देशभर में दलित चेतना का अलख जगाया और दलित राजनीति की जमीन तैयार की
जोती राव फुले से भीमराव आंबेडकर तक भारत में दलित आंदोलन का इतिहास जबरस्त उथल-पुथल भरा रहा है। एक तरफ ज्योतिबा का नवजागरण देशभर में फैल रहा था तो दूसरी तरफ इसे रोकने के लिए सवर्णों के प्रयास भी अत्याचार और बदमाशियों की हद लांघ रहे थे। लेकिन कुल मिलाकर बहुसंख्यक दलितों की जमात अपने अधिकारों को लेकर अंधेरे में ही थी। स्वामी अछूतानंद ने इसी अंधेरे में प्रकाश फैलाने का काम किया। दूसरे शब्दों में, उन्होंने ही पूरे देश में दलित चेतना जगाई, जिसकी जमीन पर भीमराव आंबेडकर की राजनीतिक पहल रंग लाई।

स्वामी अछूतानंद ((6 मई 1869 – 20 जुलाई 1933)
कँवल भारती के अनुसार 6 मई, 1879 को मैनपुरी के उमरी गांव में स्वामी अछूतानंद का जन्म हुआ था। बचपन का नाम था हीरालाल। इनके पूर्वज फरुखाबाद में सौरिख गाँव के रहने वाले थे। लेकिन सवर्णों के अत्याचार के कारण उन्हें गांव छोड़ना पड़ा और पूरा परिवार उमरी में आकर बस गया था। पूरी बस्ती इनके सतनामी चमार जाति के लोगों की थी। सात साल की उम्र में 1886 में हीरालाल का पलटन के स्कूल में दाखिला करा दिया गया। पढ़ने में रुचि थी, 1893 में चौदह वर्ष की उम्र में उन्होंने मिडिल की पढ़ाई पूरी कर ली।
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ये वो दौर था जब सामाजिक न्याय और अस्मिता के लिए दलितों का सवर्णों से जबरदस्त टकराव की स्थितियां थीं। लगभग पूरे उत्तरी भारत के दलितों के भीतर विद्रोह उभरने लगा था। क्रांति दस्तक दे रही थी। नवजागरण की हवा चल रही थी। शिक्षा के दरवाजे भी धीरे-धीरे खुलने लगे थे। सेना में दलितों की भर्ती होने से उन परिवारों की आर्थिक स्थिति ठीक-ठाक होने लगी थी। हीरालाल के चाचा को भी सेना में नौकरी मिल गई थी। इन्हीं परिस्थितियों में बालक हीरालाल का विकास हुआ।
बचपन से ही घुमक्कड़ी स्वभाव के हीरालाल 1905 में आर्य समाजी संन्यासी सचिदानंद के सम्पर्क में आये। कहना न होगा कि आर्य समाजियों ने दलितों की बस्तियों में जाकर उनके बीच हिन्दू धर्म की जड़ें जमा ली थीं। हीरालाल सचिदानंद के शिष्य बन गए और उनका नाम हो गया ‘स्वामी हरिहरानंद’। वे आर्य समाज के प्रचारक बन गए और कार्यक्रमों में भी जाने लगे। सत्यार्थ प्रकाश तथा वेदों का अध्ययन किया। पर उनके भीतर नए-नए सवाल उभरने लगे, जिनका आर्य समाज में उत्तर न मिलने पर उन्हें बेचैनी होने लगी।
अंततः सात वर्ष तक प्रचारक का कार्य करने के बाद 1912 में उन्होंने आर्य समाज छोड़ दिया और कबीरपंथी हो गए। यहाँ से उनके जीवन में नया अध्याय शुरू होता है। अब वे ‘हरिहरानंद’ से ‘हरिहर’ हो गए। उनके भीतर बहुत कुछ बदल रहा था और लोकहित, समाजहित के विचार आने लगे थे। उन्हें हिंदुओं की कथनी और करनी का अंतर दिखने लगा था। ब्राह्मणवाद की परतें उघड़ने लगी थीं। उन्हें ऐसे अभियान की जरूरत महसूस होने लगी थी, जो दलितों को हिन्दू धर्म और उसकी अमानवीय परम्पराओं से मुक्ति दिलाए जिससे उनके जीवन मे क्रांतिकारी बदलाव आये। उन्होंने ‘अछूतानंद’ के नाम से बहुजन-हित के आलेख लिखना शुरू कर दिया।
अब हरिहर उर्फ अछूतानंद के सामने दलित समाज का यथार्थ था, जिसे बदलना था। उन्होंने सबसे पहले समाज सुधार का कार्य हाथ में लिया। इसके लिए उन्होंने दलितों की बस्तियों और गांवों में जाना शुरू किया। भ्रमण के साथ वे अध्ययन भी करते रहते थे। कबीर और रैदास को उन्होंने काफी पढ़ लिया था। उनसे उन्हें खूब प्रेरणा मिलती थी। आगरा में समाज सुधार के उनके प्रयासों से दलित परिवारों के बीच शिक्षा आने लगी और उनकी आर्थिक स्थिति में भी सुधार होने लगा। वीर रतन देवी दास जटिया तथा यादराम जटिया आदि से उन्हें समाज सेवा के कार्यों में बड़ी मदद मिली। इसके बाद उन्होंने दिल्ली की तरफ रुख किया।
