नामदेव ढ़साल : (1949-2014 )
मराठी के मशहूर कवि और दलित पैंथर के जनक नामदेव ढ़साल का 15 जनवरी को निधन हो गया। ढ़साल का जन्म 15 फरवरी, 1949 को पुणे के एक दलित (महार) परिवार में हुआ था। बचपन अत्यंत गरीबी में मुम्बई में बीता। शुरुआती दिनों में वे मुम्बई की सड़कों पर टैक्सी चलाकर अपनी आजीविका चलाते थे। वरिष्ठ हिन्दी लेखक उदय प्रकाश ने नामदेव ढ़साल के योगदान को याद करते हुए कहा, ‘ढ़साल सही मायने में विद्रोही कवि थे। उन्हें आप प्रगतिशील नहीं कह सकते। उनकी कविताओं में बहुत ही तीव्र और तीखी प्रतिक्रिया थी। सड़कों और गटरों में पैदा होने वाली भाषा को उन्होंने कविता में आयात किया और कविता की परंपरा को बदल दिया।’
नामदेव ढ़साल तब चर्चा में आए जब उन्होंने 1972 में ‘ब्लैक पैंथर’ का गठन किया। यह संगठन अमेरिका के ‘ब्लैक पैंथर मुवमेंट’ से प्रेरित था जो अमेरिका में अफ्रीकियों ने अपने हितों की रक्षा के लिए खड़ा किया था। अमेरिका में यह संगठन गोरों द्वारा अश्वेतों पर किए जाने वाले अत्याचार के विरोध में काम करता था। नाम के अनुरूप इन दोनों संगठनों का प्रतीक चिन्ह पैंथर था। यह संगठन सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर काम करता था और पूरे भारत में सक्रिय था। जहां भी दलितों पर अत्याचार होता, ‘दलित पैंथर’ वहां खड़ा दिखता। ‘दलित पैंथर’ के कार्यकर्ता अपने आपको ‘पैंथर’ (चीता) कहते थे, क्योंकि दलितों पर अत्याचार के विरुद्ध वे पैंथर की तरह लड़ते थे। ‘दलित पैंथर’ के उभार के साथ ही साथ दलित साहित्य भी उभरा। ‘दलित पैंथर’ के तीन संस्थापक थे-अरुण काम्बले, नामदेव ढ़साल और राजा ढ़ाले। ये सभी साहित्य से जुड़े थे। नामदेव ढ़साल की विद्रोही कविताएं अनपढ दलितों को भी आंदोलन के लिए प्रेरित करती थीं।
ऐसा कहा जाता है कि ढ़साल का पहला काव्य संग्रह गोलपिठा मराठी साहित्य ही नहीं बल्कि संपूर्ण दक्षिण एशियाई साहित्य में अहम् जगह बनाने में कामयाब रहा। इसके बाद उनके कई काव्य संग्रह मूर्ख महात्रार्ण, तुझी इयाता कांची, खेल और प्रियदर्शिनी चर्चित रहे। उन्होंने दो उपन्यास भी लिखे- आंधले शतक और आंबेडकरी चालवाल। उनके लिखे राजनीतिक पत्र भी चर्चित हुए। साहित्य अकादेमी ने उन्हें ‘गोल्डन जुबली लाइफ टाइम एचीवमेंट एवार्ड’ प्रदान किया। भारत सरकार ने उनकी साहित्य सेवा के लिए उन्हें 1999 में पद्मश्री से अलंकृत किया। नोबेल पुरस्कार विजेता वीएस नॉयपाल ने अपनी पुस्तक ए मिलियन म्यूटिनीज नाऊ में एक पूरा अध्याय उनको समर्पित किया है।
वे एक खुले विचारों के नेता व साहित्यकार थे। उन्होंने शिवसेना के मुखपत्र सामना के लिए कई सालों तक कॉलम लिखा। वे बुलाने पर आरएसएस के कार्यक्रमों में भी शिरकत करते थे। इस कारण विरोधी उनकी आलोचना भी करते थे। संघ के एक कार्यक्रम में वे कहते हैं कि ‘बाबासाहेब आम्बेडकर के सिद्धांतों पर चलते हुए मैंने दलित और सवर्ण समाज के बीच सेतु बनाने का व्रत लिया है और पिछले 40 वर्षों से मैं निजी और सांगठनिक तौर पर इस काम में लगा हूं। मैं संघ परिवार का सदस्य नहीं हूं, लेकिन यदि संघ सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए अपने 40-50 वर्ष के अनुभवों के बाद कुछ करना चाहता है तो मैं संघ को अस्पृश्य नहीं मानता हूं। यद्यपि मैं जानता हूं कि संघ के मंच पर आने से अनेक प्रगतिवादी लोग मुझे गालियां देंगे। मैं पक्का सिद्धांतवादी हूं और डॉ. आम्बेडकर के विचारों पर चलने वाला सर्वसाधारण कार्यकर्ता हूं। जाति प्रथा के कारण मैंने अपना बालपन खोया है। मैं महाराष्ट्र की महार जाति से संबंधित हूं और मतांतरित बौद्ध हूं।’ उनका ऐसे कार्यक्रमों मे शिरकत करना सही था या गलत ये एक अलग मुद्दा है, लेकिन उनके इस भाषण के अंश पर गौर करें तो पाते हैं कि वे किस प्रकार सवर्णों के संगठन में जाते थे और दलितों की बात पूरी शिद्दत के साथ कहते थे।
अंत में उनकी एक प्रसिद्ध कविता से आपको रू-ब-रू कराना चाहता हूं। इसका हिंदी अनुवाद सूर्यनारायण रणसुभे ने किया है-
हे मेरी प्रिय कविता
नहीं बसाना है मुझे अलग से कोई द्वीप,
तू चलती रह, आम से आम आदमी की उंगली पकड़
मेरी प्रिय कविते,
जहां से मैंने यात्रा शुरू की थी
फिर से वहीं आकर रुकना मुझे नहीं पसंद,
मैं लांघना चाहता हूं अपना पुराना क्षितिज।
(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2014 अंक में प्रकाशित )
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