भारतीय समाज की संस्कृति और चिंतन की दो धाराओं पर तो मेरा ध्यान गया था और राजन्यों की एक तीसरी धारा के समय-समय पर अलग दिखने, लेकिन अंतत: वर्चस्वशाली ब्राह्मणवादी धारा में ही समाहित हो जाने को भी मैंने कई बार कई तरह से महसूस किया था लेकिन नास्तिक होने के चलते उपासना की दो पद्धतियों की ओर मेरा ध्यान कभी नहीं गया।
भक्ति आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता शायद यही थी कि इसने उपासना की ब्राह्मण-पद्धति को न केवल चुनौती दी बल्कि लगभग ध्वस्त कर दिया। भले ही तुलसीदास ने ब्राह्मणवादी मूल्यों को फि र से स्थापित करने की कोशिश की और वर्ण व्यवस्था को महिमा-मंडित करने का भी प्रयत्न किया लेकिन कबीर और रैदास जैसे संत कवियों द्वारा स्थापित नये जीवनमूल्यों को वे ध्वस्त नहीं कर सके बल्कि चुनौती तक नहीं दे सके। ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ – रैदास के इस कथन की आज भी पूरे भारतीय समाज में मान्यता है जबकि ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी ये सब ताडन के अधिकारी’ या ‘पूजिए विप्र शील गुन हीना’ जैसी तुलसी की उक्तियों पर हर कोई सवाल उठाता है।
भक्त कवियों, खास कर पहले दौर के निर्गुण संत कवियों ने पूजा-पाठ और कर्मकांड की जगह मन की पवित्रता को श्रेष्ठ और निर्णायक बताया। और उसके बाद के समाज ने अंतिम रूप से इसे स्वीकार कर लिया। इस बात को थोड़ा विस्तार से समझने की जरूरत है।
सबसे पहले हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने शोध के आधार पर यह स्थापना दी थी कि भक्ति आंदोलन की शुरूआत दक्षिण भारत के आलवार संतों ने की थी। वे शिव के उपासक थे और मन की पवित्रता पर जोर देते थे। शायद इसलिए भी कि वे शूद्र थे और बहुत हद तक साधनहीन भी। कर्मकांडों से वे अनभिज्ञ थे और उन्हें इसका अधिकार भी प्राप्त नहीं था। हालांकि द्विवेदी जी ने इस पर और ज्यादा प्रकाश नहीं डाला और उसके सामाजिक कारणों को ढ़ूढऩे की भी कोशिश नहीं की। यह उनका क्षेत्र भी नहीं था। लेकिन एक नजऱ देखने से ही यह साफ हो जाता है कि अपने शुरुआती स्वरूप में ही यह कर्मकांडवाद के विरुद्ध एक सामाजिक विद्रोह का इजहार था। उत्तर भारत में भी पहले चरण में जो संत कवि इसमें शाामिल हुए वे सब के सब समाज के निचले तबकों से थे और कर्मकांडों के कठोर विरोधी थे।
उत्तर में यह आंदोलन दक्षिण से आया था लेकिन दक्षिण में यह किन सामाजिक परिस्थितियों में पैदा हुआ और चिंतन की किस परंपरा से इसने शक्ति ग्रहण की, उस पर अभी शोध करने की जरूरत है। मेरी समझ से यह शूद्रों की प्राचीन भौतिकवादी चिंतन परंपरा से ही विकसित हुआ और समय के दबाव में भौतिकवाद, अधिभौतिक शक्ति की उपासना की ओर मुड़ गया। भौतिकता से आध्यात्म की ओर झुकाव तब ज्ञान के विकास का स्वभाविक मार्ग था। हमें उसे तत्कालीन परिस्थितियों के संदर्भ में ही देखना होगा। आजीवक धर्म में भी भाग्यवाद और नियतिवाद के तत्व मिलते हैं, उन पर विचार जरूरी है लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि आरंभिक काल से निर्गुण भक्ति मार्ग तक यह पूरी परंपरा अबाध रूप से ब्राह्मणवाद और कर्मकाण्डवाद के विरुद्ध है। वैसे इस परंपरा को ऐतिहासिक रूप से स्थापित करने के लिए अभी और शोध की जरूरत है।
जैसा कि शुरू में कहा गया है, सगुण भक्त कवियों और संतों, विशेष रूप से तुलसीदास ने अपने स्तर से भक्ति आंदोलन का ब्राह्मणीकरण कर दिया। उसके बाद यह भारत के इतिहास का सबसे बड़ा सामाजिक आंदोलन कई तरह के गत्यावरोधों में फंस गया। लेकिन भक्ति के लिए मन की पवित्रता और निष्ठा की जरूरत को तुलसी सहित सभी ब्राह्मणवादी संतों को भी स्वीकार करना पड़ा, क्योंकि समाज, विधिविधानों और कर्मकांड़ों से संचालित होने वाले अनुष्ठानों के वर्चस्व को अस्वीकार करके आगे निकल आया था। भले ही सत्यनारायण का कथावाचन चलता रहा, आज भी चल रहा है, लेकिन उसके यजमान भी अब विधानों से अधिक भावनाओं को महत्व देते हैं। अर्थात् भावना की पवित्रता का शूद्र सिद्धांत आज विधिविधान और कर्मकांड के ब्राह्मण सिद्धांत पर निर्णायक रूप से प्रभावी हो गया है। यह शूद्र या कहिए ब्राह्मणवाद विरोधी चिंतनधारा की ऐसी बड़ी सफलता है, जिसे रेखांकित किया जाना चाहिए।
(फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर 2014 अंक में प्रकाशित)
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