12 जनवरी, 1933 को मधुबनी जिले के मिर्जापुर गांव में जन्मे सूर्यनारायण चौधरी के पिता रामलखन चौधरी सामान्य गृहस्थ थे। उनके घर मेंं पठन-पाठन की कोई परंपरा नहीं थी। उन्होंने जो कुछ भी हासिल किया, स्वयं के संघर्षों और उनसे प्राप्त अनुभवों की बदौलत। सन 1950 से 1954 तक सी.एम.कॉलेज दरभंगा में अपनी पढाई के दौरान ही उनकी पक्षधरता तय हो गई थी। बी.ए व विशारद करते हुए ही वे समाजवादी आन्दोलनों में पूर्णकालिक कार्यकर्ता हो गए थे। समाजवादी नेता सूरज नारायण सिंह के नेतृत्व में संचालित भूमि आंदोलन में उन्होंने सक्रिय रूप से भाग लिया। 1969 में फणीश्वरनाथ रेणु के सहयोग से ‘रचना’ नामक साहित्यिक संस्था की स्थापना की। इसके सचिव के रूप में साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक विषयों पर गोष्ठियां आयोजित कीं। ‘बिहार आंदोलन’ के समय रेणुजी के साथ मिलकर नुक्कड़ कवि सम्मेलनों, नाटकों एवं चित्र प्रदर्शनियों का आयोजन किया।
राजनीतिक-सांस्कृतिक योगदान
1981 में कर्पूरी ठाकुर की प्रेरणा से लालू प्रसाद एवं जेपी के सचिव सच्चिदानंद के साथ मिलकर राजगीर में साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों एवं राजनीतिज्ञों को एक मंच पर एकत्रित कर ‘संपूर्ण क्रांति एंव कौमी एकता’ सम्मेलन किया। ऑल इंडिया रेलवे मेंस एसोसिएशन’ से भी वे गहरे जुड़े रहे। सन 1968 में रेल हड़ताल के समय गिरफ्तार हुए और जेल की सजा पाई। ‘प्रेस बिल विरोधी आंदोलन’ एवं मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कराने के लिए आयोजित प्रदर्शनों में हिस्सा लेकर गिरफ्तारी दी। 1986 में ‘लोकदल’ की प्रांतीय कार्य समिति के सदस्य मनोनीत किए गए। 1989 में आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के घेराव कार्यक्रम में पुलिस ने इनकी बर्बरतापूर्ण पिटाई की। सन 1990 के द्विवार्षिक चुनाव में ‘जनता दल’ के उम्मीदवार के रूप में बिहार विधान परिषद् के सदस्य बने। 7 मई 1990 को उन्होंने सदस्य के रूप में शपथ ली। लेकिन एक साल के भीतर अचानक 14 अप्रैल, 1991 को दिल्ली के ‘बतरा हॉस्पिटल’ में हदय गति रूक जाने से उनका निधन हो गया।
जनपक्षधर पत्रकारिता
उनकी लिखी रपटें, भेंट वार्ताएं, संस्मरण और विश्लेषण ‘दिनमान’,’धर्मयुग’ व ‘रविवार’ जैसी पत्रिकाओं और ‘हिंदुस्तान’,’आज’, ‘आर्यावर्त’, ‘पाटलिपुत्र टाइम्स’ और ‘नवभारत टाइम्स’ जैसे दैनिक अखबारों में छपे। एक सजग आंदोलनकारी होने के नाते उन्होंने तत्कालीन बिहार की समस्याओं को शिद्दत से महसूस किया था। यह अकारण ही नहीं कि उनकी लिखी ज्यादातर रपटें गंभीरता के साथ राष्ट्रीय, प्रांतीय और स्थानीय समस्याओं को एक व्यापक फलक पर उद्घाटित करती हैं। इसकी तस्दीक उनके जीवनकाल में प्रकाशित पुस्तक ‘बिहार की अस्मिता’ से की जा सकती है। बिहार पर अपनी तरह की यह एक विरल पुस्तक है, जिसमें बिहार के छठे से लेकर नौवें दशक के राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक-सांस्कृतिक जीवन के लगभग सभी महत्चपूर्ण घटनाक्रमों पर वस्तुनिष्ठ नजरिए से