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हिन्दी पट्टी के समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर

कर्पूरी ठाकुर का जीवन और राजनीति भारत की हिन्दी पट्टी में समाजवादी आंदोलन के विभिन्न चरणों का प्रतीक है। राजनीतिक दृष्टि से हाशिए पर पड़ी एक अतिपिछड़ी जाति के होते हुए भी उन्होंने एक ऐसे राज्य की राजनीति में अपने लिए एक महत्वपूर्ण स्थान बनाने में सफलता प्राप्त की जहां जाति सबसे बड़ा निर्णयात्मक कारक है

एक गरीब नाई परिवार में जन्मे कर्पूरी ठाकुर, प्रतिबद्ध समाजवादी थे और उन्होंने सन 1950 से लेकर सन 1980 के दशक तक लगभग 40 साल बिहार की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। सन 1970 के दशक में, जब वे दो बार बिहार के मुख्यमंत्री और एक बार उपमुख्यमंत्री बने, उस दौरान उन्होंने आरक्षण (कर्पूरी ठाकुर फार्मूला) और भाषा व रोज़गार से संबंधित विवादास्पद नीतियां लागू कीं। उनके राजनीतिक जीवन को तीन चरणों में बांटा जा सकता है। पहले चरण में उन्हें अधिकांश जातियों का समर्थन प्राप्त था। दूसरे चरण में वे ओबीसी के नेता के रूप में उभरे और तीसरे चरण में वर्चस्वशाली ओबीसी के एक हिस्से द्वारा उनसे मुंह मोड़ लिए जाने के कारण वे अतिपिछड़े वर्गों, दलितों और गरीबों में अपना जनाधार तलाशते रहे।

बीसवीं सदी के अंतिम चौथाई हिस्से में ओबीसी और दलित जातियों के अनेक नेता उभरे, जिन्होंने हिन्दी पट्टी (विशेषकर उत्तरप्रदेश व बिहार) में सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्रों में निर्णायक भूमिकाएं अदा कीं। इनमें से कुछ राज्य सरकारों के मुखिया भी बने। दक्षिण भारत-उदाहरणार्थ तमिलनाडू-में ओबीसी नेताओं के उदय के काफी समय बाद, हिन्दी पट्टी में इन नेताओं को राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान मिल सका। ओबीसी नेता कुछ ऐसी सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाओं की उपज थे, जिनकी शुरूआत सन 1950 के दशक से मानी जा सकती है। उनके उदय के पीछे थी तीन राजनीतिक विचारकों-बी.आर. आंबेडकर, राम मनोहर लोहिया और चरण सिंह-की विरासत। ये नेता इन राजनीतिक विचारकों के जीवन, सोच और राजनीतिक रणनीतियों से प्रेरणा ग्रहण करते थे (सिंह, 2014)। हिन्दी पट्टी के उन ओबीसी नेताओं, जिन्होंने राजनीति पर गहरा प्रभाव डाला, में उत्तरप्रदेश के चरण सिंह, मुलायम सिंह यादव और मायावती और बिहार के कर्पूरी ठाकुर, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान शामिल है। [1]

इनमें से चरणसिंह को छोड़कर अन्य सभी लोहिया की विचारधारा से प्रभावित थे और उनकी राजनीतिक विरासत के उत्तराधिकारी बनना चाहते थे। इनमें से दो नेताओं-चरण सिंह और कर्पूरी ठाकुर-ने लोहिया के जीवनकाल में अपने-अपने राज्यों की राजनीति में निर्णायक भूमिका अदा की, परंतु लोहिया की मृत्यु के बाद ही वे अपने राज्यों की सरकारों के मुखिया बने। यद्यपि चरण सिंह, समाजवादी नहीं थे तथापि ओबीसी के लिए आरक्षण और मध्यम जातियों के कृषक समुदायों के हितों के मुद्दे पर उनके विचार लोहियावादियों से मेल खाते थे-विशेषकर उनकी पार्टी भारतीय क्रांति दल (बीकेडी) के सन 1974 में सोशलिस्ट पार्टी के साथ विलय और भारतीय लोक दल (बीएलडी) के गठन के बाद से। जनता पार्टी-जिसने आपातकाल के बाद केंद्र और कई राज्यों में अपनी सरकारें बनाईं-में बीएलडी का महत्वपूर्ण स्थान था।

यह शोधपत्र कर्पूरी ठाकुर की राजनीति पर केंद्रित है, जो देश के सबसे प्रभावशाली लोहियावादी समाजवादी नेताओं में से एक थे। समाजवादी नेता बतौर उन्होंने कई राजनीतिक आंदोलनों में भाग लिया और सन 1952 से लेकर 17 फरवरी, 1988 को अपनी मृत्यु तक, वे बिहार विधानसभा के सदस्य रहे। इस दौरान केवल 1977 में वे लोकसभा के लिए चुने गए और कुछ वर्षों के लिए विधायक नहीं रहे। वे एक बार बिहार के उपमुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री रहे। सन 1970 के दिसंबर से लेकर 1971 के जून तक और फिर जून 1977 से लेकर अप्रैल 1979 तक वे राज्य के मुख्यमंत्री रहे। वे केवल एक बार (1984 में लोकसभा) चुनाव हारे। उनकी राजनीति की विवेचना दो हिस्सों में की जा सकती है- एक विधायक और मंत्री बतौर और दूसरी विधायिका से बाहर सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता बतौर। परंतु मेरा अध्ययन उनकी राजनीति के उन कुछ पक्षों तक सीमित है, जिनका संबंध मुख्यतः, नीतिगत मुद्दों से है। मैं भाषा, आरक्षण, विकास, रोज़गार और सुरक्षा (उनका सुझाव था कि दलितों और गरीबों को ऊँची जातियों की हिंसा का मुकाबला करने के लिए हथियारों से लैस किया जाना चाहिए) के मुद्दों पर उनकी नीतियों और सोच की विवेचना और अध्ययन इस शोधपत्र में कर रहा हूं। कर्पूरी ठाकुर की राजनीति की विवेचना निम्न कारणों से आवश्यक है :

उन्होंने बिहार में कई विवादास्पद नीतियां लागू कीं। जब वे राज्य के उपमुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री थे तब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा में अंग्रेज़ी विषय की अनिवार्यता समाप्त कर दी। मुख्यमंत्री बतौर अपनी पहली पारी में उन्होंने सरकारी ठेकों में बेरोज़गार इंजीनियरों को प्राथमिकता देने का निर्णय लिया। मुख्यमंत्री बतौर अपनी दूसरी पारी में उन्होंने सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में ओबीसी के लिए आरक्षण लागू किया और आगे चलकर भूमिहीन दलितों और गरीबों को हथियारों से लैस करने की वकालत की।[2]

उन्होंने पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण नीति लागू की, जिसमें अति पिछड़े वर्गों (एमबीसी) के लिए अलग से आरक्षण का प्रावधान था। यह प्रावधान महत्वपूर्ण था क्योंकि उनके जनाधार में यादवों जैसी वर्चस्वशाली ओबीसी जातियों की बहुतायत थी और चरण सिंह [3] एमबीसी के लिए कोटे के अंदर कोटा के विरोधी थे। कर्पूरी ठाकुर स्वयं नाई समुदाय से थे, जिसकी आबादी बहुत कम थी। राजनीति में उनके समुदाय का प्रभाव न के बराबर था। आज आरक्षण पर चर्चाओं और बहसों में कोटे के अंदर कोटा की उनकी आरक्षण नीति, जिसे ‘कर्पूरी ठाकुर फार्मूला’ कहा जाता है, की चर्चा आवश्यक रूप से होती है।[4] वे बिहार के समाजवादी सोच के अनेक नेताओं-जिनमें नीतीश कुमार, लालू यादव और रामविलास पासवान शामिल हैं-के राजनीतिक गुरू थे।

