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फूलन देवी : सामंती मर्दवाद को चुनौती देने वाली वीरांगना

इस लेख में फूलन देवी के संघर्षों की कहानी का समाजशास्त्रीय विश्लेषण कर रहे हैं विद्याभूषण रावत, साथ ही वे फूलन के परिवार की वर्तमान स्थिति बता रहे हैं। यह लेख भारतीय राजनीति के अवसरवाद और वंचितों के भीतर बैठे ब्राह्मणवाद की भी खोज ले रहा है। रावत बता रहे हैं कि वंचित खुद अपने नायकों के साथ न्याय नहीं कर पाते

फूलन देवी (10 अगस्त 1963 : 25 जुलाई 2001) की कहानी किसी तिलिस्म से कम नहीं, लेकिन भारत में क्रांति के बीज बोने वाले हर नायक-नायिका को ब्राह्मणवादी कुटिल षड्यंत्रकारी शक्तियों ने हमेशा से निशाना बनाकर क्रांति की लौ को ही समाप्त करने का प्रयास किया है। फूलन की कहानी हमारे राजनैतिक तंत्र में इस्तेमाल करने के बाद व्यक्ति को भुला देने की कहानी भी है। उसकी कहानी एक वीरांगना के वापस से ‘भारतीय नारीकरण’ के बाद तिरिष्कृत होने की कहानी भी है। मैं फूलन को जिस नजरिये से देखता हूँ, उसकी बात रखना चाहूंगा। मैंने उत्तर प्रदेश में मल्लाह, मछुआरा, निषाद आदि समुदायों के साथ नजदीक से काम किया है और उसके हालातों को भी मैं बयां कर सकता हूँ। एक बात यह भी कि जब यूट्यूब पर मैंने फूलन की छोटी बहिन रामकली से बात का विडियो (https://www.youtube.com/watch?v=3TDVBeoEGCM) जारी किया तो बहुत लोगों के जरिये समाजवादी पार्टी को भी सन्देश भिजवाया कि आज फूलन का परिवार फटेहाल जी रहा है और माँ बहिन मनरेगा में काम करने को मज़बूर हैं। उसकी माँ आज भी अपनी पुश्तैनी जमीन के लिए लड़ रही है। घर की हालात बहुत जीर्ण क्षीण है, जिसे फूलन ने बनवाने का वादा किया था, लेकिन वह कभी पूरा नहीं कर पायी।

फूलन की माँ से मिलते समय मेरी मन में मात्र एक प्रश्न था कि वक़्त कैसे करवट बदलता है और कैसे हमारे नेताओं की भाषा और चरित्र भी बदल जाते हैं, वह फूलन के परिवार के साथ के उनके व्यवहार से जाहिर हो जाता है। क्या विडम्बना है कि जो महिला दो बार सांसद रही हो और जिसका इस्तेमाल राजनीति में नेताओ और पार्टियों ने किया, जिस पर भ्रष्टाचार के आम आरोप भी सवर्णवादी मानसिकता ने लगाए हों, उसकी माँ गरीबी रेखा के कार्ड के लिए मोहताज़ हो, और घर बनवाने के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से विनती कर रही है। आज फूलन के गाँव में ही उनकी मूर्ति लगाने को लोग राजी नहीं है और बतौर उनकी माँ कोई उनका साथ नहीं देता। क्या एक ऐसी नेत्री, जिसे पूरे  देश का दलित पिछड़ा समुदाय क्रांति का प्रतीक मानता हो, अपने ही घर में अस्वीकार्य हो सकती है, लेकिन यह हकीकत है क्योंकि अभी भी हमारे अधिकांश समुदाय मनुवाद की गहरी गिरफ्त में हैं, जहाँ महिलाओं का पुरुष सत्ता को ललकारना असभ्य है, जिसकी परिणीति उसके सामाजिक बहिस्कार में ही होती है। फूलन क्योंकि ताकतवर थी और खुद को बचाने के लिए शायद समुदाय को उसकी जरुरत थी, लेकिन आज समुदाय पुनः अपनी परम्पराओं में जीने के लिए अभिशप्त है, और शायद उसी में अपने उत्तर ढूंढता है। यह नहीं है कि फूलन ने ब्राह्मणवाद के खिलाफ कोई बिगुल फूक दिया हो, लेकिन ये तो हकीकत है कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को उसने कभी स्वीकार नहीं किया।

फूलन की माँ और बहन के साथ लेखक

इसका मतलब यह है कि चाहे फूलन की जिंदगी को हम जातिवाद के विरुद्ध ललकार बताये परंतु आज भी उनके अपने घर में पैतृक सम्पति उनकी माँ के नाम या भाई के नाम नहीं हो पायी है और उनकी माँ और बहिन दर-दर भटक। बहिन रामकली और माँ दोनों अत्यंत दयनीय हालात में हैं। एक अन्य बहिन रुक्मणी राजनितिक पार्टी बनाकर अपनी बहिन के अधूरे कार्यो को पूरा करने की बात कहती हैं और उनकी हत्या की सीबीआई जांच की मांग करती हैं। माँ और बेटी की जद्दोजहद में माँ का मुद्दा केवल अपनी पुश्तैनी जमीन को बचाने का है। हकीकत यह है कि पुश्तैनी जमीन पर कब्ज़ा करने के लिए है उनके दाऊ और उनके बेटों ने फूलन की शादी करवा कर उनसे मुक्त होने का प्रयास किया। फूलन की कहानी उस औरत की कहानी है, जिसे बोलने की सजा मिली लेकिन जिसने अपने साथ अत्याचार का प्रतिकार किया।

बाजार और राजनीति से अलग फूलन का सच

फूलन देवी तो अपनी जिंदगी में ही लीजेंड बन चुकी थी, और इसलिए उनपर कहानियां लिखी गईं और फ़िल्में भी बनीं, लेकिन बाज़ारवाद किस तरीके से उनलोगों को भी वस्तु में बदल सकता है, जो समाज को एक सन्देश दे सकते हैं और जिनकी जिंदगी हज़ारो लोगो की जिंदगी में रौशनी ला सकते हैं। फूलन को सवर्णों ने डकैत कहा तो उनकी बिरादरी के लोगो के लिए वह क्रांतिकारी थी, जिसने सामंती अत्याचार के विरोध में हथियार उठाये और अपने साथ हुए अन्याय का बदला लिया। फूलन की कहानी से कई पहलुओं पर चर्चा हो सकती है। सर्वप्रथम यह कि वह घर में व्याप्त सामंती सोच और पुरुषवादी वर्चस्व का शिकार हुई। उनके पुश्तैनी जमीन पर उनके ताऊ ने कब्ज़ा जमाया। फूलन का पहला विवाह जबरन था, इसलिए उसे बेमेल कहना गलत नहीं होगा, लेकिन हर बार उसने विद्रोह किया। वह अपने पति का घर छोड़ कर आयी, लेकिन फिर परम्पराओं और मान्यताओं के चलते उन्हें दोबारा उसी नरक में खदेड़ दिया गया, जहाँ से वह निकलना चाहती थी।

