एक ऐसे देश में जहां 13 में से 8 प्रधानमंत्री सिर्फ ब्राह्मण जाति से हो (55 साल की आजादी के बाद शासन में गैर-ब्राह्मणों ने सिर्फ छ: साल राज किए हैं), एक ऐसे राष्ट्र में जहां दशकों के सकारात्मक कार्यों और मंडलीकरण के बावजूद प्रशासन का सर्वोपरि ढ़ांचा पर ब्राह्मणों का वर्चस्व हो, यह बात आश्चर्यजनक नहीं लगती कि एक और राष्ट्रीय महत्व का क्षेत्र क्रिकेट भी इसी सच्चाई के आंकड़े से दु:खी है।
हांलाकि हिन्दू धर्म ग्रंथों में राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में शताब्दियों पुराने ब्राह्मणवादी वर्चस्व का समर्थन किया गया है। बावजूद इसके बुद्ध, मुगल और अंग्रेजों ने इस वर्चस्व का विरोध किया। खेलों में उनका यह वर्चस्व एक ओर उदाहरण है।
‘कोमल’ ब्राह्मण खेल में
इस सच्चाई से कोई इन्कार नहीं कर सकता (कृपया आगे विवरण देखें) कि 1960-1990 तक भारतीय क्रिकेट टीम में औसतन छ: खिलाड़ी ब्राह्मण जाति के रहें हैं। कभी-कभी तो यह संख्या नौ भी रही है। यह बात तब होती है जब कि ब्राह्मणों की आबादी 4 प्रतिशत से थोड़ा ही ज्यादा है। जिस बात को कभी नहीं बताया जाता वह यह है कि क्यों और कैसे यह बात हुई। यह बात कैसे हुई कि जिस जाति ने हमेशा शारीरिक श्रम करने से घृणा की तथा शारीरिक रूप से फिट होने के लिए कभी काम नहीं किया आखिरकार एक खेल पर कब्जा जमा कर बैठ गयी। जातिवादी व्यवस्था यह मांग करती है कि ब्राह्मण बुद्धिवादी कार्यों में लगे रहें तथा अन्य जातियों को इससे अलग रखें। उनसे यह आशा नहीं की जाती है कि शारीरिक तौर पर वह मजबूत और कठोर हों।
ब्राह्मण में कोमलता होती है तथा उनके अन्दर शारीरिक माद्दा नहीं होता इस बात की ताकीद हिन्दू आख्यानों में किया गया है। कर्ण को महाभारत का सबसे खराब चरित्र माना जाता है। उसने एक ब्राह्मण का वेश धारण कर ब्राह्माशस्त्र पाने के लिए परशुराम के पास गया। एक दिन परशुराम कर्ण की जांघों पर अपना सिर रखकर सो रहे थे। एक मधुमक्खी ने इस शिष्य को डंक मार दिया। गुरू की नींद टूट न जाए यह बात सोच कर कर्ण ने पीड़ा को चुप-चाप बर्दाश्त कर लिया परन्तु जब परशुराम के गालों से होकर खून बहने लगा तो वह जग गए। इस विजेता साधु ने तुरंत यह समझ लिया की कर्ण एक ब्राह्मण नहीं है। कोमल शरीर वाला ब्राह्मण इस तरह से पीड़ा को बर्दाश्त नहीं कर सकता। यह उनका कहना था। आधुनिक साहित्य में ज्ञान पीठ पुरस्कार से नवाजे गए साहित्यकार यू. आर. अन्नतमूर्ति ने अपने उपन्यास संस्कार में समकालीन ब्राह्मणों की निर्धानता का जिक्र किया है।
कहने का मतलब यह है कि पारंपरिक रूप से ब्राह्मणों को कोमल और कमजोर माना गया है। इसलिए उन्होंने एक खेल पर आधिपत्य किस प्रकार जमाया? क्रिकेट के साथ ऐसा क्या हुआ कि इस साधु समाज के साथ स्वाभाविक रूप से बिना किसी विरोध के हो ली। इस प्रकार का वर्चस्व हॉकी और फुटबाल जैसे अन्य खेलों में क्यों नहीं है? 2002 में बूसन वर्ल्ड कप में जिस हॉकी टीम ने खेला था उसमें एक भी ब्राह्मण नहीं था, हॉकी मुख्य रूप से पिछड़े, दलित, सिखों और आदिवासियों के द्वारा खेला जाता है। इस प्रकार अमेरिका में खेले जाने वाले बास्केटबॉल का क्रेज पहले लोगों की भावना से जुड़ा है। इसलिए की गोरे लोग ज्यादा ऊंचाई तक कूद नहीं सकते (80 प्रतिशत एन.बी.