रोटी, कपडा और मकान। एक दौर में यह नारा खूब चला था। भारत के सामाजिक और आर्थिक रूप से उपेक्षित लोगों के लिए इसी नारे को आदर्श के रूप में आज भी प्रचारित करने के कोशिश की जाती है। लेकिन इस नारे में कहींं भी ‘सम्मान’ का जिक्र नहीं है। यही कारण रहा है कि जिन लोगों को रोटी, कपडा और मकान हासिल भी हो गया, उन्हें सम्मान नहीं मिला। वे बडे राजनेता बने। लेकिन उनके द्वारा जिन मूर्तियों का अनावरण किया गया, उन्हें धोया गया। वेे बडे अधिकारी भी बने, लेकिन जिन कुर्सियों पर वे बैठे उसे उनके उठते ही गंगाजल छिडक कर पवित्र किया गया। उन्होंने बडे से बडे पद हासिल किये, लेकिन वे जिन समुदायों से आते थे, उस समुदाय का नाम गाली, मजाक या क्षुद्रता का पर्याय बना रहा। क्या सिर्फ रोटी, कपडा और मकान का उपलब्ध हो जाना सामाजिक सम्मान को बहाल कर सकता है? कतई नहीं।
सामाजिक सम्मान पाने के लिए शोषित तबकों को पहले सांस्कृतिक सम्मान पाना होगा। इन सभी अपमानों की जडें ब्राह्मण-संस्कृति में छिपी हैं। बिना उसे उखाडे सामाजिक रूप से शोषित तबकों के लिए सम्मान की कल्पना असंभव है।
महिषासुर दिवस के आयोजक बताते हैं कि यह सांस्कृतिक आंदोलन सम्मान और गरिमा पाने की लडाई है। आइए, विभिन्न स्थानों पर आयोजित महिषासुर स्मरण दिवस पर लगाये गये बैनरों से गुजरते हुए हम भारतीय समाज की सांस्कृतिक दीवार पर बदलती हुई इबारतों के निहितार्थ को महसूस करें।
















