एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में भारत में जाति सिर्फ अपना रूप बदल रही है। निर्जात (बिना जाति का) होने की कोई प्रकिया कहीं से चलती नहीं दिखती। आप किसी के बारे में कह सकते हैं कि वह आधुनिक है, उत्तर आधुनिक है- लेकिन यह नहीं कह सकते कि उसकी कोई जाति नहीं है! यह एक भयावह त्रासदी है। क्या हो जाति से मुक्ति की परियोजना? एक लेखक, एक समाजकर्मी कैसे करे जाति से संघर्ष? इन्हीं सवालों पर केन्द्रित हैं फॉरवर्ड प्रेस की लेख श्रृंखला “जाति का दंश और मुक्ति की परियोजना”। आज पढें राम पुनियानी को – संपादक।
हमें इस प्रश्न पर विचार करना ही होगा कि स्वतंत्रता के 70 वर्ष और हमारे संविधान के लागू होने के 67 वर्ष बाद भी, जाति व्यवस्था क्यों जिंदा है और उसमें निहित ऊँच-नीच और अन्याय व उससे जनित कुछ समुदायों का हाशियाकरण और दमन क्यों हो जारी है इस सिलसिले में जिन दो बिन्दुओं पर विचार आवश्यक है वे हैं जाति व्यवस्था की जड़ें कहां हैं और उसका भौतिक आधार क्या है। इससे हमें जाति व्यवस्था के उन्मूलन की रणनीति बनाने में मदद मिलेगी।
जाति व्यवस्था का उदय
आंबेडकर के अनुसार, “जाति व्यवस्था, कुछ धार्मिक विश्वासों का स्वाभाविक परिणाम है और इन विश्वासों को उन शास्त्रों का अनुमोदन हासिल है, जिन्हें ऐसे ऋषियों की वाणी माना जाता है जिन्हें, अलौकिक ज्ञान प्राप्त था और जिनके आदेशों का उल्लंघन करना पाप है।” [i]
इसलिए आंबेडकर, हिन्दू धर्म को शास्त्रों से पूरी तरह विलग करने की बात कहते हैं। वे लिखते हैं, ‘‘तुम्हें वही करना चाहिए जो बुद्ध ने किया, तुम्हें वही करना चाहिए जो गुरूनानक ने किया। तुम्हें न केवल शास्त्रों को खारिज करना चाहिए बल्कि उनकी सत्ता का भी नकार करना चाहिए जैसा बुद्ध और नानक ने किया।‘‘ वे आगे लिखते हैं, ‘‘इसलिए, मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि ऐसे धर्म को नष्ट कर दिया जाना चाहिए और मैं तो कहता हूं कि ऐसे धर्म को नष्ट करने के लिए काम करने में कुछ भी अधार्मिक नहीं है। बल्कि मैं कहता हूं कि यह आपका परम धर्म है कि आप इस मुखौटे को चीर दें और इस गलत धारणा को मिटा दें, जो कानून को धर्म का नाम देने से पैदा हुई है। यह आपके लिए एक आवश्यक कदम है। एक बार आप लोगों के मन से इस गलत धारणा को मिटा देंगे और उन्हें यह अहसास करा देंगे कि जो धर्म कहा जाता है, वह, दरअसल, धर्म नहीं बल्कि कानून है, तब आप उसमें सुधार या उसके उन्मूलन की बात कह सकेंगे।‘‘ आंबेडकर के ये शब्द हमें बताते हैं कि किस प्रकार जाति व्यवस्था, धर्मग्रंथों से उपजी, उसे धर्मगुरूओं ने कायम रखा और इसके चलते धार्मिक पदक्रम की वह व्यवस्था अस्तित्व में आई जो भारत के सामंती सामाजिक ढांचे का हिस्सा बन गई है।
जाति से मुकाबला
