फुले दंपति के पहले छत्रपति शिवाजी ने काफी हद तक पिछड़ा वर्ग को राजनीतिक केंद्र में ला दिया था- उनकी फौज में बहुजनों के साथ मुस्लिम लोग भी शामिल थे। किंतु मृत्यु के बाद मराठा शक्ति पेशवाओं के हाथ की कठपुतली बन कर रह गई। पिछड़े वर्ग का बढ़ता कारवां फिर रूक गया। इस प्रकार मेहनतकशों द्वारा अर्जित परिसंपत्तियां फिर ब्राह्मणवाद के काम आने लगीं। इतिहास में इसके पूर्व भी इस तरह की घटना उस समय घटित हुई थी जब मौर्य वंश के शासक बृहदथ की हत्या करके उनका सेनापति पुष्यमित्र शुंग शासक बन गया, जिसने बड़े पैमाने पर बौद्धों और बहुजनों का वध कराया साथ ही ब्राह्मण धर्म की मजबूत आधारशिला भी रखी। हालांकि छत्रपति शिवाजी के इतिहास और कार्यों पर तमाम लीपापोती के बाद भी उनका जनवादी योगदान पीढ़ी दर पीढ़ी गति करता रहा।

ओबीसी साहित्य को सही रूप से देखने के लिए शिवाजी पर थोड़े विस्तार से देखने की जरूरत है। इस दिशा में मराठी लेखक गोविंद पनसारे की पुस्तक ‘शिवाजी कोण होते’ से बहुत ही सार गर्भित जानकारी प्राप्त की जा सकती है। आज बेवजह और निराधार तर्कों के आधार पर शिवाजी को हिंदुत्व के एजेंडे में शामिल किए जाने की कोशिश हो रही है।
शिवाजी भले बड़े विजेता थे पर उनके प्रशासनिक तंत्र का चेहरा मानवीय था और उनका न्याय पारदर्शी और धर्मनिरपेक्ष था। जिसकी झलक उनके प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति में देखी जा सकती है। वे सैनिक और प्रशासनिक पदों पर भर्ती में धर्म को कोई महत्व नहीं देते थे। उनकी सेना के एक तिहाई सैनिक मुसलमान थे। जल सेना का प्रमुख सिद्दी संबल एक मुसलमान था।
इतिहास दिलचस्प तथ्यों से मिलकर बना होता है। यह कितना दिलचस्प है कि शिवाजी की सेना से भिड़ने वाली औरंगजेब की सेना का नेतृत्व राजपूत मिर्जा राजा जयसिंह के हाथ में था। यह भी रोचक है कि जब शिवाजी आगरा के किले में नजरबंद थे तब कैद से निकल भागने में जिन दो व्यक्तियों ने उनकी मदद की थी, उनमें से एक मुसलमान था, जिसका नाम मदारी मेहतर था। उनके गुप्तचर मामलों के सचिव मौलाना हैदर अली थे और उनके तोपखाने की कमान इब्राहिम गर्दी के हाथ में थी। उनके व्यक्तिगत अंगरक्षक का नाम रूस्तम-ए-जामां था।

शिवाजी सभी धर्मों का सम्मान करते थे। वह शिवाजी ही थे, जिन्होंने हजरत बाबा याकूत थोरवाले को जीवन पर्यन्त पेंशन दिए जाने का आदेश दिया था। उन्होंने फादर अंब्रोज की उस वक्त मदद की जब गुजरात में स्थित उनके चर्च पर आक्रमण किया गया था। अपनी राजधानी रायगढ़ में अपने महल के ठीक सामने शिवाजी ने एक मस्जिद का निर्माण करवाया था ताकि उनके अमले के मुस्लिम सदस्य सहूलियत से नमाज अदा कर सकें। हिंदू नौकरों के लिए जगदीश्वर मंदिर बनवाया था। शिवाजी जीवनकर्म में जनवादी थे।
जनवादी रूझान रूप बदलकर या सुषुप्त होकर भी अस्तित्ववान रहते हैं और अनुकूल परिस्थियों में फिर से खड़ा हो जाते हैं। ओबीसी साहित्य और इतिहास के लिए आवश्यक है कि फूले दंपत्ति के साथ शिवाजी के कार्यों का भी मूल्याकंन किया जाए। हालांकि शिवाजी और फुले दंपत्ति के बीच के अनंत:सूत्र बिखरे से हैं। उन्हें अभी तक सहेजा नहीं जा सका है। फिलहाल इस आलेख में सावित्रीबाई फुले के साहित्यिक योगदान का ही संक्षिप्त जायजा लिया गया है। जिसके अंतर्गत पाया गया है कि सावित्रीबाई फुले के मन में शिवाजी के प्रति गहन आस्था थी। वे अपनी कविताओं में शिवाजी को याद करती हैं –
