मनु स्मृति के अध्याय 10 का श्लोक 75 कहता है-
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहश्रैच्व पष्कमर्मण्यग्रन्मन: ।
(अध्यापन, अध्ययन, यजन, दान और प्रतिग्रह ये छः कर्म अग्रजन्मा (ब्राह्मण) के हैं। )
मनुस्मृति का उपर्युक्त श्लोक कोई अपवाद नहीं है, अधिकांश हिंदू धर्मशास्त्र, पुराण और महाकाव्य इसका समर्थन करते हैं और यही हिंदू समाज की व्यवहारिक सच्चाई भी रही है। हजारों वर्षों तक अध्यापन के पेशे पर कुछ एक कथित उच्च जातियों का एकाधिकार रहा है। इस एकाधिकार को अत्यन्त सीमित पैमाने पर ही सही आरक्षण के माध्यम तोड़ने की कोशिश की गई। एससी-एसटी को तो संविधान में आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया, लेकिन सामाजिक-शैक्षणिक तौर पर पिछड़े वर्गों को करीब 45 वर्षों तक इंतजार करना पड़ा। विश्वविद्यालयों में अध्यापकीय पदों पर अभी आरक्षण शुरू ही हुआ था कि उसे व्यवहारिक तौर पर नाकाम और निष्प्रभावी बनाने की कोशिशें आरक्षण-विरोधी मानसिकता के लोगों ने शुरू कर दीं। विश्वविद्यालयों में पूरे विश्वविद्यालय की जगह विषय/विभाग को इकाई मान कर आरक्षण लागू करने का हाल का यूजीसी का प्रस्ताव आरक्षण को नाकाम और निष्प्रभावी बनाने की इसी प्रक्रिया की एक कड़ी है। इस पूरी परिघटना को उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालयों के उदाहरण से अच्छी तरह समझ सकते हैं।
उत्तर प्रदेश में उच्च शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण, मण्डल रिपोर्ट के लागू होने के पश्चात् वर्ष 1994 में लागू किया गया और इससे संबंधित अधिनियम को 23 मार्च 1994 को अधिसूचित किया गया। इसे उ.प्र. लोक सेवा (अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण) अधिनियम, 1994 कहा गया। इस अधिनियम के पारित होने के बाद उ.प्र. में सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया। अधिनियम के हिस्से के तौर पर ही एक रोस्टर भी 100 पदों का अनुमान मानकर जारी किया गया। इस रोस्टर के आधार पर यह तय किया जाना था कि किसी विभाग, संस्था और उत्पादक इकाई में आरक्षण किस प्रकार दिया जाएगा। यह रोस्टर कहता है कि वैकेन्सी का पहला पद अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित होगा, दूसरा पद अनारक्षित होगा, तीसरा अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए होगा, चौथा पुनः अनारक्षित होगा। किन्तु जैसे ही आरक्षण का यह अधिनियम पारित हुआ वैसे ही इसको लागू करने में प्रशासनिक हीला-हवाली का दौर प्रारंभ हो गया और नौकरशाही में बड़ी संख्या में मौजूद उच्च जातियों के नौकरशाहों ने इसको लागू करने में पर्याप्त सुस्ती दिखाई। उच्च शिक्षण संस्थाओं में इसको लेकर बहुत विवाद हुआ। फिर भी विश्वविद्यालयों में 1998 से 2000 के बीच पहली बार आरक्षित वर्गों के लिए शैक्षणिक पदों पर नियुक्ति का रास्ता खुला, परन्तु यह अधिकांश नियुक्तियां प्रवक्ता (असिस्टेंट प्रोफेसर) संवर्ग में ही हो पाईं, रीडर और प्रोफेसर के पदों पर इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर चयन समितियों ने यह कहकर पद खाली छोड़ दिया कि कोई भी उपयुक्त प्रत्याशी नहीं मिला । उसी दौरान यह भी विवाद खड़ा हुआ कि आरक्षण के लिए विश्वविद्यालयों में इकाई विश्वविद्यालय को माना जाय अथवा विश्वविद्यालय के अन्तर्गत आने वाले विविध संकायों अथवा विभागों को इकाई माना जाय। हुआ यह था कि विश्वविद्यालय के प्रशासन ने प्रोफेसर और रीडर के पदों को उन विभागों में आरक्षित कर दिया था, जहां सीधे-सीधे उनके हित प्रभावित नहीं हो रहे थे। परिणाम यह हुआ कि कुछ विभागों में एक से ज्यादा