वे अपने समय के ईमानदार राजनीतिज्ञों में गिने जाते थे। पॉल आर ब्रास लिखते हैं कि लोहिया और चरण सिंह के अतिरिक्त, कर्पूरी ठाकुर वे तीसरे नेता थे, जिन्हें वे ‘‘पसंद करते थे और जिनसे उन्हें प्रेम था’’ क्योंकि ये नेता ‘‘राजनीति को अपना पेशा मानते थे, स्पष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए काम करते थे और धन कमाने में उनकी कोई रूचि नहीं थी’’ (ब्रास 2011: 21)। कुछ अपवादों (पाठक 2008; कुमारी 2003; ब्रास 1973) के अलावा कर्पूरी ठाकुर की राजनीति की व्यवस्थित विवेचना उपलब्ध नहीं है। उन्हें कुछ किस्से कहानियों का नायक बनाकर बिहार की राजनीति में उनके महत्वपूर्ण योगदान को विस्मृत कर दिया गया है।

हम अपने अध्ययन की शुरूआत कर्पूरी ठाकुर के राजनीतिक जीवन की संक्षिप्त विवेचना से करेंगे। इसके बाद हम भाषा, आरक्षण (कर्पूरी ठाकुर फार्मूला) और रोज़गार से संबंधित उनकी सरकार की नीतियों पर चर्चा करेंगे। उसके बाद हम उनकी राजनीति का अध्ययन करेंगे, विशेषकर समाजवादी आंदोलन और विचारधारा के संदर्भ में। हम विकास के बारे में समाजवादियों की सोच और उनके नेतृत्व में बनी सरकारों की विकास संबंधी नीतियों के बीच के  अंतर का समालोचनात्मक मूल्यांकन करेंगे। तत्पश्चात हम आज के बिहार की राजनीति पर कर्पूरी ठाकुर की विरासत प्रभाव पर चर्चा करेंगे और फिर निष्कर्षों पर पहुंचेंगे।

कर्पूरी ठाकुर की जीवनयात्रा (1921-88) 

कर्पूरी ठाकुर के जीवन को तीन भागों में बांटा जा सकता है- (अ) 1921 में उनके जन्म से लेकर 1967 तक : इस दौरान उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन व विद्यार्थियों व किसानों के आंदोलनों में हिस्सेदारी की और समाजवादी नेता बतौर वंचित वर्गों के हितों के लिए आवाज़ उठाई, (ब) 1967-80 जब वे पिछड़ी जातियों के नेता बनकर उभरे व (स) 1980 से लेकर 1988 में उनकी मृत्यु तक, जब उनके नेतृत्व को वर्चस्वशाली ओबीसी जातियों के एक तबके द्वारा चुनौती दिए जाने के बाद असहाय होकर वे अपने नए राजनीतिक जनाधार की तलाश में लगे रहे। ये तीन चरण कर्पूरी ठाकुर के लगभग सभी जातियों के नेता के रूप में उभरने, तत्पश्चात ओबीसी के सर्वमान्य नेता बनने और अंततः नए जनाधार की तलाश करते एक राजनीतिज्ञ बनने की कहानी कहते हैं। कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी, 1921 को दरभंगा (अब समस्तीपुर) जिले के पिटाउझिआ (जिसका नामकरण 1988 में कर्पूरी ग्राम कर दिया गया) में हुआ था।[5]

बचपन से ही राजनीतिक गतिविधियों में उनकी गहरी रूचि थी। उस काल में सभी आयु वर्गों और सामाजिक समूहों के लोग राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सेदारी कर रहे थे। सार्वजनिक जीवन में उनका प्रवेश सन 1938 में हुआ, जब उनके गांव के पास स्थित ओएनी में आचार्य नरेन्द्र देव प्रांतीय किसान सम्मेलन को संबोधित करने आए। सम्मेलन में एक जिज्ञासु विद्यार्थी को उपस्थित देखकर आचार्य नरेन्द्र देव ने उन्हें सभा को संबांधित करने के लिए आमंत्रित किया। धीरे-धीरे जनता, व विशेषकर विद्यार्थियों व युवाओं में उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई। भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और सन 1942 से 1945 तक वे जेल में रहे (पाठकः 2008)। उन्होंने अपनी बी.ए. की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। वे आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के सक्रिय सदस्य थे और अपने गांव में युवाओं की गतिविधियां आयोजित करते रहते थे। जेल में रहने के दौरान उनका जुड़ाव कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से हो गया और रिहाई के बाद वे उसके पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए। सोशलिस्ट पार्टी के 1948 में कांग्रेस अलग हो जाने के बाद वे सोशलिस्ट पार्टी के साथ ही बने रहे (ब्रास 1973, 342-43)। वे मृत्युपर्यन्त प्रतिबद्ध समाजवादी रहे।

कर्पूरी ठाकुर के जीवनकाल में समाजवादी आंदोलन कई चरणों से होकर गुज़रा। लोहिया की मृत्यु के बाद कर्पूरी ठाकुर सबसे बड़े समाजवादी नेता के रूप में उभरे और उन्होंने बिहार की पिछड़ी जातियों के युवाओं को संगठित किया। लोहिया के बाद रामानंद तिवारी और भोलाप्रसाद सिंह के साथ वे बिहार की समाजवादी राजनीति के प्रमुख केंद्र बन गए (ब्रास 1973)। भू-स्वामी ओबीसी वर्ग, सन 1960 के दशक में ही उनका जनाधार बन चुका था। यह महत्वपूर्ण है कि सन 1960 के दशक में उसके चुनावी मुद्दा बनने के एक दशक से भी पहले, संयुक्त समाजवादी पार्टी (एसएसपी) की आरक्षण नीति निर्धारित हो चुकी थी। सन 1957 में बिहार राज्य पिछड़ा वर्ग फेडरेशन के लोहिया की समाजवादी पार्टी में विलय और सन 1959 में लोहिया के समर्थकों द्वारा एक प्रस्ताव के जरिए यह घोषणा करने के बाद कि ओबीसी, अनुसूचित जाति, जनजाति और धार्मिक अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों और अन्य संस्थानों में 60 प्रतिशत आरक्षण दिलवाना उनका लक्ष्य है; आरक्षण, समाजवादी राजनीति का मुख्य एजेंडा बन गया (फ्रेंकेल 1989:88-89)। सन 1967 के चुनाव में कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़े वर्गों के आरक्षण को अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया। यह वह पहला चुनाव था जब वे पिछड़े वर्गों के लोकप्रिय नेता बनकर उभरे (फ्रेंकेल 1989)।

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‘‘परंतु बिहार में पिछड़े वर्ग, सन 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध में राजनीतिक रूप से शक्तिशाली बनकर उभरे’’ और ‘‘कर्पूरी ठाकुर ने उन्हें आरक्षण के मुद्दे पर एक किया’’ (ब्लेयर 1980:71)। सन 1960 के दशक में आम लोगों की माली हालत में तेज़ी से गिरावट आई और शासक कांग्रेस सरकारों के प्रति जनाक्रोश बढ़ा। इस माहौल में समाजवादी विचारधारा और आंदोलन ने इन वर्गों को अपनी ओर आकर्षित किया।

समाजवादियों ने वाम शक्तियों के साथ मिलकर सन 1960 के दशक में हिन्दी पट्टी, विशेषकर उत्तरप्रदेश और बिहार, में कई आंदोलन चलाए (फ्रेंकेल 1989; बिहार के लिए ब्रास 1973; पश्चिमी उत्तरप्रदेश के लिए सिंह 1992)।

यद्यपि भू-सुधार ठीक से लागू नहीं किए गए थे तथापि उनसे लाभांवित होकर तब तक पिछड़े वर्गों की एक पीढ़ी शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश पा चुकी थी। एसएसपी की युवा शाखा समता युवजन सभा (एसवाईएस) ने इस पीढ़ी में अपना आधार बनाना शुरू किया। सन 1960 के दशक के अंत तक इन सामाजिक समूहों के कई नेता, जिनमें नीतीश कुमार और लालू यादव शामिल थे, एसवाईएस के सदस्य बन गए थे। इनमें से कुछ विद्यार्थियों, विशेषकर पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों में खासे लोकप्रिय हो गए थे। नीतीश कुमार पटना कालेज छात्र संघ के अध्यक्ष थे और लालू यादव, जो एक प्रभावशाली वक्ता बन गए थे, आगे चलकर पटना स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष बने। नीतीश कुमार का सन 1960 के दशक में पटना कालेज में विद्यार्थी नेता के रूप में उभार बहुत महत्वपूर्ण है। छात्र संघ पर भूमिहार और राजपूत जातियों के तीन या चार विद्यार्थी नेताओं का पूर्ण नियंत्रण था। नीतीश कुमार ने पिछड़े वर्गों को अन्य जातियों के साथ जोड़कर चुनाव जीता और इस तरह छात्र संघ पर ऊँची जातियों के एकाधिकार को समाप्त किया (विस्तृत विवरण के लिए देखें सिन्हा 2011: 41-44)। पिछड़े वर्गों के इन युवा नेताओं ने जेपी (जयप्रकाश नारायण) के आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, कर्पूरी ठाकुर ने इन वर्गों को राजनीतिक दृष्टि से एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने इन वर्गों को यह अहसास कराया कि वे प्रदेश की राजनीति को प्रभावित करने का माद्दा रखते हैं और जैसा कि हम जानते हैं, बाद में इन वर्गों ने बिहार की राजनीति में नेतृत्वकारी भूमिका निभाई।

