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क्यों चुप है मिर्चपुर?

मिर्चपुर में भी यही हुआ था। एक वाल्मीकि परिवार का पालतू कुत्ता जाट युवकों पर भौंकता है तो उसे जाट बर्दाश्त नहीं कर सके और बदले में उन्होंने बर्बरता का नंगा नाच किया। इस हादसे के बाद 150 से ज्यादा वाल्मीकि परिवारों ने मिर्चपुर गांव को छोड़ दिया। हरियाणा से लेकर दिल्ली तक हड़कंप मच गया। सवाल है कि गुजरात दलित आंदोलन के शोर में कहीं आप मिर्चपुर(हरियाणा) के खौफनाक यातनाओं के इतिहास को तो नहीं भूल रहे हैं

Dalit families of Mirchpur living on tents at Tanwar Farm on Rajgarh road in Hisar after riots in Mirchpur village in district Hisar, September 10 2015. Express Photo by Kamleshwar Singh

गुजरात दलित आंदोलन के शोर में कहीं आप मिर्चपुर(हरियाणा) के खौफनाक यातनाओं के इतिहास को तो नहीं भूल रहे हैं। वैसे दलित यातनाओं के इतिहास का घाव इतनी जल्दी नहीं भरता। सात साल हो गए कुछ भी तो नहीं बदला मिर्चपुर में। पिछले सात साल से 100 से ज्यादा वाल्मीकि समाज के परिवार अपना घर छोड़कर मिर्चपुर से 60 किलोमीटर दूर हिसार के एक फार्म हाउस में खड़े तंबुओं में शरणार्थी की तरह जीवन काट रहे हैं। जाटों के बर्बर हिंसा और आतंक का खौफ इनके दिलो-दिमाग पर इतना असर कर चुका है कि वे मिर्चपुर गांव के नाम से ही सहम जाते हैं। वे दोबारा वापस नहीं जाना चाहते हैं अपने पुश्तैनी गांव। आखिर क्यों चुप है मिर्चपुर का वाल्मीकि समाज?

क्यों नहीं गुजरात की तरह मिर्चपुर में भी कुछ बदल रहा है। मिर्चपुर में कुछ भी नहीं बदला है तो इसकी बड़ी वजह राजनीति का ब्राह्मणवादी-अभिजनवादी चरित्र ही है। क्योंकि राजनीतिक पार्टियां दलितों के शोषण में ही अपना हित देखती है। चाहे वह बहुजनवादी राजनीति ही क्यों न हो। खैर हरियाणा में तो जाटों का वर्चस्व है और यही जाति यहां की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था के प्रभु वर्ग हैं। बंशीलाल, भजन लाल, चौटाला, हुड्डा से लेकर अभी खट्टर की सरकार भी जाटों के खाप के फरमान के खिलाफ चूं तक नहीं बोल सकती है। राजनीतिक पार्टियों के पास दलितों के लिए कल्याणकारी योजनाएं हो सकती हैं, सहानुभूति हो सकती है, मगर कल्याण और सहानुभूति के भाव से दलितों के आर्थिक- सामाजिक स्थिति में क्रांतिकारी बदलाव नहीं आ सकता। हां फौरी तौर पर कल्याणकारी योजनाएं इतनी मदद तो पहुंचाती ही हैं कि दलित सामाजिक श्रेणीक्रम में निचले स्तर पर ही सही सम्मानित जिंदगी तो जी ही सकता है। मगर हरियाणा में राजनीति की ब्राह्मणवादी(जाटवादी) चरित्र को यह भी मंजूर नहीं है। मिर्चपुर में तो कमोबेश यही स्थिति है।

मिर्चपुर से 60 किलोमीटर दूर हिसार के फार्म हाउस में रह रहे रमेश वाल्मीकि बार-बार मुझसे फोन पर कातर आवाज में यही कह रहे थे कि- ‘बहुत बुरी हालत है साहब, कुछ करो, हम नहीं जाना चाहते मिर्चपुर, वहां जाट हमें खदेड़ कर भगा देंगें। हुड्डा हो या खट्टर कोई कुछ नहीं करेगा।’ रमेश को हरियाणा के सरकार पर कोई यकीन नहीं है। उनके मुताबिक हरियाणा सरकार किसी भी कीमत पर उनलोगों को अलग बसाने के लिए तैयार नहीं है। सरकार जाटों के खाप पंचायत के सामने सिर झुकाए खड़ी रहती है। वजह साफ है कि जाटों के बर्बर फरमान और अत्याचार के बावजूद हरियाणा की राजनीतिक सत्ता वाल्मीकि समाज के परिवार को रोजी-रोटी और जमीन देने के लिए कुछ नहीं कर रही है तो इसके पीछे सिर्फ और सिर्फ वोट की राजनीति है।