1922 में स्वामी अछूतानंद की अध्यक्षता में दिल्ली में जनसभा हुई, जिसमें प्रिंस ऑफ वेल्स को आमंत्रित कर उनका स्वागत किया गया। इस समारोह मे स्वामी जी ने प्रिंस को 17 सूत्री मांग- पत्र दिया, जिसमे नगरपालिकाओं, टाउन एरिया परिषद आदि में अछूत जातियों को प्रतिनिधित्व दिए जाने की मांग की गई थी। उन्होंने दलितों के राजनीतिक अधिकारों का नाम “मुल्की हक” रखा था। वे जनसभाओं में अपने भाषण के अंत में यह गीत गाते थे- “जागो जी जागो असली नाम डुबाने वाले/ वंश डुबाने वाले, राज गंवाने वाले…”
युवराज के सामने ही उन्होंने यह घोषणा की कि भारत के दलित “आदि हिन्दू” हैं और आर्यों से उनका कोई संबंध नहीं है। बाद में उन्होंने “आदि हिन्दू” की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए “आदि वंश अष्टक” लिखा और उसे छपवाकर बंटवाया। इस तरह स्वामी जी ने दलित समाज को नया विचार दिया, जो उन्हें उनके इतिहास की ओर ले जाता था। यह भी कहा जा सकता है कि उनका यह विचार दलितों के उनकी जड़ों की ओर लौटने का संकेत था।
1923 में स्वामी जी ने इटावा आए और लगभग एक वर्ष तक उन्होंने शहर की दलित बस्तियों और गांवों के दौरे किये। दलितों के दुखों, उनकी समस्याओं को जाना। उसी वर्ष इटावा के बड़े डाकखाने के मैदान में ऐतिहासिक सम्मेलन हुआ, जिसमें बड़ी संख्या में लोग आए थे। इससे स्वामी जी की प्रसिद्धि में जबरदस्त इजाफा हुआ। इसके बाद दलित जागरण का दौर शुरू हुआ। पहला वार्षिक सम्मेलन दिल्ली में 1923 में, फिर 1924 में नागपुर में, 1925 में हैदराबाद में, 1926 में मद्रास में, 1927 में इलाहाबाद में, 1928 में बम्बई में, 1929 में अमरावती में हुआ। लखनऊ, कानपुर, मेरठ, मैनपुरी, गोरखपुर, फरुखाबाद और आगरा में भी बड़ी सभाएं हुईं।
1928 में बम्बई में “आदि हिन्दू आंदोलन” के राष्ट्रीय अधिवेशन में पहली बार बाबासाहेब डॉ आंबेडकर की स्वामी अछूतानंद जी से भेंट हुई थी। उस समय बाबा साहेब ने इन्हें राजनीतिक लड़ाई में सहायता करने के लिए धन्यवाद दिया था। बाबा साहेब ने एक बार उन्हें पत्र भी लिखा था, जिसमें उन्होंने उनका उत्साह बढ़ाया था। स्वामी अछूतानंद जबरदस्त स्वाभिमानी थे और नेहरू जैसी शख्शियत को भी जवाब देने में पीछे नहीं रहते थे। कांग्रेस ने दलित वर्ग संघ और श्रद्धानन्द मेमोरियल ट्रस्ट बनवाने में कुछ लोगो की जो मदद की थी, वह असल में आंबेडकर और स्वामी अछूतानंद के प्रभाव को कम करने का खेल था।
स्वामी जी का साहित्य
स्वामी अछूतानंद ने कानपुर में आदि हिन्दू प्रेस स्थापित किया। इस प्रेस से 1925 से 1932 तक “आदि हिन्दू” मासिक पत्र का नियमित प्रकाशन हुआ। उनके नाटकों में समुंदर मंथन, बलि छलन, एकलव्य और सुदास तथा देवदास थे। 9 फरवरी, 1932 को ग्वालियर में आदि हिन्दू महासभा के कार्यक्रम में उनके द्वारा दिए गए भाषण को हम दलित आंदोलन के इतिहास में मील का पत्थर कह सकते हैं।
स्वामी अछूतानंद ने भारत में सामाजिक बदलाव की हवाओं को तेज किया, जो बाद में आंधी के रूप में परिवर्तित हुईं।
20 जुलाई, 1933 को 54 वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई।
उनकी प्रभात फेरी कविता की दो पंक्तियां देखें-
“ए आदिवंश वालों जागो हुआ सवेरा
अब मोह नींद त्यागो देखो हुआ उजेरा…..”
(कॉपी एडिटर : अनिल)
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