पद आरक्षित थे जबकि कुछ विभागों में कोई पद आरक्षित नहीं था। लिहाजा कुछ असन्तुष्ट लोग इस मामले को लेकर न्यायालय में गए और काफी लंबा समय लेने के बाद न्यायालय ने विश्वविद्यालयों में विभाग को इकाई मानने का निर्णय लिया। यह अपने आप में अधिनियम की मंशा को चोट पहुंचाने वाली बात है, क्योंकि यदि विश्वविद्यालय को इकाई मानकर आरक्षण लागू किया जाय तो जाहिरा तौर पर आरक्षित वर्गों के हिस्से में ज्यादा पद आते। उदाहरणार्थ यदि किसी विश्वविद्यालय में प्रवक्ता के 100 पद रिक्त हों तो इनमें से 50 पद अनारक्षित, 21 पद अनुसूचित जाति, 02 अनुसूचित जनजाति तथा 27 पद अन्य पिछड़े वर्गो के लिए आरक्षित हो जाते, किन्तु जैसे ही विभाग को इकाई बना दिया जाता है वैसे ही यह संख्या कम हो जाती है। क्योंकि यदि किसी विभाग में प्रोफेसर का 1 ही पद है तो नियमानुसार वह अनारक्षित हो जाता है। विश्वविद्यालयों में ज्यादातर विभागों में प्रोफेसर के 1 या 2 पद ही होते हैं। कुछ बड़े विभागों में ही 01 से ज्यादा प्रोफेसर के पद होते है। इस तरह से प्रोफेसर पद पर आरक्षित वर्ग के लोगों की सीधी भर्ती का रास्ता बन्द कर दिया गया।
वर्ष 2016 में उ.प्र.सरकार के उच्च शिक्षा विभाग ने एक शासनादेश निकाला जिसमें विभिन्न वादों में हुए निर्णयों के अनुपालन के क्रम में यह कहा गया कि अब जब किसी विभाग में किसी एक संवर्ग में कम से कम 04 पद रिक्त होंगे, तब 01 पद पिछड़ा वर्ग को और 05 पद रिक्त होने के स्थिति में 01 पद अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित होगा। इस प्रकार शासनादेश के आने के पश्चात् तेजी से विश्वविद्यालयों ने भर्ती के विज्ञापन निकाले और आरक्षण के प्रावधानों को धता बताते हुए कुछ एक ने नियुक्तियां भी कर लीं। वर्ष 2014 में स्थापित सिद्धार्थ विश्वविद्यालय ने 2016 में जब अपने यहां पहली बार रिक्तियां विज्ञापित कीं, तो एक अद्भुत शातिर चाल स्पष्ट हुई। विश्वविद्यालय प्रशासन ने उ.प्र. शासन से प्रत्येक विभाग में चाहे वह प्रायोगिक हो अथवा अप्रायोगिक, मात्र 04 पदों की संस्तुति मांगी। इन 04 पदों में 01 पद प्रोफेसर का, 01 पद एसोसिएट प्रोफेसर का और 02 पद असिस्टेंट प्रोफेसर का था। नए शासनादेश के मुताबिक अब इन चारों पदों पर कोई आरक्षण लागू नहीं हो सकता था। इस प्रकार लगभग 84 पद विज्ञापित हुए। किन्तु आरक्षित वर्ग के हिस्से एक पद आया। यह बात और है कि जाने किन कारणों से वाणिज्य विभाग को छोड़कर अन्य किसी विभाग में सिद्धार्थ विश्वविद्यालय में नियुक्तियां नहीं हो पायीं। इस विज्ञापन के बाद आरक्षित वर्ग के कई सारे अभ्यर्थी जिनके हित प्रभावित हो रहे थे, कोर्ट गए और उनके मामले विभिन्न न्यायालयों में लंबित हैं। इस मामले में अभी तक किसी अंतिम निर्णय की सूचना नहीं है।

मोहन वैद्य आरएएस (संघ) के प्रवक्ता हैं
मेरे विचार से आरक्षण को प्रभावी ढंग से लागू करने को कौन कहे, सरकारें अब बिना विधायी परिवर्तन के इसे निष्प्रभावी बनाना चाहती हैं, क्योंकि घोषित तौर पर आरक्षण का विरोध करना किसी भी राजनीतिक दल के लिए संभव नहीं है। भाजपा, जो घोषित तौर पर मध्यवर्गीय सवर्णों की पार्टी है और जिसकी बौद्धिक जननी संघ परिवार है, उसने भी भारत की जमीनी सच्चाईयों के मद्देनजर नरेन्द्र मोदी जैसे पिछड़े वर्ग से आने वाले व्यक्ति को भारत का प्रधानमंत्री और अनुसूचित के रामनाथ कोविन्द को भारत का राष्ट्रपति पद सौंपना पड़ा । किन्तु अपने मूल स्वभाव में यह पार्टी सवर्ण हिंदुओं के पक्ष में झुकी हुयी है और आरक्षण भीतरी तौर पर स्वीकार नहीं कर पाती है। इसलिए भगवामय होते भारत में दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों के हित सुरक्षित नजर नहीं आते। जबकि जनतांत्रिक व्यवस्था में संख्या का गणित बहुत मायने रखता है और सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भी भारत की जनसंख्या का बहुलांश इन्हीं वर्गो से बनता है। ऐसे में आरक्षण का घोषित विरोध किसी भी राजनीतिक दल के लिए राजनीतिक आत्महत्या जैसा होगा। फलतः सरकारें अब घोषणा किए बिना ही प्रशासनिक दांवपेंच और अदालतों की आड़ लेकर आरक्षण को निष्प्रभावी करने में लग गई हैं।
