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आंकड़ों पर पहरा

आंकड़े झूठ नहीं बोलते। ये आंकड़े बतायेंगें कि अल्पसंख्यक ऊंची जातियां देश के संसाधनों पर किस हद तक काबिज हैं। क्या इसी कारण सरकार इन आंकड़ों को जारी करने में सकुचा रही है

सामाजिक-आर्थिक व जाति जनगणना 2011 (एसईसीसी) की रपट को वित्त मंत्री अरूण जेटली द्वारा तीन जुलाई को अंशत: सार्वजनिक किए जाने के बाद से सामाजिक न्याय के झंडाबरदारों ने संसद के अंदर और बाहर एक ज़ोरदार अभियान शुरू कर दिया है, जिसका उद्देश्य मोदी सरकार पर इस बात के लिए दबाव बनाना है कि वह जनगणना की संपूर्ण रपट सार्वजनिक करे। जहां जेडीयू, आरजेडी व समाजवादी पार्टी के सांसदों ने मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में इस सम्बन्ध में संसद में आवाज़ उठाई, वहीं आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव इस मांग को लेकर सड़क पर उतर आए हैं। लालू ने पटना में विरोध प्रदर्शन किया, एक दिन की भूख हड़ताल की और 27 जुलाई को बिहार बंद का आह्वान किया, जो कि खासा सफल रहा। मंडल राजनीति के एक प्रमुख नेता के रूप में लालू यह जानते हैं कि जाति जनगणना की रपट के प्रकाशन में देरी ने उन्हें जनता – विशेषकर ओबीसी और दलितों – को गोलबंद करने का एक मौका दे दिया है। और किसी भी राजनेता के लिए ऐसा मौका तब सुनहरा हो जाता है, जब चुनाव नज़दीक हों।

census-cs copyजाति जनगणना के आंकड़ों को प्रकाशित न करने के कारण उसे राजनैतिक नुकसान न हो, इसलिए भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगरिया के नेतृत्व में एक विशेषज्ञ समूह का गठन कर दिया है, जिसे जाति जनगणना के आंकड़ों को वर्गीकृत कर उन्हें जारी करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। भाजपा एक तीर से दो निशाने साधना चाह रही है – एक ओर उसने विशेषज्ञों के समूह का गठन कर अपने उन आलोचकों का मुंह बंद करने का प्रयास किया है जो यह आरोप लगा रहे हैं कि वह इन आंकड़ों को जारी ही नहीं करना चाहती। दूसरी ओर, इस समिति को उसका कार्य सम्पन्न करने के लिए किसी समय सीमा का निर्धारण न करके उसने यह सुनिश्चित कर लिया है कि कम से कम कुछ समय तक यह ”विवादित मुद्दा” नेपथ्य में रहेगा।

यहां यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि कांग्रेस की तरह भाजपा का उच्च नेतृत्व भी जाति जनगणना के मुद्दे पर बंटा हुआ है। सन् 2010 में, जब भाजपा विपक्ष में थी, तब भी इस मुद्दे पर पार्टी में एकमत नहीं था। ऊँची जातियों के भाजपा नेता और आरएसएस ने जाति जनगणना के प्रस्ताव का विरोध किया था जबकि उसके ओबीसी नेता इसके समर्थन में थे। आज पांच साल बाद भी भगवा शिविर इस मुद्दे पर विभाजित है। भाजपा के विपरीत, आरएसएस खुलकर जाति जनगणना का विरोध कर रहा है। आरएसएस के मुखपत्र ‘आर्गनाइजर’ के हालिया (2 अगस्त 2015) अंक में ए. जयराम का एक लेख छपा है, जिसमें जाति जनगणना को ‘विघटनकारी’ बताते हुए यह कहा गया है कि इससे हिंदुओं के बीच जातिगत विभाजन और बढ़ेगा।

‘आर्गनाइजऱ’ के एक अन्य अंक (13 अगस्त, 2015) में जनगणना के दौरान व्यक्तियों की जाति की जानकारी लेने को ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘प्रजातंत्र’ के मूल्यों के विरूद्ध बताया गया है। ”भारत एक धर्मनिरपेक्ष और प्रजातांत्रिक देश है, जिसमें जाति और नस्ल के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता। फिर, जाति के मुद्दे को क्यों उखाड़ा जा रहा है?”

