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छतीसगढ़ : ब्राह्मणवादियों को सताने लगा है महिषासुर के वंशजों का भय

दुर्गा और महिषासुर के बीच, संघर्ष के आदिवासी वृत्तांत को प्रचारित-प्रसारित करने के चलते पूर्व विधायक मनीष कुंजम के खिलाफ एक एफआईआर दर्ज कराया गया। यह एफआईआर दर्ज कराने वाले छ्त्तीसगढ में बाहर से आकर बसे ‘उच्च जातियों’ के लोग थे, उनका कहना था कि दुर्गा और महिषासुर के संघर्ष की आदिवासी व्याख्या  उनकी धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाती है

छतीसगढ़ में हिंदुत्ववादियों को एक खास तरह का भय सता रहा है। यह भय आदिवासियों और दलितों की चेतना का है। जिन्हें मूलनिवासी कहते है। ये मूल निवासी ब्राह्मणवादी बंधनों  को स्वीकार नहीं करते हैं। इस भय को झांड-फूंक से भगाने के लिए सभी पुरातनपंथी शक्तियों ने आपस में एक ‘पवित्र गठजोंड’ कायम कर लिया हैं। इस गठजोड़ में राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ, स्थानीय व्यापारी, मीडिया तो शामिल हैं ही, इसमें पुलिस भी शामिल है।

मनीष कुंजम (मनीष कुंजम की तस्वीर साभार : नंदिनी सुंदर/दी वायर )

सकुमा, छतीसगढ़ के आदिवासी महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मनीष कुंजम ने 15 सितंबर 2016 को एक वाट्स अप समूह को एक मैसेज भेजा, जिसके वे स्वयं भी सदस्य हैँ। यह मैसेज  दुर्गा और महिषासुर के संघर्ष की आदिवासियों की व्याख्या को ही नए सिरे से लोगों के सामने प्रस्तुत करता है। हम सभी जानते हैं कि महिषासुर मूल निवासियों के राजा थे। भेजे गए इस मैसेज में इस बात को इंगित किया गया था कि बंगाल में दुर्गा की प्रतिमा को तब तक अधूरा माना जाता है, जब तक कि उसमें सेक्स वर्कर के घर से लाई गई मिट्टी को मिलाया न गया हो।  वाट्स अप पर भेजा गया, यह मैसेज सेक्स वर्कर के घर से मिट्टी लाने की परंपरा के जन्म के कारणों की व्याख्या करता है। मैसेज बताता है कि ब्राह्मण आमने-सामने के खुले युद्ध में बहादुर राजा महिषासुर को पराजित करने में अक्षम थे। उन्होंने छल-कपट से महिषासुर को पराजित करने के लिए दुर्गा के रूप में एक सुन्दरी को भेजा। उस  सुन्दरी ने आठ दिनों तक महिषासुर को सुरापान और अन्य क्रीड़ाओं के आमोद- प्रमोद में मस्त रखा तथा नवें दिन मौका पाकर उसने उनकी हत्या कर दी। मनीष कुंजम का वाट्सअप मैसेज यह भी बताता है कि  ब्राह्मणों ने न केवल मूल निवासी राजा को पराजित किया, इसके साथ ही उन्होंने आदिवासियों की आराध्य देवी को मूल निवासी राजा की हत्यारिनी ठहरा दिया।( शक्ति को एक आदिवासी मातृ देवी का ही रूप माना जाता है, जिसे आर्यों ने अपने हिसाब से ढाल लिया )। यह मैसेज  पाठकों से यह भी सवाल पूछता है  कि क्या किसी देवी-देवता/दैत्य की बहुत सारी भुजाएं हो सकती हैं,क्या कोई आधे जानवर के रूप में होते हुए, एक मानव के रूप में जीवित रह सकता है। वे पाठकों से इस चित्रण पर तार्किक तौर सोचने का आग्रह करते हैं। अन्त में यह मैसेज मूल निवासी समाज से जागने और इस बात को समझने का आग्रह करता है कि उनकी विचारधाराको दबाया गया। उनसे यह भी कहता है कि ब्राह्मणवादी विचाराधारा के चश्मे से खुद को न देखने से उन्हें कौन रोक रहा है। मैसेज का अन्त इन शब्दों से होता है- ‘नमो बुद्धा, जय भारत, जय मूल निवासी’

