पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक समृद्ध जनपद सहारनपुर को लगता है राजनीतिक रोटियाँ सेकने वालों ने घेर लिया है। मुज़फ़्फरनगर, हरिद्वार, देहरादून, यमुना नगर, शामली से घिरा हुआ जनपद सहारनपुर उत्तर प्रदेश को उत्तराखंड और हरियाणा से जोड़ने का काम भी करता है। हालाँकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सभी जनपद सांप्रदायिक दंगों के चलते संवेदनशील माने जाते हैं लेकिन सहारनपुर अपनी लाख ख़ामियों के बावजूद अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण और व्यापारिक दृष्टिकोण से बेहतर जिला रहा है। सौहार्द की ऐसी मिसाल की बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद भी यहाँ दंगे नहीं हुए। लेकिन पिछले तीन वर्षो में सांप्रदायिक और जातीय राजनीति ने सहारनपुर को निशाना बनाया है जिसके नतीजे भयावह है और प्रदेश की सरकार को चाहिए कि वो इसको समाप्त करने के लिए प्रयास करे। लेकिन सवाल यह है कि क्या वर्तमान सरकार ऐसा करेगी, जिसकी पार्टी दंगों के दम पर ब्याज सहित थोक के भाव वोट बटोरती है। मुज़फ़्फरनगर घटना के बाद भाजपा नेताओं के लगातार बयानबाज़ी और आक्रामकता के चलते उनका राजनीतिक ग्राफ ताक़तवर हो गया। ध्रुवीकरण की राजनीति का चरम मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या के बाद बढ़ गया जब उत्तर प्रदेश सरकार ने अख़लाक़ के फ्रीज़ की ही जाँच शुरू कर दी और केंद्र के मंत्रियों ने अख़लाक़ की हत्या में आरोपित एक व्यक्ति की मौत के बाद उसके शव को तिरंगे में लपेटकर राजनीति शुरू की। नतीजा यह हुआ की उत्तर प्रदेश में इस समय पूरा ध्रुवीकरण है हालाँकि दलित पिछड़े और मुसलमान इन बातों को साफ़ तौर पर समझ भी चुके हैं। उत्तर प्रदेश सरकार को 2019 के चुनावों के मद्देनजर गौर करना चाहिए कि मुसलमान विरोध पर खड़ी की गयी उनकी राजनीतिक ईमारत दलितों और पिछड़ों की नीव पर खड़ा है जिसका पटाक्षेप शीघ्र ही हो जाएगा।
सहारनपुर की राजनीति में बसपा एक महत्वपूर्ण कड़ी है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से पहले बसपा, सपा और कांग्रेस यहाँ की राजनीति को नियंत्रित करती थी, हालाँकि शहर क्षेत्र में भाजपा के सवर्ण समर्थकों की संख्या कम नहीं थी। जातीय समीकरणों के हिसाब से भी सवर्णों के लिए यह सीट बहुत मज़बूत नहीं थी। मुसलमानों की संख्या 45% से अधिक होने के कारण जब तक पूर्णतः ध्रुवीकरण नहीं होता भाजपा का क्षेत्र में कोई दवाब नहीं बनता। इसलिए 26% आबादी के इमोशंस को टारगेट करना जरुरी था और इसलिए ही बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर को इतना याद किया जा रहा था। दलितों ने 14 अप्रैल को हर साल की तरह पूरे जोश-ख़रोश के साथ आंबेडकर जयंती मनाई। बसपा के राजनीतिक आगमन का सबसे बड़ा असर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुआ जहाँ दलितों में खासकर चमार जाति में आत्मस्वाभिमान का जबरदस्त आंदोलन विकसित हुआ। आंबेडकर जयंती एक प्रकार से दलित अस्मिता और स्वाभिमान का सबसे बड़ा त्यौहार बन गया।
