चामुंडेश्वरी वाडयार राजवंश की कुल देवी मानी जाती हैं। तब इस राजवंश का छोटे से मैसूर राज्य पर शासन था। यह शासन 1399 से 1947 तक कायम रहा। एक आनुष्ठानिक शोभा-यात्रा के दौरान देवी की प्रतिमा सोने के हौदा में विराजमान होती है। यह शोभा-यात्रा मैसूर के प्रसिद्ध दशहरा का महत्वपूर्ण हिस्सा है। भारत के 1950 में गणतंत्र बन जाने के बाद राजतंत्र का खात्मा कर दिया गया और महाराज कहने के लिए राजा रह गए। मैसूर के नजदीक चामुंडी पहाड़ी पर द्रविडियन शैली में चामुंडी देवी का एक मंदिर बना है। इस मंदिर में कनार्टक के मुख्यमंत्री एक विशेष पूजा करते हैं और इस पूजा के साथ ही 10 दिन के दशहरा त्यौहार की शुरूआत होती है। इस त्योहार का कर्नाटक राज्य के सांस्कृतिक कैलेंडर में सबसे महत्वपूर्ण स्थान है।
चामुंडेश्वरी मातृ देवी, शक्ति या पार्वती का प्रचंड रूप मानी जाती हैं। प्रायः उन्हें श्मशान भूमि या गूलर के पेडों पर भयानक रूप में चित्रित किया जाता है। देवी को जानवरों की बलि और शराब भेंट करके उनकी पूजा का अनुष्ठान पूरा किया जाता है। प्राचीन काल में मानव बलि भी दी जाती थी। चामुंडा मूल रूप में आदिवासियों की देवी थीं, जिन्हें हिंदू धर्म में समाहित कर लिया गया। बाद में इन्हें जैन देवताओं में भी शामिल कर लिया गया। रामकृष्ण जी. भण्डारकर के अनुसार वह मुंडा लोगों की एक आदिवासी देवी थीं। बाद में उन्हें तांत्रिक साधना परंपरा में शामिल किया गया और उसके बाद उन्हें मुख्यधारा की पूजा परंपरा में समाहित कर लिया गया (वैश्वनिज्म, शैवनिज्म एण्ड माइनर रिलिजियस सिस्टम, 1995,पेज. 205)
हालांकि जैन धर्म में देवी की पूजा में केवल फल-फूल ही भेंट किए जाते हैं, न कि मांस और शराब। चामुंडा देवी युद्ध, अकाल और महामारी की देवी के रूप में भी जानी जाती हैं। इस देवी की जो मूर्तियां बनती है, उसमें उन्हें आठ भुजाओं वाली के रूप में दिखाया जाता है, जो नरमुंड़ों की माला पहने होती हैं और उनके पास त्रिशूल, तलवार और गदा जैसे हथियार होते हैं। उनके हाथो में एक कटोरा भी होता है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसमें वे अपने पराजित शत्रुओं का खून पीती हैं। राष्ट्रीय संग्राहलय दिल्ली में उनकी एक मूर्ति प्रदर्शित की गई है, जिसमें वह शव पर बैठी दिखती हैं, दुबले-पतले भयानक विकृत चेहरे के साथ।
मुख्यधारा में देवी चामुंडा की कहानी का वर्णन मार्कण्डेय पुराण में किया गया है। इसके अनुसार शुम्भ और निशुम्भ नामक दो असुर भाईयों ने कठिन तपस्या के माध्यम से नई शक्ति हासिल कर ली और देवताओं और धरती पर रहने वाले लोगों को सताने लगे। देवताओं ने देवी पार्वती से प्रार्थना की और पार्वती ने एक अत्यन्त युवा सुंदरी का रूप धारण किया तथा पृथ्वी पर अवतरित हुईं। दोनों असुर भाई उनकी सुन्दरता पर मोहित हो गए और उन्हें अपने राज्य में फुसलाकर ले आने के लिए दूत भेजे। पार्वती ने इंकार कर दिया। उसके बाद शुम्भ और निशुम्भ के सेनापति चंड और मुंड ने इस सुन्दरी को जबर्दस्ती ले जाने की कोशिश की। इसके बाद इस सुंदरी ने काली का रूप धारण कर लिया और शुम्भ और निशुम्भ का वध कर दिया। उसेक बाद ही इस देवी का नाम चामुंडेश्वरी पडा।
लोककथाओं और धर्म का, इतिहासकारों और विशेषज्ञों द्वारा हाल में किया गया अध्ययन दिखाता है कि जो पहाड़ी इस समय चामुंडा पहाड़ी के नाम से जानी जाती है उसे पहले मारबाला बेट्टा या महाबालदारी के रूप में जाना जाता था। अथवा इसे महाबलेश्वर की पहाड़ी कहते थे। पहाड़ी की सबसे उंची चोटी पर आज भी महाबलेश्वर का एक छोटा सा मंदिर है। कहा जाता है कि विजय नगर साम्राज्य के एक जागीरदार युदराया ने 1399 में देवी चामुंडी देवी का एक सपना देखा। उसने उस समय उस क्षेत्र पर शासन करने वालों पर आक्रमण कर दिया और युद्ध में विजय प्राप्त की। इस प्रकार इस क्षेत्र में उसने यदु राजवंश की स्थापना की। उसी की देख-रेख में देवी का मंदिर बना। यदु ने 1423 ईसवी तक शासन किया और उसके उत्तराधिकारी विजय नगर साम्राज्य के जागीरदार की तरह, यहां देवी की पूजा और उससे संबंधित भव्य समारोहों पर ध्यान केंद्रित करते हुए शासन करते रहे। 1556 में विजय नगर साम्राज्य का पतन हो गया। इसेक परिणामस्वरूप वाडेयर लोगों ने अपना शासन शुरू कर दिया, विजयनगर को कोई कर दिए बिना।
मैसूर के इतिहासकार प्रोफेसर नागराज उर्स के अनुसार आज जो मैसूर में चामुंडेश्वरी का मंदिर है, वह चार चरणों में बना है। पहले यह मंदिर एक प्राचीन लोक देवी का पवित्र स्थान था, जिस देवी की आठ भुजाएं थीं। इस देवी को मरम्मा कहा जाता था। बाद में यह जैन यक्षिणी का निवास स्थान बना,जिन्हें वासंतिका कहा जाता था। उसके बाद यह लोकदेवी का मंदिर बना। चौथे चरण में यह शैव मतावलंबियों की देवी दुर्गी का पवित्र वास स्थान बना। उर्स जैसे इतिहासकार कहते है कि तमिल पुरोहितों (अर्चाकाओं) की नियुक्ति करके चामुंडादेवी के शैव मतावलंबी मंदिर को वैष्णवी स्वरूप दिया गया। संभवतः होसले राजाओं ने 12वीं शताब्दी में देवी के मूल स्थान को बनावाया था। 1610 में उस समय के राजा ने गोपुरम के लिए चार स्तंभ निर्मित कराए। उसेक बाद के राजा मुम्मादी कृष्णराज वाडेयार ने विशाल गोपुरम और प्रवेश द्वार बनावाया। 1870 में जयाचामाराज वाडेयार ने मंदिर के गर्भ स्थल के लिए चांदी के दरवाजे बनवाए।
वी. लेविस राइस द्वारा 1976 में लिखा गया मैसूर गजट कर्नल विल्केस के 1805 के दिए गए विवरण के हवाले से कहता है कि मंदिर के निकट मनुष्यों की बलि दी जाती थी। यह गजट यह भी बताता है कि पहाडियों पर रहने वाले बदमाशों का इस बलि के लिए इस्तेमाल किया जाता था और वहां से गुजरने वाले लोगों का भी इस्तेमाल इस बलि के लिए किया जाता था, यहां तक कि अनजाने यात्रियों की भी बलि दे दी जाती थी और उनके कान और नाक काटकर देवी को चढ़ा दिए जाते थे। यद्यपि इतिहासकार इस बात पर जोर देते हैं कि जब से यह चामुंडा देवी मंदिर बना तब से यहां मानव बलि नहीं दी जाती है, जब बलि दी जाती थी, तब यह मरम्मा का पवित्र स्थान था। हालांकि ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार मैसूर की सेना के एक मुस्लिम सेनापति हैदर अली (टीपू सुल्तान के पिता) ने मानव बलि पर प्रतिबंध लगाया। हैदर अली ने मैसूर की सत्ता अपने हाथ मे तब ली, जब राजा कमजोर हो गया था। सत्ता अपने हाथ में लेने के बाद हैदर अली ने राज्य का विस्तार किया और प्रशासन को मजबूत बनाया।
मैसूर और चामुंडेश्वरी के बीच एक अन्य महत्पूर्ण संबंध है, चांमुंडेश्वरी महिषासुर मर्दनी के नाम से भी जानी जाती हैं, जिन्होंने महिषासुर की हत्या की थी। वास्तव में मैसूर नाम महिषासुर से निकला है। लोक परंपराएं महिषासुर को एक स्थानीय मुखिया के रूप में, उनकी बहादुरी और उदारता के लिए याद करती हैं। लेकिन पौराणिक परंपरा में महिषासुर को एक असुर, एक राक्षस के रूप में चित्रित किया जाता है। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपनी अलौकिक और असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल स्थानीय लोगों को सताने के लिए किया। देवताओं की प्रार्थना को स्वीकार कर पार्वती अपने प्रचंड रूप में अवतरित हुईं और उसेक बाद एक भयंकर युद्ध हुआ। पुराण कहते हैं कि इस युद्घ में देवी ने दैत्य का वध कर दिया और उसे देवी के चरणों में मोक्ष की प्राप्ति हुई। यह संघर्ष दुर्गापुजा पंडालों में स्थापित प्रतिमाओं में आमतौर पर दिखता है, जिसमें एक काले रंग के, घुंघराले बालों वाले आदमी का वध करते दुर्गा दिखती हैं। साफ तौर पर यह युद्ध एक राजनीतिक संघर्ष का प्रतिनिधित्व करता है, जो संघर्ष यहां के मूल निवासियों के अगुआ और घुसपैठियों के बीच हुआ था।
इस प्रकार चामुंडेश्वरी-महिषासुरमर्दनी मिथक ब्राह्मणवादी शक्तियों द्वारा मूल निवासियों/ स्थानीय लोगों के विश्वास के तरीकों एंव मंदिरों, संस्कृति और राजनीतिक स्पेसों की पौराणिक व्याख्या करने का एक अन्य उदाहरण है।
(अनुवाद : सिद्धार्थ)
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