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नाटक : असुरप्रिया

हिन्दू धर्मग्रंथों में कथित देवासुर संग्राम के बहाने प्रकृति प्रेमी असुरों को खलनायक के रूप में दर्शाया गया है। अपने नाटक के जरिए देव-असुर संग्राम का आदिवासी-बहुजन नजरिए से पुनर्पाठ कर रहे हैं संजीव चंदन :

पहला पर्व

(सिन्धु नदी के पास एक अपेक्षाकृत बड़े भवन के अपने शयनकक्ष में युवा असुरप्रिया सो रही है- 20 साल की युवती। पुराने ईंट-गारे से बना भवन, हड़प्पा, मोहनजोदड़ो के भवनों जैसा एक भवन। दो परिचारिकायें चंवर डोला रही हैं। भवन की भित्तियों पर कई समकालीन नयनाभिराम नक्काशियां हैं। पास में दो घड़े रखे हैं, और कुछ मिट्टी के पात्र। एक मशाल जल रहा है बाहर दरवाजे पर, लेकिन कमरे के दीपक बुझे हैं। मशाल की थोड़ी सी रोशनी कमरे के भीतर भी है, जिससे भीतर के दृश्य को बमुश्किल देखा जा सकता है।

असुरप्रिया घबरा कर उठती है, मातामह, मातामह कहती हुई। एक परिचारिका प्रत्युत्तर में चंवर रख कर सामने खडी हो जाती है, आवाज के साथ ही नृऋति दौड़ी आती हैं। दूसरी परिचारिका कमरे में दीपक जलाती है- कमरे में प्रकाश आता है।

नृऋति एक 60 से 65 साल की स्त्री हैं, सिर के कुछ बाल सफ़ेद हो रहे हैं। चेहरे पर साम्राज्ञियों सा दर्प। नृऋति असुरप्रिया के समीप बैठ कर उसके सिर पर हाथ रखती हैं, असुरप्रिया की साँसे तेज चल रही हैं, और चेहरे पर तनाव है।)

नृऋति : आज फिर तुमने स्वप्न देखा। मैं पास से ही गुजर रही थी कि तुम्हारी घबड़ाहट भरी आवाज सुनी।

असुरप्रिया : (नृऋति की गोद में अपना सर रख देती है। आंशिक सुकून के साथ उसे देखते हुए) : मातामह आज भी मैंने युद्ध भूमि का सपना देखा, धोखा और छल के उस क्षण को मैं भूल नहीं पा रही।

नृऋति : इंद्र ने तुम्हारे सम्मान में यज्ञ का आयोजन किया है, आज इंद्र के भेजे दो भट्ट (कवि) भी अतिथिशाला में ठहरे हैं, उन्होंने तुम्हारी प्रशस्ति में कुछ स्तुति गान प्रस्तुत करने की अनुमति माँगी है। मैंने उन्हें कल समस्त गणवासियों के समक्ष प्रस्तुत होने का आमंत्रण दिया है।

डा. लाल रत्नाकर की पेंटिंग

असुरप्रिया : किन्तु मातमह …. !

नृऋति : किन्तु-परंतु कुछ नहीं, तुम भावी गण नायिका घोषित हो चुकी हो, सामान्य स्त्रियों की तरह भावुकता और भय तुम्हें शोभा नहीं देता।

असुरप्रिया : क्या हम अपनी स्वतंत्रता खोते नहीं जा रहे हैं मातामह, क्या हमें शांति की यह मूल्य चुकानी पड़ेगी,ऐसा हमने सोचा नहीं था?

नृऋति : स्थायी शान्ति इस पूरे द्वीप के हित में है।

असुरप्रिया  : (क्षोभ से) तो क्या, एक वही था, जो इस द्वीप में शांति का बाधक था, ऐसा नहीं है मातामह, उसके क्षेत्र में हर प्रकार से समृद्धि थी, अपने जनों में वह लोकप्रिय था, स्त्रियाँ उसकी स्तुति में गीत गाती थीं, पूरा जन उसे अपना आराध्य मानता था, घर-घर में कुलदेव की तरह उसके लिए स्थान था।

नृऋति : लेकिन वह घिर चुका था प्रिये। धीरे-धीरे सारे गण इन आर्यों से  पराजित हो चुके थे या फिर इनसे संधि-वार्ता कर चुके थे। स्त्री गणों ने हमेशा से शान्ति को प्रश्रय दिया है, कृषि-विकास हमारा लक्ष्य रहा है, फिर भी स्त्रीगणों में हम सबसे अंतिम थे, शांति-वार्ता के लिए प्रस्तुत। तुमने स्वयं देखा है, इसके लिए नर्मदा की गणनायिका उर्वशी का प्रयास। महिष सबसे प्रतापी नायक थे, लेकिन आर्यों ने उन्हें घेर लिया था। महिष का गणपति भी उनके छल में शामिल था, वह तो सुखभाग और अग्रपूजा का आश्वासन पाकर अपनी प्रलयंकारी क्षमता  खो बैठा- उनसे जा मिला। गणपतियों के विश्वासघात की खबरें सभी गणों से नियमित रूप से  आ रही हैं।

असुरप्रिया : फिर भी हमारा उपयोग किया गया है, हमें अपने छल का हिस्सा बनाया गया, अपने ही प्रिय की ह्त्या के लिए, हम यह भी तो नहीं चाहते थे। मैं इंद्र की राजनीति की बिसात पर बिछ गई मातामह ! और इसमें आपकी अनजान सहमति थी।

नृऋति : लेकिन प्रिय तुम्हें अपने गणवासियों के हितों के लिए अपने शोक पर नियंत्रण करना होगा, आखिर उन्होंने तुम्हें अपनी भावी नायिका चुना है।

असुरप्रिया : क्या यह सब कुछ दिनों के लिए टल नहीं सकता? मुझे मेरे शोक में जी लेने दो मातामह! मैं इस द्वीप की राजनीति की शिकार हो गई, आज मैं खुद को अकेले पाती हूँ, आपसे भी विरक्त।

असुरप्रिया : (विलाप करती हुई) राजनीति के नये युग का चलन शुरू हो चुका है गणनायिका और तू इसकी निमित्त बनी है। स्त्री-गणों की परिपाटी का नाश होने वाला है। अब असुरप्रिया या अन्य स्त्रियाँ राजनीति की बेदी पर चढ़ाई जायेंगी। यह एक युग के अंत की शुरुआत मान ले अब प्रिये। एक संस्कृति के अंत की!

नृऋति : (असुरप्रिया को दुलारते हुए) मुझे दंड मत दे मेरी बच्ची। मैं कहाँ जानती थी कि दुष्ट आर्य महिष की ह्त्या कर देंगे। मैंने तो तुम्हें शान्ति प्रस्ताव के लिए भेजा था, इंद्र ने मुझे ऐसा ही कहा था, क्योंकि उसे पता था कि तुम महिष को और महिष तुम्हें…

(असुरप्रिया आंसू भरे आँखों से अवाक् नृऋति को देखती है)

नृऋति :  हाँ, मेरी बच्ची इंद्र  ने कहा था कि इस द्वीप में शान्ति के लिए सारे युद्धों से वह स्वयं भी विरत होना चाहता है। उसने कहा था कि गंगा और पठार का ही क्षेत्र है, जहां उसके मत, उसकी संस्कृति के प्रचारक उसके ऋषियों के सामने बाधायें आती हैं। यदि महिष इसकी अनुमति दे दें तो युद्ध टल सकता है और महिष को मनाने के लिए उसे तुम उपयुक्त पात्र दिखे।

असुरप्रिया : (नाराजगी से) लेकिन इसमें हमारा क्या हित मातामह !