आओ सूरज की पहली किरण में
याद करें शूद्रों-अस्पृष्यों के मसीहा
छत्रपति शिवाजी को,
वह मसीहा हैं- उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।

सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को पुना के पास नायगांव के एक साधारण पिछडी जाति परिवार में हुआ था। गौरतलब है कि इससे लगभग दो सौ साल पहले इसी गांव के आसपास जुन्नर के शिवनेरी किला में शिवाजी का भी जन्म हुआ था। शिवाजी की गाथाएं जनगीत की तरह जब आज भी गांवों में गाए जाते हैं तो उस समय भी निश्चित रूप से ये गाए जाते रहे होंगे। बहरहाल बालिका सावित्रीबाई के समय माहौल शिवाजी के समय का नही था। उस समय पुना और उसके आसपास के गांवों में ब्रह्माणवादी शोषण चरम पर था। हालांकि पेशवा शासन भी अस्ताचल की ओर था। फिर भी धर्म और आस्था के नाम पर देश के बड़े तबके को हर तरह से दबाया जा रहा था। सावित्रीबाई इन चीजों को देख रही थीं। भूगत रही थीं। बचपन गरीबी में बीता। तालीम की व्यवस्था नहीं थी। शिक्षा या किताब के नाम सबसे पहले ईसाई धर्म की प्रार्थना वाली एक किताब हांथ लगी तो उसे सहेज कर रख लिया। विवाह के बाद वह पुस्तक ससुराल भी साथ आई।
नौ साल की अवस्था में जोतिराव से विवाह हुआ। जोतिराव ने उन्हें शिक्षित करना प्रारंभ किया। सुश्री फरार संस्थान (Ms Farar’s Institution) अहमदनगर से स्कूली पढ़ाई पूरी करके सन 1848 में सुश्री माइकल नारमन स्कूल से शिक्षाशास्त्र में डिप्लोमा करने के बाद पति जोतिराव द्वारा भिडवाडा, पुने में स्थापित पहले कन्या पाठशाला में सन 1848 से पढ़ाना शुरू की, तो मृत्यु पर्यंत यानी 1897 तक इस स्कूल में अध्यापन करती रहीं।
महाराष्ट्र में बहुजन समाज के विकास के लिए जोतिराव के साथ सावित्रीबाई आजीवन प्रयास करती रहीं। विधवा विवाह,शिक्षा, एवं सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करते समय इस दंपत्ति को अपमान और संघर्ष दोनों का सामना करना पड़ा। कन्या पाठशाला खोलने और विधवा विवाह को स्वीकार करते हुए उसे प्रोत्साहित करने के कारण जोतिराव और सावित्रीबाई की सीधी टकराहट हिंदू धर्म के ठेकेदारों से होने लगी। बदला लेने के लिए इन दोनों पर हमले तक किए गए। पग–पग पर जातिवाद का दंश झेलना पड़ा। दोनों ने पक्का इरादा कर लिया कि जातिवाद, धर्मवाद और ऊंच-नीच जैसे सामाजिक रूग्णता को मिटाए बिना देश का विकास नहीं हो सकता। इसलिए इस दंपत्ति ने पूरा जीवन इन सामाजिक रोगों को दूर करने में समर्पित कर दिया। किंतु जैसा कि स्पष्ट है कि बिना साहित्य और संवाद के समाज को जागरूक नहीं किया जा सकता। उसकी बौद्धिक जरूरतों को पूरा नहीं किया जा सकता। इसलिए दोनो ने प्रचुर मात्रा में शोधपूर्ण आलेख और रचनात्मक साहित्य लेखन किया। इससे पिछड़े व दलित साहित्य को मजबूत आधार प्राप्त हुआ और आगे चलकर इन साहित्यिक दस्तावेजों ने बाबा साहेब अंबेडकर को मार्गदर्शन और सहयोग प्रदान किया।
