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उदासी की तिजारत करते अम्बेडकरवादी

कोई समतावादी आंदोलन अगर सिर्फ सामाजिक यथार्थ को आम आदमी तक पहुंचाने का कार्य करेगा तो वह आंदोलन नही डाकिया बन जायेगा। और डाकिये कभी क्रांति नहीं लाते, वे कभी आन्दोलन नहीं खड़ा करते

जब कोई मुझसे कहता है कि वह कट्टर बौद्ध या कट्टर आंबेडकरवादी है तो मैं उसे तालीबानी ही समझता हूँ, जिसका काम समाज में द्वेष और असंतोष फैलाना है। ऐसा इसलिए क्योकि बुध्द और आंबेडकर के विचार कट्टरता खत्म करने वाले हैं, बढ़ाने वाले नहीं। दरअसल, आज तक जितने भी समतावादी आंदोलन हुए हैं, उनमें कट्टरता की बजाय विद्रोह का समावेश रहा है। वे सबके सहयोग से अपने लक्ष्य तक पहुंचे हैं। यदि हम वर्गभेद मिटाना चाहते हैं तो पहला कदम यही होगा कि हम आंदोलनकर्ताओं में वर्गभेद को पूरी तरह से मिटा दें। उच्च वर्ग के समतावादी लोगों को अपने साथ लेकर। उसी प्रकार यदि हम जातिभेद मिटाना चाहते हैं, तो हम उन सभी को साथ लें, जो हमारे साथ आना चाहते हैं या मदद कर रहे हैं। फिर चाहे वे किसी भी जाति के क्यों न हों।

कबीर, फुले, बुध्द और डॉ आम्बेडकर के जीवन और विचारधारा को देखें तो हमें ज्ञात होगा कि उन्होंने हमेशा विचारों को गलत या सही ठहराया-किसी व्यक्ति या जाति को नहीं।

सकारात्मकता की खोज

Diksha_Bhumi_50th_large-776528आंबेडकवादी आंदोलनकारी अपनी गोष्ठियों में उन बातों की चर्चा ज्यादा करते हैं, जिन्हें उन्हें नकारना है। उन बातों की चर्चा कम होती है जिन्हें उन्हें स्वीकार करना है। इसका नतीजा यह होता है कि आम आदमी सकारात्मक पहलुओं से दूर होता जाता है। मैं यह बात उन सभी समतावादी आंदोलनों के बारे मे कह रहा हूँ, जो दलित, ओबीसी या आदिवासी वर्ग से ताल्लुक रखते हैं। आम्बेडकरवादी आंदोलन क्यों अच्छा है, यह बताने का काम बहुत कम लोग कर रहे हैं। इस कारण यह आंदोलन आज नकारात्मकता का पर्याय बन गया है। कोई समतावादी आंदोलन अगर सिर्फ सामाजिक यथार्थ को आम आदमी तक पहुंचाने का कार्य करेगा तो वह आंदोलन नही डाकिया बन जायेगा। और डाकिये कभी क्रांति नहीं लाते, वे कभी आन्दोलन नहीं खड़ा करते। वास्तविक परिवर्तन के लिए समग्र दृष्टिकोण अपनाने की ज़रुरत है। नकारात्मक से ज्यादा सकारात्मक मुद्दों पर बात करने की ज़रुरत है। अगर कोई चीज गलत है तो यह बताना होगा कि सही क्या है और क्यों।

आज बौध्द धर्म का प्रभाव सीमित होता जा रहा है। यह अकारण नहीं है। जिन लोगों ने बौध्द धर्म अपनाया, उन्हें 22 प्रतिज्ञायें दिलाई गयीं। इनमें जोर इस बात पर दिया गया कि क्या नहीं करना है। क्या करना है, उन प्रतिज्ञाओं को महत्व नहीं दिया गया। आज पड़ताल इस बात की होती है कि कौन दिवाली पर दिये जलाता है, जांच इस बात की नही होती की वह पंचशील का पालन करता है या नहीं।

इतिहास बताता है कि एक समय पूरा भारत बौद्ध था। परन्तु बौद्धों के सारे त्योहारों को हिन्दू त्योहारों में तब्दील कर दिया गया। यही कारण है कि डाँ आम्बेडकर ने धम्म चक्र प्रर्वतन दिवस के लिए दशहरे का दिन चुना और आज बौद्ध इसे अशोक विजयादशमी के नाम से पुकारते हैं। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि दलित और पिछड़े वर्गों के परिवारों में पूजी जाने वाली देवी महामाया कोई और नही बल्कि बुध्द की माता हैं। ऐसे सैकड़ों सकारात्मक तथ्य हमारे पास हैं, जिन्हें हम लोगों तक पहुंचा सकते हैं। बौद्ध प्रचारक ‘ध्यान’ का प्रचार नही करते। उनके प्रचार का मुख्य आधार यह होता है कि हिन्दू धर्म खराब है, इसलिए इसे छोडो। अगर प्रचार के तरीके सकारात्मक होंगे तो परिणाम बेहतर आयेगें। हमें यह बताना होगा कि बौद्ध धर्म अच्छा क्यों है।

आम्बेडकरवादी संस्थायों की भेड़चाल

समतावादी आंदोलन से कई संस्थायें उभरीं, जैसे बामसेफ, आरपीआई, एम्बस, बीएसपी आदि। इन सभी में विचारगत स्वतंत्रता के लिए कोई स्थान नहीं है। यदि संस्था के प्रमुख ने कह दिया कि एफडीआई गलत है तो सभी सदस्य बिना अपना दिमाग खर्च किये एफडीआई को गलत मान लेंगे। यहां मैं किसी बात का समर्थन या विरोध नही कर रहा हूँ। मैं सिर्फ यह बताने की कोशिश कर रहा हूँ कि आंबेडकरवादी आंदोलन में सक्रिय किसी व्यक्ति के विचार कुछ देर तक सुन कर यह बताया जा सकता है की वह किस संस्था से ताल्लुक रखता है।

अभिजात्य वर्ग की शिकायत रही है कि आरपीआई व बामसेफ जैसी कई आम्बेडकरवादी संस्थाएं अनेक टुकड़ों में बंट गयीं हैं। जब वे स्वयं एक नहीं रह सकतीं तो अपने समाज को क्या जोड़ सकेंगीं। यह शिकायत बिल्कुल जायज है। ये संस्थाएं एक क्यों नहीं रह सकीं? दरअसलए इनने कभी भी आम्बेडकर को नही माना, न ही इनने बुध्द को माना। इन्होनें हमेशा नकारात्मकता का ही प्रचार किया। आम्बेडकर या बुध्द ने ऐसे प्रचार को कभी तरजीह नहीं दी। उन्होंने नकारत्मकता को भी सकारात्मकता से ढांक दिया। एक आम आदमी को क्या चाहिए, सुख-शांति के साथ दो वक्त की रोटी। क्या समतावादी आंदोलन आम आदमी की इन ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में काम कर रहा है? यदि नहीं तो वह व्यक्ति, जिसके पास न रोटी है, न सुख और ना शांति, उसके लिए आपकी नकारात्मक बातें बकवास से कम नहीं हैं। उसे सकारात्मक बातें अपनी ओर खींचतीं है, क्योंकि उनमें उर्जा है, शांति है और उनमें वह अपना भविष्य देखता है।

फारवर्ड प्रेस के अगस्त, 2015 अंक में प्रकाशित

लेखक के बारे में

संजीव खुदशाह

संजीव खुदशाह दलित लेखकों में शुमार किए जाते हैं। इनकी रचनाओं में "सफाई कामगार समुदाय", "आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग" एवं "दलित चेतना और कुछ जरुरी सवाल" चर्चित हैं

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