मै आरक्षण हूँ। वही आरक्षण, जिसे खत्म करने के लिए आज अगड़ी जातियों ने तांडव मचाया हुआ है। इसलिए आज मैं बहुत दुखी हूं। मै तिलमिला रहा हूँ। मै आज जोर-जोर से रो रहा हूँ। लेकिन रोने की मेरी आवाज कोई नही सुन रहा है।
मेरे इतने बुरे हालात होंगे। ये मुझे मालूम क्या अहसास भी नहीं था। कोई मुझे बचाने भी नहीं आएगा ये भी मैने कभी सोचा नही था। आज मेरे शरीर पर चारो तरफ से हमले हैं- शब्द वाण, व्यंग्य वाण, योजनायें, दुरभिसंधियां !
मेरी छाँव में रहकर कमजोर से कमजोर लोगों ने उन ऊंचाइयों को छुआ, जिसकी वो कल्पना भी नही कर सकते थे। लेकिन आज वे ही मेरे लिए लड़ने के बजाय मुझ पर और मेरे जन्मदाताओं पर बड़े-बड़े इल्जाम लगा रहे हैं। मुझ पर मेरे अपने ही हमलावर हो रहे हैं।
मुझ पर सबसे बड़ा इल्जाम ये है कि मैंने जातियो में आपस की खाई को बहुत ज्यादा बढ़ा दिया है। जबकी सच्चाई इसके एकदम विपरीत है। मै ही हूँ जिसके कारण दलित, पिछड़े, महिलाओं, कमजोरों को शिक्षा, रोजगार, राजनीति में हिस्सेदारी मिली। उनको आगे बढ़ने का मौका मिला। सामाजिक, राजनितिक, आर्थिक कुछ हद तक समानता मिली। जिनको इंसान का दर्जा भी नही दिया जाता था। उनको मुख्य धारा में लाने का काम बहुत हद तक मैंने ही किया है। कमजोर तबकों के हजारो सालो से पाँव में पड़ी गुलामी की बेड़ियां तोड़ने में मेरा बहुत बड़ा योगदान है।
मुझ पर दूसरा आरोप है कि मेरे कारण अयोग्य व्यक्ति आगे बढ़ रहे हैं। यह आरोप भी सरासर बेबुनियाद है। अयोग्य व्यक्ति तो उस समय बढ़ते थे और आज भी बढ़ रहे हैं, कुछ खास जात, धर्म या रुपये वालों का कब्जा संसाधनों पर होता है। एक सामाजिक, राजनितिक, आर्थिक सम्पन परिवार अपने बच्चे का नाम अच्छे स्कूल में लिखवाते हैं, फिर भी वो बच्चा नही पढ़ता, उसके बाद उसके अभिभावक उच्च शिक्षा में उसका एडमिशन डोनेशन दे कर करवाते हैं और फिर डोनेशन से ही नौकरी हासिल कर लेते हैं।
लेकिन एक बच्चा, जिसके माँ-बाप मजदूर हैं, सामाजिक असमानता झेली है, जिसने जातीय उत्पीड़न झेला है, पिछड़े स्कूल में पढ़ा है, पढ़ाई के साथ-साथ मजदूरी की है, उच्च शिक्षा में दाखिले के लिए कुछ कम नम्बर आये हैं, इसलिए आरक्षण के सहारे एडमिशन ले लेता है। उसके बारे में आर्थिक संपन्न लोग कहते हैं कि मेरिट खराब हो गयी, अयोग्य आ गए।
आज मै आपको मेरी जन्म से लेकर अब तक का दास्तान सुनाता हूँ। जब मेरा जन्म हुआ था तो मानव जाति में जो सबसे कमजोर तबका था उसको बहुत ख़ुशी हुई थी। मेरा तो जन्म ही उस कमजोर मानव के लिए हुआ था।
कमजोर मतलब सामाजिक, राजनितिक तौर पर कमजोर और जो सामाजिक, राजनितिक तौर पर कमजोर होता है, वह बहुसंख्य आर्थिक तौर पर भी कमजोर होता है।
मुझे केंद्र में लाने का बहुत छोटा पर बहुत ही मजबूत प्रयास करने का साहस एक महान योद्धा ने किया। महाराष्ट्र के कोल्हापुर के महाराजा साहूजी महाराज, जिन्होंने महान शिक्षाविदव् दलितों, पिछड़ो, कमजोरों और महिलाओं में शिक्षा की अलख जगाने वाले जोतिबा फुले और सावित्र बाई फुले से प्रभावित होकर, अपनी रियासत में पिछड़ों के लिए शिक्षा, रोजगार और राजनीति में आरक्षण का प्रावधान किया। कोल्हापुर राज्य में पिछड़े वर्गों/समुदायों को नौकरियों में आरक्षण देने के लिए 1902 में अधिसूचना जारी की गयी थी। यह अधिसूचना भारत में दलित वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश है।
विंध्य के दक्षिण में प्रेसिडेंसी क्षेत्रों और रियासतों के एक बड़े क्षेत्र में पिछड़े वर्गों के लिए आजादी से बहुत पहले आरक्षण की शुरुआत की गयी।
1902 के मध्य में साहू महाराज इंग्लैण्ड गए हुए थे। उन्होंने वहीं से एक आदेश जारी कर कोल्हापुर के अंतर्गत शासन-प्रशासन के 50 प्रतिशत पद पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित कर दिये। महाराज के इस आदेश से कोल्हापुर के ब्राह्मणों पर जैसे गाज गिर गयी। उल्लेखनीय है कि सन 1894 में, जब साहू महाराज ने राज्य की बागडोर सम्भाली थी, उस समय कोल्हापुर के सामान्य प्रशासन में कुल 71 पदों में से 60 पर ब्राह्मण अधिकारी नियुक्त थे। इसी प्रकार लिपिकीय पद के 500 पदों में से मात्र 10 पर गैर-ब्राह्मण थे। साहू महाराज द्वारा पिछड़ी जातियों को अवसर उपलब्ध कराने के कारण सन 1912 में 95 पदों में से ब्राह्मण अधिकारियों की संख्या अब 35 रह गई थी।
