संसद में जोरदार बहस और जद्दोजहद के बाद 2011 की जनगणना को जाति और आर्थिक आधार पर फिर से करवाने की घोषणा की गई थी। राजनीतिज्ञों और अफसरशाही की चालाकी और मिलीभगत ने उस निर्णय को अर्थहीन बना दिया है।
बिहार में जाति जनगणना की हाल में प्रकाशित रिपोर्ट से जातियों के नाम सिरे से गायब हैं। जनता और विपक्षी नेताओं के विरोध के बाद कर्मचारियों को घर-घर जाकर सुधार करने के आदेश दिए गए हैं। किन्तु क्या इतनी जल्दी सुधार हो पाएंगे ? सुधार होंगे भी तो क्या होंगे? क्योंकि जाति वाले खाने में तो केवल अनुसूचित जाति/जनजाति और ‘अन्य’ छपे हैं। इस ‘अन्य’ में सवर्णों के साथ-साथ अन्य पिछड़ी जातियां भी शामिल हैं। जबकि ‘अन्य पिछड़ी जातियों’ का कॉलम अलग से होना चाहिए था। कर्मचारियों ने इन्हीं विकल्पों में से एक को पूछकर भर दिया। कुछ कर्मचारी कह रहे हैं, लोगों ने अपनी जाति बताने से इनकार कर दिया, तो कुछ कह रहे हैं कि फार्म में जाति भरने का कहीं निर्देश ही नहीं था इसलिए जो दलित थे, उन्हें अनुसूचित जाति, जो आदिवासी थे, उन्हें अनुसूचित जनजाति और जो सवर्ण या ओबीसी थे, उनके नाम के आगे ‘अन्य’ लिख दिया गया। किन्तु जनगणना पदाधिकारी कह रहे हैं कि उनके वर्ग के साथ उनकी जाति भी लिखनी थी।
इस मसले में सरकार की मंशा साफ नहीं नजर आती। जनगणना प्रपत्र का नाम तो ‘सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना’ रख दिया पर जातिवाले कॉलम को ऐसा बनाया जिसमें लोग जाति नहीं अपना वर्ग ही लिखें। ऊपर से सवर्ण और ओबीसी के लिए एक ही वर्ग-अन्य-बना दिया गया। यह मजाक नहीं तो और क्या है? अब सुधार के लिए कर्मचारी जो फार्म दे रहे हैं, उसके पैसे ले रहे हैं या उसकी फोटो कॉपी कराने के लिए कह रहे हैं। जांच करने पर यही स्थिति पूरे देश में मिलेगी। मतलब जाति जनगणना टांय-टांय फिस्स।
(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2014 अंक में प्रकाशित )
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