यह अक्सर देखा गया है कि जब भी पिछड़े और दलित, अपने सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन का हवाला देते हुए, न्याय पाने के लिए राजनैतिक संघर्ष शुरू करते हैं, तब सामाजिक न्याय और आरक्षण के विरोधी, धर्मनिरपेक्षता और मेरिटोक्रेसी का नारा बुलंद करने लगते हैं।

हिंदू समुदाय के तथाकथित रक्षक हमेशा से पिछड़ों और दलितों की बदहाली के प्रति उदासीन रहे हैं। परंतु जब भी पिछड़े और दलित अपनी आवाज़ उठाते हैं और अपने न्यायसंगत हिस्से की मांग करते हैं, अचानक हिंदुओं के विभाजन पर विमर्श शुरू हो जाता है, ताकि नीचे से उठने वाली दावेदारी की मांग को दबाया जा सके। उदाहरणार्थ, जब 1930 में डॉ. बी आर आंबेडकर ने पृथक निर्वाचक मंडल की मांग उठाई तो कांग्रेस ने उन्हें यह कहकर ब्लैकमेल करने की कोशिश की कि इससे हिंदू विभाजित हो जाएंगे। आश्चर्य नहीं कि ब्रिटिश राज में हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग, दोनों ने क्रमश: हिंदुओं और मुसलमानों की जाति जनगणना का विरोध किया था।

ऐतिहासिक स्थापनाएं

इतिहास के कई ग्रंथों, जो अन्यथा विद्वतापूर्ण हैं, में जाति जनगणना की अवधारणा का विरोध किया गया है और इसे कई समस्याओं का जनक बताया गया है। फ्रांसीसी दार्शनिक मिशेल फूको से प्रभावित बरनार्ड एस कोहेन, निकोलस डक्र्स व पद्मनाभ समरेन्द्र ने औपनिवेशिक काल में जनगणना में जातिगत आंकड़े इकट्ठा करने को अनुचित ठहराया है।

कोहेन के अनुसार, जाति जनगणना की शुरूआत 18वीं सदी के उतराद्र्ध में तब हुई, जब अंग्रेजों को बंगाल में लगान व अन्य कर वसूल करने का एकाधिकार मिला। इसके बाद, अंग्रेजों ने बंगाल के विभिन्न जिलों के इतिहास, वहां के प्रमुख परिवारों, उनके रीति-रिवाजों व कृषि व अन्य उत्पादों के संबंध में जानकारी इकट्ठा करने की प्रक्रिया शुरू की। इसी प्रक्रिया के चलते 1871-1872 में पूरे देश में जनगणना की गई और इसके साथ ही, हर दस वर्ष में अखिल भारतीय स्तर पर जनगणना का क्रम शुरू हुआ। पहली जनगणना में लोगों की जाति की जानकारी भी इकट्ठा की गई, परंतु 1931 के बाद से जाति संबंधी आंकड़े जुटाना बंद कर दिया गया (1941 की जनगणना द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो जाने के कारण अधूरी रह गई थी)। पिछड़ों वर्गों द्वारा कई दशकों तक संघर्ष करने के बाद, अंतत:, यूपीए सरकार ने सन् 2011 में जाति जनगणना की मांग को स्वीकार किया।

सन् 1987 में प्रकाशित अपने बहुचर्चित लेख ”सेंसस, सोशल स्ट्रक्चर एंड ऑब्जेक्टिफिकेशन इन साउथ एशिया” (दक्षिण एशिया में जनगणना, सामाजिक ढांचा व व्यक्ति को वस्तु की तरह देखने की अवधारणा) में कोहेन ने यह तर्क दिया कि जनगणना में जातिगत आंकड़े इकट्ठा करना, अंग्रेजों की औपनिवेशिक नीति का भाग और उनकी प्रशासनिक आवश्यकता थी। कोहेन के अनुसार, जाति और धर्म संबंधी आंकड़े इकट्ठा किए जाने का औपनिवेशिक मानसिकता से कोई लेनादेना नहीं था। जैसा कि उन्होंने लिखा, ”19वीं सदी के मध्य में कई ब्रिटिश अधिकारियों को लगा कि धर्म और जाति, भारतीयों की मानसिकता को समझने की समाजवैज्ञानिक कुंजियां हैं। अगर भारतीयों पर ठीक से शासन किया जाना है तो धर्म और जाति संबंधी जानकारी को व्यवस्थित ढंग से एकत्रित करना आवश्यक है।”