माना जाता है कि सांस्कृतिक बदलाव ही आगे चलकर सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन को जन्म देते हैं। ब्राह्मणवाद की जकड़बंदी से शिक्षा द्वारा ही मुक्ति मिल सकती है। इसलिए सावित्रीबाई ने शिक्षा को सांस्कृतिक उपकरण की तरह इस्तेमाल किया। जागरण गीतों की सर्जना इसी दिशा में बढ़ाए गए कदम की तरह हैं। निश्चित रूप से बहुजन समाज और साहित्य के विकास में जोतिराव दंपत्ति का योगदान अप्रतिम है। अन्य विमर्शों की तरह जब पिछड़ा वर्ग साहित्य से रैडिकल स्त्रीवादी लेखन की तलाश की जाएगी तो बिना सावित्रीबाई के लेखन से गुजरे आगे नहीं बढ़ा जा सकेगा।
सावित्रीबाई शिक्षण के साथ लेखन (काव्य लेखन) भी करती थीं। कविताओं का संकलन काव्यकफुले 1854 में प्रकाशित हुआ। गौर करने वाली बात है कि अभी तक जोतिराव की कोई रचना प्रकाशित नहीं हुई थी। फिर भी सावित्रीबाई की कविताओं पर चर्चा का ना हो पाना उनके प्रति हमारी आस्था पर कहीं ना कहीं सवाल तो उठाता ही है। वे जोतिराव की परछाईं की ही तरह जानी जाती रहीं। उन पर पहला उल्लेखनीय समीक्षात्मक कार्य के.पी. देशपांडे द्वारा पुस्तक अग्निफुले में किया गया। अपनी कविताओं में वे गर्विली प्रेमिका-पत्नी, सौभाग्यवती माता, शिक्षिका और समाजिक चिंतक के रूप में दिखाई पड़ती हैं।

सावित्रीबाई महाराष्ट्र की ही नहीं पूरे भारत में आधुनिक मूल्यों, मनुष्यता, एकता, बंधुता, राष्ट्रीयता, एवं वैज्ञानिक चेतना उजागर करने वाली पहली कवयित्री हैं। दरअसल यही वे मूल्य हैं जिस पर आगे चलकर डॉ भीमराव आंबेडकर दलितों की लड़ाई लड़ते हैं और सामाजिक समरसता स्थापित करने कोशिश करते हैं। इस अर्थ में सावित्रीबाई की कविताएं बहुजन लड़ाई और साहित्य के मूलबिंदु की तरह हैं।
सावित्रीबाई की कविताएं शिक्षा, परिवार, प्रेम और श्रम के प्रति आस्थावान हैं। एक जगह वह कहती हैं –
शब्द, माटी की महिमा का बखान नहीं कर सकते,
धरती का गहन अनुराग उनसे है,
जो उसे अपने से पसीने उसे सीचते हैं।
देखा जाए तो सावित्रीबाई का सीधा मानना है कि धरती उसकी है, जो उसमें रमता है, मेहनत करता है। अर्थात जमीन जोतने वालों की है। गौरतलब है कि जमीन पर मेहनत करने वाला या तो किसान है या मजदूर और ये दोनों पिछड़े और शूद्र जातियों से आते हैं। अर्थात सावित्रीबाई मुखर होकर कहती हैं कि जमीन बहुजनों (दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों) की है।
भारत के इतिहास में भले ही 19 वीं सदी राष्ट्रीय घटनाओं की सदी मानी जाती हो मगर सवर्ण परिवार की महिलाएं उस समय भी अपने कंफर्ट जोन से बाहर आती नहीं देखी जातीं। वे पति और परिवार की आड़ में अपना व्यक्तिगत सुख तलाश कर खुश हो जाती हैं। या फिर अपनी इच्छाओं को दबा लेती हैं। सावित्रीबाई अपने समय से बहुत आगे की समाज चेता हैं। वह श्रमण संस्कृति वाले तबके से आती हैं, जहां औरत पुरूष के साथ सहभागी नहीं बल्कि समभागी है। इसीलिए बड़ी बेबाकी से वह यौनेच्छा पर लिख जाती हैं –
वह और उसका सौरभ कितना मादक है
क्या उसके लिए वह ह्रदयार्पित कर सकेगी?
वह बढ़ता है
उसके पोर – पोर में उमंग भर देता है।
बार-बार भोग कर भाग जाता है
उसे शर्म नहीं आती
अक्सर पूछता है – वह कौन थी?
श्रमण समाज की स्त्री शोषित नहीं होना चाहती। परस्पर प्रेम में भी उसे बराबरी का दर्जा चाहिए। वह पुरूष आकांक्षा के साथ-साथ अपनी इच्छा की भी सम्मान करना जानती है। इसीलिए कामातुर लोलुप भौरे रूपी पुरुष से दूर रहने की सलाह भी देती हैं। सवाल उठता है कि वह कामातुर लिप्सायुक्त पुरूष आखिर किस समाज का है?