नृऋति : हमारा मानना रहा है कि यदि हमारे मत, हमारी संस्कृति मजबूत हैं तो फिर किसी से क्या भय, संस्कृतियों की आवाजाही के लिए वातायन खुले होने चाहिए और इससे द्वीप में शान्ति सुख, समृद्धि होती है तो हमें संकट क्या होगा भला?

असुरप्रिया : परेशानी तो अब साफ़ है, स्त्री गणों की अपनी परम्परायें नष्ट हो रही हैं। असुर, राक्षस, नाग सब के सब असभ्य घोषित किये जा रहे हैं। एक दूसरे की बराबरी, स्त्रियों के सम्मान की परम्परा अवसान की ओर चल चुकी है। सुर और सुरा संस्कृति छा जायेगी। यज्ञ-संस्कृति का धुंआ पूरे द्वीप को आच्छादित कर देगा।

नृऋति : महिष लम्बे समय तक नहीं लड़ सकते थे बेटी, पूरे द्वीप में आर्यों ने छल-बल से अपना प्रसार कर रखा था ।

असुरप्रिया : तो क्या आवश्यक था उसके निमित्त हम बनें, गणपतियों की तरह हम सामन्य सुख-सुविधा और अग्रपूजा के लोभ में शामिल तो नहीं हो गये मातामह !

नृऋति : (रोते हुए) इस अनिष्ट के निमित्त हम बनें, इसका दोषी मैं हूँ, मुझे माफ कर दो प्रिय!

असुरप्रिया रोती नानी को देखकर असहज हो जाती है, उसे मनाने के भाव में उसके चेहरे को हथेलियों से थाम लेती है।

नृऋति : मुझे तनिक भी अनुमान नहीं था। लगता है कि मैं अब बूढ़ी हो रही हूँ, शत्रुओं की दुरभिसंधियां नहीं भांप पाती। इसीलिए मैं गण का नायकत्व तुम्हें सौपना चाहती हूँ।

डा. लाल रत्नाकर की पेंटिंग

असुरप्रिया : (बालसुलभ चपलता के साथ) जो सुख अपनी मातामह की गोद में निद्रामग्न होने का है, वह सुख नायिका बनने में कहाँ है।

(असुरप्रिया स्नेह और आदर से नृऋति को देखते हुए अपनी आँखे मूँद लेती है, नृऋति उसके सिर पर थपकी देते हुए विचार मग्न होती जाती है।)

विचारमग्न नृऋति पुरानी यादों के दृश्य बुनती है :

गंगा के मैदानी इलाके और कुछ पठारी प्रदेशों के गणनायक महिष का प्रासाद। थोड़ा आरामदायक और ऊंचे आसन के दोनो ओर दस-दस लोगों के बैठने के लिए रखे आसनों पर महिष के राज-संचालन के अधिकारी बैठे हैं। महिष के समतुल्य आसन पर ही नृऋति बैठी हैऔर अधिकारियों की पंक्ति में पहले आसन  पर असुरप्रिया-अपने यौवन में सद्यः प्रविष्ट हुई युवती।

सैनिक वेशभूषा में एक व्यक्ति बैठक में प्रवेश कर महिष को प्रणाम निवेदित करता है।

सैनिक : महिष आस-पास के किसान-प्रमुख आपसे कुछ निवेदन के लिए प्रस्तुत होना चाहते हैं।

असुर-अधिपति की अनुमति के संकेत के साथ ही सैनिक बाहर जाता है और चार ग्रामीणों/किसानों के साथ वापस आता है।

पहला किसान : महिष आपके नायकत्व में हमसब ग्रामवासी अत्यंत प्रसन्न जीवन यापन करते रहे हैं। अपने–अपने संसाधनों से पोषित और संतुष्ट ग्राम और ग्रामवासी सर्वदा आमोद-प्रमोद में लगे होते हैं, न राग,न द्वेष, न भय न लोभ….

दूसरा किसान : किन्तु इन दिनों…..

महिष : (आश्चर्य से) किन्तु इन दिनों क्या…?

दूसरा किसान : इन दिनों इंद्र और उसके सैनिकों ने उत्पात मचा रखा है, वह हमारे द्वारा सिंचाई के लिए जल संग्रह की व्यवस्था को ध्वस्त कर देता है, हमारे बांधों को तोड़ देता है।

नृऋति : (दीर्घ निःश्वास और क्रोध के साथ) तो वह दुष्ट पुरंदर इन इलाकों तक भी आ पहुंचा

महिष : सभा में उपस्थित साथियों और कृषक मित्रों (कृषकों को नृऋति के आसन की ओर इशारा करते हुए) हम महिषी नृऋति से परिचय कराना भूल ही गये। आप सिंधु नदी के किनारे रहने वाले गणों की नायिका हैं। सुदूर सिंधु की ओर अपने नेतृत्व में कृषि का आविष्कार करने का श्रेय इन्हें ही जाता है। आप हमारे यहाँ राजकीय अतिथि हैं, हमारे प्रदेश में इनके आने का प्रयोजन है इंद्र और आर्यों के उत्पात को देखते हुए गणों के बीच एकता का सूत्र बनाना। इनके साथ हमारी अतिथि हैं (असुरप्रिया की ओर अनुग्रह पूर्वक देखते हुए) इनकी दौहित्री असुर प्रिया।

नृऋति : चिंता का विषय यह है कि सिंधु के हमारे इलाके में इनका वर्चस्व होता जा रहा है, हमारे लोगों को भी वे अपनी ओर पशु और अन्य उपहारों के द्वारा मिला रहे हैं। इनके साथ कुछ चारण-भट्ट और कवि होते हैं, वे किसी पारलौकिक संसार का दृश्य रचकर हमारे लोगों को पूजा का प्रलोभन देते हैं। गणों के अनेक वीर गणपतियों को अग्रपूजा का लोभ देकर मिला लिया है उन्होंने। मैं आपके प्रदेश तक आने के पहले नर्मदा-क्षेत्र की गणनायिका उर्वशी से मिलती आ रही हूं, उसके गणपतियों को भी इन्होंने अपनी ओर मिला लिया है।

महिष : (क्रोध से) लेकिन हमारे प्रदेश में उन्हें उनकी धृष्टता का मूल्य चुकाना पडेगा।

नृऋति : आपके प्रताप को हम जानते हैं महिष और आपकी न्यायप्रियता को भी, लेकिन इन शत्रुओं से अकेले निपट पाना आसान नहीं है। ये छल-बल, साम-दाम का प्रयोग करने में कुशल हैं।

महिष : हे महिषी, शायद गंगा और पठार के लोगों की क्षमता का आप सही आकलन नहीं कर पाई हैं। आप जैसे अनुभवी नायिका को जबकि इसका अनुमान हो जाना चाहिए था। (किसानों से अभिमुख) कृषक-प्रमुखों! आप निश्चिन्त होकर अपने–अपने ग्रामों की ओर लौटें,  हम शीघ्र ही दुष्ट इंद्र को दंड देते हैं और आपकी  समस्या का समाधान करते हैं।

आये हुए चार कृषक अभिवादन कर वापस लौट जाते हैं।

महिष : (नृऋति से) महिषी आप अतिथिशाला में विश्राम करें, हम प्रातः आपसे मिलकर आगे की रणनीति तय करेंगे। इन धृष्ट आर्यों का स्थायी समाधान जरूरी है।

नृऋति : अवश्य असुरनायक, वे न सिर्फ हमपर हमला कर रहे हैं अपितु हमारी संस्कृति को नष्ट करने का अभियान भी चला रहे हैं।

पुरानी यादों से बाहर आकर नृऋति स्वगत :

और वह प्रातः कभी नहीं आया। महिष के अनुचरों ने बताया कि सुबह होने के पहले ही उन्हें ग्राम सीमाओं की ओर जाना पड़ गया। आर्यों  ने उनकी सीमा पर आक्रमण कर दिया था। दुष्ट आर्यन सिर्फ खेतों को उजाड़ देते हैं । मेढ़ों को तोड़ देते हैं, बांधों से पानी निकाल देते हैं, अपितु अपने साथ सुंदर स्त्रियों को भी बलपूर्वक ले जाते हैं। महिष गये तो फिर बहुत दिनों तक लौट कर नहीं आये। मैं अपने मन की बात मन में ही रखकर उनके न रहते ही वापस चली आई। आखिर अपने गण को भी बहुत दिनों तक नहीं छोड़ा जा सकता था, आर्यों ने हमारे यहाँ तो कुछ ज्यादा ही उत्पात मचा रखा था। (सोती असुरप्रिया  को स्नेह से देखते हुए) महिष से योग्य जीवन साथी मेरी दौहित्री के लिए और कौन हो सकता था-सौन्दर्य की मूर्ति और वीरता की प्रतीक मेरी असुरप्रिया के लिए उचित ही मैं वीर, उदार और जनप्रिय गणनायक महिष का चुनाव कर रही थी- असुरप्रिया स्वयं भी तो ! लेकिन हाय, विधि ने कुछ और ही लिखा था। (आँखों में आंसू) अनजाने में ही इसे अपने ही प्रिय की ह्त्या का निमित्त बनना पडा… (सोती असुरप्रिया के बालों को सहलाती हुई नृऋति शून्य में देखती है.)

असुरप्रिया के सौंदर्य का वर्णन करता एक श्लोक गूंजता है :

विद्युद्यामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणाम

कन्याभिः करवालखेटविलस्द्धस्ताभिरासोविताम

हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चापं गुणं तर्जनीम

बिभ्राणामनालातिम्कां शशिधरां असुरप्रियाम त्रिनेत्रां

(मैं तीन नेत्रोंवाली असुरप्रिया देवी का ध्यान करता हूँ, उनके श्रीअंगों की प्रभा बिजली के समान है। वे सिंह के कंधे पर बैठी हुई भयंकर प्रतीत होती है। हाथ में तलवार और ढाल लिये अनेक कन्यायें उनकी सेवा में खड़ी हैं। वे अपने हाथों में चक्र, गदा, तलवार और ढाल, बाण, धनुष, पाश और तर्जनी मुद्रा धारण किये हुए हैं। उनका स्वरूप अग्निमय है तथा वे माथे पर चन्द्रमा का मुकुट धारण करती हैं।)

नृऋति : भट्ट अपने गायन से रिझाने की कला खूब जानते हैं। अतिशयोक्ति पूर्ण कविताओं का आडम्बर रचते हैं। लगता है प्रभात हुआ जाता है। (सोती असुरप्रिया  को इस तरह छोड़कर बाहर जाती है कि पदचाप की भी आवाज न हो।)

असुरप्रिया : (अचानक उठकर पीछे से) और मातामह इन दुष्ट चारणों से इनके राजा इंद्र को सूचना भेज देना कि इनकी इन स्तुतियों और प्रलोभन का मुझपर कोई प्रभाव नहीं होगा। (नृऋति: ठिठकती है) और हाँ, यह समाचार भी अपने गण सहित पूरे द्वीप में फैला दें  मातामह कि असुरप्रिया  ने नृऋति-गण की नायिका होने की स्वीकृति इस शर्त पर दी है कि वह कभी विवाह नहीं करने वाली है। (नृऋति अवाक दौहित्री की ओर लौटना चाहती है, परंतु लौटती नहीं) यह खबर धृष्ट इंद्र तक जरूर जानी चाहिए मातामह। (असुरप्रिया खिलखिलाती है, नृऋति तेजी से कक्ष से अदृश्य हो जाती है।

असुरप्रिया : (स्वगत) इन भांटों के कानफोडू संगीत कितने कृत्रिम और बनावटी हैं. अहा, महिष के प्रदेश में कानों में मीठी आवाजों की वह गूँज आज भी मन-प्राण को संवेदित कर देती है, अर्थ न समझने के बावजूद कितने आत्मीय लगे थे वे गीत! (आँखें मूँद कर यादो में खो जाती है। आदिवासी गीतों के सुमधुर स्वर असुरप्रिया के अस्तित्व को अपने आगोश में ले लेते हैं।):

बुरु ऽ ऽ ऽ परबत लोऽ ऽ ऽ नेना ऽ ऽ ऽ भलाऽ ऽ ऽ कुई//2//

मुइऽ ऽ ऽग के बड़ी दगा नेऽ ऽ ऽना //2//

फ़फाऽ ऽ ऽ पैऽ ऽ ऽनगाऽ ऽ ऽ ओऽ ऽ ऽटांग सेनो नाऽ ऽ ऽकु //2//

मुइग के बड़ी दगा नेऽ ऽ ऽ ना //2//

संदर्भ – इस गीत को सरहुल पर्व के अंत में दोहड़ी राग में गाया जाता है।

अर्थ – जंगल, पहाड़ में आग लग गया है। चींटी के साथ बहुत धोखा हुआ। कीट पतंग सारे उड़ गये। चींटी के साथ बहुत धोखा हुआ

 

दूसरा पर्व

आर्यों का नायक इंद्र उच्च आसन पर बैठा है। उससे नीचे के आसनों पर उसके अधिकारी और कुछ ऋषि बैठे हैं। दो स्थानीय किसानों को बांधकर उसके समक्ष पेश किया जाता है। किसानों की कमर में रस्सा डाले उन्हें चार-छः सैनिक उसके सामने लेकर आये हैं। किसान देहयष्टि से हृष्ट-पुष्ट और बलशाली दिख रहे हैं।

इंद्र : (आवेश में) कौन हैं ये?

ऋषि : हे इंद्र, ये लोग हमारे यज्ञों का विध्वंस करने वाले असुर हैं, राक्षस।

इंद्र : (क्रोध से) यज्ञ विरोधी इन दुष्टों को सजा देने के लिए क्या सैनिक पर्याप्त नहीं थे। (सैनिकों को संबोधित) इन्हें मेरे पास क्यों लेकर आये हो?

सैनिक : (विनम्र और भयभीत आवाज में) क्षमा करें प्रभु ! इन दुष्टों ने अपने घातक हथियारों से हमारे दसाधिक सैनिकों को मार डाला। किसी तरह हम इन्हें पकड़ कर ले आये हैं।

इंद्र : (स्वगत) सबसे कठिन प्रदेश है यह। इनके नायक महिष  के इस प्रदेश का हर व्यक्ति सैनिक है। अन्य इलाकों को विजित करने में हमें कहीं कठिनाई नहीं हुई, साम-साम दंड-भेद यहाँ सबकुछ निष्फल है।

इंद्र : क्या तुम्हारे हथियार चूक गये हैं।

दूसरा सैनिक : देव! इन लोगों ने लौह धातु के हथियार बनाये हैं, झुण्ड-झुण्ड में हथियारों से लैस हमारी ओर बढ़ते हैं, हमारे तीर–धनुष और हथियार निष्फल हो जाते हैं, इनके हथियारों के आगे।

इंद्र : (बंधे असुर-कृषकों से): तुम्हें यज्ञ से आखिर क्या परेशानी है?

डा. लाल रत्नाकर की पेंटिंग

एक किसान : तुम्हारे ऋषि अपनी देव साधना के लिए हमारे पशुओं की बलि देते हैं। जिन पशुओं का हम कृषि कार्य में इस्तेमाल करते हैं, उनकी बलि देना और हविष्य के रूप में उनका भक्षण करना कौन सा धर्म है इंद्र !

इंद्र : क्या तुम्हें देवताओं से संवाद का तरीका भी नहीं आता ?

दूसरा किसान : हम संवाद के यही तरीके जानते हैं इंद्र। हमारे पशु तुम्हारे (व्यंग्य से) ‘महान यज्ञ-संस्कृति’ की भेट चढ़ा दिए जा रहे हैं। हमारे छोटे–छोटे बांधों को तुम्हारे उत्पाती आर्य-सैनिक नष्ट कर हमारी सिंचाई व्यवस्था को नष्ट कर देते हैं। और यह सब तुम किसी महान सभ्यता के लिए किये जाने वाले कार्य के तौर पर प्रचारित कर रहे हो। हमें पता है तुम्हारे भट्ट, कवि हमें अशिष्ट असभ्य और अभद्र सिद्ध करने में भी लगे हैं।

इंद्र का एक सभासद : देवताओं के इंद्र के साथ जिस भाषा और धृष्टता से तुम बात कर रहे हो, क्या यह पर्याप्त नहीं है कि यह सिद्ध करने के लिए कि हमारे भट्ट तुम्हें सही संज्ञा देते हैं।

किसान : क्या हमारी गायों का भक्षण, पशुओं की बलि, मेढ़ों को तोड़ देना, बांधों को नष्ट करना, स्त्रियों का हरण सभ्यता है इंद्र?

इंद्र : (क्रोधित, सैनिकों से अभिमुख) ले जाओ इन्हें और यमलोक भेज दो।

सैनिक उन किसानों को वहाँ से लगभग घसीटते हुए ले जाते हैं।

इंद्र : (ऋषियों से मुखातिब): क्या इन दुष्टों पर विजय का कोई स्थायी आयोजन नहीं हो सकता है ऋषि श्रेष्ठों!

एक ऋषि : सैन्य विजय के अलावा हमलोगों को अपने आचार-व्यवहार का लोहा भी मनवाना होगा देव श्रेष्ठ। हमें निर्बाध यज्ञ का प्रचार करना होगा। यज्ञ से पुण्यलाभ की कथायें प्रचारित-प्रसारित करनी होगी। स्थायी जीत के लिए आख्यानों का स्थायी प्रभाव जरूरी है।

इंद्र : हमारी ओर से आपको आपके ज्ञान-दर्शन के विकास और उनके प्रसार में पूरा सहयोग दिया जायेगा। आप निश्चिन्त होकर गुरुकुलों का विकास करें।

दूसरा ऋषि : कृतार्थ हुआ हे इंद्र ! हम और हमारे प्रशिक्षित कविगण, भट्ट आपके विजयों को, आपके साम-दाम-दंड-भेद को, अमर और उत्कृष्ट आयोजनों के रूप में प्रतिष्ठित करेंगे। आप हमारे सारे आख्यानों के नायक होंगे। पूरी आर्य सभ्यता आपके नायकत्व के अहोगान से भरे आख्यानों से जानी जायेगी ! आप विजय करें। हम असुर नायकों को कथाओं के गर्त में भेजने की पूरी व्यवस्था करेंगे।

इस बीच सन्देशवाहक प्रवेश करता है।

सन्देशवाहक : (इंद्र के आगे सिर झुकाकर): आर्यश्रेष्ठ!  कुछ गणपति आपसे मिलना चाहते हैं।

इंद्र : (सन्देश वाहक से) उन्हें ससम्मान ले आओ। (संदेशवाहक के जाने के बाद ऋषियों की ओर अभिमुख): ऋषियों, इन दुर्दांत गणपतियों ने हमारा बहुत नुकसान किया है। गणनायकों की ताकत की सबसे बड़ी धूरी रहे हैं ये। लेकिन आपलोगों की बताई तरकीबें काम आईं। इनमें से कई को बेहतर मान-सम्मान और पद का प्रलोभन देकर हम इन्हें अपनी ओर मिला पाये। ऋषिवर इनके देवत्व में कोई कसर नहीं छोड़ी जानी चाहिए।

संदेशवाहक तीन गणपतियों के साथ सामने से प्रवेश करता है। इंद्र सिंहासन छोड़कर उनकी आगवानी में आगे बढ़ता है। उन्हें एक ओर आसन देकर अपने आसन पर बैठता है।

एक ऋषि : गणपति की वंदना करता है :

विनायक नमस्तुभ्यं सततं मोदकप्रिय ।

अविघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ॥

(विनायक आपको प्रणाम। आपको हमेशा मिष्ठान्न पसंद है। हमारे सारे कार्य हमेशा आप विघ्न रहित करें।)

इंद्र : (गणपतियों को संबोधित) हे गणपति, युद्ध और निरंतर युद्ध से आप थक गये होंगे। हम कुछ दिनों तक युद्ध विराम की स्थिति पैदा करें, और आप सुखपूर्वक आमोद-प्रमोद में अपना समय व्यतीत करें।

एक गणपति : इंद्र हमसब आपके अनुग्रह से कृतार्थ हैं, पद –प्रतिष्ठा और सुख –सुविधा से। लेकिन एक दुविधा हमें हमारे मन में हमेशा होती है, हमें अपनों के ही विरुद्ध युद्ध करना पड़ रहा है। शान्तिपूर्वक कृषि और उद्योगों में लगे अपने लोगों के विरुद्ध व्यूह रचना करना पड़ रहा है।

इंद्र : देवताओं! आप एक महान कार्य में लगे हैं। यज्ञ-संस्कृति की स्थापना के साथ ही यह निरंतर युद्ध भी समाप्त हो जायेगा। हम सब भी कृषि, उद्योग और आध्यात्मिक साधनाओं में संलग्न हो सकेंगे।

दूसरा गणपति : लेकिन हम सब..

एक ऋषि : आप देवेन्द्र की विकास-योजना रूपी रथ के वाहक हैं गणपति! आपके समूह के अज्ञानी जन देवेन्द्र की विकास योजना को समझ पाने में असमर्थ हैं। और आप सब, आप सारे गणपति यज्ञ में अग्रपूजा से प्रतिष्ठित किये जायेंगे। आप देवताओं के भी देवता  के रूप में प्रतिष्ठित होंगे। यज्ञ-संस्कृति अखिल विश्व की महानतम संस्कृति है, जो अधम इसके विकास में बाधा पहुँचा रहे हैं, उनके खिलाफ आपके संग्राम को आनेवाली संतंतियाँ स्तुत्य मानेंगी !

दूसरा ऋषि : देवेन्द्र इस सम्पूर्ण द्वीप को आर्यावर्त बना देना चाहते हैं, जहां एक भाषा, एक संस्कृति अविरल प्रवाहमान हो। जहां सारे नर-नारी श्रेष्ठ आर्यों के समान आचरण करें। एक विकसित आर्यावर्त के लिए देवेन्द्र अहर्निश कर्मरत हैं, युद्धरत हैं।

इंद्र (अभिभूत) : आप ऋषियों और गणपतियों के प्रताप से आर्य सभ्यता दिक्-दिगंत में स्थापित होगी। युद्ध और विजय की रणनीतियां हमपर छोड़ दें आप। आइये हमसब इन नीति और मर्म की बातों को विराम दें! (बिना किसी से मुखातिब हुए सामने देखते हुए) सोमरस के घट तैयार किये जायें और अप्सराओं को नृत्य के लिए आहूत किया जाये।

अप्सराओं के नृत्य के साथ इंद्र सहित पूरी सभा रास-रंग में डूबती चली जाती है।

 

तीसरा पर्व

(गंगा के मैदानी इलाके में युद्ध के बाद की एक रात। युद्ध क्षेत्र के एक शिविर में कुछ वीरांगनायें बैठी हैं। सामने अलाव जल रहा है। ये सभी वीरांगनायें हैं, लेकिन युद्ध में संलग्न नहीं हैं। ये सिंधु क्षेत्र से गणनायिका नृऋति की योद्धा हैं। इनमें से एक नृऋति की दौहित्री असुरप्रिया भी है।)

पहली स्त्री : महिष इन सुरों पर प्रलय बनकर टूट रहे हैं। इतना कठिन संघर्ष इन देवताओं ने किसी क्षेत्र में नहीं देखा होगा।

दूसरी स्त्री :  मुझे समझ में नहीं आता कि ये रक्त-पिपासु सुर किस महान संस्कृति के प्रसार के लिए पूरे द्वीप में मारकाट कर रहे हैं। इनके यज्ञों से मुझे घृणा होती है। अटपटी कविताओं के साथ पशुओं की बलि देकर ये देवताओं को खुश करने का आध्यात्मिक आयोजन करते हैं।

तीसरी स्त्री : इनकी सभ्यता प्रसार के साथ हमारी मातृ व्यवस्था का भी अंत तय है। वैसे तो इन्होने हमारी गणनायिका नृऋति को आश्वासन दिया है कि ये हमारे गण और हमारी मातृ संस्कृति को प्रभावित नहीं करेंगे। हमारी गणनायिका से इन्होंने मैत्री संधि भी की है।

पहली स्त्री : सुना है कि उर्वशी गण के साथ भी इन्होंने ऐसी ही संधि-वार्ता की है । शान्तिप्रिय हमारे गण इनकी संधि-वार्ताओं को मान भी लेते हैं।

तीसरी स्त्री : लेकिन इन संधि-वार्ताओं का अभिप्राय ठीक वैसा ही नहीं है, जैसा दिखता हैं।

दूसरी स्त्री : (चौकते हुए) मतलब?

तीसरी स्त्री : इतने भी भोले हैं हम क्या? क्या हम नहीं देखते हैं कि हमारे ही गणों में मातृ व्यवस्था का पुराना स्वरुप ढीला पड़ता जा रहा है। और तो और अब हमारे गणों में भी छोटे-छोटे यज्ञ होने लगे हैं। यद्यपि उनमें पशुबलि का प्रावधान नहीं है, लेकिन कितने दिन, जल्द ही वह भी शुरू हो जाएगा।

पहली स्त्री : और उनके भट्ट, (अचानक से खडी होकर अपने पेट को थोड़ा आगे निकालकर) कुछ इस तरह हमारे इलाकों में आकर अपने उच्च कठोर रागों में कवितायें अलापते हैं—(इंद्र की स्तुति का एक गीत गाती है नक़ल के साथ) और खिलखिलाती है।

इंद्र की स्तुति: आ त्वां वहन्तु हरयो वृषणम सोमपीतये। इन्द्रम तवा सूरचक्षसः

(हे इंद्र देवता! काम्य वस्तुओं की वर्षा करने वाले आपको सोमरस पीने के लिए घोड़े ले आवें। आपको सूर्य के समान प्रकाशवाले ऋत्विज से प्रकाशित करें।)

जब इन दुष्टों को ऐसे स्तुति गायन से हमारे लोग रोकते हैं तो ये चालाक भट्ट हमारी देवियों की स्तुति में कविता कहते हैं। (अब तक चुप बैठी असुरप्रिया के पास आकर) हमारी असुरप्रिया के सौन्दर्य की कविता सुनाये तो उन्हें कौन भगायेगा भला : (चेहरे पर शरारत के साथ स्तुति श्लोक दुहराती है)

वसुधेव विशाला सा सुमेरुयुगलस्तनी। दीर्घौ लम्बावतिस्थूलौ तावतीव मनोहरौ॥7॥

कर्कशावतिकान्तौ तौ सर्वानन्दपयोनिधी। भक्तान् सम्पाययेद्देवी सर्वकामदुघौ स्तनौ॥8॥

(देवी रक्त दन्तिका का आकार वसुधा की भाँति विशाल है। उनके दोनों स्तन सुमेरु पर्वत के समान हैं। वे लंबे, चौडे, अत्यन्त स्थूल एवं बहुत ही मनोहर हैं। कठोर होते हुए भी अत्यन्त कमनीय हैं तथा पूर्ण आनन्द के समुद्र हैं। सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति करने वाले ये दोनों स्तन देवी अपने भक्त  को पिलाती हैं।

असुरप्रिया को इन भंगिमाओं पर कोई प्रतिक्रया न देते देख दूसरी स्त्री पहली को चुप कराती है : चुप्प। देखती नहीं असुरप्रिया तुम्हारे स्वांग पर भी मौन हैं। शायद विचारमग्न हैं।

असुरप्रिया : (अब तक चुप थी, उनकी ओर फीकी मुस्कान के साथ देखती है और खड़ी हो जाती है, उठकर बेचैन टहलने लगती है। फिर पास आकर उनके बीच ही बैठ जाती है) हम नीतिज्ञों की विसात पर बिछ जाने को मजबूर हैं। अन्यथा इस युद्ध से हमारा क्या प्रयोजन? हमारीसंधि हो चुकी थी और हमारा गण सुखपूर्वक जीवन व्यापार में, आमोद-प्रमोद में लगा था। इस बीच ही मातामह ने न जाने क्या सोचकर मुझे यहाँ आने का आदेश दे दिया- शान्ति वार्ता के निमित्त। जीतता हुआ महिष इंद्र से शान्ति वार्ता क्यों करना चाहेंगे भला?

पहली स्त्री : असुरप्रिया! आपने भी तो अपने युद्ध कौशल और साहस से इन देवों को पराजित कर दिया था। आपकी वीरता से भयभीत ये पलायन करने ही वाले थे कि….

दूसरी स्त्री : कि हमारे बीच से विश्वासघात हुआ, हमारा गणपति इंद्र से मिल गया। महिषी नृऋति को इन लोगों ने कैद कर लिया। हमारे पूरे गण में हाहाकार मच गया। हमलोग अपने अस्त्र-शस्त्र के साथ इंद्र के शिविर की ओर बढे। हमारी नायिका असुरप्रिया आगे-आगे थी।

पहली स्त्री : हमने, हमारी वीरांगनाओं ने तय कर लिया था कि इंद्र और उसके देवों के उत्पात को सदा-सदा के लिए समाप्त कर देंगे।

तीसरी स्त्री : लेकिन इंद्र और उसके ऋषियों की दुरभिसंधियों से हम अनजान थे। हम युद्ध करने के लिए बढ़े थे और वे हमारी नायिका असुरप्रिया की स्तुति में गीत गा रहे थे, पुष्पवर्षा कर रहे थे। उन्हें ज्ञात था कि युद्ध में वे असुरप्रिया को जीत नहीं पायेंगे।

पहली स्त्री : लेकिन हमारी असुरप्रिया उनके इस भ्रम-आयोजन में कहाँ आने वाली थी, वह और हम सब क्रोध से इंद्र की शिविर की ओर बढ़ते जा रहे थे कि

दूसरी स्त्री : कि हमारी आगवानी में आश्चर्य घटित हुआ। नर्मदा इलाके की गणनायिका उर्वशी असुरप्रिया  की आगवानी के लिए आगे आई। यह हमारे लिए महान आश्चर्य था।

तीसरी स्त्री : ऋषियों ने और इंद्र ने अपना व्यूह सफलतापूर्वक रचा था। हमारे गणों के भीतर अपनी संस्कृति को वे धीमे विष की तरह फैला रहे थे। दूसरी ओर शांतिप्रिय गणप्रतिनिधियों का दवाब था। गणपति जो युद्धों में हमारी ताकत हुआ करते थे उनके प्रलोभनों में आ रहे थे, ऐसा पूरे द्वीप में घटित हो रहा था। गणनायिका उर्वशी के साथ भी इनकी संधि-वार्ता हो चुकी थी।

पहली स्त्री : और जब हम इंद्र के शिविर में गये तो दूसरे महान आश्चर्य हमारा इन्तजार कर रहे थे वहाँ। हमारी नायिका नृऋति उनके बीच पराजितों सी नहीं बल्कि सम्मानित उच्च आसन पर बैठी थी। इंद्र उनके समीप नीचे एक आसन पर था और उसके साथ हमारा गणपति।

असुरप्रिया : यह सब देखकर हमारा क्रोध अब वैसा ही नहीं रहा था, जैसा मातामह की मुक्ति के उद्देश्य से हमारे इन्द्र-शिविर की ओर बढ़ते वक्त था। हमने मातामह की आँखों में एक अदृश्य विवशता देखी। लेकिन वे तत्कालीन स्थितियों से घिर कर एक समझौते की ओर जाने का निर्णय ले चुकी थीं।

पहली स्त्री : तो क्या हमारी नायिका असुरप्रिया आज नर्मदा गण की नायिका उर्वशी की भूमिका में हैं..

असुरप्रिया : (मौन)

तीसरी स्त्री : (झिड़कते हुए) अरी चुप्प, बहुत वाचाल है। हमारी नायिका असुरप्रिया  अपनी मातामह के आदेश से इस द्वीप में शान्ति का दूत बनकर आई हैं।

असुरप्रिया : (कुछ याद करते हुए) अभी कुछ मास ही तो गुजरे हैं कि हम- मातामह और मैं महिष के अतिथि थे।

पहली स्त्री : (ठिठोली करती हुई) : और सुना है तब नायिका नृऋति के मन में हमारी नायिका असुरप्रिया के लिए एक सुयोग्य वर भी था। कहीं वह विवाह वार्ता के लिए की गई यात्रा तो नहीं थी, सखि !

असुरप्रिया : (सल्लज) तो क्या मैं वरमाला लिए वर ढूंढती हुई देशाटन पर निकली थी, दुष्टे!

तीसरी स्त्री : प्रयोजन जो भी हो, लेकिन मैं जितना नायिका नृऋति को जानती हूँ, उससे तय हूँ कि वे महाप्रतापी महिष के प्रताप से अपने दौहित्री को अवगत कराने ले गई होंगी और यह भी कि वह स्नेह-राग पात्र के प्रति पात्रा के हृदय में प्रस्फुटित हो

असुरप्रिया : (आंशिक क्रोध से) तो क्या यह उपयुक्त अवधि है इस वार्तालाप की…

शिविर में शान्ति और मौन पसर गया. तभी सूदूर से एक मधुर स्वर सुनाई पड़ता है। असुरप्रिया और वहां उपस्थित सभी स्वर से स्पंदित दिखते हैं।

सिरिंग सिरिंग तेऽ ऽ ऽ गाला तींग बैठावनेनाऽ ऽ ऽ जीवतींग सिरिंग तेगेरेऽ ऽ ऽ

नाइ रेऽ ऽ ऽ जिउतींग सिरिंग तेंगरेऽ ऽ ऽ//2//

मांदाड़ रू रूऽ ऽ ऽ तीःतींग हासु नेना जिउ तींग मांदड़ तेंगरेऽ ऽ ऽ

ईऽ ऽ ऽ रे जिउ तींगमांदड़ तेंगरेऽ ऽ ऽ//2// (जतरा राग ) ।

असुरप्रिया : अहा, कितना मधुर गीत है, कितना मीठा स्वर

पहली स्त्री : मैं इस भाषा और स्वर को समझती हूँ. मैं महिष के प्रदेश में कई महीनों तक रह चुकी हूँ. वे गा रहे हैं :

गा गा कर कण्ठ बैठ गया पर मेरा हृदय उन्हीं गीतों पर अटका हुआ है।

मांदर बजा बजा कर हाथ दर्द हो गया है

मेरा हृदय मांदर के ताल में अटका हुआ है।

असुरप्रिया : महिष के राज्य में हर ओर सुख-शान्ति और समृद्धि है। प्रकृति से इस प्रदेश के रागात्मक संबंध कितना सहज और सुखकर है। स्वयं महिष एक अच्छे गायक बताये जाते हैं। प्रकृति से उनके लगाव ने उन्हें इन वन-प्रान्तों के पेड़-पौधों से उनका गहरा रिश्ता बना दिया है।

दूसरी स्त्री : वे प्रकृति के बेल-बूटों से मनुष्यों के रोग-शोक के लिए औषधियां बनाने में भी निष्णात हैं।

तीसरी स्त्री : तभी उन्हें औषधिराज भी कहा जाता है।

स्वर फिर गूंजता है :

विरोड में विरोड में ऽ ऽ ऽ हा ऽ ऽ ऽ स आम बिगर हा ऽ ऽ ऽ स एतालेकन बिहा हुय ओको ऽ ऽ ऽ आ

आम बिगर हा ऽ ऽ ऽ स एतालेकन विहा हुयओको ऽ ऽ ऽ आ //2//

लाएंगे में लाएंगे में बै ऽ ऽ ऽ गा आम बिगर हा ऽ ऽ ऽ स एतालेकन विहा हुयओको ऽ ऽ ऽ आ

आम बिगर हा ऽ ऽ ऽ स एतालेकन विहा हुयओको ऽ ऽ ऽ आ //2//

पहली स्त्री साथ-साथ गाती है, अर्थ करती हैं :

उठो मिट्टी उठो, तुम्‍हारे बिना विवाह कैसे होगी

खोदिये बैगा खोदिये, मिट्टी तुम्‍हारे बिना विवाह कैसे होगी

(एक परिचारिका इंद्र के आने की अनुमति लेने उपस्थित होती है। परिचारिका के पीछे–पीछे ही इंद्र भी आ जाता है। मदिरा से आँखें उन्मत्त हैं और पांवों में चंचलता है। असुरप्रिया और उसकी सखियाँ सचेत हो जाती हैं)

तीसरी स्त्री : (क्रोध से) : बिना अनुमति और असमय आने का प्रयोजन, देवेन्द्र !

इंद्र : मैं देखने आया था कि देवि असुरप्रिया को कोई कष्ट तो नहीं है न हमारे शिविर में।

दूसरी स्त्री : (व्यंग्य से) और इसलिए आप उन्मत इस अर्धरात्रि बेला में स्वयं हमारी सेवा में उपस्थित हुए हैं, यह आपकी दरबारी नर्तकियों का कक्ष नहीं है इंद्र !

इंद्र : मैं जानता हूँ कि यह देवि असुरप्रिया का कक्ष है, लेकिन क्या स्त्रीगणों की परम्परा में प्रेम निवेदन भी……

तीसरी स्त्री : आप असमय यह प्रस्ताव लेकर आये हैं देवेन्द्र! स्त्रीगणों में प्रेम निवेदन और कामुक प्रस्तावों में बहुत अंतर किया जाता है।

इंद्र : (असुरप्रिया के थोड़ा और पास आते हुए) ब्रह्माण्ड की अनिन्द्य सुन्दरी हमारे शिविर में हैं तो देवताओं का इंद्र उनका कुशल-क्षेम जानने के लिए स्वयं प्रस्तुत है।

असुरप्रिया : (ठोस मुद्रा और आवाज में) इंद्र निश्चिंत अपने कक्ष में विश्राम करें। मैं कल शांति प्रस्ताव लेकर महिष के पास जरूर जाउंगी।

(और वहाँ से थोड़ी दूर हट जाती है। साथी स्त्रियाँ इंद्र को घेर लेती हैं और उनके हाथ कमर से लगे कटार पर चले जाते हैं)

(इंद्र लज्जित सा लड़खड़ाता हुआ चला जाता है।)

अंतिम पर्व

महिष  का कक्ष। एक ऊंचे आसन पर महिष  बैठे हैं। पास के आसन पर असुरप्रिया । दूसरे अन्य आसानों पर सभासद। तथा असुरप्रिया के साथ की तीन सहेलियां।

महिष : (असुरप्रिया से मुखातिब) नायिका नृऋति सकुशल हैं? क्षमा चाहूंगा, पिछली बार आपलोगों के सामने मैं पुनः प्रकट नहीं हो सका। एक बार युद्ध के लिए निकला तो……

असुरप्रिया : महिष, आप क्षमा न मांगें, आपकी अपने जनों के प्रति प्रतिबद्धता को पूरा द्वीप जानता है। आपके जाने के बाद और आपकी वयस्तता को देखते हुए मातामह ने निश्चय किया कि हमें वापस जाना चाहिए। हम एक लम्बे समय से अपने गण से दूर थे।

महिष : इस बीच काफी कुछ घट गया। पूरे द्वीप में सुरों ने, आर्यों ने छल-बल से आतंक मचा रखा है।

असुरप्रिया : मातामह चाहती थीं कि द्वीप के सारे गणों-असुर, यक्ष, नाग, द्रविड़, स्त्री सबके बीच एकता बने ताकि अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए हम स्थायी समाधान कर सके।

महिष (कटाक्ष) : लेकिन ऐसा होने के पहले ही सारे गणों ने इन दुष्ट आर्यों से संधि-वार्ता कर ली।

असुरप्रिया : मैं जानती हूँ कि आप नृऋति गण के समझौते से सबसे ज्यादा आहत हुए थे।

महिष : निस्संदेह ! मैं उसे सबसे प्रतापी गण मानता था, और आत्मीय भी। जिसकी भावी नायिका की उपलब्धियों, वीरता और नेतृत्व क्षमता को सारा द्वीप सम्मान देता था।

असुरप्रिया : हम कृतार्थ हैं, महिष ! लेकिन इंद्र की चतुराई और उपस्थित स्थितियों के आगे हम विवश हो गये।

महिष : और आज वे गंगा और पठार के इलाके में भी हम असुरों को जीतना चाहते हैं।

असुरप्रिया : उनकी रक्तपिपासा है कि और उद्दीप्त होती जा रही है, उनके उत्पात बढ़ते जा रहे हैं! महिष अब कुछ चंद गणनायकों में से एक हैं, जो अभी भी इनके प्रभाव से दूर हैं, न तो विजित हुए हैं, न संधि की है।

महिष : लेकिन इनकी कूटनीतियाँ हम सभी को प्रभावित कर रही हैं। असुर गणों में भी इनके दुष्ट ऋषि यज्ञ संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं। सभी विचार परम्पराओं के प्रति हमारी सहिष्णुता की नीति का ये लोग फायदा उठा रहे हैं। (थोड़ा रूक कर) आप आने का प्रयोजन बतायें असुरप्रिये ! आपके पराक्रम की कथा मैंने बहुत  सुन रखी है।

असुरप्रिया : हे महिष, हम चाहते हैं कि इस द्वीप में स्थायी शान्ति हो। इनके उत्पातों को अंतिम विराम मिले।

महिष : (व्यंग्य से) ओ, तो आप शान्ति दूत बनकर आई हैं। (थोड़े आवेग में) कैसी शांति गण सुन्दरी ! क्या अपने पशुओं की बलि देकर? अपने किसानों के हितों को त्यागकर?  कैसी शान्ति चाहती हैं नायिका नृऋति और उनकी दौहित्री! क्या स्त्री गणों में भ्रष्ट होती उनकी संस्कृति इस द्वीप में अब किसी को अज्ञात है!

असुरप्रिया : हे नायक, हमें आपके प्रताप पर आंशिक संदेह नहीं है, लेकिन इन आर्यों ने छल-बल से अबतक अपना साम्राज्य विस्तार ही किया है।

महिष : (तेज आवाज में) और आप भी उसी छल-प्रयोजन का हिस्सा बनकर आई हैं। जैसे उर्वशी आपके पराभव का कारण बनीं।  

असुरप्रिया : शांति हम सबके हित में है महिष ! युद्धोन्माद से हमारे जन त्रस्त है। शांति स्थापित कर हम अपनी संस्कृति को सुदृढ़ कर इनसे लड़ सकते हैं, इनके सांस्कृतिक षड्यंत्र को रोक सकते हैं।

महिष : कैसी लड़ाई कह रही हैं आप, स्त्रियों का एक भी गण वह लड़ाई नहीं लड़ सका। सुना है आपकी स्तुति में भी ऋचाएं कह रहे हैं इनके कवि। स्त्रीगणों के आराध्यों और इनके आराध्यों के परस्पर विवाह के आख्यान रचे जा रहे हैं। आपको शक्ति की देवी बताया-बनाया जा रहा है।

दरवाजे पर कोलाहल

महिष : यह कैसा कोलाहल है?

कुछ सैनिक दौड़ते हुए आते हैं और बदहवास चिल्लाते हैं इंद्र ने शिविर पर हमला बोल दिया है. और.. और असुरप्रिया  ….

महिष : (तलवार निकालकर असुरप्रिया की तरफ बढ़ते हुए) तो आप छल के लिए ही आई हैं, असुरप्रिया। कितने सैनिकों के साथ आयी हैं?

असुरप्रिया : (अचंभित) विश्वास करिये महिष मैं अपनी विश्वस्त तीन साथियों के साथ ही आई थी यहाँ निःशस्त्र।

(दरवाजे से इंद्र और उसके सैनिकों का प्रवेश। आते ही वे मारकाट शुरू करते हैं । असुरप्रिया चिल्लाती है, ठहरो, रुको ! लेकिन युद्ध का कोलाहल बढ़ता जाता है। असुरप्रिया  और उसकी तीन साथी देवों से हथियार छीन लेते हैं। और महिष  की ओर से लड़ने लगते हैं। महिष और असुरप्रिया के प्रलयंकर युद्ध से आर्यों की सेनायें कटती चली जाती हैं. इंद्र के पाँव उखड़ने लगते हैं. तभी उनके समर्थक सैनिकों की एक और टुकड़ी वहाँ प्रवेश करती है)

असुरप्रिया : इंद्र ! अभी भी समय है, आप युद्ध रोकें, यह छल है, यह षड्यंत्र है। आप महिष को युद्ध में नहीं जीत सके तो छल के लिए मेरा प्रयोग किया आपने !