कोहेन ने यह तर्क भी दिया कि ब्रिटिश सरकार द्वारा 1857 के बाद से जातिगत जनगणना शुरू किए जाने के कारण, विभिन्न समुदायों की पृथक पहचान को मजबूती मिली। यह औपनिवेशिक राज्य का अपने शासन को मज़बूती देने के प्रयास का हिस्सा था। ”जनगणना का उद्देश्य देश में अलग-अलग सामाजिक वर्गों का निर्माण करना था, जिसकी सहायता से भारत का प्रशासन चलाना आसान हो जाता”, उन्होंने लिखा।

कोहेन की सोच की छाया, जाति जनगणना पर वर्तमान में चल रही बहस पर स्पष्ट नजऱ आती है। उदाहरणार्थ आंबेडकरवादी-माक्र्सवादी अध्येता आनंद तेलतुम्बड़े (”कांउटिंग कास्ट”, इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली, 10 जुलाई 2010) जाति जनगणना की मांग का कड़ा विरोध करते हुए कहते हैं कि इससे ‘शासक वर्ग’ के स्वार्थ पूरे होंगे। उनका कहना है कि जनगणना में जाति संबंधी जानकारी का समावेश, ”दमितों की मुक्ति के प्रयासों के लिए, मंडल आरक्षण के बाद, दूसरा सबसे बड़ा झटका होगा।”

यह विडंबनापूर्ण है कि तेलतुम्बड़े, जो कि ‘हाशिए’ की आवाज़ों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं, मंडल आंदोलन के महत्व को नहीं समझ पा रहे हैं, जिसने भारतीय राजनीति के कलेवर को बदल दिया और बहुजनों की एकता की राह प्रशस्त की। जाति जनगणना का उनका विरोध, साम्यवादियों के उस भय को प्रतिबिम्बित करता है कि जाति पर आधारित कोई भी विमर्श, श्रमिक वर्ग की एकता को खंडित करेगा।

जाति जनगणना की प्रक्रिया को सिरे से खारिज करने का ऐसा ही प्रयास पद्मनाभ समरेन्द्र (”सेंसस इन कोलोनियल इंडिया एंड द बर्थ ऑफ कास्ट”, ईपीडब्ल्यू, 13 अगस्त 2011) ने भी किया है। वे तो यहां तक कहते हैं कि औपनिवेशियक काल में जाति जनगणना ने ही जाति को जन्म दिया और अगर यह प्रक्रिया पुन: शुरू की जाती है तो इससे जातिगत पहचान मज़बूत होगी। यह एक तरह से निकोलस डक्र्स के इस तर्क का दोहराव है कि ”उपनिवेशवाद ने भारत में जातिगत ढांचे का निर्माण किया”।

कोहेन, डक्र्स और समरेन्द्र का यह तर्क कि भारत में जाति का जन्म औपनिवेशिक शासन के कारण हुआ, अतिश्योक्तिपूर्ण है। ये विद्वान इतिहासज्ञ यह भूल रहे हैं कि जनगणना के आंकड़े, उनकी सभी कमियों के बावजूद, खारिज नहीं किए जा सकते और आज भी वे नीति निर्धारण में उपयोगी हैं।

ये इतिहासविद यह मानकर चल रहे हैं कि जाति, औपनिवेशिक राज्य का ‘आविष्कार’ है व उसके द्वारा गढ़ी गई अवधारणा है। यह धारणा स्वीकार करने योग्य नहीं है क्योंकि औपनिवेशिक काल के पहले भी जातिगत अत्याचार, हिंसा व भेदभाव के ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं।