विविध परंपराएं, विभिन्न अन्तर्विरोध

मनीष कुंजम बस्तर में भारतीय कस्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के नेता तथा पूर्व विधायक हैं। मान लिया जाए कि यदि इस मैसेज के भेजने वाले मनीष कुंजम न होते तो, क्या उनके द्वारा मैसेज में दिए गए तथ्यों और उनके द्वारा उठाए गए सवालों को नकार दिया जाता। नहीं ऐसा नहीं होता, क्योंकि उन्होंने मैसेज में जो तथ्य दिए हैं, जो सवाल उठाए हैं, जो वैकल्पिक दृष्टि प्रस्तुत की है, वह वह भारत के इतिहास और मिथकों की आर्यन-ब्राह्मणवादी व्याख्या से इतर व्याख्याओं की पुनर्प्रस्तुति ही है। इस विशाल भारतीय उपमहाद्वीप में रामायण की भी विभिन्न अन्तर्विरोधी व्याख्याएं मौजूद हैं. महज मौखिक व्याख्याओं को देखें तो, इन्हीं व्याख्याओं में से एक व्याख्या में रावण नायक के रूप में है और सीता, राम के स्त्री द्वेषी नजरिए का शिकार हैं।

यह पर्चा मनीष कुंजम के समर्थन में सर्व आदिवासी समाज द्वारा जारी किया गया था (साभार : दी वायर)

पूरे देश में महिषासुर उत्सव का प्रचार-प्रसार भले ही हाल की परिघटना हो सकती है, लेकिन महिषासुर की पूजा की लंबी परंपरा है और   भारतीय उपमहाद्वीप के व्यापक हिस्सों में फैली हुई है। झारखण्ड और पश्चिम बंगाल के असुर उन्हें अपना पूर्वज मानते हैं और नवरात्र के नौ दिनों को शोक के समय के रूप में बिताते हैं। बुंदेल खण्ड के महोबा में महिषासुर का एक प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर को भारतीय पुरातत्व विभाग ने संरक्षित मंदिर का दर्जा दे रखा है। कम से कम पिछले 12 वर्षों से पुरूलिया जिले में संथाल लोग महिषासुर की पूजा करते हैं।

भारत की संसद तक में दुर्गा-महिषासुर विवाद पर बहस हुई। संसद में स्मृति ईरानी ने दुर्गा-महिषासुर का मुद्दा उठाया। संसद में स्मृति ईरानी द्वारा इस मुद्दे को उठाने का उद्देश्य महिषासुर में आस्था रखने वालों  की ‘कलुषित’ मानसिकता को उजागर करना था। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी ने पहले ही यह माना था कि दुर्गा ने दलितों और आदिवासियों की हत्या की थी। इसी कारण से उन्होंने खुद की दुर्गा से तुलना को अस्वीकार कर दिया था।

दुर्भाग्य की बात यह है कि कांग्रेस सतत रूप में धर्मनिरपेक्षता पर कायम नहीं रहती है। जब मनीष कुंजम का वाट्स अप मैसेज प्रसारित हुआ तब, बस्तर की युवा कांग्रेस कुपित हो गई और इसके नेता सुशील मौर्या ने मनीष कुंजम के खिलाफ जगदलपुर कोतवाली में आरोप दर्ज कराया। आरोप दर्ज कराने की होड़ मच गई, हम पीछे न रह जाएं, इस होड़ में एक अनजाने से संगठन  धर्मसेना ने सुकमा में  भारतीय दंड संहिता की धारा 295 (जानबूझकर किसी समुदाय के धर्म का अपमान करना) के तहत एक एफआईआर दर्ज कराया। पुलिस ने आनन-फानन में  यह एफआईआर दर्ज कर लिया।

