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दबंगों के गांवों में फुटबॉल खेल रहीं आंबेडकर की बेटियां

नब्बे के दशक में शुरू हुए सामाजिक बदलाव से दलित, पिछड़ा व आदिवासी महिलायें अब भी दूर हैं। एक दलित महिला प्रतिमा पासवान के अभिनव प्रयोग के परिणामस्वरूप बिहार की राजधानी पटना के ग्रामीण इलाकों में फुटबॉल महिलाओं की जिंदगी में परिवर्तन का वाहक बन रहा है। बता रहे हैं नवल किशोर कुमार :

बिहार में सामाजिक बदलाव बड़ी तेजी से हो रहे हैं। एक प्रमाण आंबेडकर की बेटियां हैं जो हाल तक अपने घरों के अंदर सहमी सिमटी रहती थीं, अब बेझिझक और पूरे अधिकार के साथ अपने गांवों के मैदान में फुटबॉल खेलती हैं। वह भी उन गांवों में जहां सवर्ण जाति के लोग अधिक हैं।

बदलाव का यह नजारा राजधानी पटना के ग्रामीण इलाकों में रोज शाम को देखा जाने लगा है। इन गांवों में मुर्गियाचक, सरिस्ताबाद, गोरियानी, अकबरपुर, अब्बु लोदीपुर, मांझी टोला, दरियापुर, परसा,  सकरैचा, ढिबरा, नगवां और गोनपुरा आदि शामिल हैं। पहले गांव के शोहदे छींटाकशी करते थे। अब वे भी प्रेरित होकर ताश खेलने के बजाय फुटबॉल खेलने लगे हैं।

आंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस (6 दिसंबर) के मौके पर पटना के सावरचक गांव के मैदान में फुटबॉल खेलतीं लड़कियां

बदलाव के पीछे फुटबॉल वाली दीदी

फुटबॉल के जरिए लड़कियों के आत्मविश्वास को बढ़ाने का यह अभिनव प्रयोग एक दलित महिला प्रतिमा पासवान ने किया है।

प्रतिमा की शादी उस समय कर दी गयी थी, जब वह शादी का मतलब भी नहीं समझती थी। अपने घर की दहलीज को लांघकर अपने इलाके में महिला सशक्तिकरण की मिसाल बनी प्रतिमा पासवान अब पूरे इलाके में फुटबॉल वाली दीदी के नाम से भी किशोरियों में लोकप्रिय हैं। वह गौरव ग्रामीण महिला विकास मंच की संयोजिका हैं।

आंबेडकर की बेटियां

बाबा साहब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने जिस समाज की बात कही थी, उसमें महिलायें मुखर थीं। प्रतिमा के अनुसार यही उनके लिए प्रेरक तत्व है। शुरू में जब उन्होंने फुटबॉल खेलने को बच्चियों को प्रोत्साहित करना शुरू किया तब एक पंच लाइन की आवश्यकता थी। तभी जेहन में यह बात आयी। हम आंबेडकर की बेटियां हैं।

उनके मुताबिक फुटबॉल खेलने वाली लड़कियों में दलित, पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़ा वर्ग और मुस्लिम समाज की लड़कियां शामिल हैं। शुरू के दिनों में कुछेक ब्राह्म्ण व भुमिहार समाज की लड़कियां आगे आयी थीं, परंतु वे बहुत दिनों तक हमारे साथ नहीं टिक सकीं।

प्रतिमा ने बताया कि वह 2011 से हर साल 24 जनवरी को किशोरी दिवस और 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर फुटबॉल प्रतियोगिताओं का आयोजन करती हैं। इसके अलावा गांवों में स्थानीय स्तरों पर प्रतियोगिताओं का आयोजन चलता रहता है। वर्तमान में उनके पास 60 टीमें हैं।

फुटबॉल के साथ सेक्स अधिकार की जानकारी भी

राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो द्वारा जारी सूचनाओं के अनुसार बिहार में 383 महिलाओं के साथ बलात्कार शादी का प्रलोभन देकर किया गया। इनमें से अधिकांश मामले गांवों के हैं। यह आंकड़ा 2016 का है। ये वे मामले हैं जिन्हें पुलिस थानों में दर्ज किया गया। जबकि अधिकांश मामले पुलिस थानों में दर्ज ही नहीं होते। इन घटनाओं की एक बड़ी वजह सेक्स के बारे में जागरूकता नहीं होना है।

फुटबॉल वाली दीदी के रूप में लोकप्रिय हैं प्रतिमा पासवान

प्रतिमा ने फुटबॉल के जरिए बदलाव की यह कोशिश 2011 में शुरू की। पूछने पर प्रतिमा ने बताया कि उनके जेहन में शुरू से गांव की बच्चियों में यौन संबंधी जानकारी का अभाव व इसके कारण उन्हें होने वाली परेशानियों के प्रति जागरूक बनाने की योजना थी। फुटबॉल ने बड़ी मदद की।

