंदोलन को आगे बढ़ाने में एल.आर. बाली जैसे लोगों की भूमिका राजनेताओं से अधिक रही है। यह इस पुस्तक के माध्यम से जाना जा सकता है। और यह भी कि डॉ. आंबेडकर के परिनिर्वाण के बाद यह आंदोलन अगर कमजोर पड़ा, तो इसकी वजहें क्या रहीं। ‘दलित व्वॉइस’ के संस्थापक संपादक रहे वी.टी. राजशेखर, जो ओबीसी समुदाय से थे, कहते हैं कि “चीन हमसे दो साल बाद आजाद हुआ और आज वह एक वैश्विक ताकत है, जिसने अमेरिका को भारी चुनौती दी है। हम लोग आपस में ही लड़ रहे हैं। अब तो देश का पूरा नेतृत्व ब्राह्मणवादी है और यही हमारी सबसे बड़ी गलती है।”[8]

दरअसल, डॉ. आंबेडकर के बाद इस देश में भले ही उनके विचारों पर आधारित राजनीति की जाती रही है, लेकिन इसके बावजूद अपेक्षित सफलता हासिल नहीं हो पाई है। यह किताब बताती है कि किस तरह आरएसएस के लोग इन आंदोलनों में घुसपैठिए की तरह शामिल रहे। एक दिलचस्प खुलासा दलित पैंथर के संस्थापक राजा ढाले करते हैं– “मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले से ही ये लोग यहां मौजूद हैं। जब मैं पहली बार दलित पैंथर्स के माध्यम से गुजरात गया था, तो मोदी मंच पर बेकार बैठे थे, तब वह कोई बड़ा नाम नहीं थे। दो-तीन बार मैंने उन्हें देखा और सोचा कि वह हमारी बैठक में क्यों आते हैं?”[9]

ऐसे ही के. जमनादास बताते हैं कि नागपुर में दीक्षा समारोह के बाद छात्रों का एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। इसके बाद डॉ. आंबेडकर ने श्याम होटल में चाय पार्टी दी थी। उस दौरान दत्तोपंत ठेंगरी वेटर के रूप में मौजूद थे, जो बाद में आरएसएस के बड़े विचारक बने।[10]

बहरहाल, यह किताब आंबेडकरवादी आंदोलन की दो तस्वीरें प्रस्तुत करती है। एक तस्वीर वह जो डॉ. आंबेडकर के जीवनकाल में थी और दूसरी तस्वीर में उनके परिनिर्वाण के बाद की। आज की तारीख में यह किताब दलित राजनीति के वर्तमान और भविष्य को समझने के लिए जमीनी तथ्य मुहैया कराती है। करीब दो दशकों तक लंबे प्रयासों के बाद इस किताब के तैयार करने के लिए विद्या भूषण रावत बधाई के पात्र हैं।

समीक्षित पुस्तक : अंबेडकरवाद : विचारधारा और संघर्ष (साक्षात्कार शृंखला)

साक्षात्कारकर्ता : विद्या भूषण रावत

प्रकाशक : अगोरा प्रकाशन, बनारस

मूल्य : 320 रुपए

संदर्भ :

[1] अंबेडकरवाद : विचारधारा और संघर्ष, विद्या भूषण रावत, अगोरा प्रकाशन, पृष्ठ 123

[2] वही, पृष्ठ 126

[3] पृष्ठ 40

[4] वही, पृष्ठ 51

[5] वही, पृष्ठ 58

[6] वही, पृष्ठ 60

[7] वही

[8] वही, पृष्ठ 88

[9] वही, पृष्ठ 136

[10] वही, पृष्ठ 97

(संपादन : राजन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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