1989 से पूर्व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलित वोट ईमानदारी से डल भी नहीं पाता था क्योंकि दबंग जातियां पहले ही वोट डाल चुकी होती थी लेकिन बसपा के उदय से दलितों का जो उभार उठा, उसने इस क्षेत्र की दबंग जातियों के नेतृत्व को संकट में डाल दिया और दलित-पिछड़ों और पसमांदा मुसलमानों का गठबंधन इस क्षेत्र की राजनीति में अभेद्य किले की तरह था इसलिए उसको ख़त्म करने के लिए जरुरी था दबंग जातियों का साम्प्रदायिकरण किया जाए। इस क्षेत्र में जातिवाद भले ही घनघोर रहा हो लेकिन गाँव देहात में हिन्दू-मुसलमानों के रिश्तों में उतनी कड़वाहट नहीं थी जो अब पैदा हो चुकी है। हम लोग साम्प्रदायिकता को शहरी लोगो का राजनीतिक और वर्चस्व का कार्यक्रम कहते थे। लेकिन अब स्थितियाँ बदली हैं। दलित-पिछड़ों और पसमांदा मुसलमानों की राजनीति उत्तर प्रदेश की एक हकीकत है जिसने कम से कम राजनीति में सवर्ण वर्चस्व को पूर्णतः ख़त्म तो नहीं किया, लेकिन उसकी चौदराहट को चुनौती तो दे दी। इसलिए, सपा-बसपा की राजनीति को ख़त्म करने के लिए जरुरी था कि दलित-पिछड़ों और मुसलमानों के बीच में फुट डाली जाए और अलग-अलग लेवल पर प्रयोग किये जाए। हालाँकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश जाट-गुर्जर बहुल क्षेत्र है और हरियाणा में जिस प्रकार से भाजपा ने गैर जाट को मुख्यमंत्री बनाया था और जाट आरक्षण के मसले पर जैसे राजनीति की उससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों में असंतोष था लेकिन उस सारे असंतोष को मुस्लिम विरोध की राजनीति में बहुत चतुराई से ख़त्म कर दिया गया। पूरे प्रदेश में भाजपा की ‘राष्ट्र्वादी’ ध्रुवीकरण की राजनीति से ठाकुरों, ब्राह्मणों की तो बल्ले-बल्ले हो गयी। मंडल के बाद हाशिये पे आयी इन जातियों को तो इस राष्ट्रवाद के चलते इनका राजनैतिक पुनरुत्थान हो गया। भाजपा ने भी पिछड़ों और दलितों के अनेको अंतर्द्वंदों से खेलकर सवर्णों के दबंग जातियों के वर्चस्व को और मज़बूत कर दिया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पूरे ध्रुवीकरण का सबसे बड़ा लाभ राजपूत नेतृत्व को हुआ।
उत्तर प्रदेश के चुनावों में भारी जीत के बाद भाजपा के हौसले बुलंद है, लेकिन उसकी समस्या यह है कि अब स्थानीय निकायों के चुनाव सामने हैं। नरेंद्र मोदी ने आम चुनावों से पूर्व अपने अभियान की शुरुआत कांग्रेस मुक्त भारत के नारे से की लेकिन हम सब जानते हैं कि ब्राह्मणवादी संघी नेतृत्व ऐसा होने नहीं देगा क्योंकि असल लड़ाई तो देश के बहुजन समाज और अल्पसंख्यक सवर्ण समाज का है इसलिए अमित शाह ने कहा था कि अब समय आ गया है विपक्ष विहीन भारत का। ये एक खतरनाक स्टेटमेंट है लेकिन भाजपा विपक्ष को नेतृत्व विहिन कर देना चाहती है। भारत के लोकतंत्र के लिए मज़बूत विपक्ष की आवश्यकता है और उसको ख़त्म करने की बात करना संविधान विरोधी है। अमित शाह पूरे भारत में पंचायत से लेकर संसद तक भाजपा का नेतृत्व चाहते हैं शायद वो इसलिए कि एक बार देश में उनका पूरा नियंत्रण हो जायेगा तो संविधान बदलने की उनकी मंशा फिर पूरी हो सकती है। स्थानीय निकायों में जीतने के लिए दलितों का साथ भी चाहिए और उनके अंदर अधिकारों के लिए हो रहे जागृति को धमकाना भी है इसलिए अनेकों प्रकार के षड्यंत्र हो रहे हैं। आंबेडकर के नाम लेने भर से ही परेशान होने वाले लोग जब उनके नाम से यात्रा निकलना चाहते हैं तो उसकी परिणीति कैसे होगी जगजाहिर है। जब आंबेडकर जयंती सभी जगह 14 अप्रैल को मना ली गयी तो 20 अप्रैल को जबरन जुलूस निकालने के क्या मायने। दलित और मुसलमानों के बीच जबरन झगड़ा लगाने की कोशिश कर असंतोष खड़ा करने के हर प्रयास की निंदा होनी चाहिए। कोई भी जुलूस समाज में व्याप्त शांति और सद्भाव से बड़ा नहीं हो सकता।
सहारनपुर से भाजपा के सांसद रामलखन पाल शर्मा ने पुलिस प्रशासन की परवाह किये बगैर जो शोभा यात्रा निकाली वो पूर्णतः गैरक़ानूनी थी लेकिन बजाय शर्मा के खिलाफ कोई कार्यवाही के सहारनपुर के नौजवान एंड बहादुर पुलिस अधिकारी लव कुमार सिंह का तबादला कर दिया गया। ये सूचना अब गुप्त नहीं है कि लव कुमार के शासकीय आवास पर सांसद के समर्थकों ने हमला किया लेकिन सरकार ने सांसद को समझाने के बजाय अधिकारी को ‘अनुशासित’ कर दिया। अखबारों की खबर के मुताबिक जो नए अधिकारी लव कुमार सिंह की जगह पे आये वह सुभाष चंद्र दुबे मुजफ्फरनगर के दंगो के दौरान वहां के एसएसपी थे और पत्रिका अख़बार के मुताबिक न्यायमूर्ति विष्णु सहाय की रिपोर्ट ने उन्हें भी जांच में दंगो को न रोक पाने का दोषी पाया था। सहारनपुर के इस दंगे तरह छोटे-बड़े किस्म के दंगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री के मुताबिक 2015 में 155 और 2016 में 162 मामले उत्तर प्रदेश में हुए हैं। आंबेडकर शोभा यात्रा का पूरा मामला दलित-मुसलमानों को आपस में लड़ाने का था क्योंकि न तो दलितों के तरफ से कोई शोभायात्रा की बात कही गयी थी न ही प्रशासन ने इसकी अनुमति दी थी लेकिन दंगे कराने की साजिश थी और अखबारों ने अपनी भूमिका निभा दी। सहारनपुर में अखबारों ने दलित-मुस्लिम दंगा करवा दिया जो कहीं था ही नहीं क्योंकि पूरी ‘शोभा यात्रा’ की मांग दलितों की तरफ से नहीं भाजपा के सांसद की ओर से थी।
पिछले तीन वर्षों से सरकार बाबासाहेब आंबेडकर के जन्म दिवस या महापरिनिर्वाण दिवस को बहुत बड़े स्तर पर मनवा रही है। प्रधानमंत्री मोदी डॉ. आंबेडकर का बड़ा गुणगान कर रहे हैं। अपनी पूरी विदेश यात्राओं में मोदी जी अपने को बुद्ध की धरती से आया हुआ कहते हैं हालाँकि बोधगया बुद्धिस्ट लोगों को मिल जाए इसका कभी उन्होंने प्रयास नहीं किया और घर में उन्हें शिष्य राम मंदिर का आंदोलन मज़बूत कर रहे हैं चाहे इसके कारण देश में अमन चैन से रहे या नहीं। खैर भाजपा के सवर्ण नेताओं और उनके सवर्ण कार्यकर्ताओं को लगता है कि दलितों के वोट लेने के लिए आंबेडकर नाम का जाप किसी भी कीमत पर करना पड़ेगा लेकिन वे भूल गए कि कांशीराम की राजनैतिक क्रांति ने दलितों को यह भी बताया के ”वोट हमारा राज तुम्हारा’ नहीं चलेगा। भाजपा इस नारे को ”वोट तुम्हारा राज हमारे’ में बदलने के लिए कटिबद्ध है और इसलिए लोगों की भावनाओं को समझे बगैर वो ये कर रही है। सवाल यह है कि यदि आप बाबासाहेब आंबेडकर से प्यार करते हो या उनका सम्मान करते हो तो क्या अभी तक जाति उन्मूलन के लिए आपने क्या किया। यदि आप बाबासाहेब के संविधान का सम्मान करते हो तो ‘द ग्रेट चमार’ लिखने में आपत्ति क्यों? यदि आपकी पार्टी सामाजिक न्याय को मानती है तो फिर डॉ आंबेडकर की प्रतिमा का हर वक़्त अपमान क्यों और वो दलितों की बस्ती में ही क्यों लगे गाँव के बीच मोहल्ले में क्यों नहीं?
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आने के बाद से हिन्दू युवा वाहिनी के कार्यकर्ताओं के जोश में होश चला गया है। वैसे पूरी वाहिनी राजपूत सेना नज़र आती है। जब प्रदेश में एक लोकतान्त्रिक सरकार है तो ऐसी वाहिनियों को क्यों नहीं ख़त्म किया जाता। क्योंकि ऐसा यदि नहीं होगा और पुलिस और प्रशासन का ब्राह्मणीकरण होगा तो इस प्रकार की वाहिनियों के मुकाबले में भी जातियों की सेना तैयार होंगी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भीम आर्मी की ताकत का अंदाजा पुलिस को भी नहीं था लेकिन सहारनपुर में कल के हादसे के बाद प्रशासन के हाथ-पाँव फूल गए हैं। सवाल इस बात का है कि यदि प्रशासन को ईमानदारी से काम करने की छूट नहीं होगी, संविधान भावनाओं का सही प्रकार से पालन नहीं होगा और गाँव-देहात में मनुवादी सामंतवाद अभी भी चलेगा तो फिर लोग अपने बचाव और सम्मान के लिए अपनी-अपनी जातीय सेनाओं या पार्टियों का सहारा लेंगे।
अभी का ताजा घटनाक्रम 5 मई का है जब शब्बीरपुर गाँव में ठाकुरों के हमले में पुलिस के अनुसार दलितों के 25-30 घर जला दिए गए हालाँकि दलितों का कहना है कि 55 से अधिक घर जले हैं और एक दर्जन से ज्यादा लोग घायल हुए हैं। अंग्रेजी दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक 4 हज़ार की आबादी वाले इस गाँव में ठाकुरों की आबादी 2500 और चमारों की 600 के करीब है। मामला महाराणाप्रताप की जयंती मनाने से शुरू हुआ जब लाउडस्पीकर की आवाज़ को दलितों ने कम करने को कहा। असल में हमारे गाँवों में झगड़ों के लिए बहाने चाहिए होते हैं। उसके लिए लोग कारण ढूंढते हैं और दिन तय करते हैं। महाराणाप्रताप की जयंती पहले नहीं मनाई जाती थी लेकिन अब गाँवों में अपने-अपने पूर्वजों को मनाने के नाम पर हर काम हो रहे हैं। उससे भी कोई दिक्कत नहीं लेकिन समस्या तब होती है जब जानबुझकर उन इलाकों से जलूस निकाला जाता है जहाँ आपको दंगा-फसाद करना है। साम्प्रदायिक और जातीय दंगों के महारथी हमेशा ऐसा करते हैं और जब वे इन इलाकों से गुजरते हैं जहाँ उन्हें लगता है कि लोग उनके ‘दुश्मन’ हैं वहां उनकी नारेबाजी भयावह रूप धारण करती है। मसलन अगर जलूस मुसलमानों के इलाकों से जाए तो ‘तेल लगा दो डाबर का, नाम मिटा तो बाबर का’ या ‘राम लला हम आएंगे मंदिर वही बनाएंगे’ और ‘यदि भारत में रहना होगा वन्दे मातरम कहना होगा’ के नारे लगेंगे और वो ऐसे लगाए जाते हैं जैसे किसी को चिढ़ाने के लिए किया जा रहा हो। ये बात हकीकत है कि त्योहारों और पर्वों पर जुलूस निकलना भारत के शहरों और गाँवों के लिए अब नासूर बन गए हैं क्योंकि ये जुलूस या झांकियां अब जनजागरण के लिए नहीं अपितु अपनी ताकत दिखाने के लिए हैं और भारत के विभिन्न हिस्सों में दंगो का कारण बन चुके हैं। घनी आबादी वाले इलाकों, खासकर जो मिश्रित आबादी के क्षेत्र हैं किसी भी हिंसा को रोकना प्रशासन के लिए नामुनकिन हैं। इन दंगो के कारण हिंसा में अक्सर पुलिस प्रशासन भी सांप्रदायिक हो जाता है। पुलिस के जातीय और सांप्रदायिक चरित्र को कभी भी ठीक करने की कोशिश नहीं की गयी।
दंगों में लोग बर्बाद होते हैं और प्रशासन की ओर से मुआवजा भी नाम मात्र का होता है। बड़े लोगों के व्यावसायिक प्रतिष्ठान तो बीमित होते हैं और वे इस प्रकार की घटनाक्रम से सरकार की सहायता के बिना भी बीमा क्लेम कर लेते हैं, लेकिन अब समय आ गया है कि अन्य सभी लोगों को बचाव में अपना बीमा करवाना चाहिए खासकर मुस्लिम और दलित समुदाय के व्यवसायियों को ताकि इस प्रकार की हिंसा में उनके व्यवसायिक हितों को नुकसान न हो अन्यथा उनके नष्ट होने में तो देर नहीं लगती और इससे कई मेहनतकश लोगों की जिन्दगियां ख़त्म हो गयी है। मुजफ्फरनगर के 2013 के दंगों की स्याही अभी सूखी नहीं है क्योंकि जिनके घर-बार नष्ट हुए उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिला। सरकार की उसमे कोई दिलचस्पी भी नहीं दिखाई देती। ऐसा लगता है के प्रशासन तो लोगों को रिलीफ कैंपों में भी नहीं रखना चाहता। एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के मुताबिक मुजफ्फरनगर की हिंसा में 7 महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म हुआ, जिसमें से एक की मौत हो गयी है और बाकी अपनी जिंदगी को सँभालने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन उन पर जान का खतरा लगातार मँडरा रहा है। अभी तक सही प्रकार से मुकदमे शुरू भी नहीं हुए हैं। गवाहों को धमकियां मिल रही हैं और खुले आम धमकी देने वाले अब सत्ता का हिस्सा है और खुले में घूम रहे हैं।
लोकतंत्र की त्रासदी है कि जनता का फैसला सर्वमान्य होता है लेकिन जब कानून का शासन चलाने की बात करते हैं तो आरोपियों पे मुकदमा चलना चाहिए और एग्जीक्यूटिव को ईमानदारी से कार्य करना चाहिए। अमेरिका का उदहारण हमारे सामने है जहाँ मीडिया और सरकार के दूसरे अंगों जैसे एफबीआई ने अभी तक सरकार की हाँ में हाँ नहीं मिलाई है और जहाँ लगा के मंत्री या राष्ट्रपति गलत हैं वहां उन्होंने उसका विरोध किया है लेकिन भारत में मीडिया का साम्प्रदायिक और जातीय स्वरूप जगजाहिर है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आने से अब अफवाहें आसानी से फ़ैल रही हैं। मीडिया खबरों को ऐसे अपने स्टूडियो और दफ्तरों में तैयार कर रहा है जिसके फ़लस्वरूप गाँवो में तनाव बढ़ रहा है। मीडिया और लोगों को यह बात समझनी चाहिए कि कोई व्यक्ति यदि वो कानून की नज़र में आरोपित है या अपराधी है तो उसके अपराध चुनाव जीतने से ख़त्म नहीं हो जाते। लालू यादव उदहारण है। उन्हें आज भी कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं। शाहबुद्दीन जीतने के बावजूद भी जेल में हैं। मतलब यह कि चुनावी जीत आपके अपराधों को नहीं धोती और देर सवेर उन पर कार्यवाही होती ही है। इसलिए भाषणों में नेता लोग यदि जनता की अदालत की आड़ में अपने कार्य को सही ठहराए तो समझ लीजिये के कोर्ट के फैसले का भय उनके दिमाग में घूम रहा है।
सत्तारूढ़ पार्टी ने दलित-पिछड़ोंं और मुसलमानोंं के अंतरद्वन्द को अपना हथियार बनाया लेकिन ये भी आवश्यक है कि सवर्णों और दलितों के अंतर्द्वंद्व केवल राजनैतिक एडजस्टमेंट से ख़त्म नहीं होने वाले। आंबेडकर की सीधी खड़ी मूर्तिया सवर्ण प्रभुत्व के लिए चुनौती हो गयी हैं जिन्हे ऐसा लगता है कि उनका संविधान और उनके विचार दलितों को ‘बिगाड़’ रहे हैं क्योंकि अब वो सवाल कर रहे हैं। आरक्षण की सीटों के नाम पर भी दलित-पिछड़ों ने बहुत बदनामी झेली। ऐसा प्रचारित किया गया कि आरक्षित श्रेणी में सभी दोयम दर्जे के लोग आते हैं लेकिन टीना डाबी, कल्पित वीरवाल और अब रिया सिंह ने दिखा दिया है कि तथाकथित सवर्ण मेरिट को अम्बेडकरवादी युवाओं से न केवल कड़ी टक्कर मिलेगी अपितु आने वाले दिन अम्बेडकरवादी मेहनतकशों के ही होंगे। सवाल ये नहीं की किसी को नीचा या किसी को ऊंचा दिखाना है आखिर ये जंग तो हमेशा नहीं चल सकती क्योंकि भारत का भविष्य एक बराबरी वाले समाज में ही है न कि ऐसे सामाजिक व्यवस्था में जो जन्म आधारित कार्य के सिद्धांतो पर चली है।
उत्तर प्रदेश के चुनावों के वक़्त कई अखबारों ने एक खबर छापी थी। बहुत से साथियों को दुःख भी हुआ था। हाथरस की एक सुरक्षित विधान सभा सीट से वाल्मीकि समाज के एक भाजपा प्रत्याशी प्रचार के वक़्त अपना गिलास अलग से लेकर चलते थे क्योंकि जब वो जाटो के इलाको में जाते तो जमीन पर बैठते और लोग उनको चाय उनके गिलास में देते। वो घर के अंदर भी नहीं घुसते थे और गाँव के छोटे बच्चे भी उनका नाम लेते। जब उन महाशय से यह पूछा गया कि आप इसका विरोध क्यों नहीं करते तो उन्होंने अपनी सदियों पुरानी परम्पराओं का हवाला दिया। उनकी सुरक्षित सीट जाट बाहुल्य वाली थी और क्योंकि उन्हें चुनाव जीतना था इसलिए अगर अपने आत्मसम्मान की कीमत पर आप सांसद या विधायक बन गए तो क्या दिक्कत। वह चुनाव जीत भी गए। मैंने उनका बायोडाटा पढ़ा तो पता चला कि उनके पिता बहुत समय से विधायक थे और एक टर्म के लिए सांसद भी रहे। क्या ये आश्चर्य की बात नहीं कि एक राजनैतिक परिवार से आने वाला व्यक्ति पद के लिए अपने स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर सकता तो क्या वह विधानसभा या संसद में वाकई अपने या अपने जैसे समाजों पर हो रहे अत्याचारों से मुक्ति दिला पाएंगे? बाबासाहेब आंबेडकर ने इसीलिए पृथक या आनुपातिक चुनाव प्रणाली की बात कही थी। असल में संघ की समरसता का सिद्धांत यही है कि आप को मनुस्मृति ने जिस जगह पर रखा है वो बिलकुल ‘वैज्ञानिक’ है और सभी अपनी-अपनी जातियों के हिसाब से काम करे और ‘प्यार’ से रहे तो ‘सामनजस्य बना रहेगा। आंबेडकर का युवा इस सामंजस्य को अब सहने को तैयार नहीं है। विधायकी और सांसदी या प्रधानी के लिए भी वे लड़ेंगे लेकिन अपने स्वाभिमान को रखकर। सामाजिक बराबरी लाने के लिए ‘ऐतिहासिक गलतियों’ को स्वीकार करना पड़ेगा। बाबासाहेब आंबेडकर की लड़ाई एक नये समाज को बनाने की लड़ाई थी, ये भारत के मानवीयकरण और उसे प्रबुद्ध भारत बनाने की लड़ाई है और उसके लिए आवश्यक है