अधिकांश लोगों के लिए त्योहार जश्न मनाने के मौके होते हैं, जिन पर लज़ीज़ व्यंजन परोसे जाते हैं, पूजा-अर्चना होती है और एक-दूसरे को बधाईयां दी जाती हैं। परंतु एक बड़े वर्ग के लिए त्योहार, रोज़गार और आय का साधन भी होते हैं। त्योहार कई समुदायों की उनका पेट भरने में मदद करते हैं और अपरोक्ष ढंग से ही सही, उनकी इनमें भागीदारी सुनिश्चित करते हैं।
अगर हम देवी दुर्गा की मूर्ति की बात करें तो इसका मूल ढांचा बांस, भूसा और लकड़ी के टुकड़ों से बनाया जाता है। घास काटने वाले और बांस का काम करने वाले शूद्र और मुसलमान बढ़ई, मूर्ति के ढांचे को तैयार करने के लिए आवश्यक सामग्री उपलब्ध करवाते हैं। ये मुसलमान भी मूलतः शूद्र और दलित हैं, जिन्होंने इस्लाम अपना लिया है। वे सभी पसमांदा हैं।
मूल ढांचा तैयार होने के बाद, कुम्हार मिट्टी से मूर्ति को आकार देते हैं। वे भी शूद्र होते हैं। पिछले कुछ दशकों से ढांचे को आकार देने के लिए प्लास्टर आफ पेरिस का प्रयोग किया जाने लगा था परंतु अब मिट्टी का इस्तेमाल पुनः होने लगा है, क्योंकि यह पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाती। बड़ी संख्या में कुम्हारों ने भी इस्लाम अपनाया है।
ऊँची जाति के हिन्दू, मूर्ति पर रंग करते हैं। उसके बाद मूर्ति के वस्त्र तैयार करने का नंबर आता है। बंगाल में अधिकतर बुनकर या तांती मुसलमान हैं। बड़ी संख्या में मुसलमानों की रोज़ी रोटी बुनकर का काम कर चलती है। बुनकर भी शूद्र होते हैं। जो बुनकर मुसलमान बन गए हैं, वे पसमांदा हैं। वे ही यह तय करते हैं कि देवी किस रंग के वस्त्र पहनेंगी और वे ही यह भी तय करते हैं कि महिषासुर के कपड़े कैसे होंगे, ताकि मूर्ति आकर्षक लगे।
प्रतिदिन धाक की गुञ्ज से यह घोषणा होती है कि मूर्ति पूजा के लिए तैयार है। बंगाल में अधिकतर धाकी या तो मुसलमान हैं अथवा शूद्र। इस तरह, दुर्गा पूजा की तैयारी का हर चरण किसी न किसी उद्योग से जुड़ा हुआ है और बड़ी संख्या में हिन्दू और मुसलमान श्रमिकों और शिल्पकारों को रोज़गार देता है।
पिछले कुछ वर्षों में पसमांदा मुसलमान दोहरे हमले के शिकार हो रहे हैं। हमें यह समझना होगा कि उन्होंने अपना धर्म भले ही बदल लिया हो परंतु उन्होंने न तो अपना पेशा छोड़ा है और न ही अपनी संस्कृति से नाता खत्म किया है। सऊदी अरब से आने वाले धन से पोषित वहाबी इस्लाम, पसमांदा मुसलमानों में अपनी पैठ बनाने की कोशिश कर रहा है। उन्हें यह बताया जाता है कि जिस संस्कृति को वे अपना समझ रहे हैं, दरअसल, वह उनकी संस्कृति नहीं है। उनके सामने दो विकल्प रखे जाते हैं-या तो वे अपना धर्म छोड़ दें या अपनी संस्कृति।
यह एक मुश्किल चुनाव है। अधिकांशतः स्थानीय मदरसा ही वह एकमात्र स्थान होता है, जहां पसमांदा मुसलमानों के लड़के और लड़कियां बिना किसी भेदभाव के पढ़ सकते हैं। स्वाभाविकतः वे इस सुविधा को छोड़ना नहीं चाहते।
दूसरी ओर, संघ परिवार ज़हर फैलाने में जुटा हुआ है। वह सार्वजनिक उत्सवों से मुसलमानों को अलग-थलग करना चाहता है। उसका एजेंडा भारतीय समाज को बांटना है। वह नफरत की तिजारत करता है। फासिज्म अक्सर संस्कृति का भेस धरकर आता है और संघ परिवार की यह भरसक कोशिश है कि हिन्दू, बहुसंस्कृतिवाद का त्याग कर दे।
दुर्गा पूजा से ओणम तक
