साहित्य संसार मे कुछ प्रतिभाएं ऐसी होती है,जो अपनी चमक से साहित्य प्रेमियों को प्रेरित करती रहती है। ऐसे ही मराठी दलित साहित्य में गंगाधर पानतावणे (28 जून 1937 – 26 मार्च 2018) एक सजग सामाजिक कार्यकर्ता के साथ एक सफल साहित्यकार के रूप में भी उभरे है। उन्होंने अस्मिता दर्श के माध्यम से मराठी दलित साहित्यकारों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। आज अस्मितदर्श केवल एक पत्रिका ही नही है बल्कि दलित दस्तावेज है।
इतिहास में जाए तो 1967 में औरंगाबाद के मिलिंद कॉलिज में अध्ययनरत छात्रों तथा अध्यापको ने मिलकर मिलिंद छात्र परिषद की स्थापना की थी। उस समय डॉ गंगाधर पांतवने , वामन निम्बालकर, जाधव जी आदि ने अस्मितदर्श की शुरुआत की थी। अस्मिता के प्रथम अंक (1968) में महाराष्ट्र के सांस्कृतिक संघर्ष और साहित्यक समस्यओं पर चर्च हुई थी। बाद में अस्मितदर्श का रजिस्ट्रेशन करा कर पांतवने जी पत्रिका को सुचारू रूप से सम्पादन कर आगे बढ़ाया। कहना न होगा कि अनेक मराठी दलित लेखकों, नाट्यकारों तथा कवियों को पहचान दिलाई। मराठी दलित साहित्य में यह उनकी उपलब्धि ही कही जायगी।
मेरी उनसे पहली मुलाकात नागपुर में हुई। जहाँ 30, सितम्बर,1995 को फुले आम्बेडकरवादी लेखक संघ की ओर से हिंदी दलित साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया गया था। डॉ विमल कीर्ति इसके संयोजक थे। सम्मेलन का उदघाटन डॉ साहेब के द्वारा होना था और अध्यक्षता मुझे करनी थी। मेरे लिए यह बहुत महत्वपूर्ण दिन था। जब मुझे गंगाधर पानतावणे जी का सानिध्य प्राप्त हुआ। इसके बाद दूसरी बार मेरी मुलाकात जा हुई तब में औरंगाबाद रेल मंत्रालय के तहत हिंदी सलाहकार समिति के सदस्य के रूप में गया था। एक रात में उन्ही के निवास पर रह। उनके घर की दूसरी मंजिल पर बने पुस्तकालय में दलित साहित्य पर कुछ किताबें पढ़ी। तीसरी बार तब में शिमला में भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में फेलो था और मराठी तथा हिंदी रंगमंच विषय पर शोध कर रहा था। सम्भवतः नवम्बर,2008 में औरंगाबाद जाना हुआ। दलित साहित्य के साथ ब्लैक लिटरेचर पर भी उनकी पकड़ थी। उनके द्वारा लिखित बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर और पत्रकारिता महत्वपूर्ण पुस्तक है। अस्मिता दर्श का सम्पादन वे नियमित करते है। इसे उन्होंने चुनौती भी माना और उसे पूरा भी किया। ऐसे समय जा अधिकांश मराठी दलित लेखक अपनी अपनी दौड़ में शामिल हो आकाश छूने की चेष्टा में लगे थे तब वे जमीन पर रहकर ही साहित्य साधना में गम्भीरता से कार्य कर रहे थे। उन्हें न किसी से शिकायत थी और न किसी से दुःख। सही कहा जाए तो वे बाबा साहेब के कार्य को ही आगे बढ़ा रहे थे।
उनका जन्म 28 जून, 1937 को नागपुर की पांचपावली बस्ती में हुआ था। उनके पिता विठोवा अधिक पढे लिखे नही थे लेकिन आम्बेडकर के समतावादी आंदोलन से जुड़ गए थे। उनके सरनेम पानतावणे का अर्थ था पानी गर्म करने वाले। उनका जीवन बहुत गरीबी में बीता। जैसे तैसे कर शिक्षा पूरी की और मिलिंद महाविद्यालय में मराठी साहित्य के प्राध्यापक के रूप में 19 जून, 1962 से कार्य आरम्भ किया। 1981 में उन्होंने बाबा साहेब डॉ अम्बेडकरांची पत्रकारिता विषय पर पीएचडी की उपाधि अर्जित की थी। इससे पहले करीब 9 वर्ष की उम्र में 1946 में बाबा साहेब जब नागपुर आये थे तो उन्हें देखकर वे अभिभूत हुए बिना न रहे थे दूसरी बार जब बाबा साहेब नागपुर आये तो उनसे मिलने तथा बात करने का अवसर मिला। वे अध्ययन, अध्यापकी और संपादकीय के साथ वे आलेख और नाटक भी लिखते थे। ‘मृत्युशाला’ उनके द्वारा ही लिखा हुआ नाटक है। लेखन के साथ वे हर वर्ष अस्मितदर्श साहित्य सम्मेलन भी कराते थे। वे अक्सर कहा करते थे कि दलित लेखकों को भाषा का ध्यान रखना चाहिए । उन्हें लिखते हुए संयम बरतना चाहिए। दूसरे मरने वाले व्यक्ति को स्वर्गवासी , न कहते हुए स्मृतिशेष कहना या लिखना चाहिए।
उनके जीवन की एक घटना का यहाँ जिक्र करना जरूरी है। दलित समाज का व्यक्ति कितना भी प्रतिभाशाली हो सवर्ण जाति के सनातनियो को वह रास नही आता है। अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद के लिए जब वे खड़े हुए तो सनातनियो द्वारा उनका विरोध हुआ। किसी ने कहा, मां शारदा का दरबार भ्रष्ट हो जायेगा तो किसी ने कहा हमारा साहित्य खत्म हो जायेगा। संस्कृति बर्बाद हो जायेगी। ऐसे समय लोकमत के सम्पादक बाबा दलवी ने लिखा था, मराठी साहित्य के क्षितिज पर आज जो दलित साहित्यकार कार्य कर रहे है,उनमे गंगाधर पानतावणे जी का नाम सबसे आगे है। अंततः तमाम विरोध के बावजूद 2008 में वे प्रथम विश्व मराठी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में निर्विरोध चुने गए। यह सम्मेलन अमेरिका के कैलिफोर्निया के सेन होजे शहर में हुआ था।
हाल ही में उन्हें भारत सरकार के द्वारा पद्मश्री प्रदान करने की घोषणा हुई । गंगाधर पानतावणे जी निश्चित ही एक प्रखर लेखक और उदार व्यक्तित्व थे।मेरी उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in
फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें :