
उनकी पहली फिल्म को यूटयूब पर 800 से ज्यादा लोग देख चुके हैं और उन्हें 60 से ज्यादा ‘लाईक‘ मिली हैं। उनके चैनल के 75 से अधिक सब्सक्राईबर हैं। जाहिर है कि जो वीडियो वायरल हो जाते हैं और जिन्हें लाखों लोग देखते हैं, उनके सामने ये आंकड़े कुछ भी नहीं हैं। परंतु इन्हें इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए कि इस इलाके में केवल बीएसएनएल का नेटवर्क उपलब्ध है और वह भी आधा-अधूरा सा। अब युवा फिल्मकारों का यह दल सिकिल-सेल रक्ताल्पता, शौचालयों के प्रयोग व तंबाकू के दुष्प्रभावों पर फिल्में बनाने की तैयारी कर रहा है।

नितेश भारद्वाज नामक जनसंचार में स्नातक एक युवक इस काम में उनकी सहायता कर रहे हैं। भारद्वाज भारतीय स्टेट बैंक की ‘‘यूथ फार इंडिया‘‘ फैलोशिप पर इस इलाके में काम कर रहे हैं। वे उन्हें स्थानीय समस्याओं से निपटने के लिए मोबाईल फोन का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। नीतीश कहते हैं, ‘‘हमारे गांवों की सबसे बड़ी समस्या है जागृति फैलाने के लिए संचार साधनों का अभाव मुख्यधारा का मीडिया इन इलाकों पर जरा भी ध्यान नहीं देता। टेलीविजन चैनलों के कार्यक्रम शहरों पर केन्द्रित होते हैं और गांवों के लोगों को वे एक दूसरी दुनिया के लिएं बनाए गए लगते हैं। ग्रामवासियों में जागृति फैलाने के लिए हमें स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करना होगा‘‘।
मोबाईल फोन पर फिल्म का संपादन करने में उन्हें जिस समस्या का सामना करना पड़ा वह यह थी कि वे मराठी या हिन्दी में कोई संदेश फिल्म में नहीं लिख सकते थे क्योंकि संपादन के लिए जिस एप का इस्तेमाल उन्होंने किया उसमें देवनागरी फांट नहीं था। वे इस समस्या का हल ढूंढने का प्रयास कर रहे हैं।
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