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निर्देशक ऋतेश कुमार के मुताबिक, वे कहानी को यथासंभव उसके समयकाल और परिवेश में चित्रित करने की कोशिश कर रहे हैं। यह कहानी 1962 में छपी थी। 2020 में 1960 के आसपास के समय को दिखाना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है
Director Shailesh Narwade’s unique film ‘Jayanti’ is inching towards completion. The investors are all Dalitbahujans, so are most of the actors and the team behind the scenes. But more funds are needed, for which he has turned to crowdfunding
फिल्म निर्देशक शैलेश नरवड़े की अनूठी फिल्म ‘जयंती’ लगभग बन चुकी है। फिल्म में सभी निवेशकर्ता और कलाकारों सहित पूरी टीम के अधिकांश सदस्य दलितबहुजन हैं। फिल्म को रिलीज़ के लिए तैयार करने के लिए कुछ और धन की ज़रुरत है, जिसके लिए नरवड़े क्राउडफंडिंग का सहारा ले रहे हैं
भारतीय फिल्म जगत में अब भी आदिवासी समाज और उसकी संस्कृति को नकारात्मक तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। उन्हें असभ्य और हिंसक दिखाया जाता है। रोमांस और आइटम डांस के दृश्यों में कभी-कभार जो आदिवासी संस्कृति नजर आती भी है, उसका स्वरूप विद्रूप ही होता है। बता रहे हैं राहुल खड़िया
Indian society is made up of the Swarg Lok, Dharti Lok and Paatal Lok, says a protagonist of this new web series. We can’t help but agree with the message: the ‘Paatal Lok’ is our creation, writes Hemraj P. Jangir
इस नई वेब सीरीज का एक प्रमुख पात्र कहता है कि भारतीय समाज में तीन लोक हैं – स्वर्ग, धरती और पाताल। स्वर्ग में देवता वास करते हैं तो धरती पर आम आदमी। वहीं पाताल मतलब अपराधियों यानी कीड़ों-मकोड़ों की वास स्थली। यह सीरीज बताती है कि वे कौन हैं जो इंसानों को कीड़ा-मकोड़ा बनने पर मजबूर कर देते हैं। हेमराज पी. जांगिड़ की समीक्षा
यह सही है कि फिल्में मुनाफा कमाने के उद्देश्य से बनाई जाती हैं और उनसे किसी सामाजिक क्रांति की उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन मुनाफे के नाम पर नायक का केंद्रीय चरित्र सिर्फ उंची जाति का हो तो यह फिल्मकारों का जातिवाद ही है। बता रहे हैं कुमार भास्कर
“दीबी-दुरगा” एक लघु फिल्म है, जिसे निरंजन कुजूर ने निर्देशित किया है। इस फिल्म में दसईं गीत के माध्यम से आदिवासी इलाकोें में चाइल्ड ट्रैफिकिंग एवं अन्य सामाजिक मुद्दों के बारे में बताया गया है। जबकि इस फिल्म का वीडियो इसका मजबूत पक्ष है, जिसमें पितृसत्तात्मक समाज अपना चेहरा देख सकता है। पूनम तूषामड़ की समीक्षा
उषा गांगुली के लिए हाशिए के वर्ग और व्यक्ति हमेशा महत्वपूर्ण बने रहे। “चांडालिका” नाटक में उन्होंने समाज की चक्की में पिस रही शूद्र समाज की एक महिला के जीवन को पूरे साहस के साथ लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया, बता रहीं हैं एनाक्षी डे बिस्वास
जब मैं यह फिल्म देख रही थी तब मेरे जेहन में डॉ. आंबेडकर के विचार चल रहे थे। स्वतंत्र भारत के पहले विधि मंत्री के रूप में उन्होंने 9 अप्रैल 1948 को संविधान सभा के समक्ष हिन्दू कोड बिल का मसविदा प्रस्तुत किया। इसमें महिलाओं के सवाल महत्वपूर्ण थे। पूनम तुषामड़ की समीक्षा
बॉलीवुड के तर्ज पर अब बहुजनवुड की शुरुआत की गयी है। इसे लांच करते हुए चर्चित लेखिका अरुंधति राय ने कहा कि बहुजनों की संस्कृति और उनके सवालों के डॉक्यूमेंटेशन के लिए यह एक जरूरी पहल है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए
ब्राह्मणों को लगा कि उन्हें कटघरे में खड़ा किया गया है। बिहार की राजधानी पटना जहां कथित तौर पर समाजवादी विचारधारा के नीतीश कुमार की सरकार है, फ़िल्म दूसरे दिन ही हटा दी गई। दूसरी ओर प्रबुद्ध वर्ग के दलित चिंतकों ने दलित उद्धारक के रूप में ब्राह्मण नायक को महिमामंडित करने का विरोध किया। सुधा अरोड़ा की समीक्षा