बहुत सारे स्थानीय व्यापारी आदिवासियों को ‘गंवार’ और ‘असभ्य’ समझते हैं। ध्यातव्य है कि ये बाहर से आकर बसे उंची जातियों के लोग हैं और लंबे समय से आदिवासियों का शोषण कर रहे हैं। इस तथाकथित अपमान का प्रतिकार करने ये लोग सड़कों पर उतर आए। 19 सितंबर 2016 को विभिन्न स्थानों पर मनीष कुंजम का पुतला जलाया गया था और उनके वाट्स अप के विरोध में बन्द का आह्वान किया गया था।  व्यापारियों और पुलिस ने मिलकर सुकमा शहर में बन्द के इस आह्वान  को सफल बनाया था।  

आदिवासियों ने किया था जोरदार प्रतिवाद

वैसे तो मनीष कुंजम भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के जिला सचिव  हैं, लेकिन वे इस क्षेत्र में आदिवासियों के जाने-माने नेता भी हैं। कुंजम ने लगातार सलवा जुडुम और आपरेशन ग्रीन हंट के नाम पर होने वाले अत्याचारों, खनन कंपनियों  द्वारा बस्तर में किये जा रहे विस्थापन का विरोध किया है। उन्होंने संविधान की छठी अनुसूची लागू करने के लिए भी लगातार संघर्ष किया है, यह अनुसूची पांचवी अनुसूची की तुलना में आदिवासी अधिकारों को बेहतर सुरक्षा प्रदान करती है।

जैसे ही यह खबर लोगों तक पहुंची कि उनके नेता मनीष कुंजम को निशाना बनाय जा रहा है, बस्तर क्षेत्र के सभी मूल निवासी समुदाय के लोगों ने प्रतिवाद करना शुरू कर दिया। बस्तर में बहुत सारे आदिवासी समुदाय हैं, मसलन हालबास, भत्रास, कोयास, (गोंड्स) ध्रुवास और अन्य बहुत सारे समूह, जिन्हें अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग का दर्जा प्राप्त है, जैसे कि  महार, पंकास और राऊतस। इसके अलावा एक अन्य समूह भी है, जो अपने को सामूहिक तौर पर बस्तरिया के रूप में मानते हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने हाल के वर्षों में काफी प्रयास किया है कि उन्हें  छठी अनुसूची  के लिए संघर्ष करने के वास्ते मूल निवासी के एक झंड़े तले लाया जाय। इसके अलावा सर्व आदिवासी समाज या सर्व समाज जैसे सामूहिक मंच भी हैं।

दाहिने मनीष कुंजम की तस्वीर है, जो पूर्व विधायक और आदिवासी समाज के अध्यक्ष हैं। यह रैली की तस्वीर है, जो सीपीआई द्वारा बस्तर में आयोजित की गई थी (फोटो साभार : दी वायर)

उल्लेखनीय यह है कि इन सभी आदिवासी समूहों ने मनीष कुंजम के खिलाफ मुकदमे की निंदा करते हुए बयान जारी किया। उदाहरण के लिए, कोया समाज ने कहा कि महिषासुर की बस्तर में पूजा होती थी और कुंजम के खिलाफ एफआईआर कुछ ताकतों द्वारा ब्राह्मणवादी हिंदू विचारधारा को कमजोर समुदायों पर लागू करने की कोशिश है, जैसे कि आदिवासी। इस समाज ने अपने बयान में यह भी कहा कि आदिवासियों को यह अधिकार है कि वे जिसकी चाहें, उसकी पूजा करें, इसकी चिन्ता किसी और को करने की कोई जरूरत नहीं है। उन्होंने यह भी रेखांकित किया  कि कुंजम को इस मामले में फंसाने का  उद्देश्य जल, जंगल और जमीन के लिए चल रहे आदिवासियों के संघर्ष को कमजोर करना है, क्योंकि कुंजम इस सघर्ष की मुख्य आवाज हैं। 22 सितंबर 2016 को सर्व आदिवासी समाज द्वारा एक अन्य प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई थी, जिसमें कुंजम के खिलाफ एफआईआर की निंदा की गई थी और उन लोगों के खिलाफ एससी/एसटी एक्ट (अत्याचारों का निवारण) के तहत मुकदमा दर्ज करने लिए कहा गया था, जिन्होंने कुंजम के खिलाफ आरोप लगाया था।