जंजीर के पीछे फूलन देवी

फूलन अपने तरीके से जिंदगी जीने की आदि थी और उनपर किसी किस्म की रोक-टोक को उन्होंने बर्दाश्त नहीं किया। यह भी हकीकत है कि अलग-अलग जातियो की गिरोह बंदी में वह भी महिला हिंसा का शिकार हुई। उनका इस्तेमाल एक ट्रॉफी के तौर पर हुआ। हालाँकि उन्होंने बेहमई में 18 ठाकुरो की हत्या से साफ़ इनकार किया, लेकिन फिर भी कहानियों में बेहमई में उनका बदला ठाकुरो द्वारा उसके साथ हो रहे अत्याचार और अनाचार को न रोक पाने का विद्रोह था। फूलन के साथ जो हुआ वह, एक भयवाह दुःस्वप्न है, जिसके भय में कोई भी भारतीय महिला आज भी जीती है और जो सामंतवादी मर्दवादी व्यस्था का एक अभिन्न हिस्सा है। महिलाओं पर शारीरिक हिंसा उस जातिवादी सामंतवादी मानसिकता का प्रतीक है, जो महिलाओ की शुचिता को उनकी अस्मिता से जोड़ता है। एक बार महिला का नाम सेक्सुअल वायलेंस से या किसी के साथ जुड़ गया तो ये शुचिता भंग मानी जाती है और उसके बाद उस महिला की सामाजिक पहचान और अस्तित्व को जो चोट पहुँचती है, वह विक्टोरियन ज़माने के क़ानून ‘महिला की अस्मत लूटने या वायलेटिंग मॉडेस्टी ऑफ़ वुमन’ से साफ़ समझी जा सकती है, जहाँ रेप या सेक्सुअल वायलेंस से महिला की अस्मिता लूटने या ख़त्म होने के आरोपों वाले कानून बने।

फूलन की माँ और बहन के साथ लेखक फूलन के गाँव में

फूलन ने अपने ऊपर अत्याचार के कारण से रो-रो के लूट-पिट के मरने के बजाये लड़ना और प्रतिरोध करना अपने जीवन का उद्देश्य बनाया, जो आज की परिस्थितियों में महिलाओं में एटीएम सम्मान और स्वाभिमान जगाने के लिए आवश्यक है। जब तीन वर्ष पूर्व दिल्ली में एक ‘निर्भया’ को सवर्ण तबका अपनी क्रांति का प्रतीक बता कर ‘निर्भया एक्ट’ लाने की वकालत कर रहा था ताकि बलात्कारियो को फांसी हो, तब भी किसी एक ने फूलन के साथ हुए अत्याचारियों को फांसी पर लटकाने की बात नहीं कही।  इतनी ज्यादा फेमिनिज्म की बाते होती हैं, लेकिन अभी तक फूलन के ऊपर हुए अत्याचार के विषय में शायद न तो कोई ऍफ़आईआर है और न कोई स्त्री आंदोलन की कोई मांग। बेहमई को लेकर उन पर कहानिया हैं और पुलिस में ऍफ़आईआर है, लेकिन उनके साथ दुराचार और अनाचार पर कही कोई आंदोलन या मांग नहीं सुनाई देती। निर्भया को लेकर सुषमा स्वराज ने संसद में कहा के वे एक जिन्दा लाश बन चुकी हैं। हम सब जानते है कि निर्भया नहीं रही और शायद आजाद हो गयी क्योंकि उनका समाज उनको जिन्दा लाश ही बनाके रखता। फूलन की ज्वलंतता इस बात में है कि वे जिन्दा लाश नहीं बनी। ख़त्म नहीं हुई और न ही उन्होंने अपनी जिंदगी को ख़त्म समझ लिया और ये हिस्सा भारत की सभी महिलाओ के लिए एक बहुत बड़ा प्रतीक है। जो प्रतीक है इस बात का कि महिलाओं के साथ अत्याचार या दुराचार से उनकी अस्मत और अस्मिता ख़त्म नहीं होती। फूलन ने अपनी जिंदगी को ख़त्म नहीं मान लिया और शायद इसीलिए वो एक लीजेंड बन गईं।

पूर्व प्रधानमंत्री वीपीसिंह और केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान के साथ फूलन देवी

मर्दवाद को चुनौती देना आसान नहीं है, क्योंकि ये हर जगह है और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का सबसे मज़बूत हथियार है। इसलिए फूलन की लड़ाई कोई निषाद और ठाकुरों का संघर्ष नहीं था, अपितु हर कदम कर औरत को एक गुलाम बनाये रखने का प्रतीक के खिलाफ था, हालाँकि यह भी बताया जाता है कि श्री राम और लाला राम और उसके साथी ठाकुर गैंग ने फूलन को अपमानित करने में जाति का सहारा लिया होगा, लेकिन यह भी हकीकत थी के ये सभी साथी, जिसमें विक्रम मल्लाह भी शामिल है, बाबू गुज्जर गैंग के सदस्य थे। मैं गैंग में आपस प्रतिद्वंदिता और उन सवालो पर नहीं जाना चाहूंगा, जो साधारणतया आपराधिक प्रवृत्ति के थे और जहां जाति अपना सबसे बड़ी ढाल बन जाती है। मेरे लिए फूलन हर कदम पर अन्याय का मुकाबला करने वाली महिला थी, जो परिस्थितियों का शिकार बनी।

ह्त्या या किंवदंती?

