असहिष्णुता और प्रतिगामी सोच के इस दौर में फुले को पढ़ना और समझना मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव हो सकता है। हाल में ‘फुले’ फिल्म की रिलीज़ को लेकर हुआ विवाद इसका एक उदाहरण है।...
आमजनों को दोष देने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि उनके दलित-ओबीसी नेताओं ने फुले-आंबेडकरवाद को ब्राह्मणों और मराठों के यहां गिरवी रख दिया है। ब्राह्मणी खेमा इस तरह के एकतरफा सांस्कृतिक अभियान की वजह...
डॉ. रोज केरकेट्टा के भीतर सवर्ण समाज के ज़्यादातर प्रोफेसरों की तरह ‘सभ्य बनाने’ या ‘सुधारने’ की मानसिकता नहीं थी। वे केवल एक शिक्षिका नहीं, बल्कि एक पीढ़ी की प्रतिनिधि स्वर बनकर हमारे बीच उपस्थित...
इस आंदोलन का एक यह भी दुखद पहलू है कि जिस बिहार की धरती पर ब्राह्मणवादियों का आजादी के सात-आठ दशक बाद भी अभी तक कब्जा बना हुआ है, उसी बिहार में भगवान बुद्ध और...