इस मामले में एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम का मामला बनता है, क्योंकि एक सम्मानित आदिवासी नेता का पुतला जलाया गया और अन्य तरीकों से उनके सम्मान को चोट पहुंचाई गई। आखिर मनीष कुंजम का दोष क्या था, यही न कि उन्होंने महिषासुर की नृशंस हत्या को जिस तरह चित्रित किया जाता था और उसे उत्सव की तरह मनाया जाता था, उस व्याख्या को स्वीकार नहीं किया और उससे भिन्न रास्ता अख्तियार किया। अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण  संशोधन अधिनियम की धारा 4 मूल अधिनियम की धारा 3 में निम्न बातें जोड़ती है-  

जो लोग भी गैर एससी/एसटी हैं और यदि वे निम्न कृत्य करते हैं-

(पी)  किसी अनुसूचित जाति/जनजाति  के सदस्य के खिलाफ तथ्यहीन, दुर्भावनापूर्ण या पीडित करने वाला मुकदमा या आपराधिक या अन्य कानूनी प्रक्रिया चलाते हैं,

(टी)   किसी अनुसूचित जाति या जनजाति के किसी सदस्य के किसी भी चीज का विध्वंस करते हों, नुकसान पहुंचाते हों या उसकी मर्यादा भंग करते हों, जो चीज आम तौर उसके लिए गरिमामय मानी जाती हो

  व्याख्या- एक व्यक्ति के इन चीजों में उसकी मूर्ति, फोटोग्राफ और पोर्ट्रेट शामिल हैं।

(यू)  किसी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्य के खिलाफ लिखित या मौखिक शब्दों में अथवा इशारे से अथवा दृश्यात्मक तौर पर दर्शा करके  या किसी अन्य तरीके से विद्वेष, घृणा या दुर्भावना की भावना को बढावा देते हैं या इसकी कोशिश करते हैं;

उपरोक्त में कुछ भी करने वाले गैर- अनुसूचित जाति/जनजाति के सदस्य कम से कम 6 महीने की जेल की सजा के पात्र होंगे, यह सजा आर्थिक दंड के साथ पांच वर्ष तक  भी बढाई जा सकती है।

सुकमा कोया समाज ने 26 सितंबर 2016 को बंद का आहवान किया था। इसी बीच क्रुद्ध गांव वालों ने नामा (20 सितंबर 2016) कोरा (21 सितंबर 2016) और कुकानार (23 सितंबर 2016) साप्ताहिक बाजारों को बंद करा दिया। जैसे कि उम्मीद थी, पुलिस  व्यापारियों से मिलकर सुकमा कोया समाज के 26 सितंबर के बन्द को विफल करने के लिए काम कर रही थी। मीडिया ने अपनी मूल निवासी विरोधी मानसिकता का परिचय देते हुए बाजारों की बन्दी और बन्द के आह्वान के बारे में इस तरह का प्रचार किया कि इससे गरीब व्यापारियों को अपना कारोबार संचालित करने में कितनी कठिनाई हुई और गांवों के दुकानदार कितने असंतुष्ट थे। यहां उन लोगों का पाखण्ड भी सामने आता है, जो लोग आदिवासियों के बाजार बन्द  करने के इस आह्वान का वाट्स अप संदेशों में निंदा कर रहे थे, ये लोग  सलवा जुडुम/सामाजिक एकता मंच/अग्नि के वही नेता हैं, जो सलवा जुडुम के दौर में साप्ताहिक बाजारों को बन्द कराते रहे हैं और अभी दूर-दराजे के गांवों के लोगों को बाजार जाने से रोकते हैं।