मनुस्मृति का साफ कहना है कि शूद्रों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं है। शिक्षक बनने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। मनुस्मृति की इस व्यवस्था को तोड़ने के लिए संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया। विश्वविद्यालयों के असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर सभी पदों पर एससी/एसटी और ओबीसी को प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षाण का प्रावधान किया गया। यह आरक्षण लागू न होने पाये, इसके लिए उच्च जातियां तरह-तरह का कुचक्र रचती रही हैं। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी आरक्षण पर पुनर्विचार करने का आहवान किया, भले ही संघ और भाजपा मजबूरी के चलते पिछड़े वर्ग के नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री और दलित समाज के रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाने को बाध्य हुए हों, लेकिन ये लोग भीतर ही भीतर आरक्षण को परोक्ष तरीके से खत्म करना चाहते हैं।
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Shandar lekh…
Obc/Sc k log agr RSS ki sajis ko nhi samjhe to reservation ab bina kisi virodh k chup chap khatm kr diya jayega.so sbko sath mil k sangharsh krna hoga.
This is the policy of govt. To remove reservation and trying to abolish the growth of sc/St/obc in society.
Also, this is the step to keep them on the stage of 100 years back before reservation & Constitution made by Dr. Baba sahab ambedkar
आरक्षण ख़त्म होना चाहिए| जो गलती मनु स्मृति या पहले के ज़माने के ऊँची जाति ने किया है,उसकी सजा हमारे बच्चों को मिल रही है| टैलेंट होते हुए भी हमारे बच्चों को कहीं सीट नहीं मिलता इस आरक्षण के चलते| और हमने तो ये भी देखा है आरक्षण प्राप्त करनेवाले बड़े गर्व से कहते हैं कि उनके बच्चे को टैलेंट के कारण सीट मिला है| अगर इन वर्गों को सहायता करना है तो सरकार उनको आर्थिक सहायता दे सकती है ना कि हमारे अधिकारों को छीनकर किसी अयोग्य को उस स्थान पर बिठाकर| मैं एक प्रोफेसर हूँ और मैंने बहुत सारे पुस्तकों का अध्ययन किया है और मुझे दुःख है कि इन जातियों पर अत्याचार हुए पर ये भी सच है कि जब समाज में कार्यों का बंटवारा हुआ तो सबको उसके योग्य कार्य दिया गया था| बाद में उसका गलत इस्तेमाल जरुर किया गया था पर इसका मतलब ये नहीं कि जो योग्य हैं उन्हें उसके स्थान से वंचित किया जाये|
पुरे भारतवर्ष मे जनरल कोटा की आबादी 7% है और पिछरि जाती,जनजाति और अनुसूचित जाति कि आबादी 60% है। तो क्यो आरछण नही होना चाहिये।आप लोगो को सिर्फ 7% मे ही जगह बननी है पर यहा तो 60% मे जगह बननी है। 100 मे सिर्फ sc,ct को 27% ही है बाकी 70 सिट मे 7% को जगह बनना है। उसमे बी दिक्कत है।
Reservation yadi jatt based per hi raha tho jald India me .anti Indian o bane ge Jo poor hone ke babjud reservation se out hai
Or rich ko reservation
Castiesm or untouchabilty aaj bhi bharat ki sacchi hai