कि सड़ी-गली परम्पराओं को ठुकराकर एक समतावादी समाज की स्थापना जो मनु के विधान से नहीं हमारे ऐतिहासिक संविधान से चले। समाज में आपने जातीय वर्चस्व को कायम रखने वाली शक्तियां केवल दूसरे को गिरा हुआ और निम्न देखना चाहती है जो हमें हर प्रकार से कमज़ोर करेगा। दुनिया बदल चुकी ही और जो अपने को जातीय आधार पर बड़ा मानने की जिद में हैं उन्हें सोच लेना चाहिए के 21वीं सदी में उनका फायदा भी इसमें है कि वे बदले और सामाजिक बदलाव की दिशा में सोचें जिसकी शुरुआत बुद्ध ने की और जिसके सबसे बड़े प्रणेता बाबासाहेब आंबेडकर रहे। एक समतावादी समाज का फायदा केवल दलितों को हो ऐसा नहीं हो सकता। भारत के सम्पूर्ण विकास और ताकत के लिए यहाँ सामाजिक बदलाव और सामाजिक न्याय की शक्तियों के साथ में समाज को जुड़ना पड़ेगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो जैसे डॉ आंबेडकर ने कहा, दबे कुचले लोग अपना रास्ता खुद तय कर लेंगे।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश एक खुशहाल क्षेत्र है। यहाँ के किसान राजनैतिक तौर पर बड़े ताकतवर थे। आज यहाँ खेती खतरे में है, किसानो के मुद्दे गायब हैं। ऐसा नहीं है कि किसानों को इसका पता नहीं है। उनके मुद्दों को साम्प्रदायिकता और जातीय वर्चस्व की चाशनी में चालाकी से मिला दिया गया है। जरुरी है कि नेता और उनके छुटभैये इस क्षेत्र को अपने राजनैतिक लाभ के लिए आग में न ढकेले क्योंकि ये क्षेत्र ऐसा है के आग लगने पर बुझाना आसान नहीं है। इस क्षेत्र ने मेरठ, मुरादाबाद, अलीगढ, आगरा, बरेली बिजनौर, मलियाना आदि के भयावह दंगे देखे हैं और उनसे होने वाले नुकसान को भी भुगता है। नफ़रत की आग इस देश को ध्वस्त कर सकती है इसलिए सरकार को चाहिए कि वो कड़ा सन्देश भेजे, खासकर सभी राजनैतिक कार्यकर्ताओं को कि वे कोई ऐसी बात न कहे जो हिंसा को सही ठहराए। ये भी जरुरी है कि लोगों में विश्वास जगाने के लिए स्थानीय सदभावना समितियां बने। सबसे बड़ा अनुरोध लोगों से है कि वे व्हाट्सप्प और सोशल मीडिया, स्थानीय अखबारों की खबरों से उद्वेलित न हो। चिंता करना वाजिब है और अपने अधिकारों के लिए लड़ना भी आवश्यक है लेकिन अफवाहों के चलते केवल उसकी राजनीति करने वालों की चांदी है। मुख्यमंत्री ने डीजीपी को भेजा है लेकिन हमारे विपक्ष के नेता नदारद है। सहारनपुर और मुजफ्फरनगर की हिंसा और उसके कारणों की विस्तारपूर्वक जांच होनी चाहिए। क्या हमारी संसद या विधानसभा इस पर कोई समिति का गठन कर सकती है, जिसमे विपक्ष के लोग भी हों ताकि ईमानदारी से इन घटनाओं की जाँच हो और भविष्य में ऐसा न हो उसके लिए प्रयास हो। क्या ऐसा हो सकता है कि जिन नेताओं का नाम दंगा फ़ैलाने में आये उन्हें टिकट न मिले? सहारनपुर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खुशहाली के लिए जरुरी है कि वहां शांति हो और सभी लोग बिना भय और राग-द्वेष के रहें, ताकि जिंदगी दोबारा से पटरी पर आ सके।
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