और यह स्थापित सत्य है कि राजनीतिक सत्ताओं के लिए हमेशा सामाजिक सत्ताओं के प्रभु वर्गों के हित ही सबसे उपर होते हैं। जाटों के हित के खिलाफ सरकार वहां कुछ भी नहीं कर सकती है। भगाए गये वाल्मीकि परिवारों को पुनर्वास के नाम पर कुछ भी नहीं मिला।

11229294_918811264842451_3477642872752354728_oहिसार के जिस फार्म हाउस में मिर्चुपर के 80 से ज्यादा वाल्मीकि परिवार सात साल से शरण लिए हुए हैं, उस फार्म हाउस के मालिक वेदपाल तंवर कहते हैं, “जाटों की खाप पंचायत ने मिर्चपुर में वाल्मीकि समाज का बहिष्कार कर रखा है। इनकी रोजी-रोटी पहले इन्हीं जाटों पर निर्भर थी, मगर 21 अप्रैल 2010 के उस बर्बर हादसे के बाद जाटों के आतंक के डर से वे वहां जा नहीं सकते। जाट उन्हें अपने खेतों पर काम तो अब देगा नहीं। ऐसी स्थिति में हरियाणा सरकार को चाहिए कि इन वाल्मीकि भूमिहीन परिवारों को हिसार के आसपास ही कहीं खेतिहर जमीन देकर बसा दें, ताकि खेतों में फसल उपजा कर ये लोग दो जून की रोटी कमा सके और सम्मानित जिंदगी जी सके। मगर सरकार तो यहां सिर्फ जाटों की सुनती है।“ पिछले सात साल के दौरान वैसे तो हरियाणा सरकार ने वाल्मीकि समाज के पुनर्वास के नाम पर 19 करोड़ खर्च कर दिए हैं, जैसा कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को दिए हलफनामे में कहा है। लेकिन यह अधूरा सच है। सरकार ने तो मिर्चपुर में कोई अप्रिय वारदात फिर न हो इसके लिए तैनात किए गए सीआरपीएफ कैंप और पुलिस पर ही इस मद के 15 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च कर दिए हैं। पुनर्वास के नाम पर वाल्मीकि समाज के परिवारों को कुछ भी नहीं मिला है। औपचारिक तौर पर जाटों द्वारा वाल्मीकि परिवारों के जलाए हुए घरों को दुबारा बनाया तो जरूर गया है, मगर वहां तो कोई अब रहना ही नहीं चाहता है।

क्या हुआ था सात साल पहले मिर्चपुर में

एक कुत्ते के भौंकने के बाद हुई छोटी सी नोंक-झोंक क्या इतनी बड़ी वजह हो सकती है कि गांव की समूची वाल्मीकि बस्ती पर हमला करके, चारों तरफ से घेर के सभी घरों में आग लगा के फूंक दिया जाए। लेकिन इस छोटी सी बात ने जाटों को इतना बर्बर बना दिया कि वे अपनी सत्ता की हनक और पुलिस प्रशासन की सरपरस्ती में वाल्मीकि समाज के 20 से ज्यादा घरों को न सिर्फ इत्मीनान से जलाया, बल्कि उनके घृणा और नफरत के पाशविक मानसिक स्थिति का आलम यह था कि उन्होंने एक 18 साल की विकलांग लड़की सुमन और उसके पिता ताराचंद(70) को घर में फूंक कर जिंदा जला दिया। इस हादसे में उन घरों को ही पहले जलाया गया था, जो थोड़े अच्छे कमाते थे। जाने- माने दलित विचारक और चिंतक एचएल दुसाध सही कहते हैं कि ‘सवर्णों को दलितों की अच्छी आर्थिक स्थिति से इर्ष्या होने लगती है। उनको गले नहीं उतरती है दलितों की बेहतर आर्थिक स्थिति।’ मिर्चपुर में भी यही हुआ था।  एक वाल्मीकि परिवार का पालतू कुत्ता जाट युवकों पर भौंकता है तो उसे जाट बर्दाश्त नहीं कर सके और बदले में उन्होंने बर्बरता का नंगा नाच किया। इस हादसे के बाद 150 से ज्यादा वाल्मीकि परिवारों ने मिर्चपुर गांव को छोड़ दिया। हरियाणा से लेकर दिल्ली तक हड़कंप मच गया। दिल्ली के रोहिणी अदालत में मामले की सुनवाई हुई। कोर्ट ने 97 में से 15 अभियुक्तों को इस मामले में दोषी करार दिया। तीन आरोपी को आजीवन कारावास, पांच को 5 साल और सात आरोपियों को दो-दो साल की सजा सुनाई गई।

