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इंग्लैंड में जातिवाद से मुकाबला

जाति आज भी इंग्लैण्ड में रह रहे प्रवासी एशियाइयों की सामाजिक बुनावट का अभिन्न अंग बनी हुई है। नौकरी के दौरान, जब मैं मुख्यत एशियाई कर्मचारियों के बीच काम करती थी भेदभाव का सामना करना पड़ा

संतोष दास, एमबीई का जन्म भारत के पंजाब में 1959 में हुआ था। फरवरी, 1968 में वे अपनी मां व भाई के साथ लंदन चली गईं, जहां उनके पिता रहते थे। सन् 2012 तक वे इंग्लैण्ड की सिविल सेवा में थीं। ब्रिटेन की केन्द्र सरकार के विभिन्न विभागों में लगभग 30 साल काम करने के बाद, उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली।

सन् 1997 में दास को स्वास्थ्य विभाग के बेहतर नियमन में महत्वपूर्ण भूमिका के लिए एमबीई से सम्मानित किया गया। वे इन दिनों मानवाधिकारों और समानता से जुड़े मुद्दों पर इंग्लैण्ड में काम कर रहे कई गैर-सरकारी संगठनों से जुड़ी हुई हैं। वे लंदन के एक स्कूल की कम्युनिटी गर्वनर भी हैं। वे इंग्लैण्ड के आम्बेडकरवादी व बौद्ध संगठनों के महासंघ की अध्यक्ष और जातिगत भेदभाव विरोधी गठबंधन की उपाध्यक्ष हैं। उन्होंने यूरोप व अमेरिका के लगभग सभी देशों की यात्रा की है और वे नियमित तौर पर भारत भी आती रहती हैं। विद्याभूषण रावत के साथ एक बातचीत में उन्होंने ब्रिटेन में जाति-विरोधी कानूनों के इतिहास पर प्रकाश डाला।

ब्रिटेन की संसद द्वारा पारित जातिगत भेदभाव निरोधक कानून कब तक लागू होगा?

इस कानून को 2013 में ‘एंटरप्राइज एण्ड रेग्युलेटरी रिफॉर्म्स एक्ट’ के रूप में पारित किया जा चुका है परंतु इसे अभी तक लागू नहीं किया गया है। वर्तमान सरकार ने ऐसा इंगित किया है कि इसे 2015 की गर्मियों तक लागू कर दिया जाएगा और अक्टूबर 2015 तक यह पूरी तरह प्रभावशाली हो जाएगा। इस तरह हम अपने लक्ष्य तक लगभग पहुंच गए हैं।

यह कैसे संभव हुआ?

इसके लिए हम सब ने बहुत मेहनत की। देश के अंदर (एनजीओ, जिनमें जातिगत भेदभाव विरोधी गठबंधन, उदारवादी सांसद, वकील और सरकार का समानता व मानवाधिकार आयोग शामिल हैं) व अंतर्राष्ट्रीय स्तर (संयुक्त राष्ट्र संघ व यूरोपियन कमीशन) पर यह मांग बार-बार की जा रही थी कि पीडि़तों को कानूनी सुरक्षा मिलनी चाहिए। इसके अलावा, सन् 2008 के बाद कई ऐसी रपटें सामने आईं जिनसे यह जाहिर हुआ कि इंग्लैण्ड में जातिगत आधार पर भेदभाव किया जा रहा है। इनमें दलित सोलिडेरिटी नेटवर्क यूके, आम्बेडकरवादी व बौद्ध संगठनों का महासंघ, जातिगत भेदभाव विरोधी गठबंधन की रपटें व कई अकादमिक अध्ययनों के नतीजे शामिल हैं। इन रपटों और अध्ययनों से यह भी जाहिर हुआ कि जातिगत भेदभाव केवल व्यक्तिगत संबंधों तक सीमित नहीं है। इससे, इस संबंध में कानून बनाए जाने के विरोधी लोगों के दावों का प्रभावी खंडन हुआ।

मैंने बेडफोर्ड के आम्बेडकरवादियों का लेखन पढ़ा है, जिसमें उन्होंने बताया है कि किस तरह उन्होंने भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष किया और कैसे उनमें से कई ने व्यवसाय व अन्य क्षेत्रों में जबरदस्त सफ लता हासिल की। यह दुखद है कि उन्हें सभी स्तरों पर भेदभाव का सामना करना पड़ा और भेदभाव करने वाले ब्रिटिश नहीं बल्कि उनके साथी, प्रवासी भारतीय हिन्दू और सिख थे। क्या हम अपनी जातियां भारत में छोड़कर नहीं आ सकते?