फूलन के साथ बेहमई गाँव में अनाचार हुआ और उसका बदले में बेहमई में 14 फ़रवरी 1981 को 18 लोगों की हत्या कर दी गयी, क्योंकि उसमे अधिकांश राजपूत बिरादरी के थे। पुनः मैं यहाँ पर इस बात पर बहस नहीं करूँगा कि ये हत्याएं क्यों हुईं और कैसे हुईं। फूलन के चाहने वाले इसे उनके अपमान का बदला कहते हैं, जबकि गाँव के राजपूत इसे पूर्णतः आपराधिक कृत्य मानते हैं, हालाँकि कोई ये नहीं कहता कि जब उसके साथ अनाचार हुआ था तो गाँव का कोई भी व्यक्ति इसका विरोध क्यों नहीं किया? शायद गुंडों के विरोध की हिम्मत किसी में नहीं होती और दूसरी बात यह कि सभी लोगों को अपनी जाति के बदमाश क्रांतिकारी और दूसरों के गुंडे नज़र आते हैं। खैर, अगर अपराध और जाति का सम्बन्ध नहीं होता तो आज की राजनीति इतनी गैरराजनैतिक और असामाजिक नहीं होती।

बेहमई से कुछ तस्वीरें

बेहमई में फूलन को क्रूर बताने वालो की कमी नहीं। लेकिन जो बेहमई में सामाजिक जटिलता राजपूतो में है, उसे ख़त्म करने की जरुरत है। वह जटिलता डकैतों की क्रूरता से ज्यादा है। सामाजिक क्रूरताएं कभी-कभी अन्य किसी भी क्रूरता से ज्यादा भयावह होती हैं, क्योंकि उसे ज्यादा समय तक झेलना पड़ता है। फूलन या उसके साथियों की क्रूरता से बहुत मौतें हुईं, लेकिन सामाजिक रीति रिवाज और परम्पराओं के नाम पर जो क्रूरता राजपूतों ने अपनी औरतों के साथ की, वे असहनीय और निंदनीय है। यह जरुरी नहीं कि ये क्रूरताएं केवल राजपूत ही करते हों, क्योंकि समुदायों के ‘अंदर’ की बातें कभी कभी बाहर नहीं आतीं। 14 फ़रवरी 1981 को जो 18 लोग मारे गए, उसमें एक 10-12 साल का नौजवान भी था, जिसकी उम्र अधिकांश लोग 16 वर्ष बता रहे थे। इस युवक की शादी हो चुकी थी। यानि उसकी पत्नी अपने माँ बाप के पास थी क्योंकि विदाई नहीं हुई थी, शायद लड़की की उम्र 10-12 वर्ष की रही होगी।  युवक की खबर जैसे उसके ससुराल पहुंची तो उसके सभी परिजन दुखी हुए और आनन- फानन में लड़की के भाइयों ने अपनी बहन की विदाई कर दी। उन भाइयों को एक मिनट के लिए ख्याल नहीं आया के इतनी छोटी बहन को विधवा बनाकर वो कोई अपराध तो नहीं कर रहे। लड़की के माता पिता नहीं थे, इसलिए भाइयों ने अपने कर्तव्य की इतिश्री करने के लिए अपनी बहन को जबरन ससुराल भेज दिया। बहन को विधवा बनाकर विदाई करने में जो ठकरुआई भाइयो को नज़र आयी, या जिस किसी भीपरंपरा का सम्मान हुआ हो,  लेकिन इन्सानियत तो शर्मशार हो गयी। परम्पराओं की खातिर एक बहन को विधवा बनाकर गाँव में भेजा गया। वह रे तेरी ठकुराई। शर्म करो इस ठाकुरशाही पर।