विचार किया गया है। उनकी कुछ भेंट-वार्ताएं बेहद दिलचस्प हैं, खासकर कर्पूरी ठाकुर, जेपी व बीपी कोईराला से वार्ताएं। इसी तरह, लोहिया, रामानंद तिवारी और रेणु आदि पर लिखे संस्मरण व ‘बिहार आंदोलन’ ‘बोधगया का भूमि संघर्ष’ और बिहार की महिलाओं पर लिखा उनका बहुचर्चित समाजशास्त्रीय लेख ‘पटना की महिलाओं की पहचान क्या है’ अपने समय में बेहद चर्चित रहे। साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य और सामाजिक न्याय के सवाल पर उनकी गजब की पकड़ थी। ‘मिथिला के लोककथाकार मणिपद्म’, ‘कॉफी हाउस का गुजरा हुआ जमाना’ और ‘मुत्यु के बाद का कर्मकांड’ सरीखे बेेमिसाल संस्मरण, विश्लेषण इसकी जीवंत बानगी कहे जा सकते हैं। उन्होंने तत्कालीन बिहार की सत्ता-आश्रयी और सामंती मिजाज की पत्रकारिता के बरक्स जन पत्रकारिता की। नागर के समानांतर ग्रामीण, भ्रमणशील,सामाजिक न्याय और विचार की पत्रकारिता की।
बिहारी अस्मिता आज एक नारे की तरह जुमलेबाजी का शिकार हो गई है। लेकिन औपनिवेशिक बिहार में सच्चिदानंद सिन्हा और आजाद बिहार में सूर्यनारायण चैधरी ऐसे पहले पत्रकार थे, जिन्होंने बिहार की अस्मिता को लेकर ठोस और तार्किक विचार प्रस्तुत किए। चौधरी ने ‘बिहार की अस्मिता’ शीर्षक में बिहारी उपराष्ट्रीयता के निर्माण के सूत्रों की सिलसिलेवार तार्किक निष्पत्ति दी। ‘दिनमान’ में उन्होंने जगजीवन राम के संसदीय क्षेत्र की एक रिपोर्ट ‘क्या आप सासाराम नहीं आएंगे?’ शीर्षक से लिखी थी। वोट की लालच में उन्होंने किस तरह इलाके में अपनी ही जाति के हितों के खिलाफ काम किया, यह सच इस रपट में पढ़कर जगजीवन राम को लेकर सारी धारणायें उलट जाती हैं। सूर्यनारायण चौधरी ने भारत के कई राज्यों की यात्रा कर संबंधित क्षेत्रों के जनजीवन का गहरा अध्ययन किया। उनकी पुस्तक ‘समय की यात्रा’ में इसे पढ़ा जा सकता है। उन्होंने ‘दिनमान’ में धारावाहिक रूप से पूर्वांचल के बारे में पांच आलेख लिखे थे, जो इंटरव्यू, यात्रा वृत्तांत आदि विधाओं में छपे। अपने एक पत्र में उन्होंने स्वयं इसकी चर्चा करते हुए लिखा है, ‘अपने छात्र जीवन से ही समाजवादी आंदोलन से जुड़े रहने और डा. लोहिया के पूर्वांचल संबंधी विचारों से प्रभावित होने के कारण मैंने अपने 40 दिनों की यात्रा में कई स्थानों पर उनके राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को एक साथ मिलाकर देखने की कोशिश की है। नहीं जानता, इसमें कहां तक सफल हो सका और कहां तक यह वृतांत और रपट आपके लिए उपयोगी सिद्ध हो पाएगा।’ नई पीढ़ी को इस प्रखर, प्रतिबद्ध और विचारवान पत्रकार की आज सबसे ज्यादा जरूरत है, जो इस दिरशाहीन समय में देश, समाज के बारे में चेतना पैदा कर सके।
सूर्यनारायण चौधरी का रचना संसार
प्रकाशित पुस्तक : बिहार की अस्मिता, समय की यात्रा
प्रकाशनाधीन पुस्तकें : पूर्वांचल का यात्री, समकालीन परिवेश की काली याद व एक काव्य पुस्तिका ।
(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2015 अंक में प्रकाशित)
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