हिंदुओं की भावनाओं को तथाकथित ‘चोट’ पहुंचाने के आरोप में फारवर्ड प्रेस के विरूद्ध दिल्ली पुलिस द्वारा की गयी कार्यवाही, पत्रिका को आतंकित करने के लिए किया गया कायराना हमला है। यह शर्मनाक है कि पुलिस ने यह कार्यवाही, उस एबीव्हीपी के कुछ कार्यकर्ताओं की ‘शिकायत’ पर की, जो कि कानून के राज में कम ही विश्वास करती है। उनकी शिकायत का आधार था दुर्गा-महिषासुर मिथक के बहुजन संस्करण का पत्रिका में किया गया कलात्मक चित्रण।
भारत, महिषासुर और उसके ‘साथियों’ या तथाकथित राक्षसों के वध को दुर्गा पूजा के रूप में मनाता है। इन मिथकों से जुड़ी सैंकड़ों अलग-अलग कहानियां हैं और देश के अलग-अलग हिस्सों में इस त्योहार को अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है। महिषासुर, पश्चिम बंगाल और असम के कई आदिवासी इलाकों में पूजनीय माना जाता है। इसी तरह, महाराष्ट्र के लोग ‘राजा बाली’ के राज की स्थापना की कामना करते हुए दीवाली मनाते हैं। बाली के भविष्य में आने वाले शासन के संबंध में कई गीत हैं जिनमें यह कहा गया है कि बाली राज में सभी समृद्ध होंगे और समान भी। इसी तरह, रावण को कई लोग सम्मान की दृष्टि से देखते हैं जबकि वैदिक हिंदुओं के लिए वह खलनायक और अधर्म का प्रतीक है।
स्वतंत्र सोच वाला आंबेडकरवादी होने के नाते मैं इस बहस में नहीं पड़ता कि मेरी पौराणिक कथाएं तुम्हारी कथाओं से बेहतर हैं या मेरा ईश्वर, तुम्हारे ईश्वर से बड़ा है। ऐसा इसलिए क्योंकि यदि हमें भारत की आने वाली पीढ़ियों को पुरोहित वर्ग के शोषण से बचाना है तो हमें ईश्वर के नाम पर खड़े किए गए विशाल साम्राज्य को ही चुनौती देनी होगी। इस साम्राज्य को चुनौती देने के साथ-साथ, उसे बेनकाब करना भी उतना ही जरूरी है। यहां हमें यह स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि कुछ पौराणिक कथाएं प्रेरणास्पद हैं और हमारे समाज में व्याप्त जातिगत और लैंगिक ऊँचनीच को प्रतिबिंबित करती हैं।
मेरे विचार में डाॅ. बाबा साहेब आंबेडकर की पुस्तक ‘‘रिडिल्स ऑफ हिन्दुइज्म’’, पौराणिक कथाओं का असली अर्थ समझने और उनका सच लोगों के सामने लाने का सर्वश्रेष्ठ साधन है। यह दिलचस्प है कि आंबेडकर, राम और कृष्ण की पहेलियों का विश्लेषण करते हुए किसी नये सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं करते वरन उनके बारे में प्रचलित कथाओं का ही विश्लेषण करते हैं। आंबेडकर की दृष्टि में यह महत्वपूर्ण है कि हम अपने इतिहास से सीखें और उन पौराणिक कथाओं और ‘पवित्र’ ग्रंथों से नाता तोड़ें जो हमारे पतन का कारण हैं। इसलिए, आंबेडकर कहते हैं कि जो लोग उनके ‘नवायन’ या नये पथ पर चलना चाहते हैं उन्हें पहले उस पुराने पथ से मुक्ति पानी होगी, जो उन पर ब्राह्मणवादी ग्रंथों द्वारा लादा गया है। हमारी आज जो पहचान है, उसे हमने निर्मित नहीं किया है। हमारे नाम, हमारी जाति और हमारे धर्म को उन लोगों ने चुना है जो हमारे विचारों पर नियंत्रण करना चाहते हैं और जिंदगी का अपना फलसफा हम पर लादना चाहते हैं। इतिहास हमेशा महान या स्वर्णिम नहीं होता। परंतु दुर्भाग्यवश, पौराणिक कथाओं के महिमामंडन से हमें ऐसा प्रतीत होने लगता है। आंबेडकर कभी यह विश्वास नहीं करते थे कि हमारा इतिहास स्वर्णिम था। उन्होंने समतावादी और प्रजातांत्रिक जीवन पद्धति को चुना, जिसे उन 22 संकल्पों में परिभाषित किया गया है जो उन्होंने अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाते समय लिए थे।
