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इतिहास के खिलाफ ब्राह्मणवादी फतवा है ‘मोहेंजो-दारो‘ फिल्म

सिनेमा के क्षेत्र में आशुतोष गोवारिकर इस देश के नये इतिहासकार और पुरातत्वविद हैं, जो अपनी फिल्म’ के जरिए आदिवासियों और मूलवासियों की वही छवि पेश करने जा रहे हैं, जो वेद-पुराणों और मनुसंहिता ने सदियों पहले बनाई है। यह फिल्म ब्राह्मणवादी दक्षिणपंथियों द्वारा इंसानी सभ्यता के साथ किया जाने वाला सबसे संगीन अपराध है

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फिल्म के ट्रेलर में यही तथाकथित घोड़ेवाली सील देखते हुए नायक

दुनिया के प्राचीनतम सभ्यता के इतिहास की जिस गुत्थी को सुलझाने में एक सदी से स्कॉलर लोग लगे हैं उसे एक फिल्म ने सुलझा दिया है। 12 अगस्त को रिलीज होने जा रही फिल्म ‘मोहेंजो दारो’ का दावा है कि हड़प्पा सभ्यता के रक्षक आर्य हैं। फिल्म में अनार्यों को लोभ-लूट में संलग्न दिखाते हुए उन्हें खलनायक बताया गया है, जिससे आर्य नायक लड़ता है क्योंकि वह ‘सेवा’ करने के लिए ‘मोहेंजो दारो’ आया है। यह फिल्म उस धारणा का जवाब है, जिसके अनुसार मुअनजोदड़ो आर्यों के हमले से नष्ट हुआ था। हालांकि यह धारणा इतिहासकारों के बीच अब लगभग अमान्य हो चुकी है और सर्वसम्मत धारणा यही बन रही है कि हड़प्पा सभ्यता के विनाश का कारण प्राकृतिक आपदा रही होगी। लेकिन मुअनजोदड़ो आर्य सभ्यता नहीं थी इस तथ्य को नकारे जाने की किसी हाइपोथिसिस को विश्व ने स्वीकार नहीं किया है। कट्टरपंथी हिंदूवादियों का बौद्धिक वर्ग फिर भी लगातार इसे आर्यन सभ्यता सिद्ध करने के प्रपंची प्रयासों में लगा हुआ है। नब्बे के बाद उनके प्रतिक्रियावादी और नस्लीय कोशिशों में और तेजी आई। 1999 में यह दावा किया गया कि मुअनजोदड़ो में घोड़े थे और हड़प्पा की भाषा उत्तर वैदिक संस्कृत थी। ‘मोहेंजो दारो’ के ट्रेलर से पता चलता है कि यह फिल्म इसी ब्राह्मणवाद अवधारणा का सिनेमाई प्रस्तुतिकरण है।

50 करोड़ की लागत से बनी ‘मोहेंजो दारो’ के ट्रेलर की शुरुआत इस संवाद के साथ होती है कि ‘जो बीत गया उसका सत्य तुझे बताना होगा, ‘मोहेंजो दारो’ का तारक (रक्षक) है तू … नहीं तो आने वाली पीढ़ी कभी जान न पाएगी ‘मोहेंनजो दारो’ की सच्चाई’। यह संवाद ऋतिक के लिए कहा गया है फिल्म में जिसका नाम सरमन है और जो व्यापार के सिससिले में ‘मोहेंजो दारो’ आता है। वह कहता है, ‘वहां (‘मोहेंजो दारो’ में) लोग नहीं लोभ-लालच बसते हैं।’ इस संवाद के साथ ही प्रमुखता से मुअनजोदड़ो में पायी गई एक मुहर को दिखाया जाता है, जिसमें घोड़े की आकृति बनी हुई है। फिल्म का नायक सरमन (रितिक रोशन) नील की खेती करने वाला किसान है। उसे ‘मोहेंजो दारो’ की एक नर्तकी चानी (पूजा हेगड़े) से प्रेम हो जाता है। ट्रेलर का अंत खलनायक महम (कबीर बेदी) के इस संवाद के साथ होता है कि ‘क्या अंतर है तुझमें और मुझमे?’ नायक सरमन जवाब देता है, ‘तुझे ‘मोहेंजो दारो’ पर राज करना है और मुझे सेवा।’ फिल्म की कहानी जो कुछ भी हो पर ट्रेलर के अनुसार इसका सार यही है कि आर्य लोग 2600 ईसा पूर्व मुअनजोदड़ो आए, रक्षक बनकर सेवा करने। इस प्रकार ‘मोहेंजो दारो’ तथ्यों से परे तोड़ी-मरोड़ी गई हिंदूत्ववादी थ्योरी बनी फिल्म है जिसके द्वारा फिल्मकार न सिर्फ देश के इतिहास को विकृत करता है बल्कि वह आदिवासी समाज और संस्कृति का भी संहार करता है। फिल्म में आर्यों का गुणगान और आदिवासियों व मूलवासियों को खलनायक के रूप में चित्रित करते हुए फिल्मकार स्थापित करता है कि आर्य ही इस भारतीय भूमि के महान रक्षक हैं।