ए. बास्केटबॉल खिलाड़ी काले हैं जबकि 80 प्रतिशत वेसबॉल खिलाड़ी गोरे हैं।) क्रिकेट एक ऐसा खेल है जो कि दुबारा जन्मे लोगों को यह खेल ज्यादा रास आता है। आजादी के पहले यह खेल राजकुमारों पारसियों और कुलीन क्षत्रियों द्वारा खेला जाता था जो अंग्रेजो का मजाक उड़ाया करते थे। आशीष नंदी जो कि क्रिकेट को हिन्दुवाद के साथ जोड़ कर देखते थे, उन्होंने कहा कि यह भारतीय खेल था जिसे अंग्रेजों ने अचानक ढूंढ़ निकाला था। उन्होंने क्रिकेट के ताओ में लिखा है कि ”यह एक ऐसा खेल था जिसे भारतीय लोगों के साथ पहचाना जाता था। इसमें समय का असीमित कार्यकाल था तथा शुद्धता और आक्रामक प्रतिस्पर्धा पर जोर दिया जाता था। इसमें बहुत सारे रीतियां भी थी।” नंदी के लिए क्रिकेट एक गैर-आधुनिक खेल है जो परंपरा के मूल्यों को अपनाता है तथा आधुनिकता को नकारता है।
क्रिकेट ब्राह्मणों के लिए स्वाभाविक कैसे है
ब्राह्मण इस खेल को आसानी से अपना लेते हैं क्योंकि इस खेल में शारीरिक श्रम की बहुत ज्यादा आवश्यकता नहीं है। इस खेल में शरीर भी एक दूसरे से स्पर्श नहीं करता। एक ऐसी जाति के लिए जो सामाजिक रूप से छुआछूत में विश्वास करता है तथा साफ-सफाई पर ध्यान देता है यह खेल मन पसन्द है। रामचंद्र गुहा नामक इतिहासकार के अनुसार ”क्रिकेट एक ऐसा खेल है जिसमें शरीर एक दूसरे से स्पर्श नहीं करता, ब्राह्मणों के लिए आकर्षण का विषय है। इसके आलावे इस खेल में शारीरीक रूप से सबल होने की जरूरत नहीं है।” श्री गुहा खुद को ब्राह्मण विरोधी हिन्दू बताते हैं।
क्रिकेट एक आराम तलब खेल है जिसमें सिर्फ दौडऩे की जरूरत पड़ती है जब बुलाया जाए। ब्राह्मणों को बहुत ज्यादा अभ्यास करने की जरूरत नहीं है। इसके लिए यह जरूरी नहीं है कि वह खेल कूद में माहिर हो बल्कि उसमें तकनीकी बातों की जानकारी हो और खुद में केन्द्रित रहने की योग्यता हो (जैसे गावास्कर)। इसका क्या कारण है कि हम लोग व्यक्तिगत सफलता को टीम की सफलता में बदलते नहीं देखते हैं। आप दुनिया के सबसे बढिय़ा खिलाड़ी हो सकते हैं, सबसे बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले तकनीकी रूप से बेहतरीन बल्लेबाज परन्तु जब टीम की बात आती है तो कुछ खास नहीं होता। इस भले मानुष के खेल के आलावे आपको ज्यादा आक्रामक होने की जरूरत नहीं है। गुहा इस बात को भी बताते हैं कि वे लोग जो मजदूर वर्ग की पृष्ठभूमि के है वे गेंदबाज हैं क्योंकि इसमें पसीना बहाने की जरूरत है। ”श्रीनाथ जैसे लोग इसके अपवाद है परन्तु डोडा गणेश और वेकेंटेश प्रसाद मजदूर वर्ग की पृष्ठभूमि के हैं। हालांकि प्रसाद एक ब्राह्मण हैं। एक आर्थिक पहलू भी है।” गुहा कहते हैं ”गेंदबाजों को बहुत ज्यादा तामझाम की जरूरत नहीं पड़ती है। आपके पास सिर्फ एक गेंद होनी चाहिए जिससे की वह उसे फेंक सकें। गेंदबाज होना बहुत ही सस्ता और आसान है।” जब मैं एक बार प्रिंस 11 में खेल रहा था जो इस टीम के अन्दर कोई गेंदबाज नहीं था क्योंकि कुलीन राजकुमार पसीना बहाने वाले गेंदबाजी जैसे कार्य करने के लिए तैयार नहीं थे। – गुहा कहते हैं। इस तर्क के अनुसार ब्राह्मणों ने तथा उच्च वर्ग के लोगों ने क्रिकेट में बल्लेबाजी पर कब्जा जमा लिया और यह बल्लेबाजों का खेल हो गया।