कोहेन, डक्र्स व अन्यों के विपरीत जानीमानी इतिहासविद् सूजन बेली (कॉस्ट, सोसायटी एण्ड पालिटिक्स इन इंडिया फ्राम द एटींथ सेन्चुरी टू द मार्डन एज, 1999) जाति की अवधारणा के विकास का कहीं अधिक सूक्ष्म व विश्वासयोग्य विश्लेषण करती हैं। वे कहती हैं कि यद्यपि जाति की संस्था में औपनिवेशिक काल में परिवर्तन आए परंतु जाति सदियों से भारतीय समाज का ‘यथार्थ’ व ‘सक्रिय भाग’ रही है। अंग्रेजों के भारत आने के हजारों साल पहले ऋगवेद के पन्नों में जातिगत आदर्शों को उकेरा गया है। इसी तरह गीता में भी जाति के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा गया है कि जाति के अभाव में समाज भ्रष्ट हो जाएगा। एक अन्य ब्राहम्णवादी ग्रंथ मनुस्मृति में जाति के सिद्वांतों को सार्वभौमिक विधि का दर्जा दिया गया है।

जाति के सामाजिक जीवन की सच्चाई होते हुए भी बड़ी संख्या में अध्येता, नीति निर्धारक और राजनेता जाति के अस्तित्व को ही स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। आश्चर्य नहीं कि जाति जनगणना फिर से शुरू करने के खिलाफ बहुत कुछ लिखा गया है। जानेमाने समाजशास्त्री सतीश देशपांडे और मेरी ई जॉन (”द पालिटिक्स ऑफ नाट काउंटिग कास्ट”, ईपीडब्लू, 19 जून 2010) उन अध्येताओं में से हैं, जिन्होंने जाति जनगणना के लाभों पर विस्तृत प्रकाश डाला है।

ताजा बहस

जो लोग जाति जनगणना के विरोध में हैं, वे उसकी व्यवहार्यता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। उनका तर्क यह है कि जाति जनगणना की ही नहीं जा सकती क्योंकि जाति व्यवस्था इतनी जटिल है कि विभिन्न जातियों के सदस्यों की गिनती करना दुष्कर ही नहीं असंभव है। दूसरे शब्दों में उनका तर्क यह है कि न केवल जाति जनगणना करने की प्रक्रिया अत्यंत जटिल है वरन उसके आंकड़ों की विश्वसनीयता भी संदिग्ध होगी। वे यह भी कहते हैं कि जाति जनगणना ”फूट डालो राज करो” की औपनिवेशिक नीति का अंग थी और स्वतंत्र भारत में इसे फिर से शुरू करने से जातिगत पहचान मजबूत होगी, ”राजनैतिक चालबाजियां” बढ़ेंगीं, जातिगत संघर्ष और गोलबंदी ”फिर से शुरू हो जाएगी” और इस तरह संवैधानिक सिद्धातों का उल्लंघन होगा।

जहां तक जाति संबंधी आंकड़ों को इकट्ठा करने की प्रक्रिया की जटिलताओं का सवाल है, देशपाण्डे और जान उच्च तकीनकी की उपलब्धता का हवाला देते हुए कहते हैं कि ”यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि सन् 2001 के बाद से जनगणना प्राधिकारियों को पूर्व की तुलना में कहीं बेहतर तकनीकी उपलब्ध हो गई है”।

जब सरकार आधार कार्ड जारी करने के लिए बहुत कम समय में करोड़ों लोगों के संबंध में निजी जानकारी इकट्ठा कर सकती है तो क्या वह अपने नागरिकों की जाति के संबंध में सटीक आंकडे इकट्ठा नहीं कर सकती? ज्ञातव्य है कि आधार कार्ड योजना के लिए जिस तरह की जानकारियों इकट्ठा की गईं थीं, उसे कई लोगों ने नागरिकों की निजता का उल्लंघन बताया था।

PATNA, JULY 27 (UNI):- RJD chief Lalu Prasad rides n a horse cart with party supporters during state-wise bandh to protest against the central government's failure to make public the caste-based census in Patna on Monday. UNI PHOTO-69U