फारवर्ड प्रेस और उस पर पड़े छापे पर हुई चर्चा के दौरान कई ऐसी बातें भी कही गईं जो खतरनाक और चिंताजनक हैं। कुछ लोगों ने संबंधित अंक पर सवाल उठाते हुए कहा कि पत्रिका का गुप्त ईसाई एजेण्डा है और इसलिए उसमें प्रकाशित सामग्री को ध्यानपूर्वक विश्लेषित किया जाना चाहिए। मेरे कुछ आंबेडकरवादी मित्रों को डा. आंबेडकर के बौद्ध धर्म अपनाने के संबंध में प्रकाशित एक लेख को पढ़कर दुःख पहुंचा। और यह अकारण नहीं था क्योंकि लेखक ने असंवेदनशील भाषा का इस्तेमाल किया था। कई लोगों ने कहा कि यह पत्रिका बौद्धों और कम्युनिस्टों के खिलाफ ईसाई प्रचार का हथियार है तो दूसरों ने कहा कि जातिगत पहचान के नाम पर यह भाजपा और हिंदुत्व की ओर झुकी हुई है। यह सब बहुत दुःखद है क्योंकि इस तरह के मुद्दे कई बार पूरे विमर्श की दिशा बदल देते हैं। और इससे सबसे ज्यादा लाभ उन सत्ताधारियों को होता है जो प्रेस की स्वतंत्रता से डरते हैं।
बौद्धिक रणभूमि में हमें उन्हीं विषयों पर चर्चा करनी चाहिए जो तार्किक और समयोचित हों। इस रणभूमि में अफवाहों और चुगलखोरी के लिए कोई जगह नहीं है। हम सब यहां अपने-अपने संघर्ष कर रहे हैं और फारवर्ड प्रेस स्वयं का बचाव करने में सक्षम है। अगर वह ईसाई एजेण्डे का प्रचार भी कर रही है-जिस आरोप से मैं सहमत नहीं हूं-तब भी उसे ऐसा करने का हक है क्योंकि हम सबका अपना-अपना एजेण्डा है।
दूसरे, यहां मुद्दा पत्रिका में प्रकाशित सामग्री नहीं है। उस पर बहस की जा सकती है और कई लोग, जिनमें मैं भी शामिल हूं, प्रकाशित सामग्री से असहमत भी हो सकते हैं। परंतु यहां प्रश्न अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का है। उदाहरणार्थ, मुझे कभी ‘बीफ उत्सव’ मनाने का विचार पसंद नहीं आया। यह इस तथ्य के बावजूद कि मैं इस बात का हामी हूं कि लोगों को उनकी पसंद का भोजन करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। इसी तरह, मैं एक पौराणिक कथा का मुकाबला करने के लिए दूसरी पौराणिक कथा का अविष्कार या खोज करने के विरूद्ध रहा हूं और ना ही मैं किसी नये ‘ईश्वर’ के निर्माण में विश्वास करता हूं। परंतु मेरा यह दृढ़ मत है कि इन पौराणिक कथाओं का विश्लेषण आवश्यक है ताकि इस देश और दुनिया के लोग यह समझ सकें कि उनके पीछे किस तरह की कुटिलता थी।
डा. आंबेडकर, जोतिबा फुले और पेरियार ने दलित बहुजनों पर ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक वर्चस्व को बेनकाब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी परंतु यह हमारे हित में है कि हम इस मुद्दे को खत्म न होने दें। कई युवा अध्येता असाधारण रूप से अच्छा लिख रहे हैं और वे आंबेडकर और पेरियार से भी आगे जा रहे हैं। परंतु हमारे लिए यह समझना आवश्यक है कि समुदायों को पारंपरिक रूढ़ियों से स्वयं को अलग करना होगा और यह भी, कि संस्कृति और परंपरा के नाम पर हर चीज का बचाव नहीं किया जा सकता। इसलिए मैं इस पक्ष में नहीं हूं कि महिषासुर या किसी भी अन्य का मंदिर बनाया जाए। परंतु इसके साथ ही, अगर महिषासुर के ‘अनुयायी’ उनका मंदिर बनाना चाहते हैं तो उन्हें ऐसा करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। फिर चाहे मेरे जैसे लोग व्यक्तिगत या वैचारिक आधार पर किसी नये ईश्वर के निर्माण के विरूद्ध ही क्यों न हों।