जाति आज भी इंग्लैण्ड में रह रहे प्रवासी एशियाइयों की सामाजिक बुनावट का अभिन्न अंग बनी हुई है। लोगों की आपकी जाति और आपके पूर्वजों में रुचि रहती है। ब्रिटेन में उसके पूर्व उपनिवेशों से आने वाले प्रवासियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।

ब्रिटेन की सरकार, शासकीय सेवा और निजी क्षेत्र दोनों में विविधता को प्रोत्साहन देती है परंतु इसका लाभ दलितों को किस हद तक मिल रहा है? क्या इंग्लैण्ड के आम्बेडकरवादी या जाति विरोधी संगठनों ने कभी यह मांग उठाई कि दलितों को सरकारी तंत्र और निजी सेवाओं सहित जीवन के हर क्षेत्र में प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए?

ब्रिटेन में सार्वजनिक क्षेत्र में नस्लीय अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए पहले से ही सकारात्मक प्रयास किए जा रहे हैं। इसी तरह के प्रयास, समानता कानून के अंतर्गत महिलाओं और शारीरिक व मानसिक दृष्टि से असामान्य लोगों को वाजिब प्रतिनिधित्व देने के लिए किए जा रहे हैं। नस्लीय अल्पसंख्यकों में दलित शामिल हैं। ऐसी कोई मांग नहीं की गई है कि नए कानून के अंतर्गत किसी व्यक्ति को उसकी जाति बताना अनिवार्य किया जाए। जातिगत भेदभाव विरोधी कानून के समर्थक और विरोधी दोनों एकमत थे कि इंग्लैण्ड में जाति को संस्थागत स्वरूप नहीं मिलना चाहिए। अपितु, भेदभाव, जिसे भारत से आयात किया गया है, को मिटाने के लिए हरसंभव प्रयास किए जाने चाहिए।

इंग्लैण्ड में दलितों के साथ किस तरह का भेदभाव होता है ? क्या कोई एजेंसी है जो इस तरह की प्रवृत्तियों पर नजर रखती है और कार्यवाही करती है?

दलितों को उसी तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता है जिस तरह के भेदभाव का मुकाबला अन्य नस्लीय अल्पसंख्यकों को करना पड़ता है। इनमें शामिल हैं कार्यस्थल (कैरियर में आगे बढऩे के रास्ते बंद करना, वेतन वृद्धि रोकना, परेशान करना, अलग-थलग रखना आदि), सेवाक्षेत्र (किसी वृद्ध महिला को उसकी जाति के कारण उचित देखभाल न मिलना या किसी डाक्टर द्वारा दलित का ठीक से इलाज न किया जाना या उसकी जांच करने में आनाकानी करना) व स्कूलों और विश्वविद्यालयों में परेशान करने या दादागिरी जमाने के मामले।

जातिगत भेदभाव विरोधी गठबंधन की रपट में इस तरह के भेदभाव के अनेक उदाहरण दिए गए हैं। रपट का शीर्षक है, ”ए हिडिन अपारथाईड-व्हाईस ऑफ द कम्युनिटी।” यह सन् 2009 में जारी हुई थी। 300 उत्तरदाताओं में से 9 प्रतिशत को पदोन्नति नहीं मिली, 9 प्रतिशत के साथ अभद्रता की गई, 12 साल से छोटे 7 प्रतिशत बच्चों को डराया-धमकाया गया और 16 प्रतिशत को अशिष्ट बर्ताव का सामना करना पड़ा। 58 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें उनकी जाति के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा और 80 प्रतिशत का कहना था कि अगर वे अपने साथ जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव की शिकायत पुलिस से करते हैं तो पुलिसकर्मी उनकी बात ही नहीं समझ पाते। जो लोग इस तरह के भेदभाव करने के दोषी थे, उनमें से 10 प्रतिशत अध्यापक और 42 प्रतिशत सहपाठी थे। मुझे नहीं लगता कि सरकार ने इस विषय पर कोई आंकड़े इकट्ठे किए होंगे। ऐसा हो सकता है कि अदालतों में इस तरह के मामले चल रहे हों। समय आने पर उनका दस्तावेजीकरण होगा।