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बुंदेलखंड में खजुराहो मंदिर से 70 किलोमीटर की दूरी पर महिषासुर का स्मारक, जो खजुराहो के मंदिरों से भी अधिक प्राचीन है

भारतीय सिने इतिहास में हड़प्पा सभ्यता पर बनी पहली फिल्म है यह। स्वाभाविक है कि लोगों की उत्सुकता इसमें मनोरंजन की बजाय सभ्यता के उस इतिहास में ज्यादा है, जिस पर पिछले सौ सालों से रहस्य और अनेक प्रकल्पनाओं का जाला पड़ा हुआ है। खुदाई में मिले कंकाल, मृदुभांड, सील-मुहरें, भाषा-लिपि आदि के आधार पर अलग-अलग इतनी दिशाएं हैं कि दिशाभ्रम की स्थिति है। पुरातत्ववेत्ता, नृतत्वविज्ञानी, भाषाविद और इतिहासकार अभी तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे हैं। आर्य विदेशी थे या स्वदेशी? मुअनजोदड़ो से जुड़ा हुआ यह सवाल भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास का एक ऐसा अनुत्तरित सवाल है, जिसका जवाब वर्तमान और भविष्य को पूरी तरह से बदल दे सकता है। इसलिए आर्य जो वर्तमान भारत की सत्ता-शक्ति संरचना में प्रभावशाली हैं, कट्टर हिंदूवादी नहीं भी हैं तो हिंदू हैं, पुरातत्व, इतिहास, साहित्य, कला और सिनेमा के जरिए यह स्थापित करने में लगे हैं कि वे ही हड़प्पा के असली वारिस हैं।

फिल्म का ट्रेलर जैसे ही जारी हुआ लोग स्तब्ध रह गए। आम जन से लेकर इतिहासकारों तक में तीखी प्रतिक्रिया हुई। आदिवासी-मूलवासी संगठनों ने सवाल दागे। सवालों से घबराए गोवारिकर ने कहा कि उन्होंने ‘मोहेंजो दारो’ बनाने में कलात्मक छूट ली है क्योंकि वे एक मनोरंजक फिल्म बना रहे हैं, इतिहास नहीं लिख रहे हैं। उनके समर्थक भी कह रहे हैं कि गोवारिकर ने ‘मुअनजोदडो’ पर डॉक्यूमेंट्री नहीं बनाई है। गोवारिकर का वक्तव्य तब आया है, जब भारत में और भारत के बाहर भी आम सिनेप्रेमी से लेकर इतिहास में रुचि रखने वालों ने उन पर ‘मुअनजोदडो’ के बहुपाठी प्राचीन इतिहास को ‘एकल हिंदूवादी पाठ’ बना कर पेश करने का आरोप लगाया है। हालांकि फिल्म का ट्रेलर जारी करते वक्त उन्होंने जोर देकर कहा था कि भारतीय सभ्यता के इतिहास पर फिल्म बनाने की उनकी इच्छा बहुत पहले से थी। जैसा कि पश्चिम वाले रोमन और ग्रीक सभ्यताओं पर फिल्में बनाते हैं। अब चौतरफा आलोचनाओं से घिरे वही गोवारिकर कह रहे हैं कि उन्होंने इतिहास पर फिल्म नहीं बनाई है। यही नहीं अब वे फतवा भी दे रहे हैं कि कृपया ‘मोहेंजो दारो’ को देखते हुए अविश्वास (ऐतिहासिक-वैज्ञानिक चेतना) को ताक पर रख दें। फिल्म इतिहास में गोवारिकर संभवतः पहले फिल्मकार हैं, जो दर्शकों को निर्देश दे रहे हैं कि उनकी फिल्म को एक खास इतिहासबोध से ही देखा जाना चाहिए। यह सीधे-सीधे तालिबानी फरमान है और बताता है कि उग्र हिंदुत्व कला और अभिव्यक्ति के माध्यमों को किस तरह से हांकना चाहता है।

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‘मैके 453’ सील जिसको कंप्यूटर के जरिए बैल को घोड़ा बनाया गया।

गोवारिकर ऐसा फतवा इसलिए भी दे रहे हैं क्योंकी ‘मोहें जोदारो’ उन दो हिंदुत्ववादी बौद्धिकों – अमरीकी इंजीनियर एन.एस. राजाराम और प्राचीन पुरालिपिवेत्ता नटवर झा- की नवीनतम अवधारणा पर आधारित है, जिसे एक दशक पहले दुनिया के स्कॉलरों ने खारिज कर दिया था। हड़प्पा आर्यों की सभ्यता थी इसे बताने के लिए राजाराम और झा दोनों ने थ्योरी दी थी कि ‘मुअनजोदडो’ में घोड़े थे और उसके निवासियों की भाषा उत्तर वैदिक संस्कृत थी। अपनी इस झूठी अवधारणा के प्रमाण में दोनों हिंदूवादियों ने अपनी पुस्तक ‘दि डिसाईफर्ड इंडस स्क्रिप्ट: मेथडालॉजी, रिडिंग्स, इंटरप्रेटेशंस’ (2000) में हड़प्पा की खुदाई में, मिली उस सील (मैके 453) को प्रस्तुत किया है, जिसमें एक घोड़े की आकृति बनी हुई है। इतिहासकारों का वर्ग ‘मैके 453’ में चित्रित आकृति को निर्विववाद रूप से ‘एक सींग वाला बैल’ की आकृति मानते रहे हैं। इसलिए जैसे ही राजाराम और झा ने उसे घोड़ा बताया, दुनिया भर के इतिहासकारों ने इसका विरोध किया। हावर्ड विश्वविद्यालय के माइकेल वितलेज और स्टीव फार्मर ने सिद्ध किया कि दोनों हिंदूवादी बौद्धिकों ने ‘मूल चित्र में कंप्यूटर से छेड़छाड़ कर बैल को घोड़ा बना दिया है।’ (हड़प्पा में घोड़े का खेल, फ्रंटलाइन, 13 अक्टूबर 2000) रोमिला थापर ने इस प्रसंग में लिखा है, ‘क्या वजह है कि हिंदुत्व के सिद्धांतकार, जिनमें भारतीय तथा अभारतीय सब आते हैं, एक खत्म हो चुकी बहस को ही आगे धकेलने में लगे रहते हैं और कहीं हाल के वैकल्पिक सिद्धांतों पर विचार ही नहीं करते हैं? उनकी नजरों में विकल्प एक ही हो सकता है – आर्य अगर हमलावर नहीं थे, तो जरूर वे स्वदेशी रहे होंगे। … आर्यों के स्थानीय मूल का आग्रह उन्हें इसका दावा करते रहने का मौका देता है कि आज के हिंदू, आर्यों की ही संतान हैं और इतिहास के शुरू से ही इस धरती के वारिस हैं। लेकिन, इसके लिए तो यह जरूरी हो जाता है कि आर्यों की उपस्थिति को पीछे खिसकाकर प्राचीनतम इतिहास तक ले जाया जाए।’ (हिंदुत्व और इतिहास, फ्रंटलाइन, 13 अक्टूबर 2000)

‘मोहें जोदारो’ के बारे में रितिक कहते हैं, ‘इस शहर के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। खुदाई में मिले पुरावशेषों से इस जगह के बारे में लोगों को पता चल पाया है। खुदाई में अलग-अलग तरह की चीजें सामने आईं, जिसके आधार पर समाज में अलग-अलग धारणाएं बनीं’। इन सभी धारणाओं में से सबसे सही और सटीक धारणा का चुनाव कैसे किया गया? इस सवाल पर उन्होंने कहा, ‘आशुतोष ने शोध और पुरातत्वविदों की मदद से इनमें से एक धारणा को चुनकर उसके आधार पर फिल्म बनाई है।’ आशुतोष गोवारिकर ने भी अपने साक्षात्कारों में इसी बात को दोहराया है। कहने की जरूरत नहीं कि गोवारिकर ने उसी धारणा को लिया जो उग्र ब्राह्मणवाद के राजनीतिक-सांस्कृतिक एजेंडे को आगे बढ़ाती है।

Actor Kabir Bedi in Mohenjo Daro First Look Images
खलनायक महिम, जिसकी भूमिका कबीर बेदी ने अदा की है, की वेशभूषा मिथकीय महिषासुर जैसी है

फिल्म किसी भी स्तर पर हड़प्पा सभ्यता के यथार्थ को व्यक्त नहीं करती है। फिल्म मौलिक कृति भी नहीं है। इसके अनेक दृश्य ‘ग्लैडिएटर्स’ और ‘गेम ऑफ थ्रोन’ से चुराए गए हैं। इसलिए यह मसला सिर्फ आर्य और अनार्य का नहीं है, बल्कि उस इतिहास के साथ की जाने वाली बेईमानी का है, जिसे दुनिया की सबसे प्राचीनतम सुव्यवस्थित और अहिंसक सभ्यता होने का गौरव प्राप्त है। गोवारिकर अपनी फिल्म के जरिए इस इंसानी विश्व गौरव को ‘आर्य-हिंदू’ सभ्यता बता कर संकुचित कर रहे हैं। लेखक-निर्देशक का दावा है कि उनकी फिल्म 2016 ईसा पूर्व की हड़प्पा सभ्यता को दर्शाती है और इसके लिए उन्होंने कई सालों तक शोध किया। परंतु फिल्म का ट्रेलर बताता है कि गोवारिकर को इतिहास की कोई समझ नहीं है। वेशभूषा, रूप-सज्जा, कला-स्थापत्य, भाषा, संगीत, जीवनशैली सबकुछ मध्यकालीन प्रतीत होता है। पात्र संस्कृत और संस्कृतनिष्ठ हिंदी बोलते हैं। फिल्म की भाषा वर्तमान मांग के अनुसार हिंदी हो सकती है, परंतु संस्कृत क्यों? यहां तक कि कलाकार भी हड़प्पा के स्वदेशी निवासी नहीं दिखते हैं। सब के सब रोमन-ग्रीक-आर्य सौंदर्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। नायक भी नीली आंखों वाला और खलनायक की आंखें भी नीली। गेहुआं, सांवला, काला तो कोई है ही नहीं फिल्म में। हां, खलनायक आदिवासी-मूलवासी ही है, इसे बताते वक्त गोवारिकर महोदय बहुत सचेत हैं। खलनायक महम (कबीर बेदी) का गेटअप मिथकीय चरित्र महिषासुर जैसा है। स्पष्ट है कि गोवारिकर दुर्गा-महिषासुर की उसी नस्लीय कथा को फिल्म के जरिए पेश कर रहे हैं जिसको आज देश का आदिवासी-मूलवासी तबका खारिज कर चुका है।

दरअसल ‘लगान’ के बाद बहुतों ने यह मान लिया कि आशुतोष गोवारिकर एक संवेदनशील फिल्मकार हैं। जबकि लगान भी जातीय भेदभाव वाली फिल्म है। जिसमें दलित चरित्र की योग्यता उसकी ‘अपंगता’ के कारण है, मेधा के कारण नहीं। गोवारिकर महोदय अब तक सात फिल्में बना चुके हैं। ‘मोहें जोदारो’ उनकी आठवीं फिल्म है। सबसे पहली फिल्म थी ‘पहला नशा’ (1993) पर ख्याति मिली ‘लगान’ से। ‘लगान’ 2001 में आई थी। 2008 में आई ‘जोधा अकबर’ को भी चर्चा मिली। हिंदूवादी कट्टरवाद के धार्मिक-राजनीतिक उभार के दौर में आई इन दोनों फिल्मों में गोवारिकर ने बहुत ही सफाई से ‘अंधराष्ट्रवाद’ के तत्वों को पिरोया था। ‘लगान’ जहां बाजारवाद के पॉपुलर खेल क्रिकेट और मनोज कुमार स्टीरियोटाइप ‘देशप्रेम’ की चाशनी में लिपटी थी, वहीं ‘जोधा अकबर’ में सीधे-सीधे हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक भावना को भुनाया गया था। इसमें अकबर बिना किसी रहम के अपनी राजनीतिक मुहत्वाकांक्षा पूरी करना चाहता है, तो जोधा उससे सिर्फ इस शर्त पर विवाह के लिए राजी हो जाती है कि वह उसे मुगल महल के भीतर एक मंदिर बनाने देगा। इसी अंधवादी राष्ट्रवाद की लाइन पर गोवाकरकर ने ‘स्वदेश’ भी बनाई जिसका नायक ‘मोहन भार्गव’ (भागवत) है। प्रवासी मोहन भार्गव भारतीय ‘देशप्रेम’ से अभिभूत हो भारत का कायाकल्प करना चाहता है। यह मोहन भार्गव यानी कि मोहन भागवत और कोई नहीं आशुतोष गोवारिकर ही हैं, और उनकी फिल्म ‘मोहें जोदारो’ इसकी खुली घोषणा है।

सिनेमा के क्षेत्र में आशुतोष गोवारिकर इस देश के नये इतिहासकार और पुरातत्वविद हैं, जो अपनी फिल्म’ के जरिए आदिवासियों और मूलवासियों की वही छवि पेश करने जा रहे हैं, जो वेद-पुराणों और मनु संहिता ने सदियों पहले बनाई है। यह फिल्म ब्राह्मणवाद दक्षिणपंथियों द्वारा इंसानी सभ्यता के साथ किया जाने वाला सबसे संगीन अपराध है। 21वीं सदी में जब दुनिया के अनेक देश इतिहास में किये गए अपने नस्लीय कुकृत्यों के लिए आदिवासी-मूलवासी समाज के सामने शर्मिन्दा हैं, वहीं भारत का समाज अभी भी इतिहास, साहित्य और सिनेमा के जरिए नस्लीय अपराधों में संलिप्त है। इस सिनेमाई नस्लीय अपराध, जिसे संहार कहना ज्यादा सटीक होगा, के जनक दादा फाल्के हैं। फाल्के की घृणित नस्ली परंपरा भारतीय फिल्मों में एक सदी बाद भी बरकरार ही नहीं है वरन् स्थायी चरित्र बना हुआ है।

( महिषासुर आंदोलन से संबंधित विस्‍तृत जानकारी के लिए पढ़ें ‘फॉरवर्ड प्रेस बुक्स’ की किताब ‘महिषासुर: एक जननायक’ (हिन्दी)। घर बैठे मंगवाएं : http://www.amazon.in/dp/819325841X किताब का अंग्रेजी संस्करण भी शीघ्र उपलब्ध होगा )

लेखक के बारे में

अश्विनी कुमार पंकज

कहानीकार व कवि अश्विनी कुमार पंकज पाक्षिक बहुभाषी आदिवासी अखबार ‘जोहार दिसुम खबर’ तथा रंगमंच प्रदशर्नी कलाओं की त्रैमासिक पत्रिका ‘रंग वार्ता’ के संपादक हैं।

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