इसलिए जहां पत्रिका में प्रकाशित सामग्री की आलोचना करने में कुछ भी गलत नहीं है वहीं इस आलोचना के कारण हमें असली मुद्दे-अभिव्यक्ति की आजादी पर मंडरा रहे खतरे-से भटकना नहीं चाहिए। और जिस तरह से फारवर्ड प्रेस के कर्मचारियों और संपादकों को आतंकित किया गया उससे यह साफ है कि असली मुद्दा क्या है। फारवर्ड प्रेस के संपादक चाहे इससे सहमत हों या न हों, मेरी यह मान्यता है कि किसी भी स्वस्थ प्रजातंत्र में लेखकों को यह अधिकार होना चाहिए कि वे धार्मिक ग्रंथों को चुनौती दें और धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाएं। लोगों की ‘धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने’ को अपराध घोषित करने वाला प्रावधान, भारत में अभिव्यक्ति की आजादी के लिए सबसे बड़ा खतरा है। हम सब ने देखा है कि किस तरह एमएफ हुसैन को भारत से खदेड़ दिया गया और न तो सरकार और ना ही यह देश उनके लिए कुछ कर सका।
यह आवश्यक है कि हम उन लोगों को समझने का प्रयास करें जो नयी सरकार आने के बाद बेलगाम हो गए हैं। वे हर उस व्यक्ति को चुनौती दे रहे हैं जो उनके विचारों से सहमत नहीं है। सरकार तो नहीं परंतु कम से कम हाथों में पत्थर लिए इस तरह के लोगों की भीड़ तो यह मानती है कि जो भी उनसे सहमत नहीं है, वह भारत को बदनाम कर रहा है। जब फारवर्ड प्रेस के ऑफिस पर पुलिस के छापे और उसके कर्मचारियों को हिरासत में लिए जाने की खबर मुझे मिली तब मैं गुजरात के मेहसाणा जिले में था और मेरे कुछ विदेशी मित्रों के साथ कच्छ क्षेत्र की ओर जा रहा था, जहां आयोजित एक कांफ्रेंस में भाग लेने के लिए वे भारत आये थे। मैंने उनसे इस घटना की चर्चा की और घटनाक्रम को जानकर उन्हें बहुत धक्का लगा। परंतु जल्दी ही हमारे साथ यात्रा कर रहा एक भारतीय मित्र, हिंदुओं को बदनाम करने के लिए ‘धर्मनिरपेक्षतावादियों’ की कड़े शब्दों में निंदा करने लगा।
मैं फारवर्ड प्रेस से अपने जुड़ाव पर हमेशा गर्व महसूस करता रहा हूँ क्योंकि मेरा यह मानना है कि यह उन चंद पत्रिकाओं में से है जो अपना एक स्तर बनाए रखते हुए भी लेखकों को उनके विचार बिना किसी बाधा के व खुलकर व्यक्त करने की इजाजत देती हैं। फिर चाहे संपादक उन विचारों से सहमत हों या न हों। यही कारण है कि मैं हमेशा इस पत्रिका के साथ खड़ा रहा हूं। यह हिंदीभाषी क्षेत्र में युवा दलितबहुजनों के लिए अति उपयोगी सिद्ध हुई है। इसने पत्रकारिता के व्यवसायिक और नैतिक मानदंडों का हमेशा पालन किया है और यह कभी किसी राजनैतिक दल का भोंपू नहीं बनी। सच तो यह है कि यह बहुत तेजी से दलितबहुजन समुदायों की आवाज बनती जा रही है।
जो लोग फारवर्ड प्रेस को आतंकित करना चाहते हैं वे सफल नहीं होंगे क्योंकि किसी भी विचार का मुकाबला शारीरिक हिंसा या राज्य के दमन से नहीं किया जा सकता। किसी विचार का मुकाबला करने के लिए एक बेहतर विचार चाहिए होता है। यह मुश्किलातों का दौर है और यहां मुद्दा हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का है। इस मुद्दे को नजरअंदाज करना प्रजातंत्र और दलितबहुजन आंदोलन के भविष्य के लिए ठीक नहीं होगा। यह वह समय है जब हमें खड़े होकर, बुलंद आवाज में, यह कहना होगा कि हम किसी भी विचार पर पहरे या अपने विचारों को अभिव्यक्ति देने वालों को आतंकित किये जाने के विरोध में हैं। अच्छी तरह जान लीजिए कि आज यह फारवर्ड प्रेस के साथ हुआ है, कल यह आपके साथ भी हो सकता है।
(फारवर्ड प्रेस के नवम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in
फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें
मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया