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साहित्यिक मिथकों के उस पार

कबीर जब 51-52 साल की उम्र में गुजर गए थे, तब आखिर किसने और क्यों उनके बुढ़ापे के चित्र की परिकल्पना की? कहीं उनकी आकस्मिक मृत्यु को उनके बुढ़ापे के चित्र से ढँकने का षडय़ंत्र तो नहीं हुआ

विद्यापति नाम के कोई कवि थे भीे अथवा यह कोई लोक धुन का राग है? कजली नाम की कोई कवयित्री भी थी अथवा यह कोई लोक धुन का राग है? चैता नाम के कोई कवि भी थे अथवा यह कोई लोक धुन का राग है?

विद्यापति: कवि अथवा राग

बताया जाता है कि विद्यापति का संबंध मिथिला के कोई दर्जन भर राजाओं से था। राजा शिव सिंह तो उनके काफी अभिन्न थे। रानी लखिमा देवी की भी विद्यापति पर विशेष कृपा थी। बावजूद इसके महाकवि विद्यापति को कोई भी इतिहास ग्रंथ जानता तक नहीं है। विद्यापति के पिता भी राजाओं के साथ थे। उनके दादा भी राजाओं के साथ थे। मगर मिथिला का कोई राजा उनका नामोल्लेख तक नहीं करता है।

मध्यकाल में विभिन्न कवियों के जीवनवृत्त एवं कृतित्व का परिचय देनेवाले अनेक ग्रंथ रचे गए। चौरासी वैष्णव की वार्ता, दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता, भक्तमाल, कविमाला, कालिदास हजारा जैसे अनेक ग्रंथ। ऐसे कवि परिचय देनवाले ग्रंथों में कबीर, सूर, तुलसी जैसे अनेक कवि और भक्त दर्ज हैं मगर विद्यापति इन ग्रंथों में सिरे से गायब हैं। विद्यापति को कृष्ण भक्ति-काव्य में रखा जाता है। मध्यकाल में सैकड़ों कृष्ण-भक्त कवि हुए मगर किसी ने विद्यापति का नामोल्लेख नहीं किया है।

आधुनिक काल में लिखे गए आरंभिक इतिहास ग्रंथ भी विद्यापति को नहीं जानते। ‘गार्सा द तॉसी’ और ‘शिव सिंह सेंगर’ जैसे हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने भी विद्यापति का उल्लेख नहीं किया है। पहली बार ‘जॉन वीम्स’ ने 1873 ई0 में बताया कि विद्यापति का असली नाम वसंत राय था और वे जेसोर (अब बांग्लादेश में) जिले के बालोसर गाँव के निवासी थे। जान विस ने जिस वसंत राय का उल्लेख किया है, आश्चर्य कि वह वसंत (राय) भी विद्यापति का राग ही है। इसके बाद राजकृष्ण मुखोपाध्याय ने 1875 ई0 में बताया कि विद्यापति बंगाली नहीं, मैथिल थे। जब जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन बिहार के मधुबनी सबडिविजन के मजिस्ट्रेट हुए, तब मैथिल ब्राह्मणों के कहने पर 1881 ई0 में उन्होंने विद्यापति का व्यक्तित्व खड़ा किया और लोगों के मुँह से सुनकर उनके 82 पद संगृहित किए।

ग्रियर्सन से पहले लोचनकृत रागगतरंगिणी तथा कुछ और वैष्णव पदावलियों में विद्यापति राग के पद संगृहीत हैं। मगर वे भी राग के दृष्टिकोण से संगृहित हैं। कहीं-कहीं तो साफ लिखा मिलता है कि ‘इति विद्यापते:’अर्थात् विद्यापति राग की समाप्ति। चैता और कजरी की भाँति लोक धुन में बनाए गए गीतों का संयात्मक विवरण देना जिस प्रकार से कठिन है, वैसे ही विद्यापति राग में लिखे गए पदों का संयात्मक विवरण देना संभव नहीं है। इसीलिए आज भी विद्यापति के गीत सैकड़ों से लेकर हजारों तक हैं। आश्चर्य कि लोचन ने भी रागों के वर्णन के प्रसंग में ही विद्यापति के पदों का अंकन किया है। वैष्णव पदावलियों की बात छोडि़ए, विद्यापति राग या विद्यापति की जो भी पांडुलिपियाँ नेपाल, रामभद्रपुर आदि से बहुत बाद में प्राप्त हुईं, वे भी राग के आधार पर ही मिलती हैं। कहना न होगा कि विद्यापति में कवि से अधिक राग की ओर लपक है।

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कबीर

कबीर : मृत्यु का प्रश्न

आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (न्यू सीरीज) नार्थ वेस्टर्न प्राविसेज, भाग 2, पृ0 224 पर अंकित है कि कबीर का रौजा (मकबरा, समाधि) 1450 ई0 में बस्ती जिले के पूर्व में आमी नदी के दाहिने तट पर बिजली खाँ ने स्थापित किया था। रौजे की पुष्टि आईने अकबरी भी करता है। अर्थात् 1450 ई0 से पहले कबीर की मृत्यु हो चुकी थी।

कबीर का जन्म 1398 ई0 में हुआ था। अर्थात् कबीर की मृत्यु जब हुई तब वे 51-52 साल के थे। ऐसे में स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि उनकी मृत्यु सामान्य नहीं थी बल्कि आकस्मिक थी।

कबीर की आकस्मिक मृत्यु का रहस्य खुलना चाहिए। यह भी कि उनके बूढ़े चित्रों का चित्रकार कौन था? कबीर जब 51-52 साल की उम्र में गुजर गए थे, तब आखिर किसने और क्यों उनके बुढ़ापे के चित्र की परिकल्पना की? कहीं उनकी आकस्मिक मृत्यु को उनके बुढ़ापे के चित्र से ढँकने का षडय़ंत्र तो नहीं हुआ? यह भी कि उनके 120 वर्षों तक जीवित रहने की कल्पना पहली बार किसने की? क्यों की? यह भी कि सिकंदर लोदी के अत्याचारों से कबीर को पहली बार किसने जोड़ा तथा क्यों जोड़ा?

इतिहास का वह पहला व्यक्ति कौन है, जिसने बताया कि कबीर की मृत्यु सिकंदर लोदी के अत्याचारों के कारण हुई थी? कबीर और सिकंदर लोदी दोनों मुसलमान थे। ऐसी हालत में कबीर की मौत की जिमेवारी एक मुस्लिम शासक पर डाला जाना कहीं साजिश तो नहीं है। साजिश इसलिए कि कबीर की जब मृत्यु हुई थी, उस समय सिकंदर लोदी का शासन था ही नहीं। सिकंदर लोदी तो कबीर की मृत्यु के 38 वर्षों बाद गद्दी पर बैठा था।

सूरदास ब्राह्मण अथवा अहीर

हिंदी के महाकवि सूरदास जाति के अहीर थे। डॉ. रामकिशोर शर्मा ने लिखा है कि एक अहीर ने वृंदावन के केलि-कुंजों के अवलोकन की लालसा में भगवान से वरदान प्राप्त कर लिया था। भगवान ने उसे मथुरा प्रांत में एक ब्राह्मण के घर जन्म दे दिया। वही अहीर महाकवि सूरदास थे। (भ्रमरगीत सार पृ0 10)

आप कबीर और रैदास की जन्म-कथा को याद करें। कबीर जुलाहे थे, मगर बताया गया है कि वे विधवा ब्राह्मण कन्या के गर्भ से पैदा हुए थे। रैदास चमार थे, मगर बताया गया है कि वे पूर्व जन्म में ब्राह्मण थे। ऐसे ही सूरदास अहीर थे, मगर बताया गया है कि वे पूर्व जन्म में ब्राह्मण थे। (हिंदी साहित्य का सबाल्टर्न इतिहास पृ0 64)

हिंदी के इतिहासकारों ने डंके की चोट पर मान लिया है कि सूरदास जाति के ब्राह्मण थे और फिर पूरी ऊर्जा इस तथ्य की जाँच में लगाए हुए हैं कि वे सारस्वत ब्राह्मण थे, भट्ट ब्राह्मण थे अथवा जगात ब्राह्मण थे। (हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास पृ0 515)

आप ‘आईन-ए-अकबरी’, ‘मुंशियात’, ‘मुंतखिबुल तवारिख’ जैसे अकबरकालीन इतिहास-ग्रंथों का अध्ययन कर लीजिए या फिर मुंशी देवी प्रसाद का ‘श्री सूरदास का जीवन-चरित’ पढ़ लीजिए। इन सबमें साफ लिखा है कि सूरदास के पिता का नाम रामदास ग्वाल था। फिर कहाँ शंका रह जाती है कि सूरदास अहीर नहीं थे। जब पिता ग्वाल थे, तब पुत्र भला ब्राह्मण कैसे हो सकता है? (आईन-ए-अकबरी भाग-1, पृ0 612, मुंतखिबुल तवारिख भाग-2, पृ0 37 एवं श्रीसूरदास का जीवन-चरित, पृ0 20)

(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2016 अंक में प्रकाशित )

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लेखक के बारे में

राजेन्द्र प्रसाद सिंह

डॉ. राजेन्द्रप्रसाद सिंह ख्यात भाषावैज्ञानिक एवं आलोचक हैं। वे हिंदी साहित्य में ओबीसी साहित्य के सिद्धांतकार एवं सबाल्टर्न अध्ययन के प्रणेता भी हैं। संप्रति वे सासाराम के एसपी जैन कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं

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