छत्रपति साहू महाराज ने पिछड़ी जातियों समेत समाज के सभी वर्गों मराठा, महार, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, ईसाई, मुस्लिम और जैन सभी के लिए अलग-अलग सरकारी संस्थाएँ खोलने की पहल की। साहू महाराज ने उनके लिए स्कूल और छात्रावास खोलने के आदेश जारी किये। जातियों के आधार पर स्कूल और छात्रावास असहज लग सकते हैं, किंतु नि:संदेह यह अनूठी पहल थी उन जातियों को शिक्षित करने के लिए, जो सदियों से उपेक्षित थीं। उन्होंने दलित-पिछड़ी जातियों के बच्चों की शिक्षा के लिए ख़ास प्रयास किये थे। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई। साहू महाराज के प्रयासों का परिणाम उनके शासन में ही दिखने लग गया था। स्कूल और कॉलेजों में पढ़ने वाले पिछड़ी जातियों के लड़के-लड़कियों की संख्या में उल्लेखनीय प्रगति हुई थी।
अंगडाई
जन्म के बाद मेरा चरणबद्ध विकास शुरू हुआ. 1908 में अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी जातियों और समुदायों के पक्ष में, प्रशासन में जिनका थोड़ा-बहुत हिस्सा था, के लिए आरक्षण शुरू किया गया। 1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए आठ प्रतिशत आरक्षण दिया गया था। 1935 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया, जो पूना समझौता कहलाता है, जिसमें दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए। 15 अगस्त 1947 को आजादी के बाद डॉ भीम राव आंबेडकर के प्रयासों से दलितों के लिए सविधान में आरक्षण की व्यवस्था की जाती है। लेकिन बहुत प्रयासों के बाद भी डॉ साहब पिछड़ो को आरक्षण में शामिल नही कर सके। पिछड़ो के लिए आरक्षण 1990 में मण्डल आयोग के निर्देश पर वी पी सिंह ने लागू किया। मण्डल आयोग ने पिछड़ो की परिभाषा साफ-साफ इंगित की- जो जाति सामाजिक आधार पर और शैक्षणिक आधार पर पिछड़ी हुई हो, वह जाति पिछड़ी मानी जायेगी। प्रत्येक जाति की राज्य अनुसार अलग स्थिति हो सकती है।
लेकिन कमजोरो को मिले आरक्षण के खिलाफ अगड़ों ने बहुत बड़े-बड़े हिंसक प्रदर्शन किए। व्यापक पैमाने पर खिलाफ में प्रचार किया। मैने दलितों-वंचितों में एक मानवीय चेतना का संचार किया है जो उनमें आत्मसम्मान की भावना को बढ़ाता है। मेरे कारण सामाजिक, शैक्षणिक असमानता की दीवार कमजोर हुई है। लेकिन दलितों-पिछड़ों को अगड़ों के बराबर खड़ा करने में मैं अभी भी नाकाम रहाहूँ। उल्टा यह भी सच है कि मेरा फायदा उठाकर दलितों में भी एक सवर्ण तबका पैदा हो गया है, जो आज मुझे गालियाँ देता है।
संकट के बादल
पिछले कुछ समय से सवर्ण मुझे मारने के लिए नया फार्मूला लेकर आये है। अब अगड़ी जातियां ही आरक्षण की मांग करने लग गयी है। उनकी एक ही मांग है या तो हमे भी दो या किसी को भी न दो। हरियाणा में जाट और गुजरात में पटेल महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन इसी के उदाहरण हैं, उसमें वे कामयाब भी होते जा रहे हैं।
दूसरी तरफ राज्य सरकारें मेरे खात्मे के लिए लगी हुई है। गुजरात के बाद अब हरियाणा सरकार ने भी फैसला लिया है कि जो भी आरक्षित कोटे से फॉर्म अप्लाई करेगा वह जनरल में प्रतियोगिता नही कर सकता। मेरी मूल भावना के खिलाफ यह षड़यंत्र है। मैं शुरू से स्पष्ट था: “जो निर्दिष्ट समुदाय के तहत नहीं आते हैं, वे केवल शेष पदों के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं, जबकि निर्दिष्ट समुदाय के सदस्य सभी संबंधित पदों (आरक्षित और सार्वजनिक) के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं।“ लेकिन सरकारों द्वारा मेरे आधार को ही खत्म किया जा रहा है।
आज मुझे खत्म करने या आर्थिक आधार पर करने की बहस करने के बजाए बहस इस बात पर केंद्रित होनी चाहिए कि मैं अब तक अपने उद्देश्य में कामयाब क्यों नहीं हो पाया। मुझे लागू करने में सरकारों की विफलता कहाँ रही?
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