तत्समय प्रचलित जाति व्यवस्था के विरोध में बुद्ध का संदेश दूर-दूर तक फैला। बुद्ध की शिक्षाओं का विरोध करने के लिए ‘मनुस्मृति’ का इस्तेमाल किया गया। शनैः-शनैः सामंती समाज उभरा और श्रमिकों के विभाजन ने इस व्यवस्था को मजबूती दी। मध्यकाल में भक्ति संतों ने जाति व्यवस्था के ढांचे के वैचारिक आधार पर कठोर प्रहार किए। उन्होंने धर्म के नाम पर असमानता को गलत ठहराया। आज भी जाति व्यवस्था को बनाए रखने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म और उसके ग्रंथ अदा कर रहे हैं।
देश की सामाजिक व्यवस्था में बड़े परिवर्तन की शुरूआत अंग्रेजों के भारत आने के साथ हुई। शिक्षा के प्रसार और औद्योगीकरण ने लोगों को जाति की गुलामी से मुक्ति दिलाने में मदद की। परंतु इन सामाजिक परिवर्तनों की गति बहुत धीमी थी। फुले ने दलितों को आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने और शहरों में काम करने के लिए प्रोत्साहित किया। यह जाति व्यवस्था को चुनौती देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। सामाजिक परिवर्तन की यह धारा स्वाधीनता आंदोलन के समानांतर बहती रही।
जाति के उन्मूलन का प्रश्न जमींदारी प्रथा और ब्राह्मणवाद के उन्मूलन से जुड़ा हुआ था। जमींदार और ब्राह्मणवादी एक-दूसरे के पोषक थे परंतु हमारे औपनिवेशिक शासकों की रूचि जमींदारी प्रथा के उन्मूलन में नहीं थी। बल्कि उन्होंने देश को लूटने की अपनी परियोजना के तहत जमींदारी प्रथा को और मजबूती दी। इसके विपरीत, अन्य देशों में औद्योगिकरण के साथ सामंती व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई।
ब्रिटिश काल में कई सामाजिक आंदोलनों ने गति पकड़ी। सन् 1920 के दशक में महाराष्ट्र के नागपुर क्षेत्र में समानता के आदर्शों से प्रेरित ‘गैर-ब्राह्मण आंदोलन’ ने जातिगत पदक्रम को कड़ी चुनौती दी। यह आंदोलन सामंती/ब्राह्मणवादी ताकतों के खिलाफ था। इसी दौरान, देश में स्वाधीनता संग्राम भी जारी था और सन् 1920 में शुरू हुए असहयोग आंदोलन से स्वाधीनता संग्राम में आम नागरिकों की भागीदारी प्रारंभ हुई। ये दोनों ही आंदोलन सामाजिक पदक्रम और जाति व्यवस्था को चुनौती देने वाले थे। समाज के श्रेष्ठि वर्ग ने इन दोनो आंदोलनों को अपने प्राधान्य के लिए खतरा माना। उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि हिन्दू धर्म खतरे में है। ब्राह्मणों और जमींदारों की प्रभुता के विरोधियों से मुकाबला करने के लिए हिन्दू समाज के श्रेष्ठि वर्ग ने सन् 1925 में आरएसएस की स्थापना की।
आरएसएस की विचारधारा, सावरकर की हिन्दुत्व की विचारधारा पर आधारित थी, जिसका लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र का निर्माण था। सावरकर ने आर्य समाज की जातिगत ऊँच-नीच की व्यवस्था को अंगीकार किया और उसे आगे बढ़ाया। ‘‘मनुस्मृति वह ग्रन्थ है, जो वेदों के बाद हमारे हिन्दू राष्ट्र¬के लिए सबसे अधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से हमारी संस्कृति, प्रथाओं, विचार व आचरण का आधार रहा है। सदियों से यह पुस्तक हमारे देश के आध्यात्मिक विकास की संहिता रही है…आज, मनुस्मृति ही हिन्दू विधि है।’’ [ii]
हिन्दुत्व और आंबेडकर