क्या जाति जनगणना ‘जातिवाद’ को बढ़ावा देगी? जो लोग यह आशंका व्यक्त कर रहे हैं, उनसे पलटकर यह पूछा जा सकता है कि क्या सन् 1931 की आखिरी जाति जनगणना के बाद के 80 वर्षों में जाति समाप्त हो गई है? प्रोफेसर अमिताभ कुंडू, जो सच्चर समिति की सिफारिशों के क्रियान्वयन और प्रधानमंत्री के अल्पसंख्यकों की बेहतरी के लिए लागू किए गए 15 सूत्रीय कार्यक्रम का मुस्लिम समुदाय की सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति पर प्रभाव का आंकलन करने के लिए नियुक्त समिति के अध्यक्ष थे, इस विचार को खारिज करते हैं कि जातिगणना से जातिप्रथा को बढ़ावा मिलेगा। वे कहते हैं कि ”किसी भी मुद्दे को नजऱअंदाज़ करने से बेहतर है उस पर सही जानकारियों के आधार पर सार्थक बहस करना। अन्दाजिय़ा आंकड़ों पर आधारित विमर्श और बहस, केवल ‘खतरनाक जातिवाद’ को जन्म देंगें” (देखें साक्षात्कार पृष्ठ ३० पर)।

इन दावों में कोई दम नहीं है कि जाति जनगणना से जातिगत पहचान मजबूत होगी, जातिगत टकराव बढ़ेगा और राजनैतिक चालबाजियों को प्रोत्साहन मिलेगा। जाति जनगणना से विभिन्न जातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बारे में आंकड़े उपलब्ध हो सकेंगे। सरकार के पास अभी विभिन्न जातियों के नौकरियों में प्रतिनिधित्व के संबंध में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। अलग-अलग जातियों की जनसंख्या के संबंध में आंकड़ो के एकत्रीकरण और संकलन से सरकार को वंचित समुदायों के उत्थान के लिए योजनाएं और नीतियां बनाने में मदद मिलेगी।

प्रोफेसर कुंडू जोर देकर कहते हैं कि विभिन्न जातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बारे में ठोस जानकारी तत्काल एकत्र किए जाने की आवश्यकता है। ”देश की जनसंख्या का जाति व धर्म के आधार पर वर्गीकरण कई सरकारी योजनाओं के सफल क्रियान्वयन के लिए अत्यंत आवश्यक है”।

कई राजनैतिक अर्थशास्त्रियों का यह मत है कि बाजार-आधारित आर्थिक उदारीकरण से पूरी दुनिया में आर्थिक असमानता बढ़ी है। भारत में इस प्रक्रिया से सर्वाधिक नुकसान पिछड़ों और दलितों को हुआ है। उदाहरणार्थ, एसईसीसी 2011 के आंकड़ों से ग्रामीण भारत की गंभीर दशा की झलक मिलती है, जहां 90 प्रतिशत परिवारों का मुख्य कमाने वाले सदस्य की आय रूपये 10,000 प्रतिमाह से कम है। इसी तरह लगभग 36 प्रतिशत शहरी परिवार गरीबी की रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं और 56 प्रतिशत परिवार ”शहरी गरीब” की श्रेणी में आते हैं।

यद्यपि एसईसीसी 2011 के तुलनात्मक आंकड़े, जो वर्तमान हालात को और बेहतर ढंग से हमारे सामने ला सकते थे, अभी सार्वजनिक नहीं किए गए हैं तथापि कई अध्ययनों से यह सामने आया है कि पिछड़ों और दलितों में घोर निर्धनता व्याप्त है। उदाहरणार्थ, सोनालदे देसाई (”कॉस्ट एण्ड सेंसस”, ईपीडब्लू, 17 जुलाई 2010) भारत मानव विकास सर्वेक्षण (2004-05) आंकड़ो के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंची हैं कि अगड़ी जातियों, ओबीसी, एससी, एसटी, मुस्लिम व अन्य धार्मिक समूहों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में भारी अंतर है। देसाई के अनुसार परिवारों की औसत वार्षिक आमदनी की दृष्टि से अगड़ी जातियां सबसे आगे हैं, जिनके मामले में यह राशि रूपये 72,717 है। ओबीसी परिवारों की औसत वार्षिक आय रूपये 42,331, एससी की रूपये 34,128, एसटी की रूपये 32,345 और मुस्लिम की रूपये 44,158 थी।

जाति जनगणना व आरक्षण के खिलाफ एक अन्य तर्क यह दिया जाता है कि ये दोनों धर्मनिरपेक्ष राज्य की जाति के प्रति तटस्थ रहने की नीति के विरूद्ध हैं। जैसा कि पहले कहा गया है, राज्य के जाति के प्रति तटस्थ रहने की नीति की सबसे जोरदार वकालत वे ऊँची जातियां कर रही हैं जो उत्तर-औपनिवेशिक भारत से सबसे अधिक लाभान्वित हुई हैं। देशपाण्डे और जॅन इन दावों के पीछे के असली उद्देश्य को उजागर करते हुए कहते हैं, ”ऊँची जातियों के श्रेष्टि वर्ग के लिए राज्य की जाति के प्रति तटस्थता की नीति लाभदायक है क्योकि उनकी तीन पीढिय़ां अपनी जाति से जितना लाभ उठा सकतीं थीं, उठा चुकीं हैं और अब वे इस स्थिति में हैं कि उन्हें खुलकर अपनी जाति का कार्ड नहीं खेलना पड़ता है। उन्हें उत्तराधिकार में संपत्ति मिल जाती है, वे महंगी शिक्षा प्राप्त करने में सक्षम हैं और उनके ऐसे संपर्क-संबंध हैं जिनके कारण वे ”वैध तरीकों” से आगे बढ़ सकते हैं। उच्च जातियों के यही वर्ग राज्य की जाति के प्रति तटस्थ रहने की नीति का सबसे मुखर समर्थक हैं”।

यह विडंबनापूर्ण है कि जहां ऊँची जातियों के सदस्य, जाति को राज्य की नीतियों का निर्धारक तत्व बनाये जाने के विरूद्ध हैं वहीं वे सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक संस्थाओं में बहुजनों के प्रवेश को बाधित करने के लिए सदियों पुराने जातिगत नेटवर्क का उपयोग करने में तनिक भी नहीं सकुचाते। उदाहरणार्थ, डी. अजीत, हेन डोनकर व रवि सक्सेना के एक अध्ययन (‘कारपोरेट बोड्र्स इन इंडिया : ब्लाक्ड बाय कॉस्ट?’(ईपीडब्लू, 11 अगस्त 2012) के अनुसार व्यापार व उद्योग के क्षेत्र में ऊँची जातियों का वर्चस्व आज भी बना हुआ है। कारपोरेट निदेशक मंडलों के 93 प्रतिशत सदस्य ऊँची जातियों से हैं और इनमें भी ब्राह्मणों और बनियों की बहुतायत है।

जहां तक शैक्षणिक संस्थाओं का प्रश्न है, पिछड़ों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण के बाद से स्थिति में सकारात्मक परिवर्तन आया है परंतु अब भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। उदाहरणार्थ, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में दलित-बहुजन विद्यार्थियों का अनुपात आबादी में इस समुदायों के अनुपात के लगभग बराबर हो गया है परंतु शिक्षकीय पदों के मामले में वे अब भी हाशिए पर हैं। जेएनयू की 44वीं वार्षिक रपट के अनुसार विश्वविद्यालय के 809 अध्यापकों में से 31 मार्च 2014 की स्थिति में एससी, एसटी व ओबीसी की संख्या क्रमश: 40, 12 व 14 थी।

