नेल्सन रोलिहलाहा मंडेला 18 जुलाई, 1918-5 दिसंबर, 2013
नेल्सन मंडेला नहीं रहे। 6 दिसंबर की सुबह, जब भारत अपने संविधान निर्माता डॉ. आम्बेडकर को याद करने की तैयारी कर रहा था, तभी मंडेला की मृत्यु की खबर आई। मंडेला ने रंगभेद की समाप्ति के बाद दक्षिण अफ्रीका की नींव रखी थी। पूरी दुनिया में उनकी मृत्यु का शोक मनाया जा रहा है परंतु अफ्रीकी उनके जीवन का उत्सव मना रहे हैं। पश्चिमी देश, जिन्होंने अफ्रीका और दुनिया के अन्य हिस्सों में मानवाधिकारों का जमकर उल्लंघन किया है, मंडेला का गुणगान करते नहीं थक रहे हैं।
उनको दी जा रही श्रद्धांजलियों में जो एक बात समान है वह यह कि वे इसलिए महान थे क्योंकि वे ‘बदला लेने’ में विश्वास नहीं रखते थे और वे ‘एकीकृत’ दक्षिण अफ्रीका के निर्माता थे। भारतीयों ने मंडेला को अपना मित्र बताने में देरी नहीं की। हमारे देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और कई नेताओं ने बार-बार दोहराया कि मंडेला ने गांधी से बहुत कुछ सीखा था।
हम भारतीय, पश्चिमी देशों के नागरिकों से कहीं अधिक पाखंडी हैं। यद्यपि यह सच है कि जवाहरलाल नेहरू ने दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार की स्पष्ट शब्दों में आलोचना की थी परंतु यह भी उतना ही सच है कि हमने उस सरकार को उखाड़ फेंकने की पर्याप्त कोशिश नहीं की। हम हमारे देश के अदृश्य रंगभेद को भुलाकर अफ्रीका के बारे में ढेर सारी बातें कह सकते हैं परंतु हमारे ही लोगों को सत्ता के ढांचे में उचित प्रतिनिधित्व देना हमें मंजूर नहीं है। मंडेला को दी गई श्रद्धांजलियों से भी भारत में व्याप्त जातिगत घृणा स्पष्ट झलकती है।
एक के बाद एक बड़े-बड़े नेताओं ने कहा कि मंडेला पर गांधीवादी मूल्यों का गहरा प्रभाव था। यह कहना मुश्किल है कि गांधी ने अफ्रीका के दिन-रात कमरतोड़ मेहनत करने वाले आम अश्वेतों के लिए क्या किया। जब गांधी अफ्रीका में थे तब भी उनका संघर्ष अश्वेतों के लिए नहीं वरन् वहां के भारतीय समुदाय के लिए था, जिनमें से अधिकांश गुजराती व्यवसायी थे। वे आज भी अफ्रीका के बड़े हिस्से में प्रभावशाली हैं और गोरों से कम नस्लवादी और जातिवादी नहीं हैं।
दूसरे, भारत में दक्षिण अफ्रीका की तुलना में कहीं बड़े पैमाने पर भेदभाव होता है। भारत के लगभग 16 करोड़ नागरिक अदृश्य रंगभेद के शिकार हैं, जिसे ‘दैवीय’ स्वीकृति प्राप्त है। संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद, इनके अधिकारों की रक्षा करने में हम अक्षम रहे हैं और उनके साथ अन्याय बहुत आम है। मंडेला सन् 1990 में भारत आए थे। वह स्वाधीन भारत का सबसे उथल-पुथल भरा साल था। उस साल ओबीसी को आरक्षण देने की पुरानी मांग पूरी हुई थी और समाज के हाशिए पर पटक दिए गए एक तबके को शासन व्यवस्था में हिस्सेदारी करने का मौका मिला था। उसी साल भारत के संविधान निर्माता को सरकार ने देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया। वीपी सिंह सरकार ने बाबा साहब आम्बेडकर और नेल्सन मंडेला को एक साथ भारत रत्न से विभूषित किया। भारत रत्न से विभूषित लोगों की सूची में ये दो नाम अलग नजर आते हैं क्योंकि अधिकतर मामलों में इन पुरस्कारों का प्रयोग, श्रेष्ठी वर्ग अपने हितों की रक्षा के लिए करता रहा है। सन् 1990 में पहली बार ऐसा लगा कि सही लोगों को भारत रत्न दिया गया है।
इसके बाद भी हमारे किसी विश्लेषक या टिप्पणीकार ने आम्बेडकर की पुण्यतिथि 6 दिसंबर को भी, मंडेला और आम्बेडकर के बीच समानताओं की चर्चा नहीं की। आम्बेडकर ने अकेले दलितों के अधिकार की लड़ाई लड़ी। ये दलित आज भी भेदभाव और पूर्वाग्रहों के शिकार हैं। प्रधानमंत्री ने गांधी का नाम लिया क्योंकि हमारे देश में हर नेता के लिए गांधी और नेहरु का नाम जपना अनिवार्य है। इन दोनों के नाम पर अनेक पुरस्कार स्थापित किए गए हैं। अगर मंडेला को आम्बेडकर को पढऩे का समय मिला होता तो मुझे विश्वास है कि वे आम्बेडकर के लंबे संघर्ष की सराहना करते। अगर दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत आज भी परेशानियां भोग रहे हैं और अगर भारत के दलितों को आज भी गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार नहीं है तो फि र तथाकथित ‘सत्ता हस्तांतरण’ व ‘समावेशी प्रजातंत्र’ का क्या अर्थ है ? तथ्य यह है कि सत्ताधारी श्रेष्ठी वर्ग ने ‘समावेशी प्रजातंत्र’ को एक ऐसी व्यवस्था में बदल दिया है, जिसमें सत्ता, प्राकृतिक संसाधनों और देश की संपदा पर केवल उनका अधिकार हो गया है।
अब, जब कि मंडेला नहीं रहे, यह जरूरी है कि हम उन्हें भगवान न बनाएं। उनकी विरासत की आलोचनात्मक विवेचना आवश्यक है ताकि उन्होंने जो स्वाधीनता आंदोलन चलाया था, उसे सिर्फ ‘माफ करो और भूल जाओ’ के खांचे तक सीमित न कर दिया जाए।
(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2014 अंक में प्रकाशित )
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