पहले नेता फिर समर्थक-विहीन

प्रश्न यह है कि राजनीतिक दृष्टि से प्रभावहीन, बहुत कम आबादी वाली एक जाति से आने के बावजूद कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री कैसे बन सके। इसका मुख्य कारण तत्कालीन परिस्थितियां थीं। यद्यपि पिछडे़ वर्ग-यादव, कुर्मी और कोयरी-सन 1960 के दशक तक सामाजिक व राजनीतिक शक्ति बन चुके थे परंतु वर्चस्वशाली पिछड़ी जातियों के पास ऐसा अपना कोई नेता नहीं था, जो उनके हितों को बढ़ावा दे सके और राज्य स्तर पर उन्हें नेतृत्व प्रदान कर सके। उन्होंने कर्पूरी ठाकुर को कम से कम तब तक के लिए अपने नेता के रूप में स्वीकार कर लिया, जब तक कि उनमें से कोई कर्पूरी ठाकुर के कद वाला नेता नहीं बन जाता। यह स्थिति सन 1980 तक बनी रही। इस बीच दो महत्वपूर्ण घटनाक्रम हुए। पहला, मुख्य पिछड़े वर्गों को लाभ पहुंचाने के लिए जिस आरक्षण नीति की वकालत बिहार के समाजवादी करते आ रहे थे, वह लागू हो गई। दूसरा, राजनैतिक नेतृत्व की एक नई पीढ़ी, जिसे राजनीति में पदार्पण के समय कर्पूरी ठाकुर ने संरक्षण प्रदान किया था, उभर आई। इनमें वर्चस्वशाली ओबीसी (यादव व कुर्मी) और दलित (पासवान) नेता शामिल थे। ऐसा नहीं है कि पहले इन जातियों के कोई नेता थे ही नहीं परंतु फर्क यह था कि इस पीढ़ी के विपरीत, पिछली पीढ़ी के नेता कांग्रेस के सदस्य थे, जिसकी पिछड़े वर्गों की भलाई में कोई बहुत रूचि नहीं थी। नेतृत्व की इस नई पीढ़ी का एजेंडा एकदम अलग था। वह ‘‘समाजवादी आवरण’’ में पिछड़े वर्गों के मुद्दे उठा रही थी।

सन 1979 में कर्पूरी ठाकुर सरकार के पतन के कुछ ही समय बाद इस नई पीढ़ी को अपनी जातियों की खासी आबादी का महत्व समझ में आ गया और उसने कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व को चुनौती देना शुरू कर दिया। कर्पूरी ठाकुर की समस्या यह थी कि उनकी जाति की आबादी प्रदेश में बहुत कम थी (सिन्हा 2011: 121-123)। कर्पूरी ठाकुर की स्थिति की तुलना चरण सिंह से की जा सकती है। चरण सिंह जाट थे और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में उनकी जाति के वर्चस्वशाली होने के बावजूद, उत्तरप्रदेश में यादव जैसी अन्य ओबीसी जातियों की तुलना में जाटों की आबादी कम थी। परंतु कर्पूरी ठाकुर के विपरीत, गैर-जाट वर्चस्वशाली ओबीसी जातियों के नेताओं की नई पीढ़ी-जिनमें मुलायम सिंह यादव शामिल थे-ने चरण सिंह के नेतृत्व को कभी चुनौती नहीं दी। चरण सिंह की मृत्यु के बाद उत्तरप्रदेश की राजनीति में जाटों के वर्चस्व को यादवों ने चुनौती दी, जिनकी आबादी जाटों से कहीं ज्यादा थी और जो राज्य के एक बहुत बड़े इलाके में फैले हुए थे।[6]

सन 1980 के दशक में चरण सिंह ने भी कर्पूरी ठाकुर का समर्थन करना बंद कर दिया। शायद चरण सिंह को यादवों के नए उभरते नेतृत्व के महत्व का अहसास हो गया था और इस तथ्य का भी कि कर्पूरी ठाकुर की जाति की बिहार में आबादी बहुत कम है। कर्पूरी ठाकुर भी चरण सिंह के नेतृत्व के प्रति अपना असंतोष व्यक्त करने लगे थे (फ्रेंकेल 1989: 117)। विधानसभा अध्यक्ष शिवचंद्र झा, जो कि ‘‘कर्पूरी ठाकुर को नापसंद करने वाले एक वरिष्ठ कांग्रेस विधायक थे’’ (सिन्हा 2011: 123) से सांठगांठ कर, यादव विधायकों-जो लोकदल के कुल विधायकों में से आधे थे- ने कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व को चुनौती दी। कर्पूरी ठाकुर के स्थान पर अनूप यादव को लोकदल विधायक दल का नेता चुना गया और वे विधानसभा में विपक्ष के नेता बने। आगे चलकर अनूप यादव का स्थान लालू यादव ने ले लिया, जिन्होंने कर्पूरी ठाकुर को ‘कपाती’ (धूर्त) ठाकुर का नाम दिया (सिन्हा 2011:123)।

कर्पूरी ठाकुर ने अपनी पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहा कि ‘‘अगर मैं एक यादव के रूप में पैदा हुआ होता तो मुझे यह अपमान नहीं झेलना पड़ता’’ (सिन्हा 2011: 122)। कर्पूरी ठाकुर को बिहार के उभरते हुए दलित समाजवादी नेता रामविलास पासवान से भी चुनौती मिलने लगी।[7] इन समाजवादी नेताओं को अरूण सिन्हा, कर्पूरी ठाकुर के भस्मासुर बताते हैं (सिन्हा 2011: 121)। एक यादव द्वारा विपक्ष के नेता के रूप में उनका स्थान लेने के तीन वर्ष के भीतर कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु हो गई।

यह कहना गलत नहीं होगा कि यद्यपि कर्पूरी ठाकुर एक प्रतिबद्ध समाजवादी नेता थे तथापि वे यादवों और कुर्मियों जैसी उभरती हुई वर्चस्वशाली पिछड़ी जातियों के नियंत्रण से मुक्त नहीं थे। अपनी आरक्षण नीति के चलते उन्होंने ऊँची जातियों को पहले ही नाराज़ कर लिया था। वर्चस्वशाली ओबीसी जातियों द्वारा उनके नेतृत्व को चुनौती दिए जाने के बाद, कर्पूरी ठाकुर के जनाधार में कोई भी महत्वपूर्ण सामाजिक समूह नहीं बचा। शायद इसी कारण वे दिग्भ्रमित हो गए और स्वयं को असहाय महसूस करने लगे। उनकी असहायता बेलची हत्याकांड के संदर्भ में उनके द्वारा जारी निम्न वक्तव्य से स्पष्ट हैः ‘‘मैंने खेतिहर श्रमिकों की बेहतरी की योजनाओं को लागू करने के लिए बिहार के सर्वश्रेष्ठ अधिकारियों को तैनात किया है। राज्य सरकार के ढांचे में मैं इससे ज्यादा और क्या कर सकता हूं?’’ (द टाईम्स ऑफ़ इंडिया, बंबई, 18 फरवरी 1988) उन्होंने अपना जनाधार पुनः स्थापित करने के लिए अन्य सामाजिक समूहों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश की। इनमें शामिल थे एमबीसी, दलित और निर्धन। दलितों/निर्धनों को हथियारबंद करने का उनका प्रस्ताव, नक्सलियों की सोच से मिलता-जुलता था। यह महत्वपूर्ण है कि सन 1980 के दशक के मध्य-जब कर्पूरी ठाकुर ने ‘हरिजनों‘ को हथियारबंद करने का सुझाव दिया-बिहार में नक्सलवादियों ने अपने पारंपरिक गढ़ भोजपुर जिले से बाहर पांव पसारने शुरू कर दिए थे’’ (विस्तृत विवरण के लिए देखें मेंडल सोन व विक्जियानी 1998: 55-61)।????????????????????????????????????