आर्थिक व सांस्कृतिक क्षेत्र की तुलना में राजनीति के क्षेत्र में ओबीसी की स्थिति कहीं बेहतर है। राजनीति में ओबीसी के उदय की शुरूआत सन् 1960 के दशक के उत्तरार्ध में हुई जब राज्यों में कांग्रेस का दबदबा घटने लगा और अनेक ऐसी क्षेत्रीय पार्टियां उभरीं, जिनके मुखिया दलित-बहुजन थे। जानेमाने राजनीति विज्ञानी योगेन्द्र यादव का कहना है कि यद्यपि मंडल की राजनीति ने ओबसी नेताओं की राजनैतिक शक्ति को बढ़ाया है तथापि अब भी वे हाशिए पर हैं। अनेक लोग मोदी के उदय को ओबीसी राजनीति के परवान चढऩे के रूप में देखते हैं, परंतु सच यह है कि मोदी मंत्रिमंडल में ऊँची जातियों के मंत्रियों का बहुमत (27 में से 20) है। राज्यों में भी स्थिति बहुत संतोषप्रद नहीं है। देश के 29 राज्यों में मुश्किल से पांच या छह ओबीसी मुख्यमंत्री हैं और किसी भी राज्य में दलित मुख्यमंत्री नहीं है।

इन सैद्धांतिक तर्कों और सांख्यिकीय प्रमाणों के बाद भी कई लोग यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि जाति जनगणना आवश्यक है। उनकी अनिच्छा के पीछे यह डर है कि आंकड़ों के जारी होने से आधिकारिक रूप से यह साबित हो जाएगा कि अल्पसंख्यक होने के बावजूद ऊँची जातियों का देश के संसाधनों पर गैर आनुपातिक कब्जा है। जाति जनगणना के विरोधियों को डर है कि यदि छुपी हुई सच्चाई पर से पर्दा उठ गया तो देश में इस मांग के साथ एक नया आंदोलन शुरू हो सकता है कि आरक्षण पर लगाई गई 50 प्रतिशत की सीमा को समाप्त किया जाए। इसके अतिरिक्त जाति संबंधी आंकड़ों के प्रकाशन से सामाजिक न्याय के योद्धाओं को, जो कि इन दिनों प्रतिकूल स्थितियों का सामना कर रहे हैं, एक नया हथियार मिल जाएगा। इसलिए सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्ध नेताओं को चाहिए कि वे जाति जनगणना के नतीजों के जल्द से जल्द सार्वजनिक किए जाने के अभियान को और गति दें। आगामी बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों का जाति जनगणना के विरोधियों और समर्थकों के परस्पर समीकरणों पर निर्णायक प्रभाव पड़ेगा।

 

 

सामाजिक आर्थिक व जाति जनगणना (एसईसीसी) 2011

  •  संसद में बहस के बाद कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए 2 सरकार ने एसईसीसी को मंजूरी दी।
  • जाति जनगणना के मुद्दे पर कांग्रेस व भाजपा दोनों में आतंरिक मतभेद थे।
  • सन 1931 के बाद, देश में पहली बार जाति जनगणना हुई।
  • गणना की शुरुआत 29 जुलाई 2011 को पश्चिम त्रिपुरा जिले के हज़ेमारा ब्लाक के सन्खोला गाँव से हुई।
  • यह भारत की पहली जनगणना थी, जिसमें कागज़ और कलम का इस्तेमाल नहीं हुआ। केवल हाथ में पकड़े जाने वाले इलेक्ट्रॉनिक यंत्रों का प्रयोग किया गया।
  • एसईसीसी देश के सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में हुई।
  • जनगणना का सञ्चालन और समन्वय भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय ने किया।
  • एसईसीसी का उद्देश्य निर्धनता के ‘बहुआयामी’ पहलुओं की पहचान करना है। इसके अंतर्गत ग्रामीण परिवारों के सम्बन्ध में जानकारियां एकत्रित की गयीं। इससे सरकार लक्षित योजनाओं का बेहतर क्रियान्वयन कर सकेगी।
  • वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जनगणना के कुछ नतीजों को नयी दिल्ली में 3 जुलाई 2015 को जारी किया।
  • विपक्षी दलों के दबाव में केंद्रीय मंत्रिपरिषद ने नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविन्द पनगारिया की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समूह का गठन करने का निर्णय लिया, परन्तु जनगणना की रपट को जारी करने की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गयी है।

फारवर्ड प्रेस के सितंबर, 2015 अंक में प्रकाशित

लेखक के बारे में

अभय कुमार

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी अभय कुमार संप्रति सम-सामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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