भिक्खु बोधानंद (1874-11 मई, 1952) पर विशेष
भदंत बोधानन्द का त्रिरत्नी आन्दोलन
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ‘जिनका मैं कृतज्ञ’ में जिन महानुभावों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है, उनमें भदन्त बोधानंद भी हैं। उन्होंने लिखा है कि ‘बुद्ध का नाम मैं पहले भी सुन चुका था। पर, सबसे पहले जिसने पुराने बौद्ध धर्म का ज्ञान-दरवाजा मेरे लिए खोला, वह स्थविर बोधानंद ही थे।’ राहुल सांकृत्यायन 1916 के क्वार-कातिक (अक्टूबर-नवम्बर) महीने में उत्तर प्रदेश के कुछ स्थानों की यात्रा करते हुए लखनऊ के आर्य समाज में ठहरे थे। वहीँ किसी ने उन्हें उनके बारे में बतलाया और वह लाटूश रोड स्थित एक छोटे से विहार में उनसे भेंट करने गये। बाद दूसरी बार वह पंद्रह वर्ष बाद 1931 में मिले। वह लिखते हैं कि ‘अब सचमुच ही वह महास्थविर हो गये थे। भारतीयों में बौद्धधर्म का दीपक पुन: जलाने वाले वह प्रथम पुरुष थे।’
भदन्त बोधानंद महास्थविर जन्म से ब्राह्मण थे और 1874 में मिर्ज़ापुर जिले के चुनार कस्बे में वारेन्द्र श्रेणी के बंगाली ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। उनके मातापिता की मृत्यु उनकी बालावस्था में ही हो गई थी। उनकी एक मौसी थी, जो बनारस में रहती थी। वह उन्हें अपने साथ बनारस ले गयी और वहीँ उन्होंने उनका लालन-पालन किया। किन्तु जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती गई, वे अपने घर-समुदाय के धार्मिक वातावरण से विमुख होते गये। वर्णव्यवस्था और सामाजिक असमानता के अमानवीय वातावरण से उनका दम घुटता था। उन्होंने परिवार में रहकर ही उसके विरुद्ध विद्रोह शुरू कर दिया। बनारस में रहते हुए वह अनेक साधु-संतों के सम्पर्क में आये, और स्वयं भी साधु बन गये। इसी समय वह अपने मूल नाम मुकुंद प्रकाश से स्वामी बोधानंद हो गये। साधुवेश में उन्होंने भारत के अनेक स्थानों का भ्रमण किया और लगभग बारह साल तक पंजाब के सिंध में रहे।
इस दौरान उन्होंने विभिन्न धर्मों और समाजों का तुलनात्मक अध्ययन किया। इससे उन्हें सही धर्म को समझने में बड़ी मदद मिली। इस अध्ययन यात्रा में वह ब्रह्मसमाज, आर्यसमाज और थियोसोफिकल सोसाइटी से होते हुए ईसाईयत तक आये। जब 1896 में बनारस में अकाल पड़ा और उसमें उन्होंने ईसाई मिशनरियों को अकाल-पीड़ितों की सेवा करते हुए देखा, तो वह ईसाईयत से बहुत प्रभावित हुए, और ईसा मसीह की करुणा का ऐसा प्रभाव उनके हृदय पर पड़ा कि उन्होंने ईसाई बनने का निश्चय कर लिया था। किन्तु इसी दौरान वाराणसी के सारनाथ में, जहाँ बुद्ध ने धर्मप्रवर्तन किया था, उनकी भेंट श्रीलंका के कुछ बौद्ध भिक्षुओं से हो गई, जो थियोसोफिकल सोसाइटी से भी जुड़े होने के कारण ईसा मसीह को भी मानते थे। उन भिक्षुओं ने उन्हें बताया कि तुम्हें ईसाई बनने की आवश्यकता नहीं है, तुम्हारे ही देश में महाकारुणिक बुद्ध हुए हैं। तुम उनकी शरण में जाओ। उन्होंने उन्हें ‘वसलसुत्त’ पढ़ने को दिया, जिसे पढ़कर वह हर्ष से उछल पड़े थे, क्योंकि जो वर्णव्यवस्था और जातिभेद का खंडन तथा मानव-मानव के प्रति करुणा का भाव वह चाहते थे, वह उन्हें बुद्ध में मिल गया था। इसके बाद उन्होंने बौद्धधर्म का व्यापक अध्ययन किया और 18 वर्ष बाद 1914 में वह कलकत्ता जाकर विधिवत बौद्धधर्म में दीक्षित हो गये। उनके दीक्षा-गुरु बने भदंत कृपाशरण महास्थविर और साक्षी बने लंका के अनागरिक धर्मपाल।
वह भिक्षु बोधानंद बनकर लखनऊ लौटे, लाटूश रोड स्थित, जो अब गौतम बुद्ध मार्ग कहलाता है, बुद्ध विहार में रहकर ‘भारतीय बौद्ध समिति’ बनाकर धर्मप्रचार में लग गये। 1925 में उन्होंने रिसालदार पार्क में साथियों और शिष्यों की सहायता से कुछ जमीन खरीदी, और उस पर भव्य बुद्ध विहार बनाकर उसे सामाजिक गतिविधियों का केंद्र बना दिया। राहुल जी के अनुसार, उनकी तीन जबर्दस्त आकांक्षाएं थीं— (1) बुद्ध को उनकी जन्मभूमि में फिर से लौटा कर लाना, (2) भारत से जातपांत का उन्मूलन करना, और (3) पुस्तकावलोकन। उनकी पहुँच निम्न मध्यम-वर्ग के शिक्षित या पिछड़ी जातियों के लोगों तक थी। भिक्षा के लिए कोई दिक्कत नहीं थी, किसी घर में भी जाकर भोजन कर सकते थे। उन्होंने बड़ी संख्या में पुस्तकें इकट्ठी की थीं, जिसे देखकर आश्चर्य होता था। अपने पुस्तकालय की हजारों पुस्तकों में प्राय: सभी को उन्होंने पढ़ा था। उनमें बंगला, हिंदी, पालि, अंग्रेजी में सभी तरह की पुस्तकें थीं, जिनसे उनकी सुरुचि और निष्ठा का पता चलता है।
यहाँ यह उल्लेख करना भी प्रासंगिक होगा कि डा। बाबासाहब आंबेडकर बौद्धधर्म पर उनके विशद अध्ययन से इतने प्रभावित हुए थे, कि उन्होंने अपनी पहली भेंट में ही उनके समक्ष बौद्धधर्म में जाने की इच्छा प्रकट कर दी थी। दूसरी बार जब वे लखनऊ गये, तो सविता से विवाह कर चुके थे। जब वे सपत्नी रिसालदार पार्क के बुद्ध विहार में जाकर बोधानंद जी से मिले, तो बोधानंद जी उन्हें देखकर बोले, ‘आप तो बौद्ध बनने वाले थे। आपने तो विवाह कर लिया।’ इस पर बाबासाहेब ने जवाब दिया था, ‘विवाह से मेरा निर्णय नहीं बदलेगा। मेरे साथ ये भी बौद्धधर्म ग्रहण करेंगी।’ उनकी इच्छा भदन्त बोधानन्द जी से ही दीक्षा लेने की थी, पर तब तक उनका परिनिर्वाण हो गया था।
उन्होंने अपने जीवन में तीन किताबें लिखी थीं, जो उन्होंने जिज्ञासु जी को बोलकर लिखवाई थीं। असल में उनके दाहिने हाथ की हथेली किसी बोतल का कार्ग दबाते समय शीशा गढ़ जाने से पक गई थी, जो काफी इलाज के बाद भी ठीक नहीं हो पायी थी। इसके कारण लिखते समय हाथ में कम्पन होता था, और वह ठीक से लिख नहीं पाते थे। जिज्ञासु जी ही उनके आजीवन लेखक रहे। उनकी पहली किताब ‘मूल भारतवासी और आर्य’ है, जो 1930 में एडवोकेट रामचरन की आर्थिक सहायता से छपी थी। दूसरी किताब ‘भगवान गौतम बुद्ध : जीवनी और उपदेश’ को स्वयं जिज्ञासु जी ने अपने बहुजन कल्याण प्रकाशन से प्रकाशित किया था, जिसका 1965 में छठा संस्करण प्रकाशित हुआ था। तीसरी किताब ‘बौद्ध चर्या पद्धति’ है, जिसे 1947 में स्वामीजी ने श्री देवप्रिय बलीसिंह की सहायता से अपने बुद्ध विहार से ही प्रकाशित किया था।
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भदन्त बोधानंद जी ने बौद्धधर्म के प्रचार के साथ-साथ जो सबसे महान काम किया, वह ‘बहुजन क्रान्ति’ थी। दलित-पिछड़ों को जगाने का कार्य उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था, जिसे पूरा करने में वह प्राणपण से लगे हुए थे। इसके लिए उन्होंने 1928 में लखनऊ में नवरत्न कमेटी बनाई थी। इस नवरत्न कमेटी में जिन लोगों को उन्होंने शामिल किया था, वे सभी अपने क्षेत्र के जुझारू सामाजिक कार्यकर्त्ता थे। इनमें (1) एक वह स्वयं थे, इसके बाद थे (2) स्वामी अछूतानन्द, (3) रायसाहेब रामसहाय पासी, (4) रायसाहेब रामचरन मल्लाह, (5) एडवोकेट शिवदयाल सिंह चौरसिया, (6) चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु, (7) महादेव प्रसाद धानुक, (8) वैद्यरत्न बदलूराम रसिक, और (9) एडवोकेट गौरी शंकर पाल। इसके सिवा रामचरन भुर्जी, कुदरूतुल्लाह धुनिया, छंगा लाल बहेलिया, राय साहेब श्याम लाल बरेठा और गयाप्रसाद कुरील जैसे सामाजिक कार्यकर्त्ता भी उनके सहयोगी थे।
बाद में बोधानंद ने इसी नवरत्न कमेटी को ‘हिन्दू बैकवर्ड क्लासेज लीग’ में बदल दिया था, जिसके संयोजक चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु, अध्यक्ष रायसाहेब रामचरन एडवोकेट, प्रधानमन्त्री शिवदयाल सिंह चौरसिया एडवोकेट और मंत्री गौरीशंकर पाल बनाये गये थे। उत्तर प्रदेश का यह पहला संगठन था, जिसने बहुजन समाज के संवैधानिक अधिकारों के लिए जोरदार अलख जगाई थी कि सरकार हिल गयी थी। किन्तु जैसा कि क्रान्ति से ज्यादा प्रतिक्रान्ति की गति तीव्र होती है, यह अलख भी कांग्रेस की प्रतिक्रान्ति की भेंट चढ़ गयी। उसी दौरान गाँधी जी लखनऊ आये, तो ‘हिन्दू बैकवर्ड क्लासेज लीग’ के शिष्ट मंडल ने गाँधी जी को ज्ञापन दिया, जिसमें पिछड़े वर्गों के मानवीय अधिकारों और सुविधाओं की मांग की गयी थी। जिज्ञासु जी लिखते हैं कि उन मांगों को पढ़कर गाँधी जी अवाक रह गये, और शिष्ट मंडल से बोले— ‘मेरी राय में अभी आप लोग इस आन्दोलन को स्थगित कर दीजिये, क्योंकि इसके उग्र रूप धारण करने से देश में फूट पड़ जाने का भय है, जिससे हमारी आज़ादी की लड़ाई को हानि पहुंचेगी। अभी आप लोगों को सहयोगी बनकर आज़ादी की लड़ाई जीतना चाहिए। आज़ादी मिलने पर हमारा पहला काम होगा, दबी-पिछड़ी जातियों को समान सामाजिक स्तर पर लाना।’
किन्तु वास्तव में गाँधी जी का आश्वासन ‘हिन्दू बैकवर्ड क्लासेज लीग’ को खत्म करने के लिए था, उनका उत्थान करने के लिए नहीं। लीग के नेताओं ने गाँधी जी के आश्वासन पर विश्वास करके अपनी सारी गतिविधियाँ समाप्त कर दीं थीं और कांग्रेस के संग्राम में शामिल हो गये थे। पर आज़ादी मिलने के बाद न तो गाँधी जी ने, और न कांग्रेस ने पिछड़े वर्गों की सुध ली। लीग के नेता कांग्रेसी हो गये थे, पर उनका आन्दोलन खत्म हो गया था।
जिज्ञासु जी ने एक जगह लिखा है, ‘हिन्दू लोग महास्थविर बोधानंद जी को ‘स्वामीजी’ कहकर पुकारते थे और हम लोग उनके शिष्य गण भी बौद्ध पद्धति के अनुसार उन्हें ‘भन्ते’ न कहकर स्वामी जी ही कहा करते थे, और स्वामीजी शब्द को वह सप्रेम ग्रहण भी कर लेते थे।’
बोधानंद जी ने एक और आन्दोलन आरम्भ किया था, और वह था ‘त्रिरत्नी’ अन्दोलन। उन दिनों दलित जातियों में कबीर पंथ का जोर था। कबीर पंथी लोग गले में चन्दन की बनी हुई कंठी तागे में पिरोकर पहिनते थे। लेकिन यह कंठी पहिनने के बाद भी वे रूढ़ीवादी और ब्राह्मणी धारणाओं को नहीं छोड़ पा रहे थे। इसी के विरुद्ध बोधानंद जी ने ‘तीन कंठी’ अर्थात ‘त्रिरत्नी’ का अन्दोलन चलाया। इसमें वह अपने भक्तों को पंचशील के प्रतीक स्वरूप पांच धागों में तीन मनके पिरोकर, जो बुद्ध, धम्म और संघ के प्रतीक थे, कंठी धारण कराते थे। और फिर उन्हें बुद्ध, धर्म और संघ के बारे में विस्तार से बताते थे। जब वह पंचशीलों को बताते थे, तो जो कबीर पंथी थे, उन्हें वे शील कबीर साहेब की ही शिक्षा लगते थे। इस प्रकार उन्होंने परम्परावादी दासता को तोड़ने का बड़ा काम किया था।
वास्तव में भदन्त बोधानंद जी की ख्याति दलित-पिछड़ी जातियों के उन्नायक के रूप में थी। और उनके द्वारा निर्मित बुद्ध विहार भी बहुजन कार्यकलापों का ही केंद्र बन गया था। किन्तु निरंतर संघर्ष और अध्ययन करते रहने से उनका स्वास्थ्य गिरने लगा था। और वह कैंसर की घातक बीमारी से ग्रस्त हो गये थे। इलाज के लिए उन्हें कलकत्ता के चितरंजन कैंसर अस्पताल में ले जाया गया। जहाँ कुछ समय के इलाज के बाद हावड़ा अस्पताल में भर्ती किये गये। परन्तु कैंसर ने उन्हें इस तरह जकड लिया था कि वह उससे मुक्त नहीं हो सके। अंत में, 11 मई 1952 को 78 वर्ष की आयु में वह इस संसार से विदा हुए।
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