ऐसा लगता है कि भूमिहीन दलितों और गरीबों को हथियारबंद करने का सुझाव देने और नक्सलवादियों से मिलती-जुलती बातें करने के पहले से ही कर्पूरी ठाकुर को यह लगने लगा था कि उन्हें अति-पिछड़ों में अपने आधार को मज़बूत करना चाहिए। कटिहार में बिहार प्रादेशिक और कैवर्त [8] सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए 19 जून, 1983 को उन्होंने संगठित होने और अपनी ताकत दिखाने के लिए जागरण की आवश्यकता पर ज़ोर दिया और एक सांस्कृतिक क्रांति की ज़रूरत बताई। उन्होंने दो प्रकार के संघर्षों की बात कही। एक, आर्थिक क्रांति के लिए और दूसरा, सामाजिक क्रांति के लिए। और बड़े पैमाने पर संघर्ष करने का आव्हान किया। उन्होंने दलितों को शिक्षा का अधिकार दिलवाने का श्रेय ब्रिटिश शासन को दिया। इस मुद्दे पर अनेक दलित बुद्धिजीवियों के विचार कर्पूरी ठाकुर से मिलते जुलते हैं। कर्पूरी ठाकुर के शब्दों में:

‘‘ऐसे अनेक लोग हैं, जिन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। मैं भी उनमें से एक हूं। परंतु अगर हमारे देश में ब्रिटिश सरकार नहीं आती तो हिन्दुस्तान में सभी को शिक्षा का अधिकार नहीं मिलता। राजपूतों के लिए शिक्षा नहीं थी, उनके लिए युद्ध विद्या थी। वैश्य, जिनका जीवनयापन व्यवसाय से होता था, के लिए शिक्षा नहीं थी। शूद्र तो शिक्षा प्राप्त कर ही नहीं सकते थे। उनके लिए अध्ययन करना पाप था। हमारा देश ऐसा था। यही कारण है कि यहां सामाजिक क्रांति की ज़रूरत है….अगर हम दोनों प्रकार की लड़ाईयों (आर्थिक क्रांति और सामाजिक क्रांति) को जीतना चाहते हैं तो संगठन की आवश्यकता है, जागरण की आवश्यकता है। मैं लगातार यह कहता आ रहा हूं कि भीख मांगने से कुछ नहीं मिलेगा-अधिकार नहीं मिलेंगे, सत्ता नहीं मिलेगी…अगर तुम कुछ पाना चाहते हो तो जागो। अगर तुम कुछ पाना चाहते हो तो उठो और आगे बढ़ो’’ (ठाकुर 2008)। पटना स्थित विधायक क्लब के सभाकक्ष में अपनी मृत्यु के तीन दिन पहले, 14 फरवरी 1988 को एकलव्य जयंती समारोह में उद्घाटन भाषण देते हुए कर्पूरी ठाकुर ने इस बात पर निराशा व्यक्त की कि पिछड़े (शायद उनका मतलब अति-पिछड़ों से था क्योंकि तब तक यादव जैसे उच्च पिछड़े उन्हें हाशिए पर पटक चुके थे), हरिजन और आदिवासी जो सब जाति प्रथा से पीड़ित रहे हैं, आपस में बंटे हुए हैं। उन्होंने कहा कि अलग-अलग जातियों के अलग-अलग संगठन बेकार हैं। उन्होंने कहा कि एक संयुक्त संगठन बनाए जाने की आवश्यकता है और जब ऐसा संगठन राजनीतिक दृष्टि से सफल हो जाएगा तब सभी ऐसे वंचित समूहों के साथ न्याय होगा।

प्रतीकों की राजनीति और सामाजिक न्याय

राजनीति की समाजवादी परंपरा के अनुरूप, कर्पूरी ठाकुर की नीतियां-भाषा नीति, आरक्षण नीति, रोज़गार नीति और भूमिहीन दलितों और गरीबों की सुरक्षा के संबंध में उनके सुझाव, सामाजिक न्याय की लोकलुभावन भाषा में लिपटे हुए थे। भाषा, आरक्षण और सुरक्षा के संबंध में उनकी नीतियों और सुझावों के कारण कुछ लोग उनसे बहुत नाराज़ थे तो कुछ उनके घोर प्रशंसक थे। उनकी आरक्षण नीति ने बिहार को जाति के आधार पर विभाजित कर दिया। सुरक्षा के संबंध में उनके सुझाव ने राज्य को जाति और वर्ग के आधार पर बांट दिया और उनकी भाषा नीति ने राज्य की राजनीति को वर्गीय और शहरी-ग्रामीण आधारों पर विभाजित कर दिया। ऐसा लगता है कि कर्पूरी ठाकुर इन नीतियों को लागू करने के लिए बहुत जल्दी में थे। उदाहरणार्थ, उन्होंने जनता पार्टी सरकार का मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद आरक्षण नीति लागू कर दी। इसके विपरीत, उनके समकालीन व समकक्ष कर्नाटक के देवराज अर्स ने पिछड़ों के लिए आरक्षण की नीति अपने सात वर्ष के शासनकाल के अंतिम दो वर्षों में लागू की। इसके पहले के समय का इस्तेमाल उन्होंने अपनी स्थिति को मज़बूत बनाने के लिए किया। कर्पूरी ठाकुर द्वारा पहले से तैयारी न करने पर टिप्पणी करते हुए देवराज अर्स ने कहा था ‘‘कर्पूरी ठाकुर मुक्केबाजी करना सीखे बिना ही रिंग में उतर गए’’ (मेनर 1980: 2007 में उद्धृत)। कर्पूरी ठाकुर अपनी आरक्षण नीति लागू करने के लिए इतनी जल्दी में क्यों थे? इस प्रश्न का उत्तर उतना सीधा नहीं है, जितना कि देवराज अर्स के वक्तव्य से लगता है। इसके कारणों की विवेचना [9] आवश्यक है। दोनों नेताओं में कुछ समानताएं थीं। पहली, दोनों ऐसी जातियों के थे जिनकी आबादी उनके राज्यों में बहुत कम थी और राजनीति में जिनकी निर्णायक भूमिका नहीं थी। परंतु दोनों में एक अंतर भी था। वह यह कि कर्पूरी ठाकुर सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से वंचित जाति के थे जबकि अर्स एक उच्च जाति से। दूसरे, दोनों ने अपने-अपने राज्यों में जातियों के एक नए गठजोड़ को नेतृत्व प्रदान किया-अर्स ने गैर वोकालिंगा व गैर लिंगायतों, निचले ओबीसी व अन्य हाशिए पर पड़े समूहों को और कर्पूरी ठाकुर ने सभी ओबीसी (उच्च व निम्न) व अन्य हाशिए पर पड़े समूहों को। तीसरे, दोनों तत्कालीन परिस्थितियों जैसे कि चरण सिंह के नेतृत्व में चलाया गया आंदोलन [10] , की उपज थे। परंतु दोनों में कुछ अंतर भी थे। देवराज अर्स के उदय और उनके लंबे समय तक पद पर बने रहने का कारण उन्हें इंदिरा गांधी का संरक्षण प्राप्त होना था। वे किसी जनांदोलन से नहीं उभरे थे। दूसरी ओर कर्पूरी ठाकुर भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और समाजवादी आंदोलन से उभरे थे और वे चरण सिंह के अनुयायी नहीं बल्कि उनके साथी थे। [11]। एक अन्य अंतर यह था कि देवराज अर्स पर भ्रष्ट राजनीतिज्ञ का ठप्पा लगा था जबकि कर्पूरी ठाकुर देश के सबसे ईमानदार राजनेताओं में गिने जाते थे।