ओणम भी एक ऐसा त्योहार है जिसे हिन्दू, मुसलमान और ईसाई मिलकर मनाते आए हैं। यह फसलों की कटाई का त्योहार है और इसके साथ असुर राजा महाबली की कथा जुड़ी हुई है। महाबली बहुत बुद्धिमान, योग्य और उदार शासक था, जो जाति या वर्ग के आधार पर भेदभाव नहीं करता था। केवल एक असुर ही इतना न्यायप्रिय हो सकता है। देवता उसकी लोकप्रियता से इर्ष्या करने लगे और उससे मुक्ति पाने का उपाय खोजने लगे। विष्णु, जो देवताओं का वर्चस्व बनाए रखने के लिए कुछ भी करने को हमेशा तत्पर रहते हैं, वामन के रूप में महाबली के सामने आए और तीन पग धरती मांगी। दो पगों में उन्होंने पूरे ब्रह्माण्ड को नाप लिया और तीसरा पग महाबली के सिर पर रखकर उसे पाताल लोक में धकेल दिया। परंतु अपने इस न्यायप्रिय राजा को लोग भुला न सके। महाबली के प्रिय केरल के लोग ओणम इसलिए मनाते हैं ताकि वे राजा महाबली की आत्मा को यह दिखा सकें कि वे खुश हैं। महाबली के प्रजाजनों में आज मुसलमान और ईसाई भी शामिल हैं। हिन्दू, मुसलमान और ईसाई मिलजुल कर ओणम मनाते हैं। कोच्चि के पास त्रिकाकरा एकमात्र वह स्थान है, जहां वामन की मूर्ति है। इससे यह स्पष्ट है कि आमजन वामन की जीत का जश्न नहीं मनाते थे वरना वामन के मंदिर और मूर्तियां सब जगह होतीं। परंतु इसके बाद भी भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने ट्वीट किया, ‘‘विष्णु के पांचवें अवतार वामन की जयंती पर सभी देशवासियों को शुभकामनाएं’’। स्पष्टतः यह हिन्दुओं, मुसलमानों और ईसाईयों को बांटने का प्रयास है और केरल पर हिन्दुत्ववादी एजेंडा लादने की कोशिश। ओणम जाति से ऊपर उठकर मनाया जाने वाला त्योहार है। यह बहुजनों का त्योहार है।
हिन्दुत्ववादियों द्वारा सैंकड़ों सालों में विकसित संस्कृति पर कब्जा करने की कोशिश की जा रही है। इससे मुकाबला करने के लिए एक दूरगामी रणनीति बनाए जाने की ज़रूरत है। दुर्गा पूजा, सार्वजनिक पूजा कहलाती है परंतु सुबह और शाम की आरती कभी कोई बहुजन पुजारी नहीं करता और भोग को तैयार करने और उसे परोसने का काम केवल ब्राह्मण महिलाएं करती हैं। इसका विकल्प यह हो सकता है कि महिषासुर दिवस के आयोजन का नेतृत्व ओबीसी, दलित, मुसलमान और आदिवासी या एक शब्द में कहें तो बहुजनों के हाथों में हो।
पसमांदा मुसलमान हाशिए पर पड़े एक समुदाय के अंदर हाशिए पर हैं। हिन्दुत्ववादी एजेंडा और वहाबी इस्लामीकरण, दोनों उन्हें मुख्यधारा से बाहर धकेल रहे हैं। पसमांदा मुसलमान यदि इस तरह के आयोजनों में हिस्सेदारी करना चाहते हैं तो उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। हमें गांवों, कस्बों और शहरों को एक समुदाय के रूप में विकसित करने की कोशिश करनी चाहिए। धार्मिक पहचान-जो कि बहुत व्यक्तिगत होती है-को समुदाय का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए।
इसी तरह, विश्वकर्मा पूजा हस्तकौशल, उपकरणों और मशीनों का त्योहार है। ब्राह्मणों का शिल्पकला से भला क्या नाता हो सकता है? परंतु विश्वकर्मा पूजा ब्राह्मण ही करवाता है और एक मोटी दक्षिणा लेकर रवाना हो जाता है। यह तब जबकि उत्सव के आयोजन में उसका कोई योगदान नहीं होता। ऊँची जातियों के वर्चस्व को चुनौती दिए जाने की आवश्यकता है ताकि आमजनों को अपनी शक्ति और सामर्थ्य का एहसास हो सके।
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‘महिषासुर: एक जननायक’ का अंग्रेजी संस्करण भी ‘Mahishasur: A people’s Hero’ शीर्षक से प्रकाशित है।