इंद्र : प्रेम और युद्ध है यह देवी, आज असुरराज की ह्त्या होगी और इनका साम्राज्य और आप मेरी भावी साम्राज्ञी होंगी!

असुरप्रिया : दुष्ट इंद्र ! यह मेरे रहते संभव नहीं है! (वह और अधिक प्रलयंकारी हो जाती है)

कोलाहल में इस संवाद से अभिज्ञ महिष युद्ध करते हुए इंद्र की ओर बढ़ते हैं, तभी पीछ से उनकी पीठ में पीछे से एक खंजर घोंप दिया जाता है।)

(महिष और असुरप्रिया उस व्यक्ति को देखते हैं, जिसने पीठ में खंजर डाल दिया था और एक साथ आश्चर्य के साथ चीखते हैं): गणपति तुम !

(लडखडाते महिष गणपति की ओर प्रहार के लिए बढ़ते हैं तभी इंद्र उनपर प्रहार करता है। ध्यान भंग होते ही गणपति असुरप्रिया के हथियार झपट लेता है) अचानक हुए प्रहारों से महिष के गिरते ही इंद्र तलवार से अनेक प्रहार करता है,  असुरप्रिया  चीखती है!  भागो, मारो का कोलाहल !!

(क्षत–विक्षत पडे महिष  असुरप्रिया… असुरप्रिया.. चिल्लाते हैं. असुरप्रिया पास आती है-कातर और उन्मत्त!)

महिष : (पीड़ा से कराहते हुए, असुरप्रिया की ओर देखते हुए) मैं तलवार के साथ आपकी ह्त्या के लिए आगे नहीं बढ़ रहा था, स्त्रियों पर हम असुर प्रहार नहीं करते गण सुंदरी ! मैं आपको निःशस्त्र कर बंदी बनाना चाहता था, और युद्ध के इस क्षेत्र से सुरक्षित भेज देना चाह रहा था.. और दुष्ट इंद्र को… (पीड़ा से) आह…. आपको आपके छल का दंड मिलेगा असुरप्रिया, आपको आने वाला समय दंड देगा, आपका मान-सम्मान समाप्त हो जाएगा। मेरी चिंता यह है कि असुर जब आपके छल के बारे में जानेंगे तो न सिर्फ उन्हें भयानक पीड़ा होगी, इस द्वीप में सहयोगी गणों के बीच युद्ध छिड़ जायेगा, ये देव, ये इंद्र उसका लाभ उठायेंगे! (कराहते हुए आंखें बंद करते हुए)

असुरप्रिया : मेरा विश्वास मानें असुरश्रेष्ठ, मेरा ऐसा कोई अभीष्ट नहीं था, (इंद्र की ओर क्रोध से देखते हुए) देवों ने, इंद्र ने छल किया है। मैं अपनी मातामह की शान्ति- इच्छा का सम्मान करने के लिए आपके पास आयी थी, द्वीप युद्धमुक्त हो, बस यही कामना थी हमारी ! आप देख रहे होंगे रक्त पिपासु इन युद्धों का दुष्परिणाम! हम स्त्रियां ही इसका दुष्परिणाम झेल रही हैं। स्त्रियां-पुरुष-बच्चे सब मारे जा रहे हैं। स्त्रियां लूटी जा रही हैं, विजेताओं के उपभोग की वस्तु बन रही हैं। सारी शान्ति वार्ताओं का प्रयोजन यही था महिष, सारे स्त्रीगण इसी प्रयोजन से इन दुष्ट आर्यों के साथ समझौते कर रहे हैं। अपने पराक्रम और बल के होते हुए नायिका उर्वशी ने वही किया और बाद में हमने और हमारी नायिका नृऋति ने भी।

महिष : (गणपति की ओर क्रोध, क्षोभ और दुःख से देखते हुए) पद-प्रतिष्ठा की क्या कमी थी गणपति तुम्हें असुरों के बीच. इस छल का प्रयोजन?

महिष : (गणपति का प्रत्युत्तर सुने बिना, मर्मान्तक पीड़ा के साथ) आर्य संस्कृति इस पूरे द्वीप को लील ले जायेगी …. स्त्री-गण की अपनी व्यवस्था पर ये जल्द ही अपना प्रभुत्व स्थापित करेंगे। असुरों की संस्कृति को भी ये नष्ट कर देंगे। अपने आख्यानों से ये नायक और खलनायक तय करेंगे…. गणपति, गणाधिपति बुलाये जाने लगे हैं, उन्हें अग्रपूजा का प्रलोभन है…. और ….आह .. आप को बधाई असुरप्रिया  .. आप नायिका घोषित होंगी (चेहरे व्यंग्य और पीड़ा…. ) आह!

असुरप्रिया : (विलाप करती हुई) प्रिय महिष आप अपने अंतिम शब्दों से मुझे बेधते हुए मुझे व्यथित छोड़कर नहीं जायें। हमने एक सपना देखा था असुरराज पूरे द्वीप में एकता और शान्ति का और हाँ हमारे आत्मीय संबंध का भी। दुष्ट इंद्र ने हमारे सपनों को छीन लिया (विलाप करती है)

महिष स्नेहपूर्ण निगाहों से असुरप्रिया को देखते हैं और क्रोध से इंद्र को। पूरा बल लगाकर कहने की कोशिश करते हैं अ. सु …र … सं .स्कृ…..ति …अभ ..य  हो ! महिष   ने अंतिम सांसें लेते हुए अपनी आँखें बंद कर ली। असुरप्रिया चीत्कार कर उठती है और फिर बेहोश हो जाती है।

इंद्र : (सैनिकों से) : असुरप्रिया को शिविर में ले जाओ और ध्यान रहे अपने गण तक सकुशल पहुँचने के पहले ये किसी से भी न मिलें, इन्हें चेतना न आने पाये। ऋषियों को कह दो कि आज के इस युद्ध में असुरप्रिया  के पराक्रम का आख्यान रचें। यह युद्ध असुरप्रिया के युद्ध के नाम से जाना जाये। गणपति के विश्वासघात की सूचना असुरों को न मिले। गणपति को अभी आर्यों की विजय यात्रा को निर्विघ्न बनाने के महत कार्य करने हैं। उनका विश्वास असुरों के बीच बना रहे। और हाँ, महिष की ह्त्या के लिए असुरप्रिया के स्तुति मन्त्र लिखे जायें। (कुटिलता के साथ अट्टहास!) और…. और अब द्रविड़ विजय अभियान! (और जोर से अट्टहास….)

ऋषि असुरप्रिया की स्तुति में रचे गीत गाते हैं।)


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लेखक के बारे में

संजीव चन्दन

संजीव चंदन (25 नवंबर 1977) : प्रकाशन संस्था व समाजकर्मी समूह ‘द मार्जनालाइज्ड’ के प्रमुख संजीव चंदन चर्चित पत्रिका ‘स्त्रीकाल’(अनियतकालीन व वेबपोर्टल) के संपादक भी हैं। श्री चंदन अपने स्त्रीवादी-आंबेडकरवादी लेखन के लिए जाने जाते हैं। स्त्री मुद्दों पर उनके द्वारा संपादित पुस्तक ‘चौखट पर स्त्री (2014) प्रकाशित है तथा उनका कहानी संग्रह ‘546वीं सीट की स्त्री’ प्रकाश्य है। संपर्क : themarginalised@gmail.com

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