कर्पूरी ठाकुर अपने विचारों को अमलीजामा पहनाने के लिए इतनी जल्दी में क्यों थे, इसे हम तत्कालीन राजनीतिक संस्कृति और समाजवादियों व जनता पार्टी के चरण सिंह धड़े की ओबीसी के लिए आरक्षण जल्द से जल्द लागू करने की उत्कंठा से समझ सकते हैं। उनकी भाषा नीति की जड़ें, 1960 के दशक में चले अंग्रेज़ी-विरोधी और हिन्दी-समर्थक आंदोलन में थीं, जिसमें समाजवादियों ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। ये मांगें केवल बिहार तक सीमित नहीं थीं। इस तरह की मांग सम्पूर्ण हिन्दी क्षेत्र, विशेषकर बिहार और उत्तरप्रदेश, में उठ रही थी। जब भी समाजवादियों और चरण सिंह के समर्थकों ने उत्तरप्रदेश और बिहार में सत्ता पाई, उन्होंने बिना किसी देरी के अपने एजेंडे को लागू किया, विशेषकर भाषा और ओबीसी आरक्षण के संबंध में। उन्होंने अपने सामाजिक आधार को संतुष्ट करने के लिए ऐसा किया। यद्यपि उत्तरप्रदेश में चरण सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने बिहार की तरह की भाषा नीति लागू नहीं की परंतु दोनों राज्यों की जनता पार्टी सरकारों ने सन 1970 के दशक में ओबीसी के लिए आरक्षण लागू किया।[12]

परंतु उत्तरप्रदेश की तुलना में बिहार में आरक्षण नीति का कहीं अधिक विरोध हुआ। दोनों प्रदेशों में आरक्षण नीति पर लोगों की प्रतिक्रिया अलग-अलग क्यों रही, यह इस शोधपत्र का विषय नहीं है। कर्पूरी ठाकुर की रोज़गार नीति, जिसके अंतर्गत मुख्यमंत्री बतौर अपनी पहली पारी में उन्होंने बेरोज़गार इंजीनियरों को काम दिलाने का प्रयास किया, को बिहार में 1960 के दशक के राजनीतिक वातावरण के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, इस अवधि में समाजवादियों ने अन्य वामपंथी शक्तियों के साथ मिलकर हिन्दीभाषी राज्यों, विशेषकर बिहार और उत्तरप्रदेश में जनांदोलन चलाए। बिहार में बेरोज़गार इंजीनियरों का एक बड़ा आंदोलन चला जिसमें सरकार से यह मांग की गई कि वह इंजीनियरों के लिए पदों का सृजन करे। आंदोलनरत विद्यार्थियों में नीतीश कुमार जैसे एसवाईएस के सदस्य भी थे। इस आंदोलन की प्रतिक्रिया में कर्पूरी ठाकुर ने एक नई नीति लागू किए जाने की घोषणा की जिसके अंतर्गत सरकारी ठेकों में बेरोज़गार इंजीनियरों की निविदाओं को प्राथमिकता दी जानी थी। इस योजना के पुनरावलोकन के बाद, बिहार सरकार के सिंचाई विभाग में लगभग 8,000 बेरोज़गार इंजीनियरों को नौकरियां मिलीं।

सोच और कार्यों के बीच अंतर

ऐसा लगता है कि भारत में समाजवादियों के नेतृत्व में बनी राज्य सरकारों का विकास का कोई एजेंडा ही नहीं था। विकास के बारे में समाजवादियों की सोच और उन सरकारों, जिनमें समाजवादियों की महत्वपूर्ण भूमिका थी, के कार्यकलापों में काफी फर्क था। ऐसी सरकारों में उत्तरप्रदेश की संयुक्त विधायक दल (एसवीडी) और जनता पार्टी सरकारें शामिल हैं। यह अंतर देश की समाजवादी राजनीति की प्रकृति के कारण था। सन 1970 के दशक से समाजवादी, चरण सिंह के नेतृत्व वाली बीएलडी का एक बड़ा हिस्सा थे। चरण सिंह के साथ वे जनता पार्टी के सदस्य भी बन गए। तथ्य यह है कि समाजवादियों और चरण सिंह जैसे उनके साथियों की राजनीति के मूल में था कांग्रेस की नीतियों और राजनीति का विरोध। यह विरोध की राजनीति थी। यद्यपि वे कांग्रेस की विकास नीतियों और राजनीति के विरोधी थे परंतु सत्ता में आने पर उन्होंने विकास की कोई वैकल्पिक नीति प्रस्तुत नहीं की। पहली एसवीडी सरकारों (बिहार सहित) के कार्यक्रमों में मुख्यतः पहचान से जुड़े और प्रतीकात्मक मुद्दे शामिल थे। यद्यपि कुछ आर्थिक मुद्दे भी उनके कार्यक्रम का हिस्सा थे परंतु इनका संबंध मुख्यतः गैर-भूमिहीन/गैर-कृषि श्रमिकों से था (ब्रास 1984:108)। [13] चूंकि वे कांग्रेस की समाजकल्याण और गरीबी उन्मूलन नीतियों के आलोचक थे इसलिए उसी तरह की नीतियां अपनाना उनके लिए संभव नहीं था। परंतु आरक्षण और कुछ अन्य मुद्दों पर समाजवादियों के विचार, चरण सिंह से मिलते-जुलते थे, यद्यपि उनमें कई मतभेद भी थे। [14]

जनता पार्टी के बीएलडी धड़े (बीकेडी और समाजवादी), समाजवादियों और चरण सिंह ने विकास के मुद्दे से ज्यादा प्राथमिकता ओबीसी आरक्षण को दी। उत्तरप्रदेश की रामनरेश यादव सरकार और बिहार की कर्पूरी ठाकुर सरकार द्वारा ओबीसी के लिए आरक्षण नीति लागू करने के निर्णय को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।

कर्पूरी ठाकुर के शासनकाल में बिहार में जो आरक्षण नीति लागू की गई, वह जनता पार्टी के चुनावी घोषणापत्र के अनुरूप थी। बिहार और केन्द्र का घोषणापत्र लगभग समान था। सन 1970 के दशक के मध्य तक भारतीय राजनीति में पिछड़े वर्गों/किसान जातियों की भूमिका इतनी निर्णायक बन गई-विशेषकर हिन्दी पट्टी में-कि जनता पार्टी का कोई भी हिस्सा, जिसमें ऊँची जातियों से जुड़ाव रखने वाला परंपरावादी जनसंघ और जानेमाने दलित नेता जगजीवन राम के नेतृत्व वाला कांग्रेस फॉर डेमोक्रसी भी शामिल था, उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता था। जनता पार्टी में शामिल विभिन्न दलों के राष्ट्रीय नेताओं के बीच एकमत तो बन गया था परंतु ओबीसी के लिए आरक्षण के मसले पर राज्य स्तर पर उस तरह की एकता नहीं थी। बिहार में ऊँची जातियों के स्थानीय नेता (जनता पार्टी का जनसंघ धड़ा), कर्पूरी ठाकुर की आरक्षण नीति के विरोधी थे परंतु उन्होंने अपनी बात खुलकर इसलिए नहीं कही क्योंकि उनका राष्ट्रीय नेतृत्व इस निर्णय का समर्थक था। परंतु आगे चलकर जब राष्ट्रीय स्तर पर मतभेद उभरे, विशेषकर चरण सिंह/समाजवादियों और जनसंघ के नेताओं के बीच, तब इसका असर बिहार में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व वाली सरकार की स्थिरता पर भी पड़ा। चरण सिंह और जगजीवन राम के बीच राष्ट्रीय स्तर पर जो प्रतिद्वंद्विता थी उसका असर भी बिहार में साफ दिखलाई दे रहा था। कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व मे ओबीसी और जगजीवन राम के नेतृत्व वाले दलितों के बीच उसी तरह की प्रतिद्वंद्विता थी। इसके चलते दलित और ऊँची जातियां, ओबीसी या कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व वाली सरकार के खिलाफ एक हो गए। ओबीसी और दलितों के बीच हिंसा की कई घटनाओं, जिनमें सन 1977 का बेलची कांड शामिल है, ने उनके रिश्तों में और कटुता घोल दी। अंततः कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व वाली सरकार का पतन हो गया और राम सुंदरदास बिहार के नए मुख्यमंत्री बने। कर्पूरी ठाकुर सरकार सन 1979 में विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव का सामना नहीं कर सकी। इस तरह एक ओबीसी के नेतृत्व वाली सरकार का स्थान एक दलित के नेतृत्व वाली सरकार ने ले लिया।