गांवों में सेक्स संबंधी जानकारी का अभाव

प्रतिमा ने बताया कि प्रारंभिक दिनों में उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ता था। जब वह गांव की लड़कियों को प्रजनन एवं यौन अधिकार संबंधी जानकारियां देती थीं तब लड़कियों के माता-पिता उन्हें ऐसा करने से रोकते थे। कई जगहों पर विरोध का सामना भी करना पड़ा।

प्रतिमा कहती हैं कि शुरू में उन्होंने अभिभावकों को सचेत किया कि जानकारी नहीं रहने के कारण गांव की लड़कियां यौन शोषण की शिकार हो जाती हैं। उन्हें एबार्शन जैसी तकलीफदेह स्थिति से गुजरना पड़ता है। इस तरह की कई घटनायें पूर्व में घटित हो चुकी हैं।

प्रतिमा बताती हैं कि गांवों में शहरों की तुलना में सेक्स एक ऐसा विषय है जिसके बारे में कोई बात नहीं करना चाहता है। यहां तक कि महिलायें भी बात करने से हिचकती हैं। कम उम्र में शादी के बाद होने वाले सेक्स के कारण उन्हें जो परेशानी होती है, वह तो आम बात है। सेक्स का एक पहलू आनंद भी है लेकिन गांवों की महिलायें इस आनंद से वंचित रहती हैं। उन्हें रोज अपने पति द्वारा बलात्कार सहना पड़ता है।

उम्र के तीसरे दशक की शुरूआत में अपनी पढ़ाई फिर से शुरू करने के बाद अब कानून की पढ़ाई कर रही प्रतिमा का कहना है कि गांवों में किशोरी बच्चियों को सेक्स नॉलेज जरूर दिया जाना चाहिए। ताकि वह स्पर्श का मतलब समझ सकें और विरोध कर सकें।

फुटबॉल के कारण मिली आजादी

फुटबॉल खेलने वाली अल्प्संख्यक किशोरी नुसर्रत का कहना है कि शुरू में उनके माता-पिता और भाईयों ने विरोध किया था। घर से बाहर निकलने पर पाबंदी थी। टीशर्ट और हाफ पैंट पहनना तो कल्पना के परे था। परंतु प्रतिमा दीदी ने घरवालों को समझाया तब उसे खेलने की अनुमति मिली।

जीत का अहसास

अपनी टीम के लिए डिफेंडर के रूप में खेलने वाली रंजू के माता-पिता दलित व भूमिहीन हैं। माता-पिता कम उम्र में शादी कर देना चाहते थे। परंतु अब वे समझ चुके हैं और उन्होंने मुझे आगे पढ़ने और खेलने की अनुमति दे दी है। रंजू बिहार के लिए खेलना चाहती हैं।

आगे आये राज्य सरकार

प्रतिमा के अनुसार बिहार राज्य खेल प्राधिकरण उनकी कोई मदद नहीं कर रहा है। कई बार उन्होंने संबंधित मंत्री और अधिकारियों काे पत्र लिखा और सहयोग की मांग की। परंतु सब व्यर्थ रहा।

वह कहती हैं कि गांवों में खेलने का मैदान खत्म होता जा रहा है। इससे बच्चों में खेल के प्रति लगाव कम हो रहा है। यदि राज्य सरकार खेलों का विकास करना चाहती है तो गांवों में खेलों के लिए आवश्यक स्टेडियम बनवाये। साथ ही किशोरी बच्चियों को प्रोफेशनल कोचिंग की सुविधा भी मिले। फिलहाल झारखंड की एक स्वयं सेवी संस्था ‘युवा’ हमारी सहायता कर रही है। उसके कोच ने हमारी लड़कियों को प्रशिक्षण दिया है।

‘युवा’ संगठन की स्थापना 2009 में एक अमेरिकी नागरिक फ्रांज गैसलर ने किया था। उस समय वे एक कंपनी में वित्तीय सलाहकार के रूप में कार्य कर रहे थे। बाद में उनका संगठन झारखंड में सक्रिय हुआ। वहां ‘युवा’ ने हजारों की संख्या में किशोरी बच्चियों को प्रशिक्षण दिया है।

प्रतिमा कहती हैं कि स्वयं सेवी संस्थाओं की अपनी सीमा होती है। यदि राज्य सरकार अपनी खेल नीति में आवश्यक सुधार कर किशोरी बच्चियों को प्रोत्साहित करे तो संभव है कि आने वाले समय में बिहार की बेटियां भी बिहार और भारत का नाम ऊंचा कर सकती हैं। आवश्यकता है केवल एक सकारात्मक सोच की।


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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