आंबेडकर की सोच आज के हिन्दुत्ववादी विचारकों से एकदम अलग थी। आंबेडकर, जाति के उन्मूलन के हामी थे जबकि हिन्दुत्ववादी, जाति व्यवस्था को एक नए स्वरूप (सामाजिक समरसता) में जिंदा रखना चाहते हैं। सामाजिक परिवर्तन का जो सिलसिला 19वीं सदी से शुरू हुआ था, वह स्वतंत्रता के बाद तेज़ी से आगे बढ़ा। औद्योगिकरण और शिक्षा के प्रसार का समाज पर गहरा और व्यापक प्रभाव हुआ। शनैः-शनैः दलित और ओबीसी सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करने लगे और उनका महत्व बढ़ता गया।
सन 1980 के आसपास से मध्यम वर्ग (ब्राह्मण, बनिया) और धनी कृषकों के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया पूरे देश में शुरू हुई। यह ध्रुवीकरण नीची जातियों के लिए आरक्षण के विरोध में था। इसके साथ ही शुरू हुई क्रूर जातिगत हिंसा। दलित-विरोधी दंगे खतरे की घंटी थे। आरक्षण-विरोधी आंदोलनों ने ऊँची जातियों व मध्यम वर्ग को सांप्रदायिक हिन्दुत्ववादी राजनीति से जोड़ा। इन हमलावर ऊँची जातियों का नेतृत्व संघ परिवार के हाथों में था।
सकारात्मक भेदभाव बनाम पहचान की राजनीति
समाज के दमित और शोषित वर्गों को अन्य वर्गों के समकक्ष लाने के लिए सरकार ने सकारात्मक भेदभाव की जो नीति अपनाई वह समृद्ध ऊँची जातियों को फूंटी आंखों भी नहीं सुहाई। आरक्षण-विरोधी आंदोलन इसी नीति की प्रतिक्रिया थे। गुजरात में शिक्षित मध्यम वर्ग, जिसमें मुख्यतः ब्राह्मण, बनिए और पाटीदार शामिल थे, ने आरक्षण के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। अहमदाबाद के बाहरी औद्योगिक इलाकों में सवर्णों और दलितों के बीच हिंसक टकराव, गुजरात के कई जिलों और शहरों में फैल गए और इन्होंने जातियों के बीच युद्ध का स्वरूप ग्रहण कर लिया। उत्तरी और मध्य गुजरात के कई गांवों में, जहां भूस्वामी पाटीदारों का प्रभुत्व था, दलित बस्तियों को जलाकर राख कर दिया गया।
सन 1985 में हुए दूसरे आरक्षण-विरोधी आंदोलन के साथ जातिगत तनाव एक बार फिर उभरा। सन 1990 में वीपी सिंह ने मंडल आयोग की रपट लागू करने की घोषणा की। इसके जवाब में आडवाणी ने रथयात्रा शुरू की। संघ परिवार का प्रयास यह था कि एक भावनात्मक मुद्दे को उछालकर सामाजिक न्याय की ताकतों की आवाज़ को दबा दिया जाए।
सोशल इंजीनियरिंग
हिन्दुत्व की राजनीति, जिसका मुख्य समन्वयकर्ता आरएसएस था, धीरे-धीरे राष्ट्रीय परिदृश्य पर छा गई। इसका मुख्य आधार समाज के वे वर्ग थे जो जातिगत समानता के संघर्षों के खिलाफ थे। ‘‘हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवादी आंदोलन हमेशा से अपने उच्च जाति और ब्राह्मणवादी चरित्र के लिए जाना जाता रहा है। हिन्दुत्व की विचारधारा समाज को मनुष्य के शरीर की तरह देखती है और विभिन्न जातियों को इस शरीर के अलग-अलग अंग मानती है।’’[iii] आरएसएस की रणनीति यह है कि पहचान से जुड़े मुद्दों को उठाकर, जाति से जुड़े मुद्दों पर से लोगों का ध्यान हटाया जाए। इसके लिए कई अलग-अलग तरीके अपनाए जा रहे हैं। राजनीतिक स्तर पर हिन्दुओं को एक करने का नारा देकर मूल सामाजिक मुद्दों पर से ध्यान हटाया जा रहा है। इसके साथ ही, आरएसएस उन हिन्दुओं को अपने साथ जोड़ रहा है जो उसकी विचारधारा में इसलिए यकीन रखते हैं क्योंकि या तो वे ऊँची जातियों के हैं या वे ऊँची जातियों की नकल करना चाहते हैं। नीची जातियों के लोगों को हिन्दुत्ववादी बनाने की इस प्रक्रिया को एमएन श्रीनिवास ‘संस्कृतिकरण’ कहते हैं। [iv]