इस तथ्य के प्रकाश में कि कोटे के अंदर कोटे से वर्चस्वशाली ओबीसी/यादव आरक्षण के लाभों पर एकाधिकार नहीं जमा पाते और चरण सिंह के अति पिछड़ों को अलग से आरक्षण देने के विरोधी होने के बावजूद कर्पूरी ठाकुर फार्मूला कैसे स्वीकार कर लिया गया। समाजवादी नेता बतौर अपने ऊँचे कद के कारण कर्पूरी ठाकुर, बिहार की आरक्षण नीति में अति पिछड़ों के लिए सब कोटा और ऊँची जातियों के गरीबों के लिए आरक्षण का प्रावधान करवा सके। इसमें उनका साथ ऊँची जातियों के नेताओं ने दिया, जो नहीं चाहते थे कि आरक्षण के लाभ केवल उच्च पिछड़ी जातियों तक सीमित रहें। कर्पूरी ठाकुर के ‘थिंक टैंक’ के एक सदस्य पीएन मुखर्जी के अनुसार, सब कोटा का प्रावधान जयप्रकाश नारायण के हस्तक्षेप के चलते किया गया। जेपी ने हस्तक्षेप तब किया जब थिंक टैंक के सदस्य बतौर मुखर्जी ने नीति के मूल मसविदे से अपनी असहमति जाहिर की। मुखर्जी इस नीति को ‘जेपी-कर्पूरी ठाकुर फार्मूला’ कहते हैं ‘‘कर्पूरी ठाकुर फार्मूला’’ नहीं। [15]  परंतु बिहार के कई ओबीसी और दलितों का यह मानना है कि जेपी ओबीसी के लिए आरक्षण के खिलाफ थे। कुछ का तो यहां तक कहना है कि जेपी ने ही कर्पूरी ठाकुर सरकार की आरक्षण नीति को लागू किए जाने के विरोध में आंदोलन भड़काया था। [16]

बिहार की राजनीति पर कर्पूरी ठाकुर का प्रभाव

कर्पूरी ठाकुर की नीतिगत सोच एक नारे में निहित है, जिसका निर्माण उन्होंने स्वयं किया था। यह नारा था ‘आज़ादी और रोटी‘ अर्थात सामाजिक न्याय और अच्छा जीवन (कुमार 2013)। यह एक समावेशी नारा था जो विकास और गरिमा/आत्मसम्मान दोनों को प्रतिबिंबित करता है। यह महत्वपूर्ण है कि ऐसे नारे-जो सबाल्टर्न वर्गों के लिए विकास और गरिमा दोनों की बात करता है-के निर्माता होने के बाद भी कर्पूरी ठाकुर राज्य में विकास की कोई योजना लागू नहीं कर सके। बिहार में लालू प्रसाद यादव, कर्पूरी ठाकुर की विरासत को आगे ले गए। लालू यादव का नारा था विकास नहीं सम्मान चाहिए।

शिक्षा शास्त्री एसएन मालाकार, जो बिहार की एक अतिपिछड़ी जाति से आते हैं, ने आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के कार्यकर्ता के नाते सन 1970 के दशक में कर्पूरी ठाकुर की आरक्षण नीति के समर्थन में चले आंदोलन में हिस्सेदारी की थी। वे कहते हैं कि बिहार के सबाल्टर्न वर्ग- एमबीसी, दलित और उच्च ओबीसी- जनता पार्टी सरकार के समय ही आत्मविश्वास हासिल कर चुके थे। लालू यादव इसी विरासत को आगे ले गए और बिहार में 15 वर्ष के राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) शासनकाल के पहले पांच या छः वर्षों तक वे सबाल्टर्न वर्गों के आत्मविश्वास और गरिमा के प्रतीक बने रहे। परंतु उनके शासनकाल की शेष अवधि में एमबीसी और दलितों का उनसे मोहभंग हो गया। [17] लालू प्रसाद यादव पर भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के जो गंभीर आरोप लगे, उनके चलते बिहार के सबाल्टर्न वर्गों में आत्मविश्वास और गरिमा जगाने का जो काम उन्होंने किया, उससे लोगों का ध्यान हट गया है। सच यह है कि एक समय तो गरिमा/आत्मसम्मान से जुड़ी नीतियों को लागू करना उनकी प्राथमिकता थी। एक बार पिछड़ी जातियां गरिमा/आत्मसम्मान हासिल कर लेंगी उसके बाद विकास किया जाएगा। नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जेडीयू सरकार ने भी सामाजिक न्याय को विकास के बराबर ही महत्व दिया। यह कर्पूरी ठाकुर के नारे ‘आज़ादी और रोटी’ के अनुरूप था। इस तरह लालू यादव और नीतीश कुमार की राजनीति, दरअसल, उसी प्रक्रिया को आगे ले गई जिसे कर्पूरी ठाकुर ने शुरू किया था। दोनों ने अपनी-अपनी राजनीतिक आवश्यकताओं के अनुरूप, कर्पूरी ठाकुर की विरासत पर कब्ज़ा ज़माने की कोशिश की। नीतीश कुमार ने दलितों में पिछड़ी जातियों, जिन्हें महादलित [18] कहा जाता है, की समस्याओं पर ध्यान देने की कोशिश की। उन्होंने अतिपिछड़ों-जो लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के राज में स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहे थे-को प्रसन्न करने का प्रयास भी किया। [19] उन्होंने विकास का एक मज़बूत और अनूठा एजेंडा सामने रखा, जिसके चलते बिहार जल्दी ही देश के तेज़ी से आगे बढ़ने वाले राज्यों में शामिल हो गया (सिंह एंड स्टर्नः 2013)।

पटना में 2 सितंबर, 2005 को जेडीयू द्वारा आयोजित अतिपिछड़ों की एक सभा को संबांधित करते हुए नीतीश कुमार ने अपनी आरक्षण नीति पर कर्पूरी ठाकुर की विरासत के प्रभाव को स्वीकार कियाः ‘‘जिस तरह कर्पूरी ठाकुर ने (सरकारी) नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए निर्धारित कोटे के अंदर अतिपिछड़ों को आरक्षण दिलवाने की कोशिश की थी, उसी तरह पिछड़े वर्गों के पिछड़ों को पंचायती राज संस्थाओं में आरक्षण मिलना चाहिए। उन्हें अलग से आरक्षण मिलना चाहिए। संविधान में संशोधन कर उन्हें उसी तरह के राजनीतिक अधिकार दिलवाए जाने चाहिए, जिस तरह के अधिकार अनुसूचित जातियो और जनजातियों के हैं। हम यह मांग करते हैं कि आरक्षण आबादी के अनुपात में होना चाहिए’’ (कुमार 2008)।

अपने एक साल पुराने भाषण की चर्चा करते हुए उन्होंने कहाः

‘‘हम लोग कर्पूरी जी की जयंती मना रहे थे, रवीन्द्र भवन में। इस बात पर चर्चा हो रही थी कि क्या अनुलग्नक-1 और 2 [20] को मिला दिया जाना चाहिए। हमने वहीं यह घोषण की कि कोई ताकत हमें उन अधिकारों से वंचित नहीं कर सकती जो कर्पूरी ठाकुर ने हमें दिए हैं और यही लालू यादव के साथ हमारे मतभेदों की जड़ में है’’ (कुमार 2008)।

अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि लालू यादव और नीतीश कुमार, दोनों ने ही कर्पूरी ठाकुर की विरासत को आगे बढ़ाया।