ओबीसी समाज का बहुत बड़ा हिस्सा खेती– किसानी का काम करता है। सावित्रीबाई फुले की कविताओं में किसानी जीवन का संघर्ष और सौंदर्य दोनों अभिव्यक्त हुआ है। एक कविता में वह कहती हैं-
खेती किसानी-पवित्र कर्म हैं
यह पका अनाज देता है
अनाजों में शक्ति होती है
जो शरीर में प्रवाहित होकर
कर्म शक्ति में बदलता है।

किसान कन्याओं के लिए बरसात किसी उत्सव से कम नहीं है। भारत के सभी प्रांतों के किसान पहली बारिश का स्वागत अपने-अपने तरीके से करते हैं, जिससे वहां की ग्रामिण संस्कृति को पनपने का अवसर प्राप्त होता है। सावित्रीबाई द्वारा बारिश का किया गया स्वागत बहुत ही वैभवपूर्ण है। प्रस्तुत है एक बानगी –
बरसात ने खेतों को भीगो नहवा दिया है
नहाने से प्रकृति खिल उठी है
धरती फल-फूल से लद सी गई है
बारिश से भीगी धरती
यौवन के पूरे सवाब पर है
वह फूलों के बेलबूटे वाली हरी साड़ी पहने हुए है
कोयल उसके के लिए गीत गा रही है।
कविता की अगली कुछ पंक्तियां हैं –
मानव अस्तित्व को
सुंदरतम रूप से फलने-फूलने दें
खुद जीए, दूसरों को जीने दें
मानव और प्रकृति– सिक्के के दो पहलू
आओ इन्हें बचाने के लिए हाथ मिलाएं।
धरती से जुड़ा ओबीसी साहित्य धरती गीत के बिना अधूरा है। सावित्रीबाई नायगांव की एक किसान कन्या थीं। उन्होंने धरती की ऊर्वरता को गांव की खुशी में तब्दील होते देखा था। कविता धरती गान में वह कहती हैं –
सतरंगी धरती, विविध रंगी धरती
काली माटी में अन्नों को सेती धरती –
फल-फूल देने वाली लदी-फदी धरती
खाने को भोजन देने वाली धरती।
सफेद माटी वाली धरती
घर बनाने के लिए
ईंट, गारा और खपड़ा देने वाली धरती।
धरती की महिमा शब्दों से परे है
यह परिश्रमियों की साथी है।
सावित्री की कविताओं में रूग्ण परंपराओं की भर्त्सना है। उनसे मुक्त होने का आवाह्न है –
रोगी परंपराओं का जुआ फेको
अंधकार रूपी परंपराओं की
ड्योढ़ी से पैर निकालो
पढ़ना-लिखना सीखो
अक्षर बांचना सीखो
तब देखोगे कि
सुखमय समय आ गया है।
अपनी कविताओं में सावित्रीबाई राजा बलि को याद करती हैं। कई कविताओं में शिव (महादेवजी) की अभ्यर्थना करती हैं। सर्वविदित है कि यह महादेव ही हैं, जो आदिवासियों के यहां बड़ा देव के नाम जाने जाते हैं। आदिवासियों के यहां बड़ा देव महापूर्वज के रूप में सम्मान पाते हैं, जो हड़िया पीते हैं। नशा करते हैं। बैल को साथ लिए चलते हैं। असूरों के गुरु शुक्राचार्य को सम्मान के साथ याद करती हैं। राजा बलि और शुक्राचार्य को याद करते वह घोषणा करती हैं –
वे हमारे पुरखे थे
शुक्राचार्य उनके मार्गदर्शक और गुरु थे
हम उनके वंशज हैं
आओ पूरे मन से उनका वंदन करें
हे पवित्र पुण्यात्मा, राजा बलि
लोग रोज तुम्हारा यश गान करते हैं।
सावित्रीबाई की कविताओं को देखते हुए ओबीसी साहित्य की जमीन बहुत ही पुख्ता नजर आने लगती है। पिछड़े समाज का सारा दुख-दर्द और संघर्ष उनकी कविताओं का मूल स्वर है। हमारे लिए वे उतना ही अराध्य हैं जितना की स्वयं जोतिबा फुले। ओबीसी साहित्य वैचारिक दृष्टि से दलित साहित्य या पासमांदा साहित्य से अलग नही है। इन सभी विमर्शों के बीज सावित्रीबाई की कविताओं में व्याप्त हैं। सही अर्थ में वह आधुनिक भारतीय साहित्य की प्रथम विद्रोही कवियत्री हैं। यह जिम्मेदारी बहुजन साहित्यकारों की है कि वह अपने इस पूर्वज कब और कैसे याद करते हैं। अभी तक सावित्रीबाई का लेखनकार्य प्रामाणिक रूप से हिंदी पाठक के सामने नहीं आ पाया है। ओबीसी साहित्य को आधार प्रदान करने के लिए अनुवाद कार्य काफी महत्वपूर्ण हो सकते हैं। इससे भारतीय ओबीसी साहित्य का स्वरूप मुखरित हो पाने में मदद मिलेगी।
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