टी.वी पत्रकार राजीव सरदेसाई के पिता दिलीप सरदेसाई एक ब्राह्मण थे जिन्होंने भारतीय टेस्ट के लिए खेला। वे सोचते है कि ब्राह्मणों का वर्चस्व इस खेल के कुछ खास पहलुओं पर कायम हैं। ”हम लोगों ने बहुत अच्छे क्षेत्र रक्षक पैदा नहीं किए है। सचाई तो यह है कि हम लोगों ने क्षेत्र रक्षा पर ध्यान नहीं दिया है। सरदेसाई क्रिकेट पर ब्राह्मणों के कब्जें को महानगरीय केन्द्रों में उनकी ज्यादा पहुंच से जोड़ते हैं।” ”आप देखेंगे कि जिमखाना के आसपास वाले खेलों में ब्राह्मणों की भूमिका ज्यादा है। उन्होंने इन खेलों को दशकों तक अपने कब्जें में रखा है। महाराष्ट्र में क्रिकेट आगे बढऩे का एक वाहन है। हांलाकि आजादी के बाद के दौर ने दूसरे खेल प्रजातांत्रिक होते गए। दूसरे समुदायों ने ब्राह्मणों से बराबरी की और शारीरिक खेलों में उनसे बढिय़ा प्रदर्शन किया। खेल के मैदानों में खेले जाने वाले खेलों में ब्राह्मण दूसरे दर्जे के खिलाड़ी रह गए परन्तु क्रिकेट में ऐसा नहीं हुआ।” सरदेसाई कहते हैं कि ”क्रिकेट में सामंती ऊंच-नीच ती सीढिय़ां मौजूद हैं तथा इनमें सामंती मूल्यों को महत्व दिया गया है। इसने उनको नहीं तोड़ा।”
अगर महानगरीय मुंबई में ब्राह्मणों का क्रिकेट पर वर्चस्व है तो मद्रास में यह ब्राह्मणों के बीच झगड़े की वजह। रणजी स्तर के एक सेवा प्राप्त खिलाड़ी ने शिकायत करते हुए कहा कि अय्यरों की कीमत पर आयंगरों का वर्चस्व रहा सिर्फ दो अय्यरों ने ही इसमें सफलता प्राप्त की। उनके नाम हैं एल. शिवा रामकृष्णन और वी.वी कुमार। इनके आलावे एक आयंगर विकेट कीपर एस.वी.टी. चारी और सदगोपन रमेश हैं। वे लोग आपस में खूब तालमेल बिठाते हैं। गुहा कहते हैं ”1950 से लेकर 1980 तक दक्षिण भारतीय और मुंबई के ब्राह्मणों ने पूरा कब्जा जमाए रखा। इतना ही नहीं वे इस खेल के प्रशासन में भी बहुत ताकतवर थे। काफी वर्षों के बाद इस आयंगरों के वर्चस्व को तोड़ते हुए कुंभट काबिज हो गए। बंगाल में भद्र लोग का वर्चस्व था वहां बनियों ने कब्जा जमा लिया जैसा कि डालमिया को हम देखते हैं।”
एक दिवसीय खेलों का प्रभाव
हालांकि एक दिवसीय खेल की प्रतिस्पर्धा के साथ स्थितियों में परिवर्तन होने लगा। एक दिवसीय खेलों के कारण क्रिकेट ज्यादा परिणामवादी हो गया तथा इस खेल का गैर ब्राह्मणीकरण होना शुरू हुआ। इस वर्तमान टीम में ब्राह्मणों की उपस्थिति नहीं है और सचिन तेंदुलकर को छोड़कर कोई भी पारंपरिक रूप से इसमें ब्राह्मण नहीं है। इस टीम के कप्तान सौरव गांगुली हैं। सचाई तो यह है कि सौरव शारीरिक रूप से निष्क्रिय है तथा अपना विकेट बचाने के लिए दूसरों को दौड़ाते हैं। उनका क्षेत्र रक्षण भी कमजोर है हालांकि वे अपने शारीरिक भाषा के द्वारा इस तरह का प्रदर्शन करते हैं कि परशुराम भी उनकी जाति के बारे में संदेह कर लेंगे। जब वे अपनी कमीज उतार देते हैं जैसा कि उन्होंने लॉड्स में 2002 में किया था तब वे अपनी ब्राह्मणवादी पहचान को छिपाने का खतरा उठा रहे थे। तेंदुलकर अपनी कोमलता को दिखाने में विश्वास करते हैं और साथ ही अपने संरक्षक गावास्कर की तरह फिट भी दिखाई पड़ते हैं। टीम इंडिया ने वर्ल्ड कप [2003] जीतकर शायद अपनी अकर्मण्यता की खामियों से पीछा छुड़ा ले। हालांकि नंदी जैसे लोग इसमें ब्राह्मणवादी गुणों की देन कहते हैं जो कि गीता में वर्णित है। इस टीम में जवान आक्रामक जाट सहवाग, नेहरा और हरभजन