यद्यपि लालू यादव और नीतीश कुमार ने एक ही विरासत उत्तराधिकार में पाई थी-जेपी आंदोलन और कर्पूरी ठाकुर का संरक्षणत्व-परंतु दोनों के राजनीतिक व्यक्तित्वों में अंतर है। जब कर्पूरी ठाकुर ने 1978 में ओबीसी के लिए आरक्षण की व्यवस्था की तो ओबीसी और उनका नेतृत्व कर्पूरी ठाकुर के साथ हो गया। नीतीश कुमार एक अलग राह पर चले (सिन्हा 2011)। बिहार में आरक्षण नीति ने समाजवादी आंदोलन को जाति के आधार पर विभाजित कर दिया-एक ओर ओबीसी और ऊँची जातियां आमने-सामने आ गए तो दूसरी ओर ओबीसी के अंदर भी विभाजक रेखाएं खिंच गईं। इस विभाजन में लालू यादव, कर्पूरी ठाकुर की ओर थे और नीतीश कुमार दूसरे खेमे में, जो उच्च जाति के समाजवादियों का था। नीतीश कुमार ने मिलीजुली नीतियां अपनाईं। उन्होंने ओबीसी के लिए आरक्षण का समर्थन किया तो साथ ही ऊँची जातियों के लिए आरक्षण की बात भी की। नीतीश कुमार की राजनीति, विशेषकर गैर-यादव ओबीसी और ऊँची जातियों के साथ गठजोड़ करने की उनकी क्षमता को उन्हें उत्तराधिकार में प्राप्त विरासत से अलग करके नहीं देखा जा सकता।

अरूण सिन्हा द्वारा लिखित नीतीश कुमार की जीवनी उनकी नीतियों के कर्पूरी ठाकुर और लालू यादव की राजनीति से संबंध को नज़रअंदाज़ करती है (सिन्हा 2011)। आरक्षण के मुद्दे पर नीतीश कुमार की सोच और नीतियों ने उन्हें उच्च जातियों में पैठ बनाने में मदद की। इसी के चलते बिहार में लालू युग के बाद नीतीश कुमार गैर-यादव ओबीसी, अतिपिछड़ों, महादलितों व ऊँची जातियों का गठबंधन बना सके। लालू/राबड़ी सरकारों को यादव सरकार माना जाता था और इस कारण वे ऊँची जातियों की आंखों की किरकिरी बन गए थे। इसी के चलते जातियों का लालू-विरोधी गठबंधन बनाया जा सका।

निष्कर्ष

कर्पूरी ठाकुर का जीवन और राजनीति भारत की हिन्दी पट्टी में समाजवादी आंदोलन के विभिन्न चरणों का प्रतीक है। राजनीतिक दृष्टि से हाशिए पर पड़ी एक अतिपिछड़ी जाति के होते हुए भी उन्होंने एक ऐसे राज्य की राजनीति में अपने लिए एक महत्वपूर्ण स्थान बनाने में सफलता प्राप्त की जहां जाति सबसे बड़ा निर्णयात्मक कारक है। यह समाजवादी राजनीति के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और तत्कालीन परिस्थितियों के चलते संभव हो सका। तत्कालीन परिस्थितियों के चलते वे अपने राजनीतिक जीवन के अधिकांश हिस्से में सभी जातियों के सबाल्टर्न वर्ग को नेतृत्व प्रदान कर सके। परंतु आगे चलकर वर्चस्वशाली ओबीसी, विशेषकर यादवों, से उन्हें कड़ी चुनौती मिली। यह चुनौती उन्हें समाजवादी खेमे के अंदर से मिली। बिहार में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार के पतन के बाद, इस तबके ने उन्हें बिहार की राजनीति में किनारे कर दिया। इस कारण कर्पूरी ठाकुर ने अपने लिए एक वैकल्पिक सामाजिक आधार की तलाश शुरू की और उन्होंने अतिपिछड़ों और दलितों को अपने साथ जोड़ने का प्रयास किया। कुछ मामलों में वे नक्सलवादियों के नज़दीक भी आ गए। इसका एक उदाहरण है गरीबों और दलितों को हथियारबंद करने का उनका प्रस्ताव। उनकी सरकार की भाषा, रोज़गार और आरक्षण संबंधीं नीतियां, सन 1950 के दशक के उत्तरार्द्ध से लेकर सन 1970 के दशक तक भारत की समाजवादी राजनीति की प्रकृति के अनुरूप थीं। यह ओबीसी और ग्रामीण समुदायों के उभार की प्रतिक्रिया भी थी। परंतु दलितों और गरीबों को हथियारबंद करने का उनका सुझाव, राजनीति में उनके कमज़ोर पड़ने का सूचक था।

इस तथ्य के बावजूद कि बाद में कर्पूरी ठाकुर के अनुयायियों समेत समाजवादी नेता अलग-अलग पार्टियों में बिखर गए, कर्पूरी ठाकुर की विरासत जीवित रही। उन्होंने सबाल्टर्न समूहों के सशक्तिकरण की जो प्रक्रिया शुरू की थी वह आज भी जारी है। सशक्तिकरण की उनकी अवधारणा में आत्मसम्मान/गरिमा और विकास दोनों शामिल थे और इन्हें इसी क्रम में लागू किया गया अर्थात पहले आत्मसम्मान और गरिमा और तत्पश्चात विकास। कर्पूरी ठाकुर ने भी गरिमा/आत्मसम्मान पर ज़ोर दिया और विकास के मुद्दे को नज़रअंदाज़ किया। इसका कारण था समाजवादियों की विकास संबंधी सोच और कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व वाली सरकारों की नीतियों में अंतर। इन सरकारों के एजेंडों में प्रतीकात्मक और पहचान से जुड़े मुद्दे तो शामिल थे परंतु विकास नहीं। लालू प्रसाद ने इसी विरासत को आगे बढ़ाया परंतु उन पर लगे भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के आरोपों ने ओबीसी और दलितों को आत्मसम्मान और गरिमा से जीने का अधिकार दिलवाने के अभियान में उनकी भूमिका को ढंक दिया। नीतीश कुमार, कर्पूरी ठाकुर की विरासत को और बेहतर ढंग से आगे ले गए। उन्होंने बिहार के लोगों को गरिमा/आत्मसम्मान और विकास दोनों दिए।

टिप्पणियां

[1] यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि नए उभरते वैकल्पिक नेतृत्व में ओबीसी और दलित दोनों शामिल हैं। यद्यपि इन सामाजिक समूहों के सामाजिक व आर्थिक हितों में कुछ परस्पर विरोधाभास हैं तथापि उनके कुछ हित समान भी हैं। ओबीसी और दलित नेताओं में कई मौकों पर राजनीतिक कारणों से गठबंधन भी हुए हैं। सन् 1993-95 में उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी और मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन इसका उदाहरण है।

[2]भाषा व आरक्षण संबंधी उनकी नीतियों की राज्य में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। जो विद्यार्थी मैट्रिक की परीक्षा (बिना अंग्रेजी विषय के) तृतीय श्रेणी में पास करते थे, उनका मजाक उड़ाते हुए उन्हें ‘कर्पूरी डिवीजन में पास‘ कहा जाता था। इस नीति को 1980 में कांग्रेस सरकार ने पलट दिया (झा एंड पुष्पेन्द्रः 2012)। उनकी आरक्षण नीति की उसके समर्थकों और विरोधियों दोनों में हिंसक प्रतिक्रिया हुई। नतीजे में अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाने के कारण उनकी सरकार का पतन हो गया।

[3] आरक्षण कोटे के अंदर अति पिछड़ों को अलग से आरक्षण देने के प्रस्ताव पर अपनी आपत्ति व्यक्त करते हुए चरण सिंह ने लिखा: मेरे आलोचक कह सकते हैं कि जब मैं हलवाहों के लिए सरकारी सेवाओं में आरक्षण की बात करता हूं तो मैं बढ़ई, बुनकरों आदि के मामले में चुप क्यों रहता हूं? यह आलोचना हास्यास्पद है। सच यह है कि किसान समाज का प्रतीक है, उपरलिखित व्यवसायों से जुड़े व्यक्ति नहीं (चरण सिंहस प्राईवेट पेपर्स, इंस्टालमेंट 2, फाईल नंबर 244, नेहरू मोमोरियल म्यूजियम एंड लाईब्रेरी, तीन मूर्ति भवन, नई दिल्ली)।