आदिवासियों को अपनानित करने की पहले की कोशिशें  

यह पहली बार नहीं था कि छतीसगढ़ के हिंदुत्ववादी ताकतों द्वारा आदिवासियों का अपमान करने की कोशिश का अप्रत्याशित तौर पर उल्टा असर पड़ा हो। 2016 के शुरूआत में राजनंदनगांव के मानपुर के  पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता विवेक कुमार को दो महीने के लिए एक फेसबुक पोस्ट के लिए गिरफ्तार कर लिया गया था। यह फेसबुक पोस्ट भी दुर्गा और महिषासुर के संदर्भ में था। दिलचस्प बात यह है कि यह पोस्ट उन्होंने 2 वर्ष पहले लिखा था। 12 मार्च को हिदुत्वादी ताकतों ने एक रैली निकाली। जिसमें उन्होने नारा लागाय कि, ‘महिषासुर (भैंसासुर) के औलादों को, गोली मारो सालों को’। इसका परिणाम हुआ कि हिंदुत्ववादी ताकतों के खिलाफ ही एफआईआर दर्ज हो गई।

2014 में महिषासुर पर लेख प्रकाशित करने के चलते दिल्ली पुलिस ने फारर्वड प्रेस के कार्यालय पर छापा मारा और संपादक प्रमोद रंजन के खिलाफ एक मुकदमा दायर किया। यह दीगर बात है कि इस चीज ने उन्हें  इस विषय पर और शोध करने तथा महिषासुर  और अन्य बहुजन नायक/नायिकाओं का प्रचार-प्रसार करने के लिए अधिक दृढ़ संकल्प बनाया।

बस्तर के प्रशासन की प्रतिक्रिया

बस्तर प्रशासन हमेशा आदिवासियों और दलितों के खिलाफ उंची जाति के अप्रवासियों का पक्ष लेता रहा है। भले ही वे संवैधानिक तौर पर आदिवासियों के प्रति कानूनी तौर पर उत्तरदायी हों। आदिवासियों के प्रतिवाद से हिला प्रशासन परंपरागत परगना माझिस या मुखिया लोगों को मनीष कुंजम के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश में लगा है। इन मुखिया लोगों में बहुत सारे लोगों ने सलवा जुडुम के बाद अपने गांव छोड़ दिए और प्रशासन का पक्ष लेना शुरू कर दिया।

अभी यह देखना बाकी है कि राज्य पोषित हिंदु दक्षिणपंथियों और नए सिरे से उठ खड़े होने वाले आदिवासी जागरूकता के बीच इस संघर्ष में कौन जीतता है।

 

यह लेख मूल रूप से अंग्रेजी में द वायर में 25 सितंबर 2016 को प्रकाशित हुआ था। इसका हिंदी अनुवाद लेखिका की अनुमति से यहां प्रकाशित किया जा रहा है। अनुवाद : सिद्धार्थ   


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लेखक के बारे में

नंदिनी सुन्दर

नंदिनी सुंदर दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनामिक्स में समाजशास्त्र की प्रोफेसर हैं। उन्होंने छतीसगढ़ के आदिवासी समाज का वर्षों तक नजदीकी से अध्ययन किया है और वे इस राज्य में मानवाधिकारों के उल्लंघनों की आलोचना करती रही हैं। उन्होंने अन्य लोगों के साथ मिलकर राज्य पोषित निगरानी समूह, सलवा जुडुम, पर प्रतिबंध लगाने के लिए जनहित याचिका दायर किया, जिसके चलते सलवा जुडुम पर प्रतिबंध लगा। नंदिनी सुंदर 2007 से लेकर 2011 तक ‘कॉन्ट्रिब्यूशन टू इंडियन सोशियोलॉजी की संपादक थीं और बहुत सारे जर्नलों के बोर्ड की सदस्य रही हैं। उनकी हाल की किताब ‘दी बर्निंग फारेस्ट : इंडियाज वार इन बस्तर’ (जुग्गरनाउट, 2016) है

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