भाजपा के नेतृत्व, जिसमें ऊँची जातियों का बोलबाला है, को जल्दी ही यह अहसास हो गया कि चुनावों में जीत हासिल करने के लिए उसे अपने सामाजिक आधार को बढ़ाना होगा। इसलिए, सन 1980 के दशक में संघ परिवार ने अपनी रणनीति में बदलाव किया और दलितों और ओबीसी पर हमले करने की बजाए सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर उन्हें अपने झंडे तले लाने के प्रयास शुरू कर दिए। उसके इन प्रयासों को सफलता मिली और बाबरी मस्जिद के ध्वंस, गुजरात कत्लेआम और कंधमाल हिंसा में दलितों और आदिवासियों ने संघ परिवार के प्यादों की भूमिका निभाई। संघ परिवार ने अपनी यात्राओं और अभियानों और धार्मिक प्रतीकों का उपयोग कर दलितों और ओबीसी को अपने साथ जोड़ना शुरू कर दिया। आडवाणी की यात्रा के दौरान दलितों और मुसलमानों के बीच कई स्थानों पर हिंसक टकराव हुए।
आदिवासी-दलित
यह प्रक्रिया देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग समय पर दोहराई गई। आरएसएस ने सफलतापूर्वक ‘हिन्दू आदिवासियों’ और ‘ईसाई आदिवासियों’ के बीच वैमनस्य के बीज बो दिए। सामाजिक सुधारों के अभाव और स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व के आधुनिक मूल्यों का आमजनों में प्रसार न होने के कारण, दलितों और ओबीसी ने हिन्दुत्व को अपनी पहचान के रूप में अपनाना शुरू कर दिया। मंडल आयोग की रपट लागू होने के बाद इस प्रक्रिया ने और तेज़ी पकड़ी। अटलबिहारी वाजपेयी ने मंडल आयोग पर संघ परिवार की प्रतिक्रिया का सटीक वर्णन करते हुए कहा कि हम मंडल (दलितों व ओबीसी की महत्वाकांक्षाओं का प्रतीक) के जवाब में कमंडल (धर्म आधारित मुद्दे) लाए हैं।
कुटिल रणनीतियां अपनाकर संघ परिवार दलितों के उस तबके को अपने साथ जोड़ने में सफल हो गया जो हिन्दू समुदाय में बेहतर स्थान प्राप्त करना चाहते थे। दलितों और ओबीसी की खिलाफत बंद कर संघ परिवार ने मुसलमानों और ईसाईसों को निशाने पर लेना शुरू कर दिया और दलित व आदिवासी उसके जाल में फंस गए। आनंद तेलतुमड़े लिखते हैं कि हिन्दुत्व की राजनीति ने दलित आंदोलन के अछूत प्रथा, गरीबी, असमानता व भेदभाव के खिलाफ संघर्ष जैसे केन्द्रीय मुद्दों को पीछे कर दिया। ‘‘इसके साथ ही, हिन्दुत्ववादी ताकतें, भारतीय संविधान में वर्णित अधिकारों और गरिमा की अवधारणा के स्थान पर ब्राह्मणवादी कर्तव्यों को रखना चाहता है। हिन्दुत्ववादियों को उन अमानवीय परिस्थितियों से कोई लेनादेना नहीं है, जिनमें दलित अपना जीवन बिताते हैं और ना ही उन्हें उस सामाजिक दमन से कोई सरोकार है जो उनकी ही देन है।’’ तेलतुमड़े आगे लिखते हैं कि ‘‘हिन्दुत्वादी अपने एजेंडे को लागू करने के लिए नीची जातियों के लोगों का इस्तेमाल सड़कों पर हिंसा करने के लिए कर रहे हैं। हिन्दू एकता के नाम पर दलितों और आदिवासियों को भरमाकर संघ अपने हितसाधन के लिए उनका प्रयोग कर रहा है।’’