कर्पूरी ठाकुर सरकार की आरक्षण नीति के मुख्य प्रावधान निम्न थेः अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए पहले से उपलब्ध 24 प्रतिशत आरक्षण के अलावा ‘पिछड़े वर्गों‘ के लिए 26 प्रतिशत अतिरिक्त आरक्षण का प्रावधान किया गया। पिछड़े वर्गों को अनुलग्नक 1, जिनके लिए 12 प्रतिशत आरक्षण होगा और अनुलग्नक 2, जिनके लिए आठ प्रतिशत आरक्षण होगा में विभाजित किया गया। इसके अतिरिक्त सभी सामाजिक समूह की महिलाओं के लिए तीन प्रतिशत और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए तीन प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया (ब्लेयर, 1980:64)। चूंकि यह नीति कर्पूरी ठाकुर सरकार द्वारा लागू की गई थी इसलिए इसे ‘कर्पूरी ठाकुर फार्मूला‘ कहा जाता है। इसमें आरक्षण कोटे को पिछड़े वर्गों के अलग-अलग समूहों में असमान रूप से बांटा गया।

[4] कर्पूरी ठाकुर सरकार की आरक्षण नीति के मुख्य प्रावधान निम्न थेः अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए पहले से उपलब्ध 24 प्रतिशत आरक्षण के अलावा ‘पिछड़े वर्गों‘ के लिए 26 प्रतिशत अतिरिक्त आरक्षण का प्रावधान किया गया। पिछड़े वर्गों को अनुलग्नक 1, जिनके लिए 12 प्रतिशत आरक्षण होगा और अनुलग्नक 2, जिनके लिए आठ प्रतिशत आरक्षण होगा में विभाजित किया गया। इसके अतिरिक्त सभी सामाजिक समूह की महिलाओं के लिए तीन प्रतिशत और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए तीन प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया (ब्लेयर, 1980:64)। चूंकि यह नीति कर्पूरी ठाकुर सरकार द्वारा लागू की गई थी इसलिए इसे ‘कर्पूरी ठाकुर फार्मूला‘ कहा जाता है। इसमें आरक्षण कोटे को पिछड़े वर्गों के अलग-अलग समूहों में असमान रूप से बांटा गया।

[5] पाठक (2008) व ब्रास (1973) पर आधारित।

[6] चरण सिंह के बाद के काल में जाटों के हाशिएकरण के कारण एक अलग हरित प्रदेश के निर्माण की मांग ने जोर पकड़ा।

 [8] कैवर्त बिहार का एक अति पिछड़ा समुदाय है।

[9] इस तुलना में देवराज अर्स के संबंध में प्रस्तुत तर्क (मैनर 1980, कोहली 1987) से लिए गए।

[10] चरण सिंह के उदय पर महत्वपूर्ण राजनैतिक और सामाजिक कारकों के प्रभाव के लिए देखिए सिंह (2001)।

[11] यह महत्वपूर्ण है कि कर्पूरी ठाकुर ने अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के किसी टुकड़े की सदस्यता नहीं ली। जब लोहिया ने इस पार्टी को छोड़ा तब भी वे उनके साथ नहीं गए (ब्रास, 1973: 342-43)।

[12] जहां कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार ने बिहार में अति / अत्यंत पिछड़े वर्गों के लिए कोटा के अंदर कोटे का प्रावधान किया वहीं इसी पार्टी के नेतृत्व वाली उत्तरप्रदेश सरकार ने राज्य में अति पिछड़ा वर्गों और उच्च पिछड़ा वर्गों के विभेद को समाप्त कर दिया।

[13] पाल ब्रास ने इस कार्यक्रम को पांच हिस्सों में बांटाः 1. विद्यार्थियों, अध्यापकों, सरकारी कर्मचारियों, उर्दू समर्थकों आदि जैसे विभिन्न समूहों को रियायतें। 2. कांग्रेस की गलतियों का सुधार जैसे राजनैतिक बंदियों की रिहाई और कांगे्रस के मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोपों की न्यायिक जांच। 3. अलोकप्रिय निर्णयों और करों की वापिसी – खाद्यान्न उपार्जन आदेश, टैक्सों और भू राजस्व में वृद्धि आदि। 4. किसानों को लाभ पहुंचाने वाले प्रावधान व 5. कीमतों और भ्रष्टाचार पर नियंत्रण करने और कुशल प्रशासन देने का वायदा (ब्रासः1984, 108)। हम देख सकते हैं कि मूलतः इन सभी का विकास से कोई संबंध नहीं था।

[14] दोनों के बीच की समानताएं और विभिन्नताएं इस प्रकार थीं: समानताओं में शामिल था पिछड़े वर्गों (किसानों सहित) के लिए आरक्षण को समर्थन, ग्रामीण/ कुटीर उद्योगों व विकेन्द्रीकरण को बढ़ावा। विभिन्नताओं में शामिल हैं: जहां चरण सिंह द्वारा पिछड़े वर्गों के किसानों से संबंधित मुद्दों को प्राथमिकता दी गई वहीं समाजवादियों द्वारा पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण और हिन्दी का समर्थन एवं अंग्रेजी के विरोध को प्राथमिकता दी गई। जहां चरण सिंह आंदोलन की राजनीति के ख्लिाफ थे वहीं समाजवादी इसके समर्थक थे। दोनों के बीच सबसे महत्वपूर्ण मतभेद का संबंध विरोध प्रदर्शनों व आंदोलन की राजनीति करने की आवश्यकता के संदर्भ में था।

[15] पीएन मुकर्जी के साथ 16 जुलाई 2013 को नई दिल्ली में व्यक्तिगत साक्षात्कार।

[16] बिहार के ओबीसी व दलित व्यक्तियों से चर्चा के आधार पर।

[17] बिहार के ओबीसी व दलित व्यक्तियों से चर्चा के आधार पर।

[18] नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जेडीयू सरकार ने सन् 2007 में महादलित आयोग का गठन किया। इसे अनुसूचित जातियों में शामिल उन जातियों को चिन्हित करने, उनके सामाजिक-आर्थिक हालात का अध्ययन करने और उनकी स्थिति में सुधार के उपाय सुझाने की जिम्मेदारी दी गई, जो विकास की दौड़ में अन्य अनुसूचित जातियों से पीछे छूट गई हैं। आयोग ने बिहार की अनुसूचित जातियों में से 21 महादलित या ‘अत्यंत कमजोर जातियों‘ को चिन्हित किया। (http://www.mahadalitvikasmission.org/BMVM2) 17 सितंबर 2013।

[19] नीतीश कुमार की अति पिछड़े वर्गों के संबंध में रणनीति के चार हिस्से थे। उन्होंने झारखंड राज्य बनने के बाद एमबीसी के लिए आरक्षण कोटा 20 प्रतिशत कर दिया और नगरपालिकाओं और पंचायतों में एमबीसी को आरक्षण दिया, जिसमें से 50 प्रतिशत महिलाओं के लिए था। उनकी पार्टी जेडीयू ने अन्य पार्टियों की तुलना में लोकसभा और विधानसभा चुनावों में एमबीसी को अधिक संख्या में टिकिट दिए और उनकी चुनाव जीतने में मदद की। चूंकि अधिकांश मुस्लिम एमबीसी हैं इसलिए एमबीसी पर फोकस से उनमें भी विश्वास का भाव जागृत हुआ है। (प्रोफेसर एसएन मलाकार के साथ व्यक्तिगत साक्षात्कार, नई दिल्ली, 23 सितंबर, 2013)

[20] ये संलग्नक कर्पूरी ठाकुर फार्मूला के अनुसार एमबीसी व वर्चस्वशाली ओबीसी के लिए अलग-अलग आरक्षण कोटे का निर्धारण करते हैं।

संदर्भ

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(इकोनॉमिक एंड पालिटिकल विकली के वॉल्‍युम 50, अंक 3, 17 जनवरी, 2015 से साभार)

लेखक के बारे में

जगपाल सिंह

प्रोफेसर जगपाल सिंह इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी (इग्नू), नई दिल्ली के सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ में पढ़ाते हैं। वे दिल्ली विश्वविद्यालय के दयाल सिंह कालेज और शिलांग स्थित नार्थ ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी, शिलांग में अध्यापन कार्य कर चुके हैं। प्रजातंत्र और विकास, पहचान की राजनीति, मान्यता की राजनीति और ग्रामीण राजनीति उनकी विशेषज्ञता के क्षेत्र हैं। वे भारत में सरकार और राजनीति, भारत के राज्यों में राजनीति, भारत में सामाजिक आंदोलन और राजनीति, भारत : प्रजातंत्र और विकास और भारत : राज्य और समाज जैसे विषयों पर अध्यापन कार्य करते रहे हैं।

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