सिंह जैसा सरदार है। ”10 साल पहले हम लोग इस बात को समझ नहीं सकते थे कि जाट इस तरह से खेलों में प्रदर्शन करेंगे। परन्तु इसके लिए हमने टेलीविजन, एक दिवसीय खेलों की बाजार सस्कृति को धन्यवाद देना चाहिए कि इस खेल ने भौगोलिक रूप से पैर पसार लिया इसलिए विकल्पों का विस्तार हो गया।” सरदेसाई कहते हैं। गुहा के शब्दों में खिलाडिय़ों का आगमन क्षेत्र बढ़ गया है। उड़ीसा और केरल भी खिलाड़ी पैदा करने लगे हैं। ”केरल जो कि फुटबॉल खेलने के लिए माना जाता था यह क्रिकेट के साथ जुड़ गया है तथा हम देखते हैं कि मद्रास-मुंबई के ब्राह्मणों का गंठजोड़ कमजोर पड़ गया है।”
अब समय बदल रहा है और इस बात का सबूत यह है कि जावागल श्रीनाथ जो कि दुनिया का सबसे तेज शाकाहारी गेंदबाज माना जाता था अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए अपने प्रशिक्षक की सलाह पर मांसाहारी हो गया। जब कोई ब्राह्मण टीम की खातिर जातिगत संस्कारों को छोड़ता है तो इससे पता लगता है कि गैर ब्राह्मणवादी मनोवृति बढ़ रही है। चूंकि एक दिवसीय क्रिकेट खेलों में शारीरिक शक्ति की ज्यादा जरूरत है ब्राह्मण का शरीर धीरे-धीरे बाहर आ रहा है। इसे ज्यादा बढ़ाने की जरूरत है जैसा कि तेंदुलकर और श्रीनाथ या फिर इनको हटा देने की क्रिकेट में मनोवृतियों के बदलाव की ज्यादा जरूरत है न कि ब्राह्मणों को भगाने की। मंडलवादीकरण ने सकारात्मक कार्यों को जबरन लागू किया है परन्तु खेल में यह कोई समाधान या संभावना नहीं है, समान अवसर रचने की जरूरत है। एक टीम जिसमें विविधताओं की जरूरत है पूरे देश की प्रतिभाओं को ला सकता है और इसके द्वारा यह खेल वास्तव में राष्ट्रीय हो सकता है। यब विडंबनापूर्ण है कि जिस खेल को अंग्रेजों ने शुरू किया उसमें एक मुसलमान आज नेतृत्व कर रहा है। इंग्लैड और वेल्स ने 1998 में जातिगत असमानताओं के अध्ययन के लिए एक स्टडी ग्रुप की स्थापना की थी। इस ग्रुप ने जून 1999 में एक रिपोर्ट जमा की जिसका नाम था हिट रेसिजिम फॉर ए सिस।
क्या भारतीय क्रिकेट का प्रजातंत्रकरण हो रहा है?
गुहा इतने दूर तक नहीं जाएगें ”क्षेत्रीय अर्थो में इसका जनवादी करण हुआ है परन्तु जातिगत रूप से यह हमारे समाज की विविधताओं को नहीं दर्शाता है।” शताब्दी के पहले भाग में पलवन्कर बल्लू के बाद हम लोगों ने एक भी दलित क्रिकेटर राष्ट्रीय स्तर पर पैदा नहीं किया है। और वह भी बल्लू ने कभी राष्ट्रीय स्तर का खेल नहीं खेला। इसका मतलब यह हुआ कि एक दिवसीय खोलों में एक भी दलित क्रिकेटर कभी नहीं हुआ है। गैर- ब्राह्मण जो खेल में शामिल हुए वो भी समाज के ऊंचे तबके से आये हैं हालांकि यह खेल भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रवेश कर चुका है परन्तु ग्रामीण इलाकों के बच्चे ज्यादा कुछ नहीं कर पा रहे हैं। क्रिकेट वंचित लोगों को इसमें भाग लेने का एक काल्पनिक अहसास भर दिलाता है।
क्रिकेट में जाति को क्यों लाया जाए। यह किसी जाति को घसीटने की बात नहीं है बल्कि सिर्फ बताने की बात है जो वहां मौजूद है और जो लोग सोचते हैं कि यह क्रिकेट नहीं है उन लोगों को सिर्फ हम यह कहना चाहते हैं कि भारतीय टीम में ज्यादा भारत होना चाहिए।
फारवर्ड प्रेस के नवम्बर, 2009 अंक में प्रकाशित
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