सीमा विश्वास फूलन देवी की भूमिका में और खुद फूलन देवी

आज इतने वर्षो के बाद जब मैं मुन्नी से मिला तो उनका दर्द उनकी आँखों में था। फूलन की चर्चा होती है, विधवाओ की चर्चा होती है, लेकिन मुन्नी के साथ अन्याय की चर्चा नहीं होती। उसको तो समाज के तथाकथित मूल्यों के लिए जीना था, उसकी जिंदगी में जैसे प्यार के कोई मायने नही। राजपूती शान के लिए एक बहन को उसके जीवन के लिए बलिदान कर दिया गया। फूलन की पूरी कहानी में मुन्नी के दर्द की दास्ताँ मुझे पाखंड की सबसे बड़ी कहानी लगी। सामंतवादी ब्राह्मणवादी समाज में औरत की दशा ऐसे ही होनी है, चाहे राजपूत हो या कोई और।

राजपूती शान का आडंबर

आज बेहमई में जहाँ १८ लोग मारे गए वहा एक स्मारक है, और उसके ऊपर के तस्वीर है। वह तस्वीर है शेर सिंह राणा की, जिसने तथाकथित राजपूत सम्मान के लिए फूलन का मर्डर कर दिया। शर्मनाक बात यह है कि बेहमई के लोग चाहे जाने या न जाने उन्होंने शमशेर की फोटो शहीद के तौर पे लगा ली। यानि राजपूती सम्मान किसी मर्डर से तो बढ़ता है, लेकिन अपनी महिला को इज्जत की जिंदगी से नहीं बढ़ता। राजपूतों की महिलायें परदे में रहे और सर झुका के रहें, यही क्या राजपूती सम्मान है? शमसेर राणा राजपूतो का हीरो कैसे हो सकता है, लेकिन आज है।

फूलन अन्याय के खिलाफ लड़ी, लेकिन मुन्नी राजपूती शान पर कुर्बान कर दी गयी। जब आपको विद्रोह करना पड़ेगा तो इन परम्पराओ से अपने को दूर करना पड़ेगा। बेहमई की एक राजपूत महिला ने मुझे बताया कि जमाना बदल रहा है और अब वो पुराणी मनुवादी मापदंड नहीं चलेंगे। आज नए लोग सेना और अर्धसैनिक बलो में जा रहे हैं। अब लडकिया पढ़ रही हैं। बेहमई में इतने वर्षो में कोई नहीं आया, लेकिन आज गाँव की स्थिति सुधरी है। वहां की सड़कों की स्थिति बदली है।

कालपी में, फूलन के गाँव में, अब लोग फूलन का नाम नहीं लेते और उसकी बहन उसकी मौत की सीबीआई जांच की बात करती है। भ्रष्टाचार और जातिवाद के विरुद्ध जंग जारी है, लेकिन क्या देश का दलित पिछड़ा समाज इस बहस का हिस्सा बनेगा? क्या फूलन का संघर्ष हमारे देश के महिलाओ के संघर्ष की दास्तान बनेगा? क्या हम जातिवादी मनुवादी पितृसत्ता की कमर तोड़ने के लिए काम नहीं करेंगे।

फूलन आज नहीं हैं, लेकिन उनका संघर्ष हमें प्रेरणा देता रहेगा। आज मनुवाद हम पर हावी है। बाबा, ब्राह्मण, आज हमें दिग्भ्रमित करने के लिए तैयार हैं। उत्तर प्रदेश के चुनाव सबकी परीक्षा हैं। संघर्ष से नए नेतृत्व का निर्माण होता है। हम उम्मीद करते हैं कि फूलन के जीवन संघर्ष से लाखों महिलाओं को समाज में आत्म-सम्मान से जीने की ताकत मिलेगी।


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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