जाति का उन्मूलन : भविष्य की चुनौतियां
आज जाति व्यवस्था के उन्मूलन की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है हिन्दुत्व की राजनीति, जो ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म पर आधारित है। यह ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म जातिगत ऊँच-नीच को औचित्यपूर्ण ठहराता है। दुर्भाग्यवश, पिछले लगभग तीन दशकों से ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म भारत के राजनीतिक विमर्श पर हावी हो गया है। एक तरह से जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष, हिन्दुत्व की राजनीति के खिलाफ संघर्ष ही है।
अगर हम जाति का उन्मूलन करना चाहते हैं तो हमें संघ परिवार के नेतृत्व वाली ब्राह्मणवाद-आधारित राजनीति के खिलाफ संघर्ष करना ही होगा। यहां राजनीति से आशय केवल चुनावी राजनीति से नहीं बल्कि राजनीति पर आधारित या राजनीतिक हितों की खातिर चलाए जाने वाले सामाजिक आंदोलनों से भी है। वैज्ञानिक और तार्किक सोच को कमज़ोर करना और अंधश्रद्धा और संकीर्ण धार्मिकता को बढ़ावा देना इस राजनीति के मुख्य उपकरण हैं।
जहां हमें इन सब के खिलाफ लड़ना है वहीं हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि दलितों के विरूद्ध अत्याचार करने वालों को उनके किए की सज़ा मिले। हमें सतही मुद्दों में फंसने की बजाए समाज के कमज़ोर वर्गों के अधिकारों और उनके लिए रोज़गार, शिक्षा, भोजन व स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए काम करना होगा। हमें धनिक वर्ग और गरीबों के बीच की खाई को पाटना होगा। इसके लिए उपयुक्त सामाजिक-आर्थिक नीतियां अपनानी होंगी। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि सभी लोगों को अपने जीवनसाथी का चुनाव करने की आज़ादी मिले क्योंकि अंतर्जातीय विवाह, जाति व्यवस्था के खात्मे में सहायक हो सकते हैं।
राजनीतिक परिवर्तन के लिए सामाजिक भूमि को तैयार करने का काम साहित्यिक और सांस्कृतिक आंदोलन कर सकते हैं। कई प्रतिबद्ध लेखक और विद्वान इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं। हमें उनके हाथ मज़बूत करने होंगे। सभी प्रगतिशील ताकतों को एक होकर उन लोगों से मुकाबला करना होगा जो हमें अंधकार के युग में वापस ढकेलना चाहते हैं।
[i] आंबेडकर, ‘एनिहिलेशन आफ कास्ट’, राईटिंग्स एंड स्पीचिज, महाराष्ट्र शासन, 1987, खंड 1 http://baraza.cdrs.columbia.edu/paul-divakar-mentors-the-annihilation-of-caste-reading-group-at-columbia/
[ii] वीडी सावरकर, ‘वीमन इन मनुस्मृति’, सावरकर समग्र, प्रभात, नई दिल्ली, 2002, पृष्ठ 416
[iii] क्रिस्टोफर ज़ेफरलाट, हिन्दू नेशनलिज़म, पेंग्विन, दिल्ली, 1993, अध्याय-1
[iv] श्रीनिवास, 1995:7, जे़फरलाट, द राईज़ आफ ओबीसीस इन नार्थ, ओयूपी, दिल्ली, 2010, पृष्ठ 479 में उद्धृत
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