राजनीति जाति और धर्म की यथास्थितिवाद में रखती है यकीन

mirchpur_dalits_sit-inदलितों के पलायन की घटना कोई नई बात नहीं है। यह वैदिक काल से लेकर आधुनिक लोकतंत्र तक में एक प्राचीन और सनातन व्याधि बन कर रह गई है, ठीक हिन्दू धर्म की ही तरह। दलित और कमजोर तबकों को तो जीवन-पर्यंत सवर्णों की दया और मेहरबानी के बोझ तले ही रहना पड़ता है। अगर दलित थोड़ा सा भी उपर उठने की कोशिश करते हैं या किसी तरह की ‘एहसानफरामोशी’ करते हैं तो फिर शुरू हो जाता है उन पर यातनाओं और दमन का बर्बर दौर। राजनीतिक व्यवस्था या प्रणाली चाहे अभिजनवादी हो या बहुजनवादी, दोनो ही दलित चेतना और उभार का इस्तेमाल सिर्फ अपनी सत्ता के लिए खड़ा करते हैं। कांग्रेस हो या बीजेपी या चाहे मायावती की बसपा कोई भी दलितों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान की चिंता तभी तक ही करती है जब तक उन्हें दलितों के जरिये सत्ता नहीं मिल जाती। सत्ता मिलते ही सभी राजनीतिक पार्टियां जाति और धर्म की राजनीति का यथास्थितिवाद बनाए रखती हैं, ताकि उनकी राजनीतिक दुकानदारी चलती रहे। जाति और धर्म की राजनीति का खेल बहुत सोच समझ कर कांग्रेस ने शुरु किया था और अब तो यह सभी राजनीतिक पार्टियों की जरूरत सी बन गई है। इंदिरा गांधी ने जिस बीज को बोया, आडवाणी-मोदी की बीजेपी उसी का फसल काट रही है। इंदिरा गांधी के सांप्रदायीकरण और आडवाणी के मंडल विरोधी और मोदी के अवसरपरक मंडल समर्थक रुपांतरण में कोई खास अंतर नहीं है। ऐसी स्थिति में गुजरात हो या हरियाणा, वहां दलितों के साथ न्याय की उम्मीद रखना ही बेईमानी है। बीजेपी के दलित सांसद भी इसे बखूबी जानते हैं, इसलिए वे पार्टी और संघ के ब्राह्मणवादी सनातन संस्कृति के खिलाफ नहीं जा सकते।

मगर अब जमीन दरक रही है।   

लंबे समय तक धीरज और सहनशीलता दिखाने के बाद अब दलित और निचले तबकों का यकीन डगमगाने लगा है। यथास्थितिवाद की जमीन दरकने लगी है। दलित अब इस नतीजे पर पहुंच रहे हैं कि अब शायद उन्हें अपना ख्याल खुद ही रखने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। गुजरात के दलित आंदोलन से यही संकेत मिल रहे हैं। यह ठीक ही है, क्योंकि राज्य और राजनीतिक दलों का अनंतकाल तक मुखापेक्षी हुए बिना आखिरकार दलितों को अपने हित से जुड़े मामले अपने हाथों में ले ही लेनी चाहिए। यही तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया का सारतत्व है। गुजरात के दलितों की तरह अब मिर्चपुर हरियाणा के दलितों को भी अपने हित के लिए सड़कों पर आना ही पड़ेगा। जातीय नेता और सांसद उनके हितों के लिए कभी नहीं लड़ेंगे, उन्हें अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी।

लेखक के बारे में

सतीश वर्मा

माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर सतीश वर्मा 10 सालों की सक्रिय पत्रकारिता के बाद सामाजिक आन्दोलनों में सक्रिय हैं।

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