भारत में दलितों के खिलाफ हिंसा का एक बड़ा कारण ‘लव मैरिज’ है। मैं इन्हें अंतर्जातीय विवाह नहीं कहूंगा क्योंकि भारत में अंतर्जातीय विवाह की कोई संभावना नहीं है। दरअसल, लव मैरिज, दो व्यक्तियों के अपने जीवनसाथी चुनने के अभिभावकों और समाज के अधिकार को चुनौती देती है और यही हिंसा की जड़ में है। मेरा खयाल है कि इंग्लैण्ड में भी ऑनर किलिंग के मामले बढ़ रहे हैं और यह सिर्फ मुसलमानों में नहीं हो रहा है बल्कि उन मामलों में भी हो रहा है जहां लड़का और लड़की अलग-अलग जातियों के हैं। क्या इस स्थिति से निपटने के लिए ‘फोर्स्ड  मैरिज लॉ’ के अतिरिक्त कोई और कानून है?

इंग्लैण्ड में ऑनर किलिंग या जबरदस्ती विवाह किए जाने के खिलाफ कानून हैं। जो कानून प्रभावशाली होने वाला है, वह व्यक्तिगत संबंधों पर लागू नहीं होगा। अंतर्जातीय विवाह के कारण यदि कोई हिंसा होती है तो उससे सामान्य आपराधिक कानूनों के जरिए निपटा जाएगा।

आपकी यहां तक की यात्रा बहुत कठिन रही है। आपने तो हिम्मत कर यह भी स्वीकार किया कि जातिगत भेदभाव विरोधी आंदोलन के भीतर भी लैंगिक असंतुलन है। क्या बेटी के रूप में आपके संघर्ष के बारे में आप कुछ बता सकेंगी और इस बारे में भी कि आप इंग्लैण्ड कैसे पहुंचीं?
मेरे विचार से आंदोलन में, कम से कम शीर्ष स्तर पर, लैंगिक असंतुलन है। परंतु चीजों में धीरे-धीरे सुधार आ रहा है। मैं स्वयं इसका उदाहरण हूं। मैं जातिगत भेदभाव विरोधी गठबंधन की उपाध्यक्ष हूं और इंग्लैण्ड के आम्बेडकरवादी व बौद्ध संगठनों के महासंघ की अध्यक्ष भी हूं। मैं इस क्षेत्र में पिछले 20 वर्षों से काम कर रही हूं। पिछले साल जातिगत भेदभाव संबंधी कानून के समर्थन में हमने जो प्रदर्शन किए, उनमें बड़ी संख्या में भारतीय महिलाओं, जिनमें युवा महिलाएं भी शामिल थीं, ने हिस्सेदारी की।

क्या आपको इंग्लैण्ड में आपकी जाति या चमड़ी के रंग के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा?

हां, नौकरी के दौरान, जब मैं मुख्यत: एशियाई कर्मचारियों के बीच काम करती थी।

आपने इंग्लैण्ड में सरकारी नौकरी क्यों शुरू की। आपको प्रेरणा कहां से मिली? क्या आपके प्रियजनों ने आपका साथ दिया, आपको प्रोत्साहित किया ? क्या आपको जाति के आधार पर भेदभाव का सामना करना पड़ा?

डाक्टरी या वकालत के बाद, इंग्लैण्ड में सरकारी सेवा सबसे बेहतर काम माना जाता है। मैं तो कलाकार बनना चाहती थी परंतु मुझे उस विभाग के काम ने प्रेरणा दी, जिसे अब डिपार्टमेण्ट फॉर इंटरनेशनल डेव्हलपमेंट (डीएफ आईडी) कहा जाता है। जब मैंने इस विभाग में काम शुरू किया था तब वह फॉरेन एण्ड कामनवेल्थ विभाग का हिस्सा था। मैं उस समय यह मानती थी कि विकासशील देशों के लिए आर्थिक मदद बहुत महत्वपूर्ण है और मैं उस विभाग का हिस्सा बनना चाहती थी, जिसे यह जिम्मेदारी सौंपी गई थी। मैं पहली बार नौकरी के लिए किसी इंटरव्यू में गई थी और चुन लिए जाने के बाद मुझे बहुत खुशी हुई।

हां, मेरे परिवार ने मेरा पूरा साथ दिया। डीएफ आईडी, केन्द्र सरकार का विभाग था। वहां पर काम करने वालों में नस्लीय अल्पसंख्यकों की संख्या बहुत कम थी। जब सन् 1979 में मैंने विभाग में नौकरी शुरू की, तब मुझे पता चला कि वहां केवल एक भारतीय महिला काम करती है और वह भी बहुत छोटे पद पर थी। डीएफ आईडी में मुझे किसी प्रकार के भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा। मैं सन् 2012 तक सरकारी सेवा में रही। उस साल मैंने समय के पहले स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली।

आपको ब्रिटेन की सरकार ने सम्मानित किया। स्वाभाविकत: तब आपने बहुत गर्व महसूस किया होगा?

मुझे मेडल ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर (एमबीई) से सम्मानित किया गया। प्रिंस चार्ल्स ने सन् 1997 में यह सम्मान मुझे दिया। मुझे इसलिए सम्मानित किया गया क्योंकि मैंने स्वास्थ्य विभाग के बेहतर नियमन और उसमें लालफीताशाही कम करने में योगदान दिया था। जब मुझे यह पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई तब मैंने इस विषय पर गंभीरता से विचार किया कि मुझे इस सम्मान को स्वीकार करना चाहिए या नहीं। इसका कारण यह है कि सरकारी सम्मान देने की यह व्यवस्था ब्रिटिश राज से जुड़ी हुई है। परंतु मेरी बेटी ने मुझे पुरस्कार स्वीकार करने के लिए राजी किया। उसका कहना था कि इससे हमारे आंदोलन को मदद मिलेगी। निश्चित तौर पर वह मेरे परिवार व समुदाय के लिए गर्व का मौका था। मैं अपनी मां और अन्य कई प्रियजनों को बकिंघम पैलेस ले गई थी। मेरी मां आज भी कहती हैं कि वह उनके जीवन के सबसे अच्छे दिनों में से एक था। मुझे लगता है कि मैं यह पुरस्कार पाने वाली अपने समुदाय की पहली व्यक्ति हूं परंतु यह भी हो सकता है कि मैं गलत होऊं।

आप आम्बेडकरवादी व बौद्ध संगठनों के महासंघ, जातिगत भेदभाव विरोधी गठबंधन व कॉस्ट वाच यूके के साथ कई सालों से काम कर रही हैं। क्या आप उनकी गतिविधियों और उपलब्धियों पर प्रकाश डाल सकती हैं?

इन संगठनों की उपलब्धियां और गतिविधियां इतनी हैं कि उन्हें गिना भी नहीं जा सकता। यह सब टीमवर्क से हो रहा है। जातिगत भेदभाव विरोधी कानून पारित कराना हमारी एक बड़ी उपलब्धि है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व देश के सत्ताधारियों की नजरों में समुदाय का सम्मान बढ़ाना हमारी दूसरी उपलब्धि है। हमने ऐसे संगठनों को मान्यता दिलवाई है जो पहले हाशिए पर थे। अप्रैल में इंटरनेशनल ह्यूमेनिस्ट एण्ड एथिकल यूनियन (आईएचईयू) ने छुआछूत के खिलाफ द्वितीय विश्व संगोष्ठी आयोजित की थी। हमने पहली बार काठमांडू में दुनिया के दूसरे हिस्सों के मानवतावादी दलित अधिकार कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर आम्बेडकर जयंती मनाई।

आईएचईयू, छुआछूत प्रथा के निवारण के लिए गैर-धार्मिक, राजनीतिक व मानवाधिकार-आधारित उपायों की हामी है। आपका इस बारे में क्या मत है?

मेरे विचार में मानवाधिकारों पर आधारित उपाय ही सबसे बेहतर हैं। इसके साथ ही, हमें अपने संगठनों की क्षमता बढ़ानी चाहिए और अपने रणनीतिक लक्ष्यों का निर्धारण करना चाहिए, जिन्हें हम नियत समयावधि में पूरा कर सकें। जो लोग सत्ता में हैं या सरकार को प्रभावित करने की स्थिति में हैं उन तक हमें अपने विचार सप्रमाण पहुंचाने चाहिए। हमारी संवादशैली प्रभावी व पैनी होनी चाहिए। हमें जमीनी स्तर पर समर्थन जुटाना चाहिए। संगठन और उसके सदस्यों की ईमानदारी और प्रतिबद्धता ही वह कुंजी है जो हमें सफ लता दिला सकती है।

 

(फारवर्ड प्रेस के अगस्त 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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