राजस्थान में अशोक गहलोत की सरकार का कार्यकाल नवंबर के पहले सप्ताह में समाप्त हो रहा है और दिसंबर में वहां चुनाव होने वाले हैं। विधानसभा चुनाव के करीब आते ही वहां के राजनीतिक समीकरणों में भी बदलाव देखने को मिल रहा है।
राजस्थान की राजनीति में एक पुराना नारा है कि जाट मुख्यमंत्री होना चाहिए। जाट जाति के पास राज्य की आबादी का 12 प्रतिशत मतदाता है। इसके बावजूद उसका मुख्यमंत्री नहीं होने के कारण समुदाय में हमेशा असंतोष व्याप्त रहता है। राज्य की 25 में से 6 लोकसभा सीटों पर इस बिरादरी का प्रभुत्व है। हालांकि चुनावों के वक्त कांग्रेस और भाजपा दोनों दावा करती हैं कि वे जाटों को राजनीति में उचित स्थान देंगी, परंतु चुनावों के बाद उनको नजरंदाज कर दिया जाता है। वैसे इस समुदाय को कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक माना जाता रहा है लेकिन 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इन्हें ओबीसी घोषित कर आरक्षण दिया तो पूरे समाज का वोटबैंक भाजपा की तरफ खिसक गया। नतीजतन भाजपा सत्ता में आई।
फिर भी इस बार के चुनावों में जाट मुख्यमंत्री का सपना न तो कांग्रेस पूरा करती दिख रही है और ना ही भाजपा। हालांकि इन दोनों दलों के अतिरिक्त ओमप्रकाश चौटाला के भारतीय राष्ट्रीय लोकदल ने भी 52 लोगों को टिकट देकर जाट वोट बैंक को विभाजित करने की कोशिश की है।
प्रदेश की राजनीति में जातीय समीकरण देश के अन्य हिस्सों से भिन्न है। यहां पर वोट का जातीय धुव्रीकरण उच्च जातियों में इसलिए हुआ, क्योंकि उनके पास सत्ता रही, वहीं दलित और पिछड़ी जातियों में वोटों का ध्रुवीकरण इसलिए नहीं हो सका, क्योंकि उनके पास सत्ता नहीं रही। वोटों के ध्रुवीकरण से सत्ता का सीधा संबंध रहा है।
प्रदेश की जाट राजनीति किसान राजनीति की प्रतिनिधि मानी जाती रही है। इसी कारण जाट मुख्यमंत्री के नारे के साथ पिछड़े वर्ग की अन्य जातियों की भी सहानुभूति है। जाट राजनीति का मुख्य प्रतिद्वंद्वी समाज राजपूत है, जिसका कांग्रेस और भाजपा दोनों में दबदबा है। इन दोनों समाजों के राजनीतिकरण में अंतर यह है कि राजपूत समाज का चुनावी धुव्रीकरण जातीय मुद्दों और समस्याओं को लेकर हुआ है। जबकि जाट समाज का वोट बैंक किसानों के राजनीतिक मुद्दों पर केंद्रित है।
राजनीतिक रूप से जाटों के कमजोर होने का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि उनके पास कोई मजबूत नेतृत्व नहीं है, न ही राष्ट्रीय स्तर पर और ना ही राज्य स्तर पर। इस समाज के जो भी नेता हैं वे आपसी रंजिश के कारण एक-दूसरे की काट करते रहते हैं, जबकि राजपूत समाज में कहीं अधिक एकता है। कहा जाता है कि राजस्थान के राजपूत जाति को पार्टी से ऊपर मानते हैं।
सीकर, झुझूंनूं, नागौर, श्रीगंगानगर, धौलपुर व भरतपुर को जाट बाहुल्य वाला इलाका माना जाता है। इन इलाकों में यह समुदाय आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत है। सरकारी नौकरियों से लेकर उद्योग-धंधों पर समुदाय का वर्चस्व है लेकिन राजनीतिक रूप से यह समुदाय अलग-अलग धड़ों में बिखरा पड़ा है। इसी का फायदा उठाकर राजनीतिक दल उनके वोट बटोर लेते हैं।
उधर हाल ही में अनेक जाट नेता भाजपा के साथ आ गए हैं। पूर्व विदेश मंत्री कुंवर नटवर सिंह ने वसुंधरा राजे को समर्थन देने का ऐलान किया है तथा दिग्गज जाट नेता हरि सिंह सहित तीन पूर्व विधायक झाबरमल सुण्डा, दिलसुख चौधरी और रणमल सिंह भी भाजपा में शामिल हो गए हैं। भाजपा में शामिल हुए इन नेताओं से भी जाट मुख्यमंत्री का सपना सच होता नहीं दिख रहा है, क्योंकि भाजपा के साथ आने वाले इन नेताओं का राजस्थान में कोई बड़ा जनाधार नहीं है।
राज्य में एक और जाति आधारित ध्रुवीकरण जाट और मीणा के साथ होने से बनता दिखाई दे रहा है। यह समीकरण आदिवासी और ओबीसी की साझी राजनीति का समीकरण है। अगर ऊंची जातियों के विरोधियों में एक राजनीतिक जातीय चेतना भरने में यह तीसरा समीकरण सफल हो गया तो प्रदेश की सत्ता में नया परिवर्तन आ सकता है। जाट और मीणा को अन्य दलित, पिछड़ी जातियों का समर्थन मिलने की उम्मीद लगाई जा रही है। अगर ऐसा होता है तो दोनों ही राजनीतिक दलों, भाजपा और कांग्रेस को सत्ता बनाने के लिए इस तीसरे समीकरण पर निर्भर रहना होगा। अगर ऐसा होता है तो शायद प्रदेश के जाटों का जाट मुख्यमंत्री बनाने का सपना पूरा हो जाए!
(फारवर्ड